BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Wednesday, March 12, 2014

संघ परिवार के पास हिंदू राष्ट्र का एजंडा है तो इसके जवाब में बाकी लोगों के पास क्या है?

संघ परिवार के पास हिंदू राष्ट्र का एजंडा है तो इसके जवाब में बाकी लोगों के पास क्या है?


पलाश विश्वास


साठ के दशक के सिंडिकेट जमाने की राजनीति को याद कीजिये, देशभर में जबर्दस्त आंदोलन था,इंदिरा हटाओ।


जवाब में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाो का नारा दिया। महज हवाई नारा नहीं था वह।


एक सुनियोजित कार्यक्रम और उसे अमल में लाने की युद्धक राणनीति इंदिराजी के पास थी।


उन्होंने हक्सर से लेकर अर्थशास्त्री अशोक मित्र जैसे विशेषज्ञों की टीम की मदद से सुनियोजित तरीके से प्रिवी पर्स खत्म किया,राष्ट्रीयकरण की नीतियां लागू की और जब तक राज करती रही अप्रतिद्वंद्वी रहीं।


नेहरु वंश के उत्तराधिकार उनकी पूंजी हर्गिज नहीं थी। वे हालांकि नेहरु की लाइन पर ही भारत में सोवियत विकास माडल को लागू कर रहीं थीं।


तब चूंकि सोवियत संघ महाशक्ति बतौर वैश्विक घटनाओं और विश्व अर्थव्यवस्था में राजनीतिक,राजनयिक और आर्तिक विकल्प देने की स्थिति में था,इंदिरा जी को सोवियत माडल लागू करने में खास दिक्कत नहीं हुई।


उन्हें अमेरिकी खेमे की दखलांदाजी के जरिये अस्थिर किया जाने लगा तो उन्होंने लोकतांत्रिक तौर तरीके को तिलांजलि देकर तानाशाह बनने का विकल्प जो उनके और कांग्रेसी सियासत के अवसान का कारण भी बना।


फिर विश्वानाथ प्रताप सिंह ने भारतीय राजनीति को मंडल रपट लागू करके सत्ता समीकरण बदलने की क्रांतिकारी पहल जो की तो उसके मुकाबले कमंडल वाहिनी को हिंदुत्व के पुनरुत्थान की पृष्ठभूमि मिल गयी।


हिंदू राष्ट्र का एजंडा तब से लेकर अबतक एक निर्णायक एजंडा है,जिसे ग्लोबीकरण के एजंडा से जोड़कर संघ परिवार ने एक बेहद मारक प्रक्षेपास्त्र बना दिया।


हम भले ही हिंदू राष्ट्र की अवधारणा के खिलाफ हों, हम भले ही मुक्त बाजार के खिलाफ हों,लेकिन न इंदिरा गांधी की तरह और न संघ परिवार की तरह हमारे पास कोई वैकल्पिक एजंडा,सुनियोजित रणनीति और मिशन को समर्पित विशेषज्ञ टीम है।


आगामी लोकसभा के परिप्रेक्ष्य में कारपोरेट इंडिया,वैश्विक ताकतों और मीडिया के तूफानी करिश्मे के बावजूद हकीकत यही है कि भारतीय राजनीति मे अपने एजंडे और विचारधारा के प्रति संघी कार्यकर्ता सौ फीसद खरा प्रतिबद्ध टीम है।


अब चाहे आप मोदी को हिटलर बता दें या हिंदुत्व के एजंडे को फासीवादी नाजीवादी साबित कर दें,भारत की मौजूदा परिस्थितियों में किसी परिवर्तन की उम्मीद नहीं है।


केसरिया सुनामी से महाविध्वंस से बचने का कोई विकल्प हमारे पास नहीं है, न कोई एजंडा है और न कोई रणनीति जिससे हम व्यापक जनता को गोलबंद करके जनादेश को जनमुखी जनप्रतिबद्ध बना सकें।


पहले इस सत्य और सामाजिक राजनीतिक यथार्थ को आत्मसात कर सकें तो शायद कुछ बात बनें।


मसलन ममता बनर्जी जो रामलीली मैदान में कुर्सियों को संबोधित करती अकेली महाशून्य को संबोधित करती देखी गयीं,उसका मुख्य कारण वे चली तो थीं देश का प्रधानमंत्री लेकिन न उनके पास विचारधारा है,न कार्यक्रम, न युद्धक रणनीति और न ऐसी विशेषज्ञ विशेषज्ञ टीम जो विकल्प का निर्माण कर सकें।


