BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Friday, April 25, 2014

हमलावर चढ़े चले आ रहे हैं हर कोने से दरअसल इस छापेमार समय में जब वीरेनदा के शब्दों में हमलावर बढ़े चले आ रहे हैं हर कोने से,हमारे बच निकलने की राह एक ही है और वह यह है कि कुछ भी करें,इस पहचान की राजनीति को प्रतिरोध की राजनीति में बदल दिया जाये।मुश्किल यह है कि पहचान मिटाये बिना प्रतिरोध के लिए न्यूनतम गोलबंदी भी असंभव है।

हमलावर चढ़े चले आ रहे हैं हर कोने से

दरअसल इस छापेमार समय में जब वीरेनदा के शब्दों में हमलावर बढ़े चले आ रहे  हैं हर कोने से,हमारे बच निकलने की राह एक ही है और वह यह है कि कुछ भी करें,इस पहचान की राजनीति को प्रतिरोध की राजनीति में बदल दिया जाये।मुश्किल यह है कि पहचान मिटाये बिना प्रतिरोध के लिए न्यूनतम गोलबंदी भी असंभव है।


पलाश विश्वास



शुक्र है कि कैंसर ने वीरेनदा को कविता से बेदखल कर पाने में कोई कामयाबी हासिल नहीं की है।इसीलिए राष्ट्रव्यवस्था के नस नस में वायरल की तरह दाखिल होते कैंसर के विरुद्ध वे हमें आगाह करते हैंंः


हमलावर चढ़े चले आ रहे हैं हर कोने से

पंजर दबता जाता है उनके बोझे से

मन आशंकित होता है तुम्हारे भविष्य के लिए

ओ मेरी मातृभूमि ओ मेरी प्रिया

कभी बतला भी न पाया कि कितना प्यार करता हूँ तुमसे मैं .


समकालीन तीसरी दुनिया के ताजा अंक में वीरेनदा की कविताएं छपी हैं जो पहले कबाड़खाना में प्रकाशित हुई है।

कबाड़खाना में प्रकाशित वीरेनदा की इन पंक्तियों में बखूब साफ जाहिर है कि जो सत्ता संरचना हमने तैयार की है,आज फासीवादी महाविनाश का मूसल उसी के ही गर्भ में पला बढ़ा है और वही है आज का कल्कि अवतार। वीरेनदा ने लिखा है।

वह धुंधला सा महागुंबद सुदूर राष्ट्रपति भवन का

            जिसके ऊपर एक रंगविहीन ध्वज

            की फड़फड़ाहट

फिर राजतंत्र के वो ढले हुए कंधे

            नॉर्थ और साउथ ब्लॉक्स

वसंत में ताज़ी हुई रिज के जंगल की पट्टी

जिसके करील और बबूल के बीच

जाने किस अक्लमंद - दूरदर्शी माली ने

कब रोपी होंगी

वे गुलाबी बोगनविलिया की कलमें

जो अब झूमते झाड़ हैं

और फिर उनके इस पार

गुरुद्वारा बंगला साहिब का चमचमाता स्वर्णशिखर

भारतीय व्यवस्था में लगातार बढ़ती धर्म की अहमियत से

आगाह करता.


तीसरी दुनिया के ताजा अंक में सत्ता बिसात की परतें जो आनंदस्वरुप वर्मा ने खोली है,उसे सर्वजनसमक्षे जारी किया जा सका है।लेकिन इसी अंक में एक बेहद महत्वपूर्ण आलेख छपा है, वह है, पहचान की राजनीति और प्रतिरोध की राजनीति।


दरअसल इस छापेमार समय में जब वीरेनदा के शब्दों में हमलावर बढ़े चले आ रहे हर कोने से,हमारे बच निकलने की राह एक ही है और वह यह है कि कुछ भी करें,इस पहचान की राजनीति को प्रतिरोध की राजनीति में बदल दिया जाये।


मुश्किल यह है कि पहचान मिटाये बिना प्रतिरोध के लिए न्यूनतम गोलबंदी भी असंभव है।


मुश्किल यह है कि राजकरण पर अब भी पहचान का झंडा ही बुलंद है।उसे वहां से उतारकर प्रतिरोध का उद्घोष भी फिलहाल असंभव है।


मसलन अच्छे समय का वायदा करने वाले मिनिमम गवर्नमेंट,मैक्सिमम गवर्नेंस यानि न्यूनतम सरकार अधिकतम राजकाज का नारा लगाने वाले गुजरात माडल के संघ परिवारी बिजनेस आइकन नरेंद्र मोदी अपना असली एजंडा बार बार जगजाहिर करते हुए धर्मोन्मादी जो सुनामी पैदा करने में रोज अडानी उड़नखटोले में देश भर में छापामार भगवा युद्ध में विकासोन्मुख तोपदांजी करके अमदावाद में नींद पूरी करने वाले नमो कल्कि अवतार के उदात्त हिंदुत्व का रसायन को समझना बेहद जरुरी है,जिसकी परत दर परत जातिव्यवस्था और नस्ली भेदभाव,सुतीव्र घृणा कारोबार,सर्जिकल माइंड कंट्रोल,जायनवादी विध्वंस,संस्थागत महाविनाश,अंबेडकरी आंदोलन के अपहरण बजरिये वर्णवर्चस्वी उत्तर आधुनिक मनु व्यवस्था के साथ चिरस्थाई औपनिवेशिक भूमि सत्ता बंदोबस्त का तेजाबी रसायन है।जाहिर है कि उनके वक्तव्य के हर पायदान में वैदीकी हिंसा राजसूयआयोजन है।


मसलन घंटों चले भव्य रोड शो के बाद भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को वाराणसी लोकसभा सीट से नामांकन पत्र दाखिल किया। उन्होंने बनारस के ब्रांड को पूरे विश्व में पहुंचाने का वादा किया। नामांकन के बाद मोदी ने कहा-पहले मैं सोचता था कि भाजपा ने मुझे यहां भेजा है। कभी मुझे महसूस होता था कि मैं काशी जा रहा हूं। लेकिन यहां आने के बाद मैं महसूस कर रहा हूं कि मुझे किसी ने नहीं भेजा और न ही मैं खुद यहां आया हूं। मां गंगा ने मुझे यहां बुलाया है। मैं ऐसा ही महसूस कर रहा हूं जैसे एक बच्चा अपनी मां की गोद में आने पर महसूस करता है। मैं प्रार्थना करता हूं कि ईश्वर मुझे इस नगर की सेवा करने की शक्ति दे।


भाजपा को सिरे से संस्थागत संघ शुंग परिवार के फासीवादी वर्णवर्चस्व के लिए गंगा गर्भ में जलांजलि देने का यह राजकीय उद्घोष है।धर्मनिरपेक्ष खेमे के बजाय,अबतक भाजपा के झंडे पर मर मिटने वाले लोगों को उनके इस वक्तव्य का ज्यादा नोट लेना चाहिए।


अब एक किस्सा इसी संदर्भ में बताना प्रासंगिक होगा।भोपाल से 20 फरवरी की सुबह हम दिल्ली से चेन्नै जाने वाली जीटी एक्सप्रेस में सवार हुए।तो उसमें उत्तरप्रदेश के ढेरों मुसलमान नौजवान थे।मुरादाबाद रामपुर के लोग और बिजनौर के भी।जिन दूर दराज के गांवों से वे लोग हैं,वहां बचपन से हमारी आवाजाही है।बिजनौर में तो सविता का मायका भी है।हमारे साथ नागपुर के लोग भी थे।कुल बीस पच्चीस लोगों की टोली होगी।


हम लोग यूपी में मोदी सुनामी की हकीकत जानना चाहते थे।उन बंदों ने सीधे ऐलान कर दिया कि यूपी में पचास सीटें जीते बिना मोदी का भारत भाग्यविधाता बनना असंभव है।


बता दें कि हम लोग भोपाल से रवाना होने के तुरंत बाद आजादी के बाद हुए तमाम राजनीतिक परिदृश्य की सिलसिलेवार चर्चा में लगे थे और नेहरु और इंदिरा के मुकाबले अटल से लेकर,सिंडिकेट समाजवादी माडल से लेकर समय समय पर हुए राजनयिक आर्थिक निर्णयों के दूरगामी परिणामों का विश्लेषण भी कर रहे थे।बातचीत संघ परिवार या भाजपा के विरुद्ध न होकर पूरे भरातीय स्वतंत्रोत्तर राजकाज और आर्थिक विकास विनाश पर केंद्रित थी।


उन बंदों ने साफ साफ दो टुक शब्दों में कहा कि कोई मोदी सुनामी कहीं नहीं है।मीडिया सुनामी है।माडिया के बखेड़ा है।जमीन पर यूपी में भाजपा को पंद्रह सीटें भी मिलने के आसार नहीं है।


जनसत्ता में अंशुमान शुक्ल की रपट से इस आरोप की पुष्टि भी हो गयी।देखेंः


खबरिया चैनलों ने सोलहवीं लोकसभा चुनाव के सातवें चरण में देश की 117 लोकसभा सीटों पर हो रहे मतदान के दौरान भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का जिस तरह प्रचार किया, वह हैरतअंगेज है।  मोदी की शान में कसीदे पढ़ने की संवाददाताओं और टेलीविजन एंकरों में होड़ मची रही। चैनलों के पत्रकारों ने ढंूढ़-ढंूढ़ कर शब्दों का मायाजाल बिछाया, अपनी सभी जिम्मेदारियों को दरकिनार कर। देश के किसी भी समाचार चैनल को इस बात की याद तक नहीं रही कि सातवें चरण में देश की 117 और उत्तर प्रदेश की 12 लोकसभा सीटों पर मतदान हो रहा है। जहां के मतदाताओं पर नरेंद्र मोदी के इस रोड शो का असर भी हो सकता है।


