BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Thursday, March 22, 2012

मेरे गांव में किसी के घर में चूल्‍हा नहीं जला!

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मेरे गांव में किसी के घर में चूल्‍हा नहीं जला!

23 MARCH 2012 NO COMMENT

♦ पलाश विश्‍वास

ज सुबह ही बसंतीपुर से भाई पद्मलोचन का फोन आ गया था। घर और गांव में सब कुछ ठीक ठाक है। पर खबर बहुत बुरी है। तब तक कोयला घोटाले की खबर या इस महाघोटाले की लीक होने की कोई खबर नहीं थी। अखबार नहीं आये और न ही टीवी खुला था। रात को पद्मलोचन से फिर बात हुई। आज मेरे गांव में किसी घर में चूल्‍हा नहीं जला। गांव की बेटी आशा ने कल देर रात सड़क हादसे में रुद्रपुर सिडकुल के रास्ते अपने पति को खो दिया।

मेरा गांव आज भी एक संयुक्त परिवार है, जिसकी नींव मेरे दिवंगत पिता, आशा के दादाजी मांदार मंडल और आंदोलन के दूसरे साथियों ने हमारे जन्म से पहले 1956 में डाली थी। ये लोग विभाजन के बाद लंबी यात्रा के बाद तराई में पहुंचे थे। भारत विभाजन के बाद सीमा पार करके बंगाल के राणाघाट और दूसरे शरणार्थी शिविरों से उन्हें लगातार आंदोलन के जुर्म में ओड़ीशा खडेड़ दिया गया था। वहां भी वे अपनी जुझारू आदत से बाज नहीं आये, तो तराई के घनघोर जंगल में फेंक दिया गया। बचपन में हमारे सोने और खाने के लिए किसी भी घर का विकल्प था। और पूरा गांव हमारी संपत्ति थी। हमने जंगल को आबाद होते देखा। जंगली जानवरों के साथ ही हम बड़े होते रहे। कीचड़ और पानी से लथपथ स्कूल जाते हुए आशा के पिता कृष्ण हमेशा हमारे अगुवा हुआ करते थे। वह बहुत अच्छा खिलाड़ी था। पर जब हम राजकीय इंटर कालेज के छात्र थे, तभी कृष्ण की शादी हो गयी। हमारे दोस्त मकरंदपुर के जामिनी की बहन से। हमारे डीएसबी पहुंचते न पहुंचते कृष्ण के पिता मांदार बाबू गुजर गये।

इसके बाद तो एक सिलसिला बन गया। एक-एक करके पुरानी पीढ़ी के लोग विदा होते रहे। मेरे पिता पुलिन बाबू, ताउ अनिल बाबू और ​​चाचा डॉ सुधीर विश्वास के साथ साथ ताई, चाची और आखिर मां भी चली गयीं। हमारे सामने गांव के बुजुर्ग वरदा कांत की मौत पहला ​​हादसा थी। फिर हमने एक एक करके गांव की जात्रा पार्टी के युवा कलाकारों को तब तराई में महामारी जैसी पेट की बीमारियों से दम तोड़ते देखा। हम बहुत जल्दी बड़े होते गये। युवा पीढ़ी के बाद बुजुर्गों की बारी थी। मांदार बाबू के बाद शिसुवर मंडल और अतुल शील भी चले गये।​
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​उन दिनों सिर्फ बसंतीपुर ही नहीं, समूची तराई और पहाड़ एक संयुक्त परिवार ही हुआ करता था। पहाड़ी, बंगाली, सिख, पूर्विया, मुसलमान, ब्राह्मण, दलित, पिछड़ा कोई भेदभाव नहीं था। पहाड़ और तराई के बीच कोई अलंघ्य दीवार नहीं थी। जब चाहा, तब हम तराई से पहाड़ को छू सकते थे। 2001 में भी जब कैंसर से पिता की मौत हुई, तब भी हमने पहाड़ और तराई को एक साथ अपने साथ खड़ा पाया।​

हमारे बीच खून का रिश्ता न हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। भाषाएं, धर्म और संस्कृतियां अलग अलग थीं। पर इससे भी कोई फर्क नहीं ​​पड़ा। हम सभी लोग एक ही परिवार में थे। हर गांव में हमारे रिश्तेदार अपने लोग। हमने तराई में अपने बचपन में जंगल के बीच बढ़ते हुए खुद को कभी असुरक्षित महसूस नहीं किया।​
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​हमारे डीएसबी में पहुंचते न पहुंचते कृष्ण का बेटा प्रदीप और बेटी आशा का जन्म हो चुका था। फिर आशा की मां गुजर गयी। कृष्ण ने दुबारा शादी नहीं की। हमने आशा को आहिस्ते-आहिस्ते बड़ा होते देखा। उसकी शादी के लिए खूब दबाव था। पर कृष्‍ण हड़बड़ी करने को तैयार नहीं था। रुद्रपुर कालेज जाकर वह एमए की पढ़ाई तक गांव की दुलारी बनी रही। हम जब भी देश के किसी भी कोने से गांव पहुंचते, अपने घर के आगे बाप-बेटी कुर्सी लगाये बैठे मिलते। फिर प्रदीप की शादी हो गयी। उसका बेटा हुआ। एकदम कृष्ण जैसा नटखट। बहू ने वकालत भी पास कर ली, शादी के बाद। बसंतीपुर में यह भी शुरुआत थी।​
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​आशा का शादी पर कृष्ण ने सबसे पहले फोन पर हमें गांव पहुंचने को कहा था। हम जा नहीं सके। फिर आशा की शादी के साल पूरे होते होते कृष्‍ण भी हमें छोड़ गया। गांव जाकर पुराने दिनों की तरह हमेशा हम साथ साथ रहते थे। यह डीएसबी से लगी आदत थी। अब वह साथ हमेशा के लिए छूट गया। ​
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​​आशा की शादी के बाद सड़क हादसों में हमारे भांजे शेखर और परम मित्र पवन राकेश के बेटे गौरव का निधन हो गया। पर हम टूटे नहीं। लेकिन आशा के साथ हुए इस हादसे के बाद हम उसका कैसे सामना करेंगे। आज सुबह से ही कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है। दोपहर को चूल्हे पर रखा चावल ही जल गया। न सविता को और न हमें होश था।​

देर रात रूद्रपुर से अंत्येष्टि के बाद बसंतीपुर वाले लौट आये। अब पूरा परिवार शोक मना रहा है। तराई पार के लोग अब भी साथ खड़े हो ​​जाते हैं। बसंतीपुर आज भी संयुक्त परिवार है। देस दुनिया के बदल जाने के बावजूद हमारे लिए राहत की बात यही है।

(पलाश विश्वास। पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, आंदोलनकर्मी। आजीवन संघर्षरत रहना और सबसे दुर्बल की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। अमेरिका से सावधान उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठौर।)

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