BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Monday, May 25, 2015

आपदा एक : बेसहारा औरतें

आपदा एक : बेसहारा औरतें

लेखक : नैनीताल समाचार :

Besahara Auratenउत्तराखण्ड महिला परिषद्, अल्मोड़ा से जुड़े हुए हम कुछ साथी 13 अगस्त से 18 अगस्त 2013 तक ऊखीमठ क्षेत्र में डेरा डाले हुए थे। केदारघाटी के गाँवों में घूम कर लोगों से मिलने-जुलने और सांत्वना देने का सिलसिला चल रहा था। हमारी मंशा उन सभी स्त्रियों से मिलने की थी, जिनके पति-बेटे, जेठ-देवर, भाई-पिता और ससुर आपदा के बाद घर वापस नहीं लौटे थे।

15 अगस्त की सुबह ऊखीमठ में निस्तब्धता पसरी हुई थी। बादलों से घिरा आसमान और सूना पड़ा बाजार। अधिकतर लोग वायरल बुखार की चपेट में थे। जो बचे थे, वे 16-17 अगस्त को मृतकों के द्विमासिक श्राद्ध के निमित्त घर-गाँव को जा रहे थे। स्वतन्त्रता दिवस का अहसास तब हुआ जब एक बहत्तर वर्षीय बुजुर्ग अपनी पोती को 'भारत माता की जय' का नारा सिखाते हुए घर की छत पर चहलकदमी करने लगे। बच्ची अपनी तोतली भाषा में नारों को दोहरा ही रही थी कि हमारे एक साथी ने कहा, ''बिजली आ गई है, अभी-अभी। टी.वी. देखो- प्रधानमंत्री ने लाल किले से अपने भाषण में सबसे पहले उत्तराखण्ड की आपदा के बारे में बोला।''

कुछ देर बाद हम लोग हिमालयी ग्रामीण विकास संस्था ऊखीमठ के साथियों के साथ किमाणा गाँव में थे। ''आजादी के दिन का क्या करें हम? अब तो दुनिया से आजादी मिले, मुक्ति मिले, जैसे मेरे पति और बेटों को मिल गई। दुकान गई, परिवार गया। अब क्या आजादी, क्या बर्बादी?'' अड़तीस वर्षीया सविता त्रिपाठी की सिसकियाँ थम नहीं रही थीं। उन के दोनों बेटे और पति आपदा की भेंट चढ़ गये। सिर्फ किमाणा गाँव से ही सत्रह पुरुष/लड़के आपदा के शिकार हुए। इस समाज को न लालकिले के भाषण प्रभावित करते हैं, न ही देश-दुनिया की खबरों में उनकी रुचि है। वे अपने ही दुःखों के संसार से उबरने की जद्दोजहद में लगे हैं।

ऊखीमठ के आसपास दलित बहुल गाँव कम हैं। डुंगर-सेमला गाँव के ऊपरी हिस्से में दलित समुदाय की बसासत है। डुंगर गाँव के अधिकांश मृतक डोली, कंडी एवं खच्चरों के काम से जुड़े हुए थे। आपदा के बाद ऊषा देवी का पति, बेटा और खच्चर घर नहीं लौटे। पैर से विकलांग होते हुए भी ऊषा ने तहसील का चक्कर लगा कर मुआवजे की धनराशि प्राप्त की। उनकी दो छोटी बेटियाँ पढ़ रही हैं। मुआवजे के धन का उपयोग कैसे करेंगी, इस प्रश्न पर ऊषा गंभीर हो जाती हैं। बच्चों के लिए पैसा बचाना है, पर क्या करें ? दो कमरों के मकान की छत इतनी टपकती है कि उसे ठीक करना जरूरी है। अभी तो राहत का राशन मिल रहा है, उसके बाद क्या होगा ? जरूरतें इतनी हैं कि खत्म होती नहीं दिखतीं।
एक अन्य प्रौढ़, दलित विधवा को मुआवजे की राशि मिली तो बेटों ने अपना हिस्सा माँगा। उनके साठ वर्षीय पति रामबाड़ा में काम करने इसी वजह से गये कि पिछले दस वर्षों से बेटों ने माता-पिता को घर से अलग कर दिया था। पिता की मृत्यु से प्राप्त धनराशि पर शराबी बेटा माँ से अधिक अपना हक मानता है। माँ ने पैसा नहीं दिया तो धक्का-मुक्की, गालीगलौज का सिलसिला चल निकला। अनपढ़, सीधी-सादी, दुःखी माँ को समझ में नहीं आता कि मदद के लिए कहाँ गुहार लगाये ? ''जब तक मेरे आदमी जिंदा थे, हमने गरीबी में दिन काटे। कभी खाया, कभी नहीं। अब मर कर वो मुझे इतना पैसा दे गये।''