उत्तर प्रदेश के एक करोड़ 98 लाख मतदाता आज एक दर्जन सांसदों का चुनाव करने घरों से निकले, लेकिन सुबह से ही सभी टेलीविजन चैनलों पर सिर्फ एक ही समाचार प्रमुखता से प्रसारित किया जाता रहा और वह था वाराणसी में नरेंद्र मोदी का नामांकन, लाइव। विरोधी दलों के वरिष्ठ नेता भी दम साधे खामोशी से पूरा तमाशा देखते रहे। चैनलों के संवाददाताओं ने बार-बार यह बताने की कोशिश की कि वाराणसी में नरेंद्र मोदी के रोड शो के दरम्यान जो भीड़ एकत्र हुई, वह वाराणसी के अपने लोग थे। लेकिन हकीकत ऐसी नहीं थी। पूर्वांचल की 20 लोकसभा सीटों में से कम से कम दस के प्रत्याशी एक दिन पूर्व से अपने समर्थकों के साथ वाराणसी आ धमके थे। इनकी संख्या हजारों में थी।



उन बंदों ने साफ साफ दो टुक शब्दों में कहा कि यूपी बाकी देश से अलग है क्योंकि यहां राजनीतिक समीकरण चुनाव प्रचार से मीडिया तूफान से बदलने वाले नहीं हैं।जिसे जहां वोट करना है,किसे जिताना है और किसे हराना है,उसकी मुकम्मल रणनीति होती है।बाकी देश की तरह हवा में बहकर यूपी वाले वोट नहीं डालते।


उन बंदों ने साफ साफ दो टुक शब्दों में कहा कि यूपी अकेला सूबा है,जहां आम आदमी कांग्रेस और भाजपा दोनों के खिलाफ है और लोग खुलकर बहुजन समाजवादी पार्टी,समाजवादी पार्टी और यहां तक कि आम आदमी पार्टी को वोट करके उन्हें सत्ता से बाहर रखने की हर चंद कोशिश में जुटे हैं।मीडिया चूंकि पेड न्यूज वाले हैं,इसलिए अंदर की इस हलचल पर उसकी कोई खबर नहीं है।


पश्चिम उत्तर प्रदेश के इन मुसलमानों ने मीडिया के इस कयास को कि मुसलामान सपा का साथ छोड़ चुके हैं,कोरी बकवास बताया।वे बोले कैराना और मुजफ्फरनगर में जरुर मुसलमान सपा से नाराज हैं।लेकिन यह नाराजगी भगवा जीत का सबब नहीं बन सकती।


उन बंदों ने साफ साफ दो टुक शब्दों में कहा कि मुसलमान हर कहीं यह देख रहे हैं कि कौन उम्मीदवार भाजपा को हरा सकता है।इसके अलावा मुसलमान भाजपा के सही उम्मीदवारों के हक में वोट डालने से भी परहेज नहीं कर रहे हैं।


उन बंदों ने साफ साफ दो टुक शब्दों में कहा कि भेड़ धंसान की तर्ज पर या किसी फतवे के मुताबिक भी मुसलमान वोट नहीं डाल रहे हैं।कांग्रेस,भाजपा,आप,सपा और बसपा को अपने हितों के मद्देनजर वोट डाल रहे हैं मुसलामान।कौमी हिसाब किताब से से जो चुनाव नतीजे ऐलान कर रहे हैं,वे सिरे से गलत हैं।


उन्होंने साफ साफ कहा कि बनारस में किसी मुख्तार की जागीर नहीं है मुस्लिम आबादी और काशी की तहजीब हजारों साल पुरानी है।वहां लोग हिंदू हो या मुसलमान,कौमी भाईचारे और अमनचैन की गंगा जमुनी विरासत के खिलाफ वोट हरगिज नहीं करेंगे।


वे अपनी बेरोजगारी और वोटबैंक बन जाने की लाचारी की शिकायत भी कर रहे थे।शिया सुन्नी और पसमिंदा समीकरण पर भी बात कर रहे थे।करीब पांच घंटे यह खुली बातचीत चली।


इसी के मध्य एक तीसेक साल का नौजवान ने आकर सीधे मेरे मुखातिब होकर कहा कि अंकल,आप मोदी के खिलाफ हैं क्या जो मोदी के खिलाफ इतना बोल रहे हैं।


मैंने विनम्रता पूर्वक कहा कि हम मोदी के खिलाफ नहीं हैं।मोदी तो इस्तेमाल किये जा रहे हैं।मोदी ब्रांडिग में जो देशी विदेशी पूंजी का खेल है,हम उसके खिलाफ हैं।हमने पूछा कि अगर वाजपेयी मुकाबले में होते तो क्या वे मदी की सरकार बनाने की बात करते।


उसने कहा,हरगिज नहीं।


हमने कहा कि मुकाबला तो भाजपा और संघ परिवार के बीच है।संघ परिवार सीधे सत्ता हासिल करने की फिराक में है और भाजपा को खत्म करने पर तुला है।


उसने काफी आक्रामक ढंग से बांग्लादेश और पाकिस्तान में हिंदुओं के कत्लेआम के बारे में पूरे संघी तेवर से हमारी राय पूछी तो हमने यकीनन गुजरात नरसंहार का मामला नहीं उठाया,बल्कि बांग्लादेश और पाकिस्तान के लोकतांत्रिक प्रतिरोध आंदोलनों का हवाला देते हुए बताया कि मध्यभारत और बाकी देश में नरसंहार संस्कृति क्या है।


हमने बताया कि देश के हर हिस्से में,हर सूबे में,हर शहर में कश्मीर है और अधिसंख्य नागरिकों के नागरिक और मानवाधिकार कारपोरेटहित में खत्म है और यही गुजरात माडल है।


उसकी तारीफ करनी होगी कि बेहद आक्रामक मिजाज का होने के बावजूद वह हमारी दलीलों को धीरज से सुन रहा था।


हमने उससे कहा कि अगर शिवराज सिंह चौहान को प्रधानमंत्रित्व का उम्मीदवार बनाया जाता तो मध्यप्रदेश के लोग क्या नमोममय भारत की रट लगाते,उसने बेहिचक कहा ,हरगिज नहीं।तो हमने कहा कि अगर मोदी रुक गये तो भाजपा का अगला दांव इन्हीं शिवराज पर होगा।


इसपर उसने जो कहा,वह हमें चौंकानवाली बात थी।उसने सीधे कहा कि शिवराज तो अंबानी से रोज मिलते हैं और मध्यप्रदेश में निवेश की पेशकश करते हैं।शिवराज भी तो बेदखली के कारोबार में है।न्यूक्लीअर प्लांट भी वे एमपी में लगा रहे हैं।तो मोदी और शिवराज में फर्क कहां है।


फिर उसको रोजगार और कारोबार के संकट पर बातें हुई और अंततः वह भी सहमत हुआ कि पहचान की इस सुनामी में युवाशक्ति को मालूम ही नहीं है कि कैसे उसके हाथ पांव दिलोदिमाग काटे जा रहे हैं।


हमें फिर एकदफा लगा कि हम अपने युवाजनों से संवाद के हालात नहीं बना सके हैं और बदलाव की राह में यह शायद निर्णायक रुकावट है।फिर उसने हमारी चर्चा में कोई हस्तक्षेप भी नहीं किया।


हमने लगातार लगातार विचारधारा और आंदोलन के नाम पर उन्हें पहचान की राजनीति में उलझाये रखा क्योंकि प्रतिरोध की राजनीति में हम अपनी खाल उधेड़ जाने से बेहद डरे हुए हैं।हम संपूर्ण क्रांति के नारे उछालकर उन्हें सड़कों पर उतार तो लेते हैं,लेकिन पीछे से चुपके से खिसक लेते हैं और मौका मिलते ही उन्हें दगा देकर सत्ता में शरीक होते हैं और उसके वैचारिक औचित्य की बहस में बदलाव के ख्वाब की निर्मम हत्या कर देते हैं।


बाकी फिर वही पहचान के अलावा कुछ हाथ में नहीं होता।पहचान चेतस युवाजनों के आक्रामक तेवर को समझने की जरुरत है जिसकी मूल वजह हमारी मौकापरस्ती और सत्तापरस्ती है जिससे हम इस कायनात को हमारे बच्चों के लिए खत्म करने पर तुले हुए हैं सिर्फ अपनी मस्ती खातिर बेहतर क्रयशक्ति के लिए।


विडंबना तो यह कि संस्थागत महाविनाशी फासीवादी ध्रूवीकरण इसी पहचान के गर्भ से हो रहा है,सुनामी का प्रस्थानबिंदू वही है और उसी से प्रतिरोध की रेतीली दीवारें खड़ी की जा रही हैं,जिनका दरअसल कोई वजूद है ही नहीं ,न हो सकता।


