BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Friday, January 6, 2017

एकदम अकेली हो गयी शबाना। ओमपुरी का अवसान सांस्कृतिक आंदोलन के कोरे कैनवास को बेपरदा कर गया। पलाश विश्वास


एकदम अकेली हो गयी शबाना।

ओमपुरी का अवसान सांस्कृतिक आंदोलन के कोरे कैनवास को बेपरदा कर गया।

पलाश विश्वास

शबाना आजमी की तरह हमारा ओम पुरी के साथ लंबा कोई सफर नहीं है। ओमपुरी के निधन के बाद शबाना स्तब्ध सी हैं और मीडिया को कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं है।तडके सुबह ये खबर आई कि बॉलीवुड अभिनेता ओमपुरी को दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गयी है।

 परिवार से जुड़े सूत्रों ने कहा, आज सुबह दिल का तेज दौरा पड़ने से उनका उपनगरीय अंधेरी स्थित अपने घर पर निधन हो गया। 66 साल के ओमपुरी के निधन की खबर से पूरा बॉलीवुड,रंगकर्मी दुनिया अब सन्न हैं।

ओमपुरी का पूरा नाम ओम राजेश पुरी है। वह 66 वर्ष के थे। ओम पुरी का जन्म १८ अक्टूबर 1950 में हरियाणा के अम्बाला शहर में हुआ था। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने ननिहाल पंजाब के पटियाला से पूरी की। 1976 में पुणे फिल्म संस्थान से प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद ओमपुरी ने लगभग डेढ़ वर्ष तक एक स्टूडियो में अभिनय की शिक्षा दी। बाद में ओमपुरी ने अपने निजी थिएटर ग्रुप "मजमा" की स्थापना की। ओम पुरी ने नये सिनेमा के दौर में सुर्ख़ियों में आए थे।

हाशिमपुरा मलियाना नरसंहार के बाद नई दिल्ली से पैदल चलकर आजमगढ़ की बेटी शबाना आजमी ने राजा बहुगुणा,शमशेर सिंह बिष्ट,शंकरगुहा नियोगी जैसे प्रिय जनों के साथ मेरठ पहुंचकर जनसभा को संबोधित किया था।

तब मंच पर शबाना आजमी से संक्षिप्त सी मुलाकात हुई थी।लेकिन ओम पुरी या नसीर,या गिरीश कर्नाड,श्याम बेनेगल,गोविंद निलहानी,स्मिता पाटिल,दीप्ति नवल,अमरीश पुरी,नाना पाटेकर जैसे समांतर फिल्मों के कलाकारों से हमारी कोई मुलाकात नहीं हुई।

बाबा कारंथ ने युगमंच के साथ काम किया है।कोलकाता में गौतम घोष से भी मिले हैं।रुद्र प्रसाद सेनगुप्त से भी अंतरंगता रही है।संजना कपूर और नंदिता दास से भी संवाद की स्थिति बनी है।

फिरभी बिना मुलाकात हम इन लोगों से किसी न किसी तरह जुड़े हैं।वे गिरदा की तरह किसी न किसी रुप में हमारे वजूद में शामिल हैं।

मृणाल सेन और ऋत्विक घटक की फिल्मों के साथ सत्तर के दशक में लघु पत्रिका आंदोलन और समांतर सिनेमा के साथ रंगकर्म से हमारा गहरा ताल्लुकात ही हमारी दिशा तय करता रहा है।

टैगोर,नजरुल,माणिक,शारत,भारतेंदु,प्रेमचंद,मुक्तिबोध के साथ साथ कालिदास,शूद्रक,सोफोक्लीज और शेक्सपीअर के नाटकों से हमारा सौंदर्यबोध बना है।

नेशनल स्कूल आफ ड्रामा में हमारे नैनीताल के रंगकर्मियों की मौजूदगी इतनी प्रबल रही है कि कभी उसे नैनीताल स्कूल आफ ड्रामा कहा जाता है।