पिछले वर्ष (14 सितंबर, 2012) की आपदा से प्रभावित चुन्नी-मंगोली, किमाणा, सेमला आदि गाँवों के घर-जमीन पर लगे जख्म अभी भरे नहीं हैं। इस वर्ष, करोखी दिलमी, सेमी, उसाड़ा आदि गाँवों में जमीन को क्षति हुई है। दिलमी, सेमी आदि गाँवों के लोग रात को तंबू में रह रहे हैं। इन गाँवों में जहाँ दिन के वक्त ही तेंदुआ खेतों में घूमता हुआ दिखाई दे रहा है, रात के वक्त सोने के लिये अन्यत्र जाना परिवारों के लिए खतरे का सबब तो है ही। ऐसे वक्त में, राहत सामग्री में मिली सोलर लालटेन मददगार साबित हुई हैं।
46 तोकों में जुटाई गई जानकारी से स्पष्ट हुआ कि 305 मृतकों में से 51 प्रतिशत युवा और बच्चे हैं। सर्वाधिक मौतें 16-20 वर्ष की उम्र के लड़कों की हुई हैं। कुल मृतकों में से 91 प्रतिशत मृतक व लापता लोगों की उम्र पचास वर्ष से कम है। घोड़े-खच्चर, कंडी-डोली, दुकान-लॉज के बह जाने से इनके परिजनों के सामने रोजी-रोटी का संकट है।
ऊखीमठ क्षेत्र के बारह गाँवों में लगभग सत्तर मृतकों के परिवारों से बातचीत करने पर समझ में आया कि प्रभावितों में युवा बहुओं की संख्या काफी है। भौगोलिक दृष्टि से ऊखीमठ एवं गुप्तकाशी के आसपास के गाँव आमने-सामने की पहाडि़यों पर स्थित हैं। बीच में मंदाकिनी नदी बहती है। ऊखीमठ क्षेत्र की अधिकांश स्त्रियों का मायका गुप्तकाशी, सोनप्रयाग एवं त्रिजुगी नारायण क्षेत्र में है। ऐसी अनेक स्त्रियों के ससुराल एवं मायके में पुरुषों की मृत्यु हो गई। उनके पति-पुत्र आपदा की चपेट में आये तो पिता और भाई भी वापस नहीं लौटे। 17-18 वर्ष की उम्र में शादी होने से 10-12 साल के पुत्रों की ये मातायें स्वयं भी 27-28 वर्ष की ही हैं। एक नजर में दृढ़ और आत्मसंयत लगतीं इन युवा स्त्रियों के मन भीतर से छलनी हो चुके हंै। ''जिस केदारनाथ ने हमारी इतनी पीढि़याँ पालीं, उसी ने मेरे परिवार को क्यों खत्म कर दिया'', यह कहते हुए भामा की आवाज भर्रा उठती है। उनका एकमात्र पुत्र आपदा के बाद से घर नहीं लौटा। सारी गाँव की गुड्डी देवी बताती हैं, ''ये तो लड़के के दुःख से पागल हो गई है। धार-धार जाकर लड़के को आवाज लगाती है। सुबह-शाम इधर-उधर दौड़ती है और फिर रीती आँखों से घर वापस लौट आती है।''

बचकर घर वापस लौटे लोग मानते हैं कि मौतें मुख्यतः दो वजहों से हुईं। पहला, दुकान, लॉज या डेरे के साथ लोगों के बह जाने से। दूसरा, जो ग्रामीण बाढ़ से बच कर ऊपर की ओर भागे, उनमें से अधिकांश ने चढ़ाई में दम तोड़ दिया। यह जाँच एवं शोध की जरूरत है कि-

1. क्या जंगल/बुग्याल में लोगों की मृत्यु 'जहरीली गैस के फैलने' से हुई, जैसा कि सभी स्थानीय ग्रामीण कह रहे हैं ?

2. चढ़ाई चढ़ते हुए मृत्यु का वैज्ञानिक दृष्टि से क्या कारण हो सकता है, दहशत, निर्जलन, भूख, ठंड या ऑक्सीजन की कमी ?

3. अन्य क्या कारण हो सकता है कि 20-22 वर्ष के युवा लड़के भी इन जंगलों/बुग्याल में मौत की चपेट में आने से न बच सके ?

यह शोध इसलिए भी जरूरी है कि भविष्य में लोग सबक लें और ऐसी कोई घटना हो जाने पर सीधे ऊपर चढ़ने की बजाय तिरछे रास्तों पर चलें। बचकर आये हुए ग्रामीणों ने बताया कि वे रामबाड़ा/गौरीकुण्ड से लगभग एक-डेढ़ किमी. ऊपर चढ़ाई में चले और उसके बाद तिरछे रास्तों पर चलते हुए चैथे-पाँचवंे दिन घर पहुँच गये। वे खच्चरों को भी बचाकर वापस ले आये।

केदारघाटी की अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने का सवाल स्थानीय ग्रामीणों के लिए बेहद चिन्ताजनक है। यहाँ के गाँवों में सभी परिवार सीधे या आंशिक तौर पर यात्रा से होने वाली आमदनी पर निर्भर हैं। इन दिनों सर्वत्र सुनसानी है। उत्तराखण्ड के बाहर के राज्यों के वाहन तक दिखाई नहीं देते। मंदिर एवं घाटी के पुनर्निर्माण के लिए राष्ट्रीय, राज्य स्तर पर जारी बहसों में स्थानीय जनता/प्रभावितों की आवाज शामिल होती नहीं दिखाई देती। मंदिर क्षेत्र के पुनर्निर्माण का उद्देश्य तो स्पष्ट है परन्तु साध्य (काम कैसे हो) ? साधन (धन, लोग) का तालमेल तो तभी ठीक बैठेगा जब स्थानीय जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए उनकी सहमति से विकास के मानक तय किये जायें। साध्य अगर जनता का अपना हो तो साधन भी जुट ही जायेंगे। साध्य को कार्यक्रम और लक्ष्य दोनों ही के संदर्भ में समझने की कोशिश करें तो केदारघाटी की महिलाओं एवं बच्चों की जिन्दगी से जुड़ते हुए काम करना होगा। स्थानीय पुरुषों के छः माह के श्रम पर टिकी जो अर्थव्यवस्था वह खच्चर, कंडी, डोली, दुकान/लॉज के साथ बह गई। अब युवा विधवाओं के सम्मुख आजीविका के प्रश्न साथ बच्चों, सास-ससुर और परिवार की जिम्मेदारी भी है। उन्हें सामाजिक-आर्थिक सहयोग के साथ अच्छे वन, जमीन, पानी के स्रोतों के सान्निध्य की दरकार है।

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