सीधे तौर पर कहे कि ध्रूवीकरण का मतलब है कि सिक्के के दो पहलुओं में से किसी एक को ठप्पा लगाओ,जो समान रुपेण कयामत ही कयामत है।तीसरा कोई विकल्प है ही नहीं।राजकरण की कोई तीसरी दशा या दिशा है ही नहीं।तस्वीर का रुख बदल देने से तस्वीर नहीं बदल जाती।


ध्रूवीकरण का तभी मतलब है कि जब कांग्रेस का विकल्प भाजपा हो या भाजपा का विकल्प कांग्रेस हो।


जबकि दोनों दरअसल एक है।


आप भाजपा को वोट देते हैं तो वोट कांग्रेस की सर्वनाशी नीतियों को ही वोट दे रहे होते हैं,जिन्हें भाजपा जारी रखेंगी।


कांग्रेस को वोट देते हैं भाजपा को रोकने के लिए तो यथास्थिति बनी रहती है।


दरअसल यथास्थिति और बदतर स्थिति ही दो विकल्प बचते हैं ध्रूवीकरण मार्फत जिसका नतीजा समान है।आपको तबाही की फसल काटनी है।


हमारे प्रिय मित्र आनंद तेलतुंबड़े सही कहते हैं कि वेस्ट मिनिस्टर प्रणाली अपनाकर हम औपनिवेशिक स्थायी बंदोबस्त ही जारी रखे हुए हैं और इस बंदोबस्त की बुनियादी खामियों को आंख में उंगली डालकर चिन्हित करने पर भी हमारा नजरिया बदलता नहीं है।


विडंबना यह है कि धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद और पहचान की राजनीति दोनों सत्तावर्ग के कुलीनतंत्र के वर्णवर्चस्वी तंत्र मंत्र यत्र के माफिक है।


अब धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद को रणनीतिक मतदान के माध्यम से या फौरी साझा मोर्चा बनाकर आप कैसे रोक सकते हैं,इस पहेली में उलझकर क्या कीजिये।


जाति,धर्म,भाषा और क्षेत्र के नाम पर पकी पकायी फसल तो धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की सबसे बेहतरीन शराब है।


फिरकापरस्ती और धर्मनिरपेक्षता के बहाने हम उसी पहचान के खड्ड में जा गिरते हैं,जिसमें जाति भी है,क्षेत्र भी,भाषा भी और धर्म भी।जिसमें गूंथी हमारी सोच बुनियादी बदलाव के लिए तैयार ही नहीं है।


हम इसी दलदल में हाथ के साथ हैं या कमल खिलाकर सांपों की फसल तैयार कर रहे हैं।जबकि मूल नस्लवादी मनुवादी व्यवस्था सत्तावर्ग का है और जनसंख्या के समानुपातिक कोई नुमाइंदगी सिरे से असंभव है तो अवसरों और संसाधनों के बंटवारे की कोई गुंजाइश ही नहीं बनती।


आपका समाज तो विखंडित है ही और आपकी राजनीति भी विखंडित।देश भी खंड खंड।


अर्थव्यवस्था पाताल में है और उत्पादन प्रणाली है ही नहीं।


खेती को तबाह कर जल जंगल जमीन और आजीविका से बेदखली के मार्फत अश्वमेधी अभियान के तहत हर हाल में आप न्याय,समानता और भ्रातृत्व,समरसता और विविधता की उम्मीद पाले हुए हैं जबकि आनंद तेलतुंबड़े की मानें तो चुनावी नतीजे इस बंदोबस्त में जो भी होंगे,उसके सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक नतीजे एक दूसरे से बेहतर तो हो ही नहीं सकते।


क्योंकि यह स्थाई बंदोबस्त सत्ता वर्ग के लिए है,सत्ता वर्ग द्वारा है और सत्ता वर्ग का ही है।आप जैसे हजारों सालों से बहिस्कृत और वध्य हैं,जैसा भी जनादेश रचे आप,आप नियतिबद्ध हैं मारे जाने के लिए।


हमारे तमाम मित्र चुनाव खर्च का हवाला दे रहे हैं।आंकड़े भी उपलब्ध है कि कैसे पांच साल में चुनावों पर पांच लाख करोड़ खर्च हो गये। अब जायज सवाल तो यही है करीब दस करोड़ रुपये चुनाव जीतने के लिए लगाने वाले हमारे जनप्रतिनिधि अरबपति बनने के अलावा सोच भी क्या सकते हैं।


अरुंधति राय ने पहले ही लिखा था कि हमें दरअसल यही चुनना है कि देश की बागडार हम किसे सौंपे,अंबानी को या टाटा को।अपने ताजा इंटरव्यू में उन्होंने कहा है कि हम दरअसल उसे चुन रहे हैं जो लाचार निःशस्त्र जनताविरुद्धे सैन्य कार्रवाई का आदेश जारी करें।


अब नमो के इस आध्यात्मिक प्रवचन में गुजरात माडल का खुलासा देख लीजियेः


भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने वाराणसी को दुनिया की आध्यात्मिक राजधानी बनाने का वादा किया। उन्होंने कहा-ईश्वर मुझे शक्ति दे ताकि मैं शहर के लिए, अपने गरीब बुनकर भाइयों के लिए काम कर सकूं। काशी दुनिया की आध्यात्मिक राजधानी बन सके।

भाजपा नेता ने अपनी जन्मभूमि गुजरात के वाडनगर और वाराणसी के बीच संबंधों का जिक्र करते हुए कहा कि दोनों भगवान शिव का पूजा करने वाले श्रद्धालुओं का केंद्र रहे हैं। मोदी ने वाराणसी के बुनकर समुदाय तक भी पहुंच बनाने का प्रयास किया जिनकी संख्या इस सीट पर अच्छी खासी है और उनमें से काफी मुसलमान हैं। उन्होंने कहा-मैं बुनकरों के बारे में कह सकता हूं कि ये बहुमूल्य अमानत हैं। उन्हें प्रौद्योगिकी उन्नयन, विपणन, ब्रांडिंग, डिजाइनिंग के संबंध में मदद दी जाएगी। अगर हम इस तरह का आधार तैयार करते हैं, तो मुझे नहीं लगता कि काशी के बुनकर चीन से मिल रही प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं कर सकेंगे। गुजरात में पतंग कारोबार में लगे अल्पसंख्यक व्यापारियों की रोजगार की हालत जो पहले थी उसकी जिम्मेदार गैर भाजपाई सरकार रही है। लेकिन मेरी सरकार आने पर पतंग व्यवसाय को वैश्विक बाजार से जोड़ दिया गया है। 2003-04 में तीन करोड़ के कारोबार की अपेक्षा आज सात सौ करोड़ रुपए का कारोबार हो रहा है। बनारस पर्यटन का बहुत बड़ा केंद्र है। हस्तशिल्प और कारीगरी के लिए विश्व विख्यात है। इसके बावजूद नौजवान रोजगार के लिए भटक रहे हैं। बनारसी पान, बनारसी साड़ी का पूरे विश्व में वर्चस्व था। यह उद्योग आज अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं। इतने वर्षों के बाद भी हम बनारस के लिए कोई नया ब्रांड नहीं तैयार कर सके। यहां के कुटीर उद्योग और हथकरघा, हस्तशिल्प को पूर्ण रूप से जीवित करना होगा जिससे रोजगार का सृजन होगा इसका पुराना गौरव भी वापस आएगा।

मोदी ने गंगा नदी को बेहतर बनाने के लिए काम करने के अपने इरादे का जिक्र करते हुए कहा-महात्मा गांधी को साबरमती के संत के रूप में जाना जाता है। मुझे साबरमती के लिए काम करने का मौका मिला। आप इंटरनेट पर देखें तो पाएंगे कि किस तरह काम किया जा सकता है। ईश्वर मुझे गंगा मैया और काशी के लिए काम करने की ताकत दे। मुझे इस भूमि की सेवा करने का मौका मिला है जहां बुद्ध ने अपना संदेश दिया था।

साभार जनसत्ता




Sushanta Kar

10:56am Apr 25

সারা দেশ ভ্রমণ করে রাতে আদানীর টাকাতে বাড়ি ফিরে না গেলে যার ঘুম ভালো হয় না, এমন বিলাসি ভাবী প্রধানমন্ত্রী পরিবর্তন আনবেন। Almost every day, Modi takes off from Ahmedabad airport in an EMB-135BJ, an Embraer aircraft, for his rallies. The jet is owned by Karnavati Aviation, a group company of the Adani Group. "We record two movements of Modi's aircraft daily. No matter where he goes to address rallies, he always comes back home," said an air traffic control official.


Recently, Modi's aircraft was denied permission to fly by DGCA in Delhi for over two hours, following which he lashed out at the central government for stalling his movement. Ever since, Modi has increased the use of choppers to cover smaller distances. "Mostly, politicians use chopper to reach places where bigger aircraft can't reach," said an ATC official.