हमारे पसंदीदा हालिया कलाकार इरफान खान,हमारे अजीज दोस्त इदरीस मलिक की तरह ओम पुरी भी एनएसडी से जुड़े हैं।एन एस डी के बृजमोहन शाह,आलोकनाथ और नीना गुप्ता युगमंच के साथ काम करते रहे हैं।

अस्सी के दशक में जब समांतर सिनेमा की यादें एकदम ताजा थीं,शबाना और स्मिता परदे पर थीं,अचानक स्मिता पाटिल के निधन पर गहरा झटका लगा था।उसी के आसपास श्रीदेवी और कमल हसन की बेहतरीन फिल्म सदमा देखने को मिली थी।

श्रीदेवी,माधुरी या तब्बू या प्रियंका या दीपिका के लिए शबाना और स्मिता की तरह श्याम बेनेगल जैसा निर्देशक नहीं था।कोई ऋशिकेश मुखर्जी,बासु भट्टाचार्यऔर गुलजार भी नहीं। फिरभी वह तमस का समय रहा है।जो रामायण महाभारत के साथ राममंदिर आंदोलन में समांतर सिनेमा के साथ साथ लघु पत्रिका आंदोलन और भारतीय कला साहित्य सांस्कृतिक परिदृश्य का भी अवक्षय है।केसरियाकरण है।

बांग्ला फिल्मों की महानायिका सुचित्रा सेन हो या चाहे बालीवूड की बेहतरीन अभिनेत्रियां काजोल, कंगना,  तब्बू इनके लिए समांतर सिनेमा का कोई निर्देशक नहीं रहा है।फर्क क्या है,ऋत्विक घटक की फिल्मों मेघे ढाका तारा और कोमल गांधार की सुप्रिया चौधरी को देख लीजिये और बाकी उनकी सैकड़ों फिल्मों को देख लीजिये। सत्यजीत राय की माधवी मुखर्जी को देख लीजिये।सिर्फ शबाना अपवाद हैं,जो हर फिल्म में हर किरदार के रंग में रंग जाती हैं।अब भी मशाल उन्हीं हाथों में है।

काजोल जैसी अभिनेत्री की एक भी क्लासिक फिल्म उस तरह नहीं है जैसे नर्गिस की मदर इंडिया।समांतर फिल्मों के अवसान का यह नतीजा है मुकतबाजारी वाणिज्य में हमारी बेहतरीन मेधा का क्षय है।

अमरीश पुरी के निधन से झटका तो लगा लेकिन वे इस हद तक कामर्शियल फिल्मों के लिए टाइप्ड हो गये थे कि सदमा की हालत नहीं बनी।

समांतर फिल्मों के अवसान,श्याम बेनेगल के अवकाश और स्मिता के निधन के बाद भी शबाना आजमी,ओम पुरी,नंदिता दास के अभिनय और बीच बीच में बन रही नान कामर्सियल फिल्मों,गौतम घोष की फिल्मों के जरिये हम सत्तर के दशक को जी रहे थे।इधर बंगाल में  नवारुण भट्टाचार्य के कंगाल मालसाट और फैताड़ु का फिल्मांकन भी कामयाब रहा है।

इसके अलावा हमारे मित्र जोशी जोसेफ और आनंद पटवर्धन ने वृत्त चित्रों को ही समांतर फिल्मों की तरह प्रासंगिक बनाया है।

इस बीच प्रतिरोध का सिनेमा भी आंदोलन बतौर तेजी से फैल रहा है।

ओम पुरी हमसे कोई बहुत बड़े नहीं थे उम्र में।सत्तर के दशक से कला फिल्मों से लेकर वाणिज्य फिल्मों,हालीबूड ब्रिटिश फिल्मों में लगातार हम उनके साथ जिंदगी गुजर बसर कर रहे थे और अचानक जिंदगी में उनकी मौत से सन्नाटा पसर गया है।