इसी व्यक्तिकेंद्रित राजनीति के कारण ही सामाजिक और उत्पादक ताकतों के व्यापक गोलबंदी,छात्र युवाओं की विपुल गोलबंदी के बावजूद आम आदमी पार्टी अब भी हवा हवाई है और संघियों की बुलेट ट्रेन को रोकने लायक हिंदू राष्ट्र के एजंडे का मुकाबला करने लायक कोई एजंडा उनके पास नहीं है।


भारत का लोकतांत्रिक ढांचा एक व्यक्ति एक वोट के नागरिक अधिकार की नींव पर तो खड़ा है,लेकिन नागरिकों के सामाजिक आर्थिक राजनीतिक सशक्तीकरण का काम हुआ ही नहीं।


भारवर्ष में नागरिक सिर्फ वोट हैं और वोट के अलावा नागरिकता का न कोई वजूद है, न अभिव्यक्ति है।


जनगणना है,लेकिन जनगण नहीं हैं।


वियतनाम युद्ध हो या इराक अफगानिस्तान से वापसी का मामला हो,यह ध्यान देने लायक बात है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद को वैश्विक परिस्थितियों और चुनौतिों के मद्देनजर नहीं,अमेरिकी नागरिकों के प्रतिरोध आंदोलन की वजह से पीछे हटना पड़ा।


अमेरिका ने परमणु संधि पर दस्तखत किया,लेकिन उसे अमल में लाने के लिए संसद से पास कराना अनिवार्य था।


जबकि हमारे यह किसी शासकीय आदेश, केबिनेट के फैसले या राजनयिक कारोबारी समझौते का संसदीय अनुमोदन जरुरी नही है।


बायोमेट्रिक नागरिकता के सवाल पर इंग्लेंड में सरकार बदल गयी,लेकिन हमारे यहां बिना किसी संसदीय अनुमोदन के गैरकानूनी असंवैधानिक कारपोरेट आधार योजना बिना प्रतिरोध चालू रहा।


अब चुपके से आधार पुरुष भारतीय राजनीति के ईश्वर बनने की तैयारी में है।


नागरिकता और नागरिक आंदोलनों की अनुपस्थिति पर बहुत सारे उदाहरण सिलसिलेवार पेस किये जा सकते हैं। उसकी जरुरत फिलहाल नहीं है।


हम जिसे नागरिक समाज मानते हैं, उसमें,इलिट अभिजन उस आयोजन में  हाशिये के लोग,बहिस्कृत समुदायों के लोग और क्रयशक्ति हीन आम शहरी लोग कहीं नही हैं।


वे दरअसल जनांदोलन हैं ही नहीं, वैश्विक आर्थिक सस्थानों के प्रोजेक्ट मात्र हैं जो नख से सिख तक व्यक्ति केंद्रित हैं।


व्यक्ति केंद्रित राजनीति, व्यक्ति केंद्रित आंदोलन और व्यक्तिकेंद्रित विमर्श और एजंडा से बहुसंखय जनता के धर्मोन्माद का मुकाबला नहीं किया जा सकता।


अगर हम कहीं मुकाबले में हैं,तो हमें सबसे पहले इस जमीनी हकीकत को समझ ही लेना चाहिए,जिसकी वजह से संघ परिवार इतना अपराजेय है और उसे चुनौती देनी वाली कोई ताकत मैदान में है ही नहीं।


अब तो रमलीला मैदान के फ्लाप शो से साबित हो गया कि संघ परिवार ने अपने एक्सन प्लान बी को समेट लिया है। संघ रिमोटित अन्ना फिर अराजनीतिक मोड में वापस।


दीदी बंगाल के अपने मजबूत जनाधार पर खड़ी होकर अपना जख्म चाटने के लिए और बंगाल में कांग्रेस और वामदलों पर भूखी शेरनी की तरह झपटने के लिए कोलकाता वापस।