Over the past few days, Modi flew in an Augusta AW-139 chopper, owned by the DLF Group, for his rallies in north India, especially in Uttar Pradesh and Bihar. 'Fleet of 3 aircrafts ensures Modi is home every night after day's campaigning', Times of India, April 22, 2014http://kafila.org/2014/04/24/modi-fascism-and-the-rise-of-the-propaganda-machine/

कृपया इसे भी देखेंः


मोदी का मुखौटा ओम थानवी



Friday, 25 April 2014 12:46

ओम थानवी

एक दफा गोविंदाचार्य ने अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में कहा था कि वे भाजपा का मुखौटा हैं। यानी दिखाने वाले दांत। सच बोलने के लिए गोविंदाचार्य हमेशा के लिए भाजपा से बाहर कर दिए गए।

नरेंद्र मोदी मुखौटा नहीं हैं। संघ की मरजी से उनकी प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी तय हुई है। मोदी की विजय के लिए स्वयंसेवक जितनी भाग-दौड़ कर रहे हैं, पहले उन्होंने शायद ही कभी की होगी। वे घर-घर जा रहे हैं। सभाओं में सक्रिय हैं। सोशल मीडिया पर भी पांव पसारे हैं।

लेकिन नरेंद्र मोदी ने अपना संघ का चेहरा, लगता है, कुछ छुपा लिया है। अब उनके चेहरे पर स्वेच्छा से ओढ़ा हुआ मुखौटा है। वे खुले संदेश भेजकर उन नेताओं को भाषा की तमीज और विचार की शुचिता समझा रहे हैं, जो कट्टर ढंग से पेश आ रहे हैं। मसलन पार्टी के नेता गिरिराज सिंह और विश्व हिंदू परिषद के नेता प्रवीण तोगड़िया के बयानों पर उनकी प्रतिक्रिया।

गिरिराज सिंह ने पूर्व पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी की मौजूदगी में कहा था कि मोदी को रोकने वालों के लिए भारत में कोई जगह न होगी, उनके लिए पाकिस्तान में ही जगह बचेगी। तोगड़िया ने मुसलमानों को हिंदू-बहुल बस्तियों से खदेड़ने की बात कही थी। गिरिराज सिंह के बयान पर ट्वीट करते हुए मोदी ने कहा कि इस तरह के बयान देने वालों से वे ''अपील'' करते हैं कि इनसे बचें। तोगड़िया का बयान आने पर उन्होंने कहा- इस तरह के संकीर्ण बयान देकर खुद को भाजपा का शुभचिंतक बताने वाले विकास और अच्छे शासन के मुद्दे से भटक रहे हैं।


सी बीच मोदी ने टीवी पर अपने चेहरे पर नरमी का इजहार शुरू किया है। वे मुस्कुराते हैं, हंसी-ठठ्ठा भी करते हैं। कभी इंटरव्यू में करण थापर के शुरुआती सवाल पर ही बिदक कर उठ खड़े होने वाले मोदी लंबे-लंबे इंटरव्यू दे रहे हैं। वे एकाधिक पत्रकारों- ज्यादातर श्रवणशील- के सामने भी ढेर सवालों के जवाब देते हैं। उनके ये जवाब प्रचार कंपनी के जुमलों (मिनिमम गवर्मेंट, मेक्सिमम गवर्नेंस!) से हटकर हैं।

लेकिन क्या सचमुच हमारे सामने बदले हुए नरेंद्र मोदी आ गए हैं? क्या ये उदार विचार और नरम तेवर उनके मानस की किसी 'फॉरमेटिंग' का संकेत देते हैं?

कोई नादान ही उनकी इस 'मासूमियत' पर फिदा होना चाहेगा। कुछ चीजें उनके संकीर्ण मानस की पहचान बन चुकी हैं। नहीं लगता कि उन पर वे किसी भी सूरत में आंच आने देना चाहेंगे। वे जानते हैं उनकी हार-जीत का दारोमदार हिंदू मतों पर ही है। अगर वे 2002 के कत्लेआम में अपने शासन की विफलता के लिए ही माफी मांग लें तो 'मोदी-मोदी' का जयघोष करता वर्ग उनसे फौरन छिटक जाएगा।

इसी तरह, मुसलिम टोपी न पहनने की जिद को इन्हीं चुनावों में उन्होंने दिखावे का ''पाप'' ठहरा डाला। जबकि उनकी पार्टी के ही अध्यक्ष राजनाथ सिंह यह ''पाप'' लखनऊ में कर रहे थे।

अभी दो रोज पहले, इस उदार दौर में, बरबस उनके असल चेहरे की पहचान उभर आई। मुंबई में चुनाव सभा में उनकी मौजूदगी में शिवसेना के रामदास कदम ने मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला और मोदी की ओर इशारा कर कहा कि ''वे (मोदी) सत्ता में आए तो छह महीने के भीतर पाकिस्तान को खत्म कर देंगे।''

तब मोदी सुनते रहे। उस सभा का ठीक उस घड़ी का वीडियो देखें तो मोदी के चेहरे पर परेशानी या झुंझलाहट के भाव जरा नहीं दिखाई देते। दरअसल, यही मोदी का असल चेहरा है। वे इससे छुटकारा पाना चाहते हैं, इसका कोई प्रमाण 'अच्छे दिनों' के चुनाव प्रचार में अब तक कहीं देखने को नहीं मिला। उलटे उनके सबसे विश्वस्त अमित शाह ने उत्तर प्रदेश में ही मुसलमानों से बदला लेने की हुंकार भरी।

क्या अमित शाह मोदी से विपरीत विचार लेकर चलते हैं? क्या मोदी को उनके प्रचार अभियान, प्रचार के क्षेत्र और प्रचार की विषय-वस्तु की कोई जानकारी नहीं। यह नामुमकिन है।

मोदी के चुनाव प्रचार की विषय-वस्तु पर शोध करने, लिखने, तरतीबवार करने पर कोई ढाई सौ लोग तैनात हैं। इनके साथ मोदी के नजदीकी सलाहकार सक्रिय हैं। विषय-वस्तु को अंतिम रूप मोदी की सहमति से ही मिलता है। 'द टेलीग्राफ' ने इस बंदोबस्त और प्रक्रिया पर विस्तार से जानकारी दी है।

जाहिर है, उदारता का तेवर मोदी का ताजा फैसला है। उन्हें जीत के लिए उस सहिष्णु वर्ग का समर्थन भी जरूरी लगने लगा है, जो शायद तटस्थ है। संभव है कि उनके शोधकर्ताओं ने हिंदुत्व के भरोसे दाल गलते न देखी हो। वरना मोदी खुलेआम मुसलमानों और पाकिस्तान के बारे में खुद जहर बुझी बोली बोलते आए हैं। उनके समर्थकों ने उनकी प्रशासनिक काबिलियत के इजहार के लिए यू-ट्यूब पर इंडिया टीवी की 'अदालत' का एक टुकड़ा प्रचारित किया। उसमें यह पूछने पर कि आतंककारियों के मुंबई हमले के वक्त आपके हाथ कमान होती तो  क्या करते? मोदी कहते हैं- वही करता जो मैंने गुजरात में किया था। पाकिस्तान? उसे उसकी भाषा में जवाब देंगे। पाकिस्तान हमला कर चला जाए तो अमेरिका नहीं, पाकिस्तान 'में' जाना होगा। विरोधियों को पाकिस्तानी एजेंट ठहराने का विचार भी पहले-पहल खुद मोदी के दिमाग में ही कौंधा था।

लेकिन यह उनका पुराना तेवर है। अब ऐसा बोलने वाले को वे रोकेंगे। 272 का लक्ष्य दूर नजर आने लगा है। राजग मिलकर भी बेड़े को पार न लगा सका तो? नैया कौन पार लगाएगा? और किस शर्त पर। क्या शर्त मोदी पर आकर रुक जाएगी?

इन्हीं संशयों ने अचानक एक 'नया' मोदी हमें दिया है। जो राममंदिर, समान नागरिक संहिता और धारा 370 के एजेंडे के मानो खिलाफ खड़ा है- ''संविधान देश को चलाता है, वही सर्वोच्च है।'' लेकिन चुनाव प्रचार में सामने आए तेजी के तेवर? वे तो ''चुनावी'' होते हैं जी!

अगर नरेंद्र मोदी का यह बुनियादी सोच होता तो पूरा चुनाव प्रचार अलग धुरी पर खड़ा होता। मगर चुनाव प्रचार उसी तर्ज पर है। अमित शाह, गिरिराज सिंह या रामदास कदम की गूंज यहां-वहां बनी रहेगी। लेकिन 'भावी प्रधानमंत्री' की नरम, नम्र, 'स्टेट्समैन' छवि अब वे मजबूरन पेश करेंगे।

हिसाब लगाया गया है कि 'मोदी सरकार' की संभावना खड़ी करने में पांच हजार करोड़ रुपया खर्च हुआ है। मनमोहन सिंह सरकार से मोहभंग के बाद कारपोरेट लॉबी 'विकास पुरुष' मोदी की गद्दीनशीनी के लिए कमर कसे बैठी है। इसलिए साधनों की कमी कैसे हो सकती है! इतना सघन, व्यक्ति-केंद्रित प्रचार शायद ही पहले हमारे यहां हुआ होगा।

राजीव गांधी ने 'रीडिफ्यूजन' के जरिए जब मगरमच्छों वाले डरावने चुनाव प्रचार का सहारा लिया था, वह अभियान भी इतना पेशेवराना न था। मोदी की ब्रांडिंग प्रचार-प्रबंधकों ने साबुन-तेल की तरह शुद्ध व्यावसायिक शैली में की है। वह इतनी आक्रामक है कि खुद पार्टी के दिग्गज हैरान- और कुछ बेचैन भी- हैं।