शबाना आजमी या श्याम बेनेगल या गिरीश कर्नाड नाना पाटेकर को कैसा लग रहा होगा,हम समझ रहे हैं।गौतम घोष और रुद्र प्रसाद सेनगुप्त भी उनके मित्र थे।

करीब तीन सौ फिल्मों में काम किया है ओमपुरी ने।इनमें बीस फिल्में हालीवूड की भी हैं।फिल्म ऐंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) और नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से सिनेमा का प्रशिक्षण लेने वाले ओमपुरी ने दर्जनों हिट फिल्मों में काम किया। अर्धसत्य (1982), मिर्च मसाला (1986) समेत कई फिल्मों में उनके अभिनय को बेहद सराहा गया।

हरियाणा के अंबाला में जन्मे ओमपुरी ने बॉलीवुड के साथ-साथ मराठी और पंजाबी फिल्मों में भी अभिनय किया। वह पाकिस्तानी, ब्रिटिश और हॉलीवुड फिल्मों में भी पर्दे पर नजर आए। सिनेमा में उत्कृष्ठ योगदान के लिए उन्हें पदमश्री से भी सम्मानित किया गया।

फिल्म अर्धसत्य के लिए उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से भी नवाजा गया।

इप्टा आंदोलन,सोमनाथ होड़,चित्तोप्रसाद के भुखमरी परिदृश्य से बारतीय रंगकर्म और भारतीय सिनेमा का घना संबंध रहा है।

इप्टा अब भी है।वह असर नहीं है।

नोटबंदी के परिदृश्य में फिर बंगाल की भुखमरी की वह काली छाया गहराने लगी है।इप्टा की वह भूमिका दीख नहीं रही है।न मीडिया,न प्रिंट,न माध्यम,न विधा,न साहित्य और न संस्कृति में और न ही राजनीति में इस कयामती सच और यथार्थ का कोई दर्पण कही दीख रहा है।मनुष्यता के संकट में सभ्यता का अवसान है।

दूसरे विश्वयुद्ध की वजह से भारी मंदी और कृषि संकट की वजह से बंगाल में भुखमरी हुई थी।आज भारत में कृषि और कृषि से जुड़े समुदायों के कालाप कारपोरेट हमला सबसे भयंकर है।नोटबंदी के बाद जनपद और देहात कब्रिस्तान हैं तो किसानों के साथ साथ व्यवसायी भी कंगाल हैं।नौकरीपेशा मर मरकर जी रहे हैं।

हमारे पास अखबार नहीं हैं।

हमारे पास पत्रिकाएं नहीं हैं।

हमारे पास नाटक और रंगकर्म नहीं हैं।

हमारे पास टीवी नहीं है।

हमारे पास सिनेमा नहीं है।

साहित्य नहीं है।

राजनीति हमारी नहीं है और न हमारी राजनीति कोई है।

निरंकुश सत्ता के हम प्रजाजन गायभैंसो से भी बदतर हैं।

गायभैंसो की तरह हम सिर्फ आधार नंबर हैं।

फर्क यही है कि ढोर डंगरों के वोट नहीं होते और हमारे सिंग नहीं होते।

हमारी कोई संस्कृति नहीं है।

हमारा कोई इतिहास नहीं है।

हमारी विरासत से हम बेदखल हैं।

हम कायनात से भी बेदखल हैं।

कयामत के वारिशान हैं हम।

मोहनजोदोड़ो और हड़पप्पा की तरह हमारा नाश है।सर्वनाश है।

साम्राज्यवादी औपनिवेशिक शासन की वजह से देशज आजीविका,रोजगार और उत्पादन प्रणाली तहस नहस हो जाने की वजह से भारत और चीन की भुखमरी थी।

विडंबना है कि इस महादेश के दोनों नोबेल विजयी अर्थशास्त्री डां.अमर्त्य सेन और मोहम्मद युनूस को मुक्त बाजार विश्व व्यवस्था की वकालत करते हुए साम्राज्यवादी हाथ नहीं दिखे।