दो मौकापरस्त लोगों के गठजोड़ की संघ परिवा र को जबतक जरुरत थी, उसका गुब्बारा खूब उड़ाया गया और फिर राष्ट्रीय मंच पर गुब्बारा में पिन।


संघी बर्ह्मास्त्र फिर तूण में वापस अगले वार के लिए। इस युद्ध नीति को समझिये।


संघ परिवार निजी और अस्मिता एजंडे के सारे चमकदार चेहरों और मसीहों को अपने में समाहित करने के लिए कामयाब इसलिए है कि उसको चुनौती देनेवाल कोई एजंडा है ही नहीं।


भारत में वर्ग और  जाति के घटाटोप में दरअसल निजी कारोबार ही चलाया जाता रहा है।


अंबेडकर ने अपने समूचे लेकन में जाति विमर्श से कोसों दूर रहे हैं। शिड्युल कास्ठ फेडरेशन की राजनीति के बावजूद वे डिप्रेस्ड क्लास की बात कर रहे थे और जाति को भी जन्मजात अपरिवर्तनीय वर्ग बता रहे थे।


इसके बावजूद जाति पहचान के आधार पर अंबेडकर विचारधारा और उनकी विरासत आत्मकेंद्रित वंशवादी,नस्ली, जाति अस्मिताओं के बहाने सत्ता चाबी बतौर इस्तेमाल हो रही है।


अंबेडकर  के जाति उन्मूलन एजंडे का कहीं कोई चिन्ह नहीं है।


इसी तरह वाम आंदोलन भी वर्चस्ववादी विचलन में भटक बिखर गया और कुछ कोनों को छोड़कर सही मायने में उसका कोई राष्ट्रीय वजूद है ही नहीं।


न वर्ग चेतना का विस्तार हुआ और न कहीं वर्ग संघर्ष के हालात बने।


फिर जाति को वर्ग बताने वाले समाजवादी लोग भी व्यक्ति केंद्रित पहचान ,अस्मिता और सत्ता में भागेदारी में निष्णात।


चूहे हमने ही पैदा किये हैं तो चूहादौड़ की इस नियति से क्षण प्रतिक्षण बदल रहे राजनीतिक समीकरण को आम जनता के बुनियादी मुद्दों से जोड़ने की हमारी आकांक्षा भी बेबुनियाद है।


हिंदू राष्ट्र का एजंडा सीधे बहुसंख्य जनता के धर्मोन्माद के आवाहन के सिद्धांत पर आधारित है जिसे अल्पसंख्यकों की कोई परवाह नहीं है।


वर्णवर्चस्वी नस्ली इस विचारधारा की खूबी यह है कि वह न जाति विमर्श में कैद है और न कोई वर्ग चेतना उसकी अवरोधक है।


इस संघी समरसता और डायवर्सिटी के मकाबले हम जाति,धर्म, क्षेत्र,वर्ग,भाषा जैसी हजारों अस्मिताओं में कैद उसके अश्वमेधी घोड़ों को रोकने का ख्वाब ही देख सकते हैं या कागद कारे ही कर सकते हैं,और फिलहाल कुछ भी संभव नहीं है।


बैलेंस जीरो है।


लेकिन शुरुआत कहीं न कहीं से तो करनी ही होगी।



इस जनादेश को हम बदलने की हालत में नहीं है।

ममता की दुर्गति से जाहिर है कि तमाम व्यक्ति विकल्पों की रेतीली बाड़ केसरिया सुनामी को रोकने में कामयाब होगी,ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती।


तो आइये ,अभी से तय करे कि इस निरंकुश पुनरुत्थान के खिलाफ हमारा वैकल्पिक एजंडा क्या होगा और अस्मिताओं के तिलिस्म और आत्मघाती धर्मोन्माद के शिकार भारतीय जनगण को हम कैसे इस अशनिसंकेत के विरुद्ध मोर्चाबंद करेंगे।


जाति और वर्ग विमर्श में  हमारे लोग एक दूसर के दुश्मन हो गये हैं।

पूरे देश को एक सूत्र में बांधे बिना तमाम अस्मितओं को तोड़कर देश समाज जोड़े बिना फिलाहाल हिंदू राष्ट्र के अमोघ एजंडा से लड़ने के लिए कोई हथियार हमारे पास है ही नहीं।


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