लेकिन लगता है यह चुनाव प्रचार जो संदेश अब तक नहीं दे सका- या उन्होंने देना न चाहा- उसे मोदी अब टीवी के जरिए घरों में जा-जा कर खुद दे रहे हैं। एकबारगी बड़ा सुखद लगता है। सबको साथ लेकर चलना है। एक नया भारत बनाना है। संविधान माईबाप है। पड़ोसी भाई हैं। भाईचारा बढ़ाना है।

जैसे मोदी में देवता जागा हो। लेकिन यह सब चुनावी रणनीति का दूसरा तेवर है। चेहरे पर दूसरा चेहरा। मुखौटा। सच्चाई क्या है, यह वक्त साबित कर देगा- अगर मोदी सत्तासीन हो सके।

 




Sushanta Kar

8:48pm Apr 24

আপনি যদি ভাবছেন গেলবারে বাজারে চড়া দামে আলু-প্যাঁজ কিনতে হয়েছে তাই এবারে নির্বাচনে বিনে পয়সার ভোট দিয়ে পরিবর্তন নিয়ে আসবেন, (আমাদের প্রদেশে অবশ্যি সেই সুযোগের আজ শেষ পর্ব গেল) তবে আপনার হিসেবে ভুল হলেও হতে পারে। আজ একটা হিসেব করে দেখি, এই দেশে কোনো কোনো বাজারে এক একটি সাংসদ সমষ্টিতে পরিবর্তনের মূল্য হতে পারে নয় কোটি টাকার চাইতেও অনেক বেশি। যা পাঁচ বছরে সাংসদ উন্নয়ন তহবিলের মোট ধনের প্রায় সমান। কী রকম? আমি ভেবেছিলাম এবারে হিন্দুত্ববাদীরা সব মিলিয়ে ৫০০০ কোটি টাকা ব্যয় করছে নির্বাচনে। এটাই যে কোনো দলের ব্যয়ের মধ্যে সবচাইতে বড় অংক। না, আজ দেখি কাগজে এটা শুধু টিভি-কাগজে বিজ্ঞাপনের ব্যয়। অন্যান্য হেলিকপ্টার থেকে সাইকেল মটর সাইকেলে ঘুরে বেড়ানো, কর্মীদের ব্যয় জোগানো, খাওয়া দাওয়া থাকা ইত্যাদিতো রইলই। তো, শুধু বিজ্ঞাপন ব্যয়ও যদি ধরি তবে প্রতিটি সাংসদ আসন প্রতি ৯ কোটিরও বেশি ব্যয় হলো কিনা? ভাবুন দেখি এই দুর্মূল্যের বাজারে পরিবর্তন ঠিক কতটা দামি জিনিস! কে কিনছে? কার স্বার্থে! কার স্বার্থে বানের তোড়, কার স্বার্থে ঝড়ো হাওয়া! সে কি শুধুই ভোলামন কাশি বিশ্বনাথ?! না কি অন্নপূর্ণা মা?!

"নির্বাচনে ঠিক হতে যাচ্ছে সমস্যাপূর্ণ মানুষগুলির উপর মিলিটারি ছাড়বে কে।" — অরুন্ধতী রায়

৩০ মার্চ  ২০১৪ জর্জিয়া স্ট্রেইটে ভারতের প্রখ্যাত লেখিকা অরুন্ধতী রায়  এর একটি সাক্ষাৎকার প্রকাশিত হয়। আমেরিকার ভ্যানকুভারে এপ্রিলের ১ তারিখে একটি পাবলিক লেকচার দেওয়ার জন্য নিউইয়র্কে অবস্থান করছিলেন তিনি। নিউইয়র্ক থেকে টেলিফোনে সাক্ষাৎকারটি দেন তিনি। সাক্ষাৎকারে ভারতের নির্বাচন, কর্পোরেটদের নিয়ন্ত্রণ, প্রধান দুই দলের রাজনীতি, ভারতে ধনী-গরীবের অসমতা, দলগুলির রাজনৈতিক কৌশল, আন্না হাজারে, ভারতের এলিটদের অসমতা নিয়ে কথা না বলা ইত্যাদি বিষয়ে কথা বলেন। তাঁর কথায় ভারতের রাজনীতির অনেক গুরুত্বপূর্ণ দিক উঠে এসেছে। অরুন্ধতী রায় মনে করেন, ভারতের কর্পোরেট শক্তি চায় নরেন্দ্র মোদীকে প্রধানমন্ত্রী হিসাবে দেখতে। তিনি মনে করেন, নরেন্দ্র মোদী প্রধানমন্ত্রী হলে ভারতের গ্রামের গরীব জনগোষ্ঠীর উপর সেনাবাহিনী ছেড়ে দিবেন।

অরুন্ধতী রায়; ছবি. সঞ্জয় কাক; সৌজন্য: pcp.gc.cuny.edu

সাক্ষাৎকার: চার্লি স্মিথ

ভারতীয় লেখিকা অরুন্ধতী রায় সারা পৃথিবীকে জানাতে চান তার দেশ সে দেশের সবচেয়ে বড় কর্পোরশনগুলির নিয়ন্ত্রণে আছে।

অরুন্ধতী নিউইয়র্ক থেকে জর্জিয়া স্ট্রেইটকে ফোনে বলেন, "সব সম্পদ খুব অল্প সংখ্যক হাতে জমা হয়েছে। এবং এই অল্প সংখ্যক কর্পোরেশন এখন দেশ চালায় এবং কোনো কোনো ক্ষেত্রে তারা রাজনৈতিক দলগুলিকেও নিয়ন্ত্রণ করে। তারা মিডিয়াও চালায়।"

দিল্লীর এই ঔপন্যাসিক এবং লেখিকা বলেন, মধ্যবিত্তদের কথা বাদ দিলে, এর ফলে ভারতের শত শত লক্ষ গরীব মানুষের উপর মারাত্মক ক্ষতিকর প্রভাব পড়ছে।

অরুন্ধতী স্ট্রেইটের সাথে এপ্রিলের ১ তারিখ সন্ধ্যা আটটায় অনুষ্ঠিত একটি পাবলিক লেকচারের ব্যাপারে কথা বলেন। পাবলিক লেকচারটি হয়েছিল নেলসন স্ট্রিট এবং বারার্ডের কোণায় সেইন্ট অ্যান্ড্রু'স উয়ীসলী ইউনাইটেড চার্চে। তিনি বলেন এটা হবে তাঁর প্রথম ভ্যানকুভার ভ্রমণ।

গত কয়েক বছর ধরে তিনি গবেষণা করে দেখেছেন ভারতের বড় বড় কর্পোরেশনগুলি–যেমন রিলায়েন্স, টাটা, এসার, এবং ইনফোসাইস–কীভাবে তারা মার্কিন যুক্তরাষ্ট্র ভিত্তিক রকফেলার ফাউন্ডেশন এবং ফোর্ড ফাউন্ডেশনের মত কৌশল অবলম্বন করছে।

তিনি বলেন, রকফেলার ফাউন্ডেশন এবং ফোর্ড ফাউন্ডেশন দীর্ঘদিন যুক্তরাষ্ট্র সরকারের স্টেট ডিপার্টমেন্টে, সেন্ট্রাল ইন্টেলিজেন্স এজেন্সিতে  এবং পরে কর্পোরেট উদ্দেশ্য নিয়ে অতীতে অনেক কাজ করেছে।

তিনি বলেন, এখন ভারতীয় কোম্পানিগুলি জনগণের এজেন্ডা নিয়ন্ত্রণ করার জন্য দাতব্য ফাউন্ডেশনগুলির মাধ্যমে টাকা বিতরণ করছে। এই পদ্ধতিকে তিনি বলেন 'পারসেপশন ম্যানেজমেন্ট' বা 'উপলব্ধির জায়গা নিয়ন্ত্রণ'। এই পদ্ধতির মধ্যে পড়ে বেসরকারী সংস্থাগুলিকে চ্যানেলিং ফান্ড প্রদান, চলচ্চিত্র এবং সাহিত্য উৎসব এবং বিশ্ববিদ্যালয়।

তিনি আরো উল্লেখ করেন যে টাটা গ্রুপ এটা গত কয়েক দশক ধরে করছে কিন্তু অন্যান্য বড় সংস্থাগুলি এই ব্যাপারটি অনুসরণ করতে শুরু করেছে।

পাবলিক ফান্ডিং-এর জায়গা নিচ্ছে ব্যক্তিগত সম্পত্তিঅরুন্ধতী রায়ের মতে, এ সবকিছুর উদ্দেশ্য আসলে অসমতা বাড়িয়ে তোলে এমন নিওলিবারেল পলিসির সমালোচনাকে চাপা দেওয়া।

আস্তে আস্তে তারা কী কী কাজ হবে তা নির্ধারণ করে। তারা জনগণের চিন্তা-ভাবনা নিয়ন্ত্রণ করে। ফলে জনগণের জন্য নির্ধারিত স্বাস্থ্যখাত এবং শিক্ষাখাতের টাকা সেসব খাত থেকে বাদ পড়ে যায়। এসব বড় বড় কর্পোরেশনগুলি এনজিওদের ফান্ড দিয়ে এবং অন্যান্য অর্থনৈতিক কার্যক্রমের মাধ্যমে ঔপনিবেশ আমলে মিশনারিরা যা করত তাই করে। আর নিজেদের দাতব্য সংস্থা হিসাবে প্রতিষ্ঠা করে। কিন্তু তারা আসলে পৃথিবীকে কর্পোরেট-পুঁজির মুক্ত বাজারে পরিণত করার কাজটা করে।

