BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Friday, January 2, 2015

डा. किरन त्रिपाठी की पुस्तक ’हल्द्वानी- मंडी से महानगर की ओर से साभार

डा. किरन त्रिपाठी की पुस्तक 'हल्द्वानी- मंडी से महानगर की ओर से साभार
22 नवंबर 1824 के ब्रिटिश पादरी हैबर बरेली से रुद्रपुर और बमौरी होते हुए, अल्मोड़ा गया था। उसने बमौरी का उल्लेख करते हुए लिखा है ''
We came to the tract where the fires had already been active, where little and herds of diminutive cattle were seen peeping out under the trees and we overtook the rear guard of our caravan, who told us we are near Bamoury. The population which we saw were Khasya or inhabitants of Kemaoon, who yearly come down, after the unwholesome time is over to graze their cattle and cultivate the best driest spots of the forest with barley and wheat which they reap and carry back with them before April is far advanced, when they return to reap the similar, but somewhat later crops , which they had sown before they left their own country. At the same time they obtain an opportunity of disposing of their honey and other commodities of the hills and buying different little luxuries with which the plains only and the more civilized parts of Hindostan can supply them. Many were close by the way side, very dark and meager people, but strongly and neatly made and not so diminutive as the inhabitants of such mountains generally are. They were all wrapped up in the long black blankets of their marshland neighbours, but very few of them had arms. Mr. Boulderson said they merely carried them against tigers, for there was scarcely a more peaceable or honest race in the world.

कुमाऊँ के प्रथम अंग्रेज कमिश्नर जार्ज विलियम ट्रेल (1818­1835) के अनुसार कुमाऊँ पर ईस्ट इंडिया कंपनी का आधिपत्य होने से पहले भी गौला नदी के आस­पास जहाँ सिंचाई की थोड़ी­बहुत व्यवस्था संभव थी, मल्ला तथा तल्ला बमौरी, बिठौरिया, फतेहपुर जैसे गाँव बसे हुए थे। इन गाँवों में भीमताल के निकट रहने वाले सौन और हैड़ी जाति के लोग रहते थे। जान­माल की कोई सुरक्षा नहीं थी। केवल मेवाती डाकुओं के मुखिया को घूस देकर ही यहाँ रहना संभव था। फिर भी कुमाऊँ के दक्षिणी परगनों के सभी निवासी, जिनकी संख्या उस समय न्यूनतम तीस हजार थी, नवंबर से लेकर मई तक पर्वतों की तलहटी और भाबर में उतर आती थी और यहाँ के जंगलों में खेती करती थी। इससे उत्पन्न होने वाली पर्याप्त उपज को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने इस क्षेत्र में कृषि को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक उपाय किये। 
कंपनी शासन में पुलिस व्यवस्था में सुधार होने से रामगढ़ और उसके आस­पास के गाँवों के नायक तथा अन्य जातियों के लोग भी भाबर में बसने लगे और उन्होंने बमौरी, बिठौरिया, पन्याली और फतेहपुर के दक्षिण में खेती करना आरंभ कर दिया। इस प्रकार मुखानी, तल्ली हल्द्वानी और कुसुमखेड़ा गाँव बसे। इन क्षेत्रों में सिंचाई के लिए पर्याप्त जल उपलब्ध था और कृषि के लिए पहाड़ों से भाबर में आने वालों की भीड़ भी नहीं थी। खेती केवल जाड़ों में होती थी। कुछ खेत खरीफ की खेती के लिए भी छूटे हुए थे, जिनमें हलिया और कुछ दलित बरसात में भी खेती करते थे। ये लोग पिछले कुछ वर्षों से भाबर में रहने लगे थे और उन्होंने भाबर की जलवायु को पचा लिया था।
सन् 1818 में इस क्षेत्र की सिंचाई व्यवस्था के लिए लेफ्टिनेंट कार्डिस ने राजस्व­परिषद् का ध्यान आकर्षित किया और बमौरी से लेकर टाँडा तक एक नहर बनवाने का प्रस्ताव रखा, पर ट्रेल को, जल की उपलब्धता की अनिश्चितता और अस्वास्थ्यकर जलवायु के कारण पर्वतीय जनों के यहाँ बसने में संकोच को देखते हुए, इस योजना को क्रियान्वित करना उपयुक्त नहीं लगा। 
सन् 1837 ई. में बैटन ने गौला नदी के दोनों किनारों पर पहाड़ की जड़ से लगभग 6 मील तक हरे­-भरे लहलहाते हुए खेत देखे थे और इस क्षेत्र में जंगल का एक छोटा सा टुकड़ा ही शेष रह गया था। 
1850 के बाद हेनरी रैमजे के शासन काल में भाबर में नहरों और गूलों के निर्माण की दिशा में विशेष प्रयास किये गये। काठगोदाम के पास गौला नदी में एक बाँध बनाकर भाबर छखाता के गाँवों में अनेक नहरें पहुँचाई गयीं। 
1834 ई. से पहले भाबर की मुख्य बस्ती मोटा हल्दू में थी। कंपनी शासन में नयी बस्तियों के बसने के बाद ट्रेल ने भाबर में एक मंडी की कमी को पूरा करने के लिए हल्द्वानी में मंडी की स्थापना की।
1850 से पूर्व हल्द्वानी में केवल झोपडि़याँ ही थीं। जलवायु भी अच्छी नहीं थी। जैसे ही जाड़ों की फसल कटती, लोग पहाड़ों को लौट जाते थे। इस बीच आस­पास के क्षेत्रों की सफाई और झाडि़यों के कट जाने के कारण जलवायु में सुधार हुआ और हल्द्वानी भाबर के मुख्य केन्द्र के रूप में विकसित होने लगा। 1850 के बाद यहाँ पक्के मकान बनने आरंभ हो गये।
1857 में अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फैंकने के लिए जूझते विद्रोही सैनिकों ने बार-­बार हल्द्वानी पर अधिकार करने का प्रयास किया। इससे लगता है कि तब तक हल्द्वानी व्यापारिक और सामरिक दृष्टि से कुमाऊँ का महत्वपूर्ण सन्निवेश बन चुका था। 
1880 ई. में रेल यातायात आरंभ होने के बाद हल्द्वानी का महत्व बढ़ा और यह नैनीताल जनपद का शीतकालीन मुख्यालय बन गया।

