BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Sunday, October 16, 2016

ताराचंद्र त्रिपाठी:इसी खंडदृष्टि के कारणऔर बहुलांश में जातीय या राष्ट्रीय अहंकार के कारण भी हम मानव इतिहास के उस मानव-महासागरीय स्वरूप का अनुभव नहीं कर पाते हैं, जो वास्तविक है. इस मानव-महासागर में किस सांस्कृतिक चेतना की लहर कहाँ उपजी और कहाँ तक पहुँच गयी, पूर्वग्रहों से मुक्त हुए बिना इस रहस्य को समझना सम्भव नहीं है.


ताराचंद्र त्रिपाठी

इतिहास के बारे में जब भी हम बात करते हैं तो प्राय: हमारी दृष्टि किसी कालखंड और किसी क्षेत्र-विशेष तक ही सीमित होती है. हम यह भूल जाते हैं कि कोई भी इयत्ता केवल अपने आप में ही पूर्ण नहीं होती, अपितु वह अनेक इयत्ताओं के संयोग और सहयोग से निर्मित होती है. उदाहरण के लिए सिन्धुघाटी सभ्यता को ही लें, हमारी दृष्टि केवल उस नगर तक सीमित रह जाती है. हम यह भूल जाते हैं कि नागर सभ्यता सभ्यता का विकास तभी सम्भव होता है, जब उस की आधारभूत कृषि और पशुपालन परक ग्रामीण सभ्यता भी फल-फूल रही होती है. और यह सभ्यता नागर सभ्यता के ध्वस्त होने के साथ ध्वस्त नहीं होती, केवल संक्रमित होती है. संक्रमणशील जन जिस नये क्षेत्र में में बसते हैं, उन क्षेत्रों में अपने पुराने क्षेत्र के स्थान नामों, अपनी धार्मिक आस्थाओं के प्रतीकों को पुनर्स्थापित करते हैं. और इस प्रकार सांस्कृतिक नैरन्तर्य बना रहता है. पर अपनी खंड दृष्टि के कारण हम इस सांस्कृतिक नैरन्तर्य का अवगाहन नहीं कर पाते. 
इसी खंडदृष्टि के कारणऔर बहुलांश में जातीय या राष्ट्रीय अहंकार के कारण भी हम मानव इतिहास के उस मानव-महासागरीय स्वरूप का अनुभव नहीं कर पाते हैं, जो वास्तविक है. इस मानव-महासागर में किस सांस्कृतिक चेतना की लहर कहाँ उपजी और कहाँ तक पहुँच गयी, पूर्वग्रहों से मुक्त हुए बिना इस रहस्य को समझना सम्भव नहीं है.
जिस महाप्रलय की बात हम करते हैं, जिसके अवशेष ब्रिटिश पुरातत्वविद जार्ज वुली ने मसोपोटासमिया में खोज निकाले हैं वह आज से लगभग ५ हजार साल पहले मेसोपोटामिया में आयी एक सुनामी थी. इस जलप्रलय पहला विशद वर्णन आ्ज से लगभग पाँच हजार साल पहले के गिलगिमेश नामक सुमेरियन महाकाव्य में हुआ है. (यह महाकाव्य भी असुर बनीपाल (८०० ई.पू) के ईंटों की पट्टियों पर नुकीली कीलों से अंकित अभिलेखों के संग्रहालय, जिसे असुर बनीपाल का पुस्तकालय भी कहा जाता है, से प्राप्त हुआ.) सुनामी तो आयी मेसोपोटामिया में, यादें अनेक एशिया महाद्वीप के अनेक क्षेत्रों की प्रजातियों के आख्यानों में अलग-अलग नामों से व्याप्त हो गयीं, कहीं वैवस्वत मनु नायक हो गये, तो कहीं हजरत नूह, और कहीं नोवा, कहीं जियसद्दू, कहीं कोई और. पर कथा वही रही
यही नहीं, यह धारणा भी बनी रही कि इस प्रलय से पहले जो देव सभ्यता थी, उसमें लोग हजारों साल तक जीवित रहते थे. गिलगिमेश में भी सुमेर के जिन पौराणिक राजाओं का उल्लेख है, उनमें कोई राजा २८ हजार साल राज्य करता है तो कोई ४३ हजार साल, हजार साल से कम की तो बात ही नहीं है. अपने पुराणों में भी देख लीजिये, हमारे राजा दशरथ को भी सन्तान न होने की चिन्ता तब सताती है, जब उनकी अवस्था साठ हजार साल हो जाती है. राम ग्यारह हजार साल राज्य करते हैं. १० हजार साल अपने हिस्से के और एक हजार साल राजा दशरथ की अकाल मृत्यु हो जाने से उनके बचे हुए. राजा सागर के साथ हजार पुत्र होते हैं, शिव चौरासी हजार साल तक तपस्या करते हैं. और तो और दान में दी गयी भूमि को छीनने वाला भी साथ हजार साल तक अपनी ही विष्टा में कीड़े रूप में रहने के लिए अभिशप्त होता है. 