অরুন্ধতী রায় ১৯৯৭ সালে দি গড অব স্মল থিংস-এর জন্য বুকার পুরস্কার পান। তখন থেকে তিনি যেসব খনির উত্তোলন এবং বিদ্যুৎ প্রকল্প গরিবদের উচ্ছেদ করে তার বিরুদ্ধে আন্দোলনের মাধ্যমে ভারতের গুরুত্বপূর্ণ সমাজ-সমালোচক হিসাবে কাজ করে আসছেন।

হাজারে তাঁর সাদা টুপি এবং প্রথাগত ভারতীয় সাদা পোশাকে সারা পৃথিবীর কাছে আধুনিক দিনের মহাত্মা গান্ধী হিসেবে স্বীকৃতি পেয়েছেন। কিন্তু অরুন্ধতী দুজনকেই বলেন 'মারাত্মক বিরক্তিকর'। তিনি হাজারের কথা বলেন, তার পিছনের কর্পোরেট সমর্থকদের জন্য তিনি 'এক ধরনের মাসকট'।



ভারতের বিভিন্ন প্রদেশে নকশাল আন্দোলনের মাধ্যমে যেসব দারিদ্র্যপীড়িত গ্রামীণ জনগোষ্ঠী তাদের নিজস্ব জীবনধারা রক্ষা করতে হাতে অস্ত্র তুলে নিয়েছেন তিনি তাদের নিয়েও লেখালেখি করেছেন।

তিনি বলেন, প্রতিবাদ আন্দোলনে মানুষ যে সাহস এবং বিচক্ষণতা দেখায় আমি তার প্রশংসা করি। এবং সেখান থেকেই আমার বোঝাপড়া তৈরি হয়।

তাঁর মনোযোগের প্রধান একটি বিষয় হলো কীভাবে ফাউন্ডেশনের ফান্ড পাওয়া এনজিওগুলি "জনগণের আন্দোলন নষ্ট করে দেয়… রাজনৈতিক ক্রোধকে নিঃশেষ করে এবং তাদেরকে একটি কানাগলিতে নিয়ে যায়।"

তিনি বলেন, নির্যাতিত জনগোষ্ঠীকে বিভক্ত করে রাখাটা খুব গুরুত্বপূর্ণ। এটা পুরো কলোনিয়াল-গেম, এবং বৈচিত্র্যের কারণে ভারতে এটা খুব সহজ।

অরুন্ধতী পুঁজিবাদের উপর একটি বই লিখছেন২০১০ সালে তিনি যখন বলেন কাশ্মীর ভারতের সাথে অবিচ্ছেদ্য না তখন তাঁর বিরুদ্ধে রাষ্ট্রদ্রোহের অভিযোগ আনার চেষ্টা করা হয়েছিল। উত্তরাঞ্চলের এই প্রদেশটি অনেকদিন ধরেই ভারত এবং পাকিস্তানের অভ্যন্তরীণ বিরোধের মূল বিষয় হয়ে আছে।

অরুন্ধতী স্ট্রেইটকে বলেন, এই ব্যাপারে কিছু পুলিশী তদন্ত হওয়ার কথা ছিল কিন্তু তা আর হয়নি। ভারতে এরকম হয় আসলে। তারা মনে করে আপনার মাথার ওপর এইসব ঝুলিয়ে রাখলে তা কাজ করবে এবং আপনি আরো সাবধানী হয়ে যাবেন।

স্পষ্টতই এই ব্যাপারটি তাঁকে চুপ করাতে পারে নি। তাঁর সামনের বই ক্যাপিটালিজম: এ ঘোস্ট স্টোরি'তে তিনি দেখিয়েছেন কীভাবে ভারতের ১০০ জন ধনী ব্যক্তি দেশের নিত্য ব্যবহার্য পণ্যের এক-চতুর্থাংশ নিয়ন্ত্রণ করেন।

২০১২ সালে একই নামে তাঁর লেখা দীর্ঘ একটি প্রবন্ধ থেকে তিনি বইটি লিখছেন। এই প্রবন্ধটি ভারতের আউটলুক ম্যাগাজিনে প্রকাশিত হয়েছিল।

অরুন্ধতী লিখেছেন, ভারতে আইএমএফ পরবর্তী তিনশ মিলিয়ন মধ্যবিত্ত এবং বাজার নিম্নমানের একটা পৃথিবীতে বাঁচে। সেখানে মরে যাওয়া নদী, শুকিয়ে যাওয়া কুয়া, শূন্য হয়ে যাওয়া পাহাড় এবং উচ্ছেদ হয়ে যাওয়া বনভূমির ভিতর বাঁচতে হয় তাদের।

এই প্রবন্ধে দেখানো হয়েছে কীভাবে ফাউন্ডেশনগুলি ভারতের নারীবাদী সংস্থাগুলিকে নিয়ন্ত্রণ করে, কীভাবে নিজেদের মনের মত থিঙ্ক-ট্যাঙ্কগুলি পরিচালনা করে। দেখানো হয়েছে কীভাবে ভারতে 'দলিত' সম্প্রদায় থেকে স্কলার নির্বাচিত করে। পশ্চিমে 'দলিত' সম্প্রদায়কে অস্পৃশ্য হিসাবে উল্লেখ করা হয়।

যখন উত্তেজিত হিন্দু জনতা হত্যাকাণ্ড চালাচ্ছিল তখন পুলিশ নিষ্ক্রিয়ভাবে ঘটনাস্থলে দাঁড়িয়ে দাঁড়িয়ে দেখছিল। কয়েক বছর পরে, পুলিশের একজন সিনিয়র কর্মকর্তা স্বীকার করেছিলেন মোদী খোলাখুলিভাবে সেই হত্যাকাণ্ড অনুমোদন করেছিলেন। যদিও মোদী বারবার এই অভিযোগ অস্বীকার করেছেন।



উদাহরণ হিসাবে তিনি দেখিয়েছেন, রিলায়েন্স গ্রুপের অবজার্ভার রিসার্চ ফাউন্ডেশনের একটি নির্ধারিত লক্ষ্য আছে। তা হলো, অর্থনৈতিক পুনর্গঠনের পক্ষে ঐকমত্য অর্জন করা।

অরুন্ধতী বলেন, অবজার্ভার রিসার্চ ফাউন্ডেশন পারমাণবিক, বায়োলজ্যিকাল এবং রাসায়নিক হুমকির পাল্টা ব্যবস্থা কী হবে তা নির্ধারণ করে।

তিনি এখানে দেখিয়েছে অবজার্ভার রিসার্চ ফাউন্ডেশনের পার্টনারদের মধ্যে আছে রেথিওন এবং লকহীড মার্টিনের মত অস্ত্র তৈরিকারক প্রতিষ্ঠান।

আন্না হাজারে একটি কর্পোরেট মাসকটের ডাক দিয়েছিলেনস্ট্রেইটের সাথে ইন্টারভিউতে অরুন্ধতী দাবি করেন, খুব বিখ্যাত 'ইন্ডিয়া অ্যাগেইন্সট করাপশন' ক্যাম্পেইন হলো আরেকটি কর্পোরেট অনধিকারচর্চার উদাহরণ।

অরুন্ধতী রায়ের মতে, এই আন্দোলনের নেতা আন্না হাজারে আন্তর্জাতিক পুঁজির সামনের দিক হিসাবে কাজ করেছেন। আর এর উদ্দেশ্য ছিল যে কোনো ধরনের স্থানীয় বাঁধা সরিয়ে ভারতের সম্পদে প্রবেশ করার সুযোগ অর্জন করা। হাজারে তাঁর সাদা টুপি এবং প্রথাগত ভারতীয় সাদা পোশাকে সারা পৃথিবীর কাছে আধুনিক দিনের মহাত্মা গান্ধী হিসেবে স্বীকৃতি পেয়েছেন। কিন্তু অরুন্ধতী দুজনকেই বলেন 'মারাত্মক বিরক্তিকর'। তিনি হাজারের কথা বলেন, তার পিছনের কর্পোরেট সমর্থকদের জন্য তিনি  'এক ধরনের মাসকট'।

অরুন্ধতীর দৃষ্টিতে, 'স্বচ্ছতা' এবং 'আইনের শাসন' শব্দ দুটি কর্পোরেশনের জন্য স্থানীয় ক্যাপিটাল একত্রিত করার চাবিকাঠি। আর আইনকে পাশ কাটিয়ে সে উদ্দেশ্য পূরণই পরবর্তীতে কর্পোরেটের মূল আগ্রহ।

তিনি বলেন, এটা মোটেই আর্শ্চযের বিষয় না যে অধিকাংশ প্রভাবশালী ভারতীয় পুঁজিবাদীরা জনগণের মনোযোগ রাজনৈতিক দুর্নীতির দিকে সরাতে চাইবে, যেমন সাধারণ ভারতীয়রা ভারতের অর্থনীতির ধীরগতি নিয়ে চিন্তা করবে। আসলে, এই সাধারণ চিন্তাটিই প্রতিবাদে পরিণত হয় যখন মধ্যবিত্ত বুঝতে শুরু করে ধীরগতির অর্থনীতির চাকা থেমে গেছে।