इप्टा ने भारतीय जनता का सभी माध्यमों में और विधाओं में जिस तरह प्रतिनिधित्व किया,उसी परंपरा में लघु पत्रिका आंदोलन,वैकल्पिक मीडिया और समांतर सिनेमा की विकास यात्रा है।

हमने शरणार्थी कालोनी के अपने बचपन में भारत की आजादी के जश्न से ज्यादा भारत विभाजन का शोक अपने लोगों के लहूलुहान दिमाग में सिखों, पंजाबियों,वर्मा के शरणार्थियों और बंगाली शरणार्थियों के नैनीताल की तराई में एक बड़े कैनवास में देखा है,जिसे जीते हुए तमस का वह टीवी सीरियल है,जिसमें भारत विभाजन की पूरी साजिश ओम पुरी ने अपने किरदार में जिया है।

मेरठ में मलियाना और हाशिमपुरा नरसंहार,सिखों के नरसंहार के परिदृश्य में श्वेत श्याम टीवी पर तमस की वह आग टीवी के परदे के अलावा हमने मेरठ की जमीन और आसमान में महीनों महीनों लगातार देखा है।

धुंआ धुआं आसमान देखा है।

इंसानी गोश्त की महक देखी है।

अल्लाहो अकबर और हर हर महादेव जयश्रीराम का उन्माद देखा है।

भोपाल त्रासदी के बाद बाबरी विध्वंस और गुजरात का नरसंहार देखा है।

तमस का सिलसिला जारी है।फिरभी इप्टा और समांतर सिनेमा और लघुपत्रिका आंदोलन हमारे साथ हमारी दृष्टि और दिशा बनाने के लिए मौजूद नहीं थे।

शेक्सपीअर, कालिदास,शूद्रक और सोफोक्लीज के नाटकों के पाठ के बाद सीधे रंगमंच की पृष्ठभूमि में समांतर सिनेमा हमारे लिए बदलाव का सबसे बड़ा ख्वाब रहा है,जबकि आजादी के बाद साठ के दशक में छात्रों युवाओं का मोहभंग हो चुका था।

मृणाल सेन की कोलकाता 71 और इंटरव्यू के साथ सत्यजीत रे की फिल्म प्रतिद्वंद्वी,ऋत्विक की तमाम फिल्मों के बाद अंकुुर,निशांत,आक्रोश,अर्द्धसत्य और मंथन जैसी फिल्में हमें बदलाव का ख्वाब जीने को मजबूर कर रही थीं।

इन सारी फिल्मों का देखना हमारे लिए साझा अनुभव रहा है,जिसमें गिरदा, कपिलेश भोज,हरुआ दाढ़ी,जहूर आलम,शेखर पाठक जैसे लोग साझेदार रहे हैं।

हिमपाती रातों में नैनीझील के साथ साथ मालरोड पर उन फिल्मों को हमने रात रातभर गर्मागर्म बहस में जिया है और उसकी ऊर्जा को हमने नैनीताल के रंगकर्म में स्थानांतरित करने की भरसक कोशिश की है।उन फिल्मों के सारे किरदार हमारे वजूद में शामिल होते चले गये और वे हमारे साथ ही रोज जी मर रहे हैं।ओम पुरी पहलीबार मरा नहीं है।स्मिता मरकर भी जिंदा हैं।

ओम पुरी से बड़े थे गिरदा और वीरेनदा।ओमपुरी से बड़े हैं आनंदस्वरुप वर्मा और पंकज बिष्ट।अभी पहली जनवरी को हमारे सोदपुर डेरे में 78 साल के कर्नल भूपाल चंद्र लाहिड़ी आये थे।वे देश की सरहदों पर लड़ते रहे हैं और 83-84 में नैनीताल कैंट के केलाखान में उनका डेरा भी रहा है।वे रंगकर्मी हैं।कैमरे के पीछे भी वे हैं।लिखते अलग हैं।इसपर तुर्रा सुंदरवन के बच्चों के लिए उनकी जान कुर्बान है।