एक और बात, जो मानव महासागरीय लहरों को प्रमाणित करती है वह स्त्री पात्रों के संवादों के लिए मुख्य भाषा से इतर किसी जन बोली का विधान. यह संस्कृत नाटकों में ही नहीं है अपितु उन से लगभग २ हजार साल पहले के सुमेरी महाकाव्य गिलगिमेश में भी स्त्री पात्र ही नहीं अपितु देवी इनाना के संवादों के लिए भी जनभाषा का ही प्रयोग हुआ है. यही नैरन्तर्य और सारूप्य पौराणिक आख्यानों, मिथकों में ही नहीं है प्रतीकों या मोटि्फ्स में भी परिलक्षित होता है.
एक भ्रान्ति, जो सम्भवत: वेदों की श्रुति परम्परा के कारण उत्पन्न हुई है, वह यह कि वैदिक आर्य लेखन कला से अनभिज्ञ थे. वेद तो गेय छ्न्द हैं. उनको मूल गेय रूप में बनाये रखना, एक बड़ी भारी चुनौती रही होगी. फलत: इन गेय छ्न्दों को न केवल श्रुति परंपरा से संरक्षित किया गया अपितु हस्त संचालन( उच्चै उदात्त, निच्चै अनुदात्त, समाहार: स्वरित:) के माध्यम से उनकी स्वरलिपि भी तैयार कर दी गयी है. यह भी ज्ञातव्य है कि विद्वानों के अनुसार वेदों का संकलन जितने प्रामाणिक और व्यवस्थित रूप से किया गया है, , उसकी दूसरी मिसाल विश्वसाहित्य में नहीं है.
गेय छ्न्द तो श्रुति परम्परा से चले, लेकिन टीकाओं के लिए तो लिपि आवश्यक रही होगी. और वह थी. लेकिन उसका माध्यम अधिक टिकाऊ नहीं था. ताड़्पत्र और भोजपत्र पर अंकित होने के कारण बार बार प्रतिलिप्यांकन अपरिहार्य था. यवन आक्रमण के बाद हमने माध्यम बदला और शिलाओं को माध्यम के रूप में प्रयोग करना आरंभ किया और तब से लिपि का क्रमिक विकास सामने आया. जब कि वैदिक आर्यों से बहुत पहले मिस्र में शिलाओं को और मेसोपोटामिया में ईंट की पट्टिकाओं पर अक्षर उत्की्र्ण करने के उपरान्त उन्हें पका कर स्थायित्व प्रदान किया गया था.
जहाँ तक ऐतिहासिक स्रोतों की दुर्लभता का सवाल है, उसमें भी हमारा दृष्टिदोष एक कारक है. लिखित साक्ष्य नहीं हैं, लोक गाथाएँ पूरा चित्र प्रस्तुत नहीं करतीं, किंवदन्तियाँ बहुत दूर के अतीत का उद्घाटन नहीं करतीं. कालजयी पुरातत्व भी सीमित है. पर जो सन्मुख है, जो अतीत की अनेक परतों पर जमी धूल को दूर कर सकता है, उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं है, वह हैं हमारे स्थान-नाम.
पर उनका संकलन कौन करे. एक गाँव में और उसके आस-पास ही पचासों स्थान-नाम हैं. स्थान- नाम या स्थान को पहचानने के लिए निर्धारित कोई प्रमुख प्रतीक या लैंड्मार्क. ये लैंड्मार्क भी किसी स्थायी आधार या याद पर ही तो रखे गये होंगे. और इन आधारों के द्वारा स्थानों का नामकरण करने वाले पूर्वजों ने अपनी प्राकृतिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक स्थिति की यादों को चिरस्थायी बनाने का प्रयास किया है. जब अंग्रेज अपने साथ के साथ यूरोप के शताधिक नामों को आपके नैनीताल में बसा गये हैं, तो जो लोग सिन्धु सभ्यता के नाश के बाद छितराये होंगे, तो क्या उन्होंने अपने नये सन्निवेशों के नामों में अपनी पुरानी यादों को नहीं संजोया होगा?

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