অরুন্ধতী বলেন, প্রথমবারের মত মধ্যবিত্তরা কর্পোরেশনগুলির দিকে তাকিয়ে ছিল এবং বুঝতে পেরেছিল তারা আসলে মারাত্মক দুর্নীতির উৎস। আগে যেখানে তাদেরকে উপাসনা করত। তখন ইন্ডিয়া এগেইন্সট করাপশন আন্দোলন শুরু হয়। আর এর স্পটলাইট তখনই ঘুরে পড়ল সবচেয়ে আকর্ষণীয় জায়গায়–রাজনীতিবিদ আর কর্পোরেশনগুলি এবং কর্পোরেট মিডিয়া এবং সবাই এটার উপর হুমড়ি খেয়ে পড়লো এবং তাদের ২৪ ঘণ্টার কভারেজ দিল।

আউটলুকে তাঁর প্রবন্ধটি দেখিয়েছে হাজারের সাথে প্রভাবশালী ব্যক্তিবর্গের সম্পর্ক, অরবিন্দ কেজরিওয়াল এবং কিরণ বেদী। এই দুজনই যুক্তরাষ্ট্রের দেয়া ফান্ডের মাধ্যমে এনজিও চালান।

তিনি আউটলুকে লিখেছেন, অকুপাই ওয়ালস্ট্রিট আন্দোলন যেমন প্রাইভেটাইজেশন, কর্পোরেট ক্ষমতা অথবা অর্থনৈতিক পুনর্বিন্যাসের বিরুদ্ধে বলেছে, আন্না হাজারের আন্দোলন প্রাইভেটাইজেশন, কর্পোরেট ক্ষমতা অথবা অর্থনৈতিক পুনর্বিন্যাসের বিরুদ্ধে একটি কথাও বলেনি।

নরেন্দ্র মোদী ডানপন্থীদের রক্ষাকারী

অরুন্ধতী রায় স্ট্রেইটকে বলেন, কর্পোরেট ভারত নরেন্দ্র মোদীকে ভারতের পরবর্তী প্রধানমন্ত্রী হিসাবে চাচ্ছে কারণ বর্তমান ক্ষমতায় থাকা কংগ্রেস পার্টি বাড়তে থাকা প্রতিবাদ আন্দোলনের বিরুদ্ধে যথেষ্ট নির্মম থাকতে পারেনি।

তিনি বলেন, আমার মনে হয় সামনের নির্বাচনে ঠিক হতে যাচ্ছে সমস্যাজনক মানুষের ওপর মিলিটারি ছাড়বে কে।

বিভিন্ন প্রদেশে সশস্ত্র বিদ্রোহ বড় ধরনের খনন কাজ এবং অবকাঠামোগত প্রকল্পে বাঁধা দিয়েছে। এই প্রকল্পগুলি বাস্তবায়িত হলে অনেক বেশিসংখ্যক মানুষকে স্থানান্তরিত হতে হত।

এই ধরনের অনেক শিল্পোন্নয়ন ২০০৪ সালে স্বাক্ষরিত হওয়া আন্ডারস্ট্যান্ডিং স্মারকলিপির বিষয় ছিল।

ইন্ডিয়ার মাওবাদী গেরিলা যোদ্ধাদের সঙ্গে কথা বলছেন অরুন্ধতী রায়

হিন্দু জাতীয়তাবাদী বিজেপি কোয়ালিশনের প্রধান ২০০২ সালে ভারতের গুজরাট রাজ্যে যখন মুসলমানদের উপর গণহত্যা চালায় তখন তিনি গুজরাটের মুখ্যমন্ত্রী ছিলেন। এই ঘটনার পর মোদী সবার কাছে নিন্দিত হয়ে ওঠেন। সরকারি হিসাবেই নিহতের সংখ্যা ১০০০ পেরিয়ে গিয়েছিল। কিন্তু অনেকেই দাবি করে থাকেন প্রকৃত সংখ্যা আরো বেশি ছিল।

যখন উত্তেজিত হিন্দু জনতা হত্যাকাণ্ড চালাচ্ছিল তখন পুলিশ নিষ্ক্রিয়ভাবে ঘটনাস্থলে দাঁড়িয়ে দাঁড়িয়ে দেখছিল। কয়েক বছর পরে, পুলিশের একজন সিনিয়র কর্মকর্তা স্বীকার করেছিলেন মোদী খোলাখুলিভাবে সেই হত্যাকাণ্ড অনুমোদন করেছিলেন। যদিও মোদী বারবার এই অভিযোগ অস্বীকার করেছেন।

এই পাশবিকতা এতটা মারাত্মক ছিল যে আমেরিকান সরকার তখন মোদীকে যুক্তরাষ্ট্রের ভ্রমণকারীর ভিসা দিতেও অস্বীকৃতি জানায়।

অরুন্ধতীর মতে, কিন্তু এখন তিনি অনেক ইন্ডিয়ান এলিটের কাছে প্রিয় রাজনৈতিক ব্যক্তিত্ব।  এ ওয়াল স্ট্রিট জার্নাল রিপোর্টে বলা হয়েছে মোদী যদি প্রধানমন্ত্রী হয় তাহলে যুক্তরাষ্ট্র তাঁকে ভিসা দিতে প্রস্তুত।

তিনি বলেন, কর্পোরেশনগুলি মোদীকে সমর্থন দিচ্ছে কারণ তারা মনে করে মনমোহন এবং কংগ্রেস সরকার ছত্তিশগড় এবং উড়িষ্যার মত জায়গায় মিলিটারি পাঠানোর মত সাহস দেখাতে পারে নি।

অরুন্ধতী মোদীর কথা বলেন, পলিটিশিয়ান হিসাবে মোদী পরিস্থিতির চাহিদা অনুযায়ী অবস্থান পাল্টাতে পারেন।

অরুন্ধতী বলেন, খোলাখুলিভাবে সাম্প্রদায়িক বিদ্বেষ ছড়ানো স্যাকারিন জাতীয় লোক থেকে তিনি কর্পোরেট লোকের স্যুট পরেছেন এবং এখন মুখপাত্রের ভূমিকায় থাকার চেষ্টা করছেন। কিন্তু তিনি আসলে তা করতে পারছেন না।

অরুন্ধতী কংগ্রেস এবং বিজেপিকে সমান্তরালে দেখেনভারতের জাতীয় রাজনীতি দুটি দল দ্বারা নিয়ন্ত্রিত, কংগ্রেস এবং বিজেপি।

কংগ্রেস সবসময় একটু বেশি সেক্যুলার অবস্থান নেয় এবং মুসলমান, শিখ, খ্রিস্টান এসব সংখ্যালঘুদের জন্য যারা আরেকটু বেশি সুবিধা চায় তাদের দ্বারা সমর্থিত হয়। আমেরিকার বিবেচনায় কংগ্রেস ডেমোক্রেটিক পার্টির মত।

বিজেপি হলো ডানপন্থী দলগুলির কোয়ালিশন এবং তারা জোর করেই প্রতিষ্ঠা করতে চায় ভারত হলো একটি হিন্দু রাষ্ট্র। পাকিস্তানের বিরুদ্ধে দলটি সবসময়ই কঠোর ভূমিকা পালন করে। এভাবে বিবেচনা করলে বিজেপিকে ভারতের রিপাবলিকান হিসেবে দেখা যেতে পারে।

কিন্তু যুক্তরাষ্ট্রের বাম ঘরানার বিশ্লেষক র‍্যালফ নাডের এবং নোয়াম চমস্কি কাজের ক্ষেত্রে ডেমোক্র্যাট এবং রিপাবলিকানদের মধ্যে খুব সামান্য পার্থক্যই দেখতে পান। অরুন্ধতী বলেন, বিজেপি থেকে কংগ্রেসের বড় কোনো পার্থক্য নেই। আমি প্রায়ই বলি যেটা বিজেপি দিনে করে সেটা কংগ্রেস রাতে করেছে। তাদের অর্থনৈতিক পলিসিতে কোনো পার্থক্য নেই আসলে।

তিনি বলেন, যেখানে বিজেপির সিনিয়র নেতারা মুসলমানদের বিরুদ্ধে হিন্দু জনতার সহিংসতাকে ঢালাওভাবে মদদ দিচ্ছিল, ১৯৮৪ সালে ইন্দিরা গান্ধী প্রধানমন্ত্রী থাকাকালে দিল্লীতে শিখদের উপর আক্রমণ ও হত্যাকাণ্ডে কংগ্রেস একই ধরনের ভূমিকা পালন করেছিল।

অরুন্ধতীর মতে, এই সহিংসতা ছিল গণহত্যা এবং এমনকি আজও কেউ এর জন্য শাস্তি পায় নি। ফলে, প্রতিটা দলই একে অপরকে সাম্প্রদায়িক সহিংসতার অভিযোগে অভিযুক্ত করতে পারে।

আর এখনো সহিংসতায় ক্ষতিগ্রস্তদের ক্ষতিপূরণের জন্য কোনো কার্যকরী উদ্যোগ নেয়া হয়নি।

তিনি বলেন, দোষীদের সাজা পাওয়া উচিৎ। সবাই জানে তারা কে। কিন্তু তাদের শাস্তি হবে না। এটাই ভারতে হয়। লিফটে একজন মহিলাকে হয়রানি করার জন্য অথবা কাউকে খুন করলে আপনি হয়ত জেলে যাবেন কিন্তু আপনি যদি কোনো গণহত্যার অংশ হয়ে থাকেন তাহলে আপনার শাস্তি না হওয়ার সম্ভাবনা খুবই বেশি।