अभी हमने उनके आदिवासी भूगोल पर लिखा बेहतरीन उपन्यास बक्सा दुआरेर बाघ का हिंदी में अनुवाद किया है।जो जल्दी ही आपके हातों में होगा,उम्मीद है।

कर्नल भूपाल चंद्र लाहिड़ी ने सैन्य जीवन पर उपन्यास अग्निपुरुष भी लिखा है।कहानियां और नाटक अलग से हैं।वे अकेले दम सुंदरवन के बच्चों तक पौष्टिक आहार पहुंचा रहे हैं।

हफ्ते में चार दिन डायलिसिस कराने के बावजूद कोलकाता से सुंदरवन के गांवों का सफर उनका रोजनामचा है।पत्नी का निधन हो चुका है और बच्चे अमेरिका में हैं।

उन्होंने घर में स्टुडियो बनाकर ओवी वैन के जरिये सुंदर वन के बच्चों को वैज्ञानिक तरीके से शिक्षित करने का काम कर रहे हैं।उन्हें विज्ञान पढ़ा रहे हैं।क्योंकि सुंदरवन के स्कूलों में विज्ञान जीव विज्ञान पढ़ा नहीं जाता।

यह काम एक डाक्टर की मौत वाले टेस्ट ट्यूब बेबी वाले डां.सुभाष मुखर्जी को समर्पित है और सारा खर्च वे अपनी जमा पूंजी से उठा रहे हैं।

हमने कर्नल लाहिड़ी से बांग्ला और हिंदी में लघु पत्रिका आंदोलन के अवसान पर चर्चा की तो समकालीन तीसरी दुनिया,समयांतर और हस्तक्षेप पर भी चर्चा हुई।

इप्टा जमाने से त्रासदी यही है कि हम अपनी विरासत सहेजने में सिरे से नाकाम हैं।हम अगली पीढ़ी को बैटन थमाने में सिरे से नाकाम हैं।तमाम विधाओं और माध्यमों की बेदखली की असल वजह यही है कि समय रहते हुए हम अपने मिशन को जारी रखने का कोई स्थाई बंदोबस्त नहीं कर पाते।

फिल्मों में एकमात्र नजीर ऋत्विक घटक का है,जिनके साथ तमाम कलाकारों, टेक्नीशियनों को स्वतंत्र तौर पर काम करने के लिए उन्होंने तैयार किया है।

ऋत्विक की फिल्मों में अक्सर संगीत उन्होंने खुद तैयार किया है,लेकिन उन्होंने इसका श्रेय साथियों को दिया है।

समांतर सिनेमा की पृष्ठभूमि में इप्टी की गौरवशाली विरासत,भारतीय रंगकर्म की विभिन्न धाराएं,मृणाल सेन और ऋत्विक घटक की फिल्में रही हैं।सारा आकाश और भुवन सोम से यह सिलसिला शुरु हुआ था।भारतीय सिनेमा की यथार्थवादी धारा अछूत कन्या से लेकर दो बीघा जमीन,मदर इंडिया और सुजाता, दो आंखें बारह हाथ,जागते रहो,आवारा जैसी  की निरंतरता भी समांतर सिनेमा की निरंतरता है।त्रासदी यह है कि समांतर सिनेमा की निरंतरता अनुपस्थित है।

समकालीन तीसरी दुनिया का आखिरी अंक लेकर हम बैठे थे और दिन भर यह सोच रहे थे कि सुंदरवन इलाके के बच्चों के लिए पौष्टिक आहार और शिक्षा का जो कार्यक्रम शुरु हुआ है,कर्नल लाहिड़ी के अवसान के बाद उसके जारी रहने की कोई सूरत नहीं है।