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में इस नगर में एक तहसील कार्यालय, एक पुलिस चौकी, एक दवाखाना, लोक निर्माण विभाग का एक बंगला, खाम या तराई­भाबर के अधीक्षक का आवास, और शेसन्स हाउस था। गौला नदी और नगर के बीच कुमाऊँ­-रुहेलखंड रेलवे लाइन और उसका एक स्टेशन था। 
नगर में केवल एक मिशन स्कूल था, जिसे अपना अस्तित्व बनाये रखने में कुछ सफलता मिली थी। वह भी यहाँ के निवासियों की संक्रमणशीलता के उतार­-चढ़ाव को झेल रहा था। उसमें छात्रों की दैनिक उपस्थिति का औसत सितंबर में आधे से भी कम रहता था।
वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी श्री भोलादत्त पांडे के अनुसार "हल्द्वानी उस जमाने में केवल आलू और गुड़ की मंडी थी। जाड़ों में काशीपुर, रामनगर और अन्य क्षेत्रों के व्यापारी यहाँ आ जाते थे और गर्मियों में पुनः वापस चले जाते थे। 'काशीपुर उन दिनों उतना 'मलेरियस' नहीं माना जाता था। परिवहन के साधन घोड़े और खच्चर थे। जाड़ों में इसकी आबादी दस­बारह हजार हो जाती थी, पर गर्मियों में चार-­पाँच हजार लोग ही यहाँ रह जाते थे। इनमें अधिकतर वे लोग होते थे, जिनका संबंध आलू के व्यापार से था"। 
"बाजार में उद्योग के नाम पर तो यहाँ कुछ भी नहीं था। सबसे पुरानी इंडस्ट्री ' देवी आयल मिल' थी। कोल्हू वाली। ऊपर दुर्गा आयल मिल, जो कुलदीप के बाप ने खरीदी, नैनीताल के साह लोगों की थी।"
"बाजार में दूकानों के नाम पर झोपड़े थे। जो दूकानें भी थीं, उनके दरवाजे बाँस की खपच्चियों से बने हुए थे। मंगल पड़ाव में पैंठ के दिन पाँच सौ या सात सौ बैलगाडि़याँ और घोड़े इकट्ठे हो जाते थे। बनियों ने गुड़ खरीदा और गाडि़याँ गयीं"।
"बनभूलपुरा में धान की कुट्टियाँ थीं। हर घर में एक ठेकी (पाँव से धान कूटने वाला ऊखल) होती थी और वे रोज कई बोरे धान कूट लेते थे। कोई सड़क पक्की नहीं थी। बाजार के नाम पर खाम विभाग के फड़ थे। मंगल के दिन पैंठ लगती थी और पैंठ पड़ाव ही एकमात्र बाजार था। मकर संक्रान्ति के दिन यह मंडी एक मेले का रूप ले लेती थी"। 
"अस्पताल खाम का था और बहुत छोटा था। खाम की ओर से दवाएँ मिलती थीं। एक आयुर्वेदिक औषधालय भी था जहाँ से त्रिफला, कुनैन, आयोडीन, दस्त और बुखार की दवा तथा प्राथमिक उपचार का सामान हर गाँव में किसी पढ़े-­लिखे व्यक्ति को सौंप दिया जाता था"।
"यहाँ केवल एक खाम सुपरिंटेंडेंट और एक तहसीलदार, दो अधिकारी स्थायी रूप से रहते थे। कोषागार भी खाम का ही था। शेष सारे कार्यालय नैनीताल में थे। वे जाड़ों में हल्द्वानी आ जाते थे। अंग्रेज अधिकारी 14 नवंबर के बाद ही आते थे। उनका मानना था कि 14 नवंबर तक हल्द्वानी में मलेरिया होता है।"

बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में हल्द्वानी कुछ और विकसित हुआ। बदरीदत्त पांडे ने लिखा है " हल्द्वानी बारह हजार से अधिक की बस्ती है। यहाँ से अल्मोड़ा, नैनीताल, रानीखेत, भवाली को लारियाँ जाती हैं। भीमताल, रामगढ़, मुक्तेश्वर को घोड़ों में माल जाता है। यहाँ सन् 1884 में देवीदत्त जोशी का बनाया हुआ रामलीला का हाता और मंदिर है। 1920 में लाला चोखेलाल मुरलीधर ने यहाँ पर एक सुन्दर भवन बनवाया। आर्य समाज भवन 1901 में बाबू रामप्रसाद मुख्तार ( अब स्वामी रामानन्द) ने बनवाया। 1928 में त्रिवेणी देवी ने आर्य अनाथालय का निर्माण किया। सन् 1923 में चैधरी कुन्दनलाल वर्मा ने सेवा समिति का सुन्दर भवन बनवाया। 1931 में एक अंग्रेजी मिडिल स्कूल लाला बाबूराम के धन से बना। 1932 में बेणीराम पाण्डे ने शिव का मंदिर बनवाया जिसका नाम बेणीरामेश्वर है। बची गौड़ ने 1894 में धर्मशाला बनवाई और 1895 में राम­मंदिर की परिक्रमा भी बनवाई। सन् 1902 में पं. छेदालाल पुजारी और पं. रामदत्त ज्योतिर्विद के सहयोग से हल्द्वानी में सनातन धर्म सभा की स्थापना हुई।

"काठगोदाम एक छोटी सी बस्ती थी। यहाँ तार , डाकघर तथा चुंगी थे। भोजनालय और विश्रामालय भी थे। यहाँ एक बड़ा पुल गौला नदी पर है। यह सीमेंट और कंकड़ का बना है। 350 फुट लंबा है। उसमें सड़क के साथ­साथ गौलापार भाबर को नहर भी जाती है। यह सन् 1913­14 में बना था। लार्ड हार्डिंग ने इसे खोला था। उन्हीं के नाम से यह प्रसिद्ध है। 
पहले काठगोदाम बमौरी घाटा कहलाता था। यहाँ काठ­बाँस की चैकी थी। अंग्रेजों ने फौजी आवश्यकताओं को देखते हुए 1884 में काठगोदाम तक रेलवे लाइन का विस्तार किया था।
सन् 1947 में हल्द्वानी.काठगोदाम नगरपालिका क्षेत्र में अधिकतम 39 मुहल्ले और एक 1,608 मकान थे। एक हाईस्कूल, एक डाक्टर वाला नागरिक अस्पताल, बाबू मुरली मनोहर की चैयरमैनी वाली नगरपालिका का पुराना दफ्तर, दो कोठरियों वाला रेलवे स्टेशन, खड्ड में बना उसका मुसाफिरखाना और भूमि से चिपका हुआ बाजार था। शहर में टेलीफोन और बिजली जैसा कुछ नहीं था। न बसें थीं, न ट्रक, न यहाँ उनका कोई स्टेशन था। 'कुमाऊँ मोटर आनर्स यूनियन' की खटारा बसें पहाड़ों को चलती थीं। अड्डा भी नहीं था। चार सौ छात्रों वाले एम.बी. हाईस्कूल के हेडमास्टर बाबूलाल गोयल छात्र संख्या का बड़े गर्व के साथ जिक्र करते थे। मंगल की पैंठ लोगों की आवश्यकता का अनाज, गुड़, तेल, साग­सब्जी जुटाती थी।

डा. किरन त्रिपाठी की पुस्तक 'हल्द्वानी- मंडी से महानगर की ओर से साभार


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