সুজানা অরুন্ধতী রায় (জন্ম. ২৪ নভেম্বর ১৯৬১)

তিনি স্বীকার করেছেন যে রাষ্ট্র হিসাবে ভারতের ধারণা করাতে দুই প্রধান দলের মধ্যে কিছু পার্থক্য আছে।

উদাহরণ হিসেবে বলা যায়, বিজেপি হিন্দু ভারতে তাদের বিশ্বাসের ব্যাপারে খোলামেলা… যেখানে বাকি সবাই দ্বিতীয় শ্রেণীর নাগরিক।

তাঁর অবস্থান পরিষ্কার করে অরুন্ধতী বলেন, হিন্দু অনেক বড় এবং ভারি একটা শব্দ এক্ষেত্রে। আমরা আসলে কথা বলছি উচ্চবর্ণের হিন্দু জাতি নিয়ে। আর কংগ্রেস বলে যে তাদের একটি সেক্যুলার ভিশন আছে, কিন্তু আসল খেলা গণতন্ত্র যেভাবে কাজ করে সে জায়গাটাতে। এক সম্প্রদায়কে অন্য সম্প্রদায়ের বিরুদ্ধে উসকে দিয়ে সবাই ভোট ব্যাংক তৈরি করতে ব্যস্ত। আর অবশ্যই বিজেপি এই খেলায় বেশি আগ্রাসী।

অসমতা বর্ণপ্রথার সাথে সম্পর্কিতদি স্ট্রেইটের প্রশ্ন ছিল, আন্তর্জাতিক খ্যাতিসম্পন্ন লেখক যেমন সালমান রুশদী এবং বিক্রম শেঠ অথবা শাহরুখ খানের মত ভারতের গুরুত্বপূর্ণ ফিল্মস্টার অথবা বচ্চন পরিবার কেন জোর দিয়ে ভারতে এই অসমতার বিরুদ্ধে কথা বলে না?

অরুন্ধতী জবাবে বলেন, বেশ, আমি মনে করি আমরা আসলে এমন একটি দেশ যার এলিটদের শুধু অতিরিক্ত আত্ম-পরিতৃপ্তি এবং অতিরিক্ত আত্ম-বিবেচনা আছে।

অরুন্ধতী বলেন, অসমতার ব্যাপারটি মেনে নেয়ার ব্যাপারে হিন্দু ধর্মের বর্ণপ্রথা ভারতীয় এলিটদের বদ্ধমূল করে রেখেছে। অনেকটা স্বর্গ থেকে আসা জিনিসের মত।

তাঁর মতে, ধনীরা বিশ্বাস করে, উচ্চশ্রেণীর মানুষদের যেসব অধিকার আছে, নিম্নশ্রেণীর মানুষের সে অধিকার নেই।

কানাডীয় অ্যাকটিভিস্ট এবং লেখক নাওমি ক্লেইনের কিছু ধারণার সাথে কর্পোরেট ক্ষমতার ব্যাপারে অরুন্ধতী রায়ের কথার মিল পাওয়া যায়।

নাওমি সম্পর্কে অরুন্ধতী বলেন, অবশ্যই আমি নাওমিকে ভালোভাবে চিনি। আমি মনে করি তিনি চমৎকার একজন চিন্তক এবং অবশ্যই তিনি আমাকে অনুপ্রাণিত করেছেন।

১৯৯২ সালের ক্লাসিক একটি কাজ এভরিবডি লাভস এ গুড ড্রাউট: স্টোরিজ ফ্রম ইন্ডিয়া'স পুওরেস্ট ডিস্ট্রিক্ট এর লেখক সাংবাদিক পালাগাম্মি সাইনাথের কাজের প্রশংসা করেন অরুন্ধতী রায়।

তিনি বলেন, ভারতে গণমাধ্যমের মালিকানার মনোযোগ সমাজের উপর কর্পোরেট প্রভাবের ব্যপ্তির বিষয়টি প্রকাশের ব্যাপারে সাংবাদিকদের কাজ কঠিন করে তুলেছে।

অরুন্ধতী রায়ের নয়াদিল্লীর বাড়ি কৌটিল্য মার্গ। বিজেপি মহিলা মোর্চার বিক্ষোভে ক্ষতিগ্রস্ত ফুলের টব। কাশ্মীর ইস্যুতে অরুন্ধতীর মন্তব্যে বিক্ষোভ।

অরুন্ধতী বলেন, ভারতে আপনি যদি একজন ভালো সাংবাদিক হন তাহলে আপনার জীবন সবসময়ই ঝুঁকির মধ্যে। কারণ মিডিয়া এমনভাবে সাজানো, সেখানে আপনার জন্য কোনো জায়গা নেই।

মিডিয়াতে বিতর্কিত বক্তব্যের কারণে বিভিন্ন সময়ে তাঁর বাড়ির বাইরে উত্তেজিত জনতাকে প্রতিবাদ করতে দেখা গেছে।

তিনি বলেন, সেসময় তাদেরকে আমাকে আক্রমণ করার চেয়ে টিভি ক্যামেরার সামনে পারফর্ম করাতে বেশি আগ্রহী মনে হয়। ভারতে মানবাধিকার কর্মীদের অফিস বিক্ষোভকারীরা ভেঙে দিয়েছে এবং অনেকে মার খেয়েছেন, অনেককে হত্যা করা হয়েছে অবিচারের বিরুদ্ধে কথা বলার জন্য।

অরুন্ধতী বলেন, রাষ্ট্রদ্রোহের অভিযোগে অথবা আইনবিরোধী কার্যক্রম প্রতিরোধ আইন ভাঙার জন্য ভারতের জেলে কয়েক হাজার রাজনৈতিক বন্দি আটক রয়েছেন।

এই কারণে তিনি বলেন, এটা বিশ্বাস করা সত্যিই পরিহাসের ব্যাপার কারণ ভারতে নিয়মিত নির্বাচন হয়, এটা একটা গণতান্ত্রিক দেশ।

অরুন্ধতী বলেন, সেখানে একটাও কোনো সিঙ্গেল প্রতিষ্ঠান নেই যেখানে সাধারণ একজন মানুষ ন্যায়বিচার আশা করতে পারে। কোনো স্থানীয় আদালতেও না, কোনো একজন স্থানীয় রাজনৈতিক প্রতিনিধির কাছেও না। সবগুলি প্রতিষ্ঠান ভিতর থেকে শূন্য, শুধু বাইরের আবরণটা রয়েছে। সুতরাং নির্বাচনের এই উৎসবের সময়ে সবাই নিজেদের ভিতরের বাষ্পটাকে ছেড়ে দিয়ে ভাবতে পারে তাদের জীবন নিয়ে তাদের কিছু বলার আছে।

সবশেষে তিনি বলেন, কর্পোরেশনগুলিই প্রধান দলগুলিকে ফান্ড দেয় এবং তাদের কাজ নির্ধারণ করে দেয়।

অরুন্ধতী বলেন, আমাদের মালিক এবং আমাদের চালায় অল্প কয়েকটি কর্পোরেশন, যারা চাইলেই তাদের ইচ্ছামত ভারতকে বন্ধ করে দিতে পারে।

অনুবাদ: মৃদুল শাওন

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চার্লি স্মিথ

চার্লি স্মিথ

চার্লি স্মিথ- চার্লি স্মিথ জর্জিয়া স্ট্রেইটের একজন সম্পাদক। তিনি ২০০৫ সাল থেকে এ দায়িত্বে আছেন। তার আগে তিনি বার্তা সম্পাদক হিসাবে কাজ করতেন।

জর্জিয়া স্ট্রেইট- জর্জিয়া স্ট্রেইট কানাডার একটি সংবাদ ও বিনোদন ভিত্তিক সাপ্তাহিক পত্রিকা। এটা কানাডার ব্রিটিশ কলম্বিয়ার ভ্যানকুভার থেকে প্রকাশিত হয়। জর্জিয়া স্ট্রেইট প্রকাশ করে ভ্যানকুভার ফ্রি প্রেস পাবলিশিং হাউজ। জর্জিয়া স্ট্রেইট প্রথম শুরু হয় ১৯৬৭ সালে। পিয়েরে কউপে, মিল্টন আক্রন, ড্যান ম্যাকলয়েড, স্ট্যান পার্কস্কি এবং আরো কয়েকজন মিলে জর্জিয়া স্ট্রেইট পত্রিকাটি শুরু করেন।

শ্রমিক গণহত্যার এক বছর - প্রতিবাদ সমাবেশ

গণ-অধিকার সংগ্রাম কমিটি, নয়াগণতান্ত্রিক গণমোর্চা, জাতীয় গণতান্ত্রিক গণমঞ্চ, জাতীয় গণফ্রন্ট-এর যৌথ বিক্ষোভ সমাবেশ, ২৪ এপ্রিল ২০১৪

স্থান: রানা প্লাজা ধ্বংস্তূপের সামনে, শহীদ বেদী-র পাশে

Shaherin Arafat's photo.

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গণ-অধিকার সংগ্রাম কমিটি, নয়াগণতান্ত্রিক গণমোর্চা, জাতীয় গণতান্ত্রিক গণমঞ্চ, জাতীয় গণফ্রন্ট-এর যৌথ বিক্ষোভ সমাবেশ, ২৪ এপ্রিল ২০১৪

স্থান: রানা প্লাজা ধ্বংস্তূপের সামনে, শহীদ বেদী-র পাশে

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