हम चिंतित थे कि आगे चलकर हम कैसे समकालीन तीसरी दुनिया,समयांतर या हस्तक्षेप जारी रख पायेंगे।नैनीताल में अकेले जहूर आलम ने युगमंच को जिंदा रखा है।लेकिन सत्तर दशक की तरह डीएसबी कालेज के छात्र अब थोक भाव में रंगकर्म में शामिल नहीं हैं।नैनीताल समाचार भी संकट में है।पहाड़ फिर भी जारी है।

शयाम बेनेगल के स्थगित होने के बाद न कोई भारत की खोज है और न समांतर सिनेमा का भोगा हुआ यथार्थ कहीं है।

शबाना के टक्कर की कोई दूसरी अभिनेत्री स्मिता के बाद पैदा नहीं हुई।

इप्टा आंदोलन के तितर बितर हो जाने से तमाम कला माध्यमों और विधाओं में जनप्रतिबद्धता का मिशन सिरे से खत्म है।

अमरीश पुरी और ओम पुरी के बाद अब शबाना एकदम अकेली रह गयी हैं। बंगाल में गौतम घोष के साथ जो नये फिल्मकार सामने आये थे,वे न जाने कहां हैं।

ओमपुरी का अवसान सांस्कृतिक आंदोलन के कोरे कैनवास को बेपरदा कर गया।अपने एक इंटरव्‍यू में ओमपुरी खुद यह दुख जताया था। ओमपुरी ने बताया कि उन्‍हें किसी फिल्‍म के लिए एक करोड़ रुपए कभी नहीं मिले। बल्कि 40 से 50 लाख या 10 से 15 लाख रुपए तक ही मेहनताना मिलता है। वो स्‍टार हैं मैं नहीं. ओमपुरी ने कहा कि इस उम्र में अब हमारे जैसे उम्रदराज कलाकारों को ध्‍यान में रखकर रोल नहीं लिखता। ऐसे रोल लिखे भी जाते हैं, तो इसमें स्‍टार लिए जाते हैं।

ओमपुरी ने अपने सिने करियर की शुरूआत वर्ष 1976 में रिलीज फिल्म "घासीराम कोतवाल" से की।विजय तेंदुलकर के मराठी नाटक पर बनी इस फिल्म में ओमपुरी ने घासीराम का किरदार निभाया था। वर्ष 1980 में रिलीज फिल्म "आक्रोश" ओम पुरी के सिने करियर की पहली हिट फिल्म साबित हुई।

गोविन्द निहलानी निर्देशित इस फिल्म में ओम पुरी ने एक ऐसे व्यक्ति का किरदार निभाया जिस पर पत्नी की हत्या का आरोप लगाया जाता है। फिल्म में अपने दमदार अभिनय के लिए ओमपुरी सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। फिल्म "अर्धसत्य" ओमपुरी के सिने करियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में गिनी जाती है।

उनकी जीवनी 'अनलाइकली हीरो:ओमपुरी' के अनुसार 1950 में पंजाब के अम्बाला में जन्मे इस महान कलाकार का शुरुआती जीवन अत्यंत गरीबी में बीता और उनके पिता को दो जून की रोटी कमाने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ती थी। ओम पुरी के पूर्व पत्नी नंदिता सी पुरी द्वारा लिखी गई इस किताब में कहा गया है कि टेकचंद (ओमपुरी के पिता) बहुत ही तुनकमिजाज और गुस्सैल स्वभाव के थे और लगभग हर छह महीने में उनकी नौकरी चली जाती थी। उन्हें नई नौकरी ढूंढ़ने में दो महीने लगते थे और फिर छह महीने बाद वह नौकरी भी चली जाती। वे गरीबी के दिन थे जब परिवार को अस्तित्व बनाए रखने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती।

आनंद पटवर्द्धन ने मैसेज किया था,फोन पर बात करेंगे,उनके फोन के इंतजार में हूं।


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