BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Sunday, June 24, 2012

परिवेश को मथते हुए

परिवेश को मथते हुए


Sunday, 24 June 2012 16:49

जनसत्ता 24 जून, 2012: वरिष्ठ कथाकार संजीव ग्रामीण भारत के समर्थ रचनाकार हैं। उनकी रचनाओं में गांव अपने संपूर्ण सांस्कृतिक ताने-बाने के साथ मौजूद रहता है। यह मौजूदगी गांवों के प्रति रूमानियत का परिचायक न होकर देश की बहुसंख्यक गरीब जनता के प्रति गहरे सरोकार दर्शाती है। इसीलिए उनकी रचनाएं रूमानियत से दूर एक तीक्ष्ण आलोचकीय दृष्टि के साथ ग्रामीण यथार्थ को प्रस्तुत करती हैं। हिंदी कहानी में आज हो रहे तमाम शिल्पगत चमत्कारों के बीच भी वे अपने बनाए मार्ग पर निष्ठापूर्वक अग्रसर हैं। इसका पुख्ता प्रमाण उनका नया कहानी संग्रह झूठी है तेतरी दादी है।
गांव बदल रहे हैं। आधुनिक व्यवसायों और पूंजी के हस्तक्षेप ने परिवर्तन की प्रक्रिया को काफी त्वरित कर दिया है। सामंती मूल्य, संरचना और संबंध भरभरा कर ढह रहे हैं। नए अर्थतंत्र की वैचारिकी ने सामंती विचार और ऊंच-नीच पर आधारित परंपरागत सामाजिक संबंधों की विदाई को अपरिहार्य बना दिया है। पुरानी पीढ़ी इस अनिवार्य सत्य को स्वीकार नहीं कर पाती। नतीजतन, पीढ़ियों का द्वंद्व सामने आता है। संग्रह की पहली कहानी 'मौसम' एक ऐसे बदलते गांव की कहानी है, जिसमें परंपरागत सामंती संबंधों में हो रहे परिवर्तन को सशक्त ढंग से दिखाया गया है। यह बदलाव किसी सामाजिक संघर्ष या क्रांति की बदौलत नहीं आता, बल्कि आर्थिक दबाव और जीविकोपार्जन की मजबूरी इस बदलाव के मूल में है। 
गरीबी से जूझ रहे ठाकुर फतेह सिंह के बेटे विजयी के जीविकोपार्जन के लिए परंपरागत रूप से निम्न जातियों का पेशा अपनाने के कारण गैर-बराबरी का सामाजिक संबंध देखते-देखते धराशायी हो जाता है। विजयी रोजगार के लिए गाड़ी निकालता है। तिरलोकी कहार को उस गाड़ी से अपनी पतोहू लानी है। अब यहां संबंध ठाकुर और कहार का न होकर भाड़े पर गाड़ी चलाने वाले गाड़ीवान और उसकी कीमत देकर अपने लिए उपयोग करने वाले व्यक्ति का व्यावसायिक संबंध हो जाता है। कितनी विडंबनापूर्ण स्थिति है कि जिन कहारों ने जीवन भर ठाकुरों की डोलियां ढोर्इं, आज उन्हीं में से एक की डोली ठाकुर विजय प्रताप सिंह ढोकर लाएंगे। फतेह सिंह को यह स्थिति स्वीकार नहीं है। वे जबरन इस रोजगार को छुड़वा देते हैं। लेकिन विजयी करे तो क्या करे। 
हर जगह विफल होने के बाद उसने सूअर पालन का काम शुरू कर दिया, जो काफी फायदेमंद था। इस बार उसने पिता, बिरादरी, गांव किसी की नहीं सुनी। सामंती संरचना में सामाजिक सम्मान और ऊंच-नीच का एक बड़ा आधार पेशा है। जब पेशा बदल गया तो जाहिर है कि सामाजिक मान-सम्मान में बदलाव तो होगा ही। 
संजीव की कथा-दृष्टि इस बात को पहचानती है कि सामंती संबंधों में बदलाव की बड़ी वजह आर्थिक दबाव और मजबूरियां हैं। एक तरह से मौन क्रांति है, जो भारत के सामंती समाज में स्वत: घटित हो रही है। नगरीय और महानगरीय जीवन में स्त्रियों की स्थिति में जो यह बदलाव दिखता है कि स्त्रियां घरों से निकल कर पुरुषों के समांतर नौकरियां कर रही हैं और लड़का-लड़की के बीच शैक्षणिक और सामाजिक परवरिश में जो भेदभाव समाप्त हो रहा है, वह स्त्री सशक्तीकरण आंदोलनों की तुलना में शहरी जीवन की जटिलताओं और आर्थिक मजबूरियों के कारण अधिक हो रहा है। यह कहानी रजनी कोठारी की उस मान्यता को पुष्ट करती है कि भारत में जाति खत्म तो नहीं हो रही है, लेकिन उसके स्वरूप में परिवर्तन अवश्य हो रहा है। यह परिवर्तन जातियों के उनके परंपरागत पेशागत कर्म से मुक्ति के रूप में स्पष्ट दिखता है। लेकिन जहां कोठारी जाति की स्थिति में हो रहे परिवर्तन में लोकतांत्रिक राजनीति की भूमिका को निर्णायक मानते हैं वहीं संजीव नए अर्थतंत्र की भूमिका को।
जाति के स्वरूप में चाहे जो भी परिवर्तन हो रहा हो, पर जाति से पीछा छुड़ाना आज भी संभव नहीं है। जाति की पहचान ऐसी है जो मरने के बाद भी खत्म नहीं होती। 'झूठी है तेतरी दादी' कहानी भारतीय संदर्भ में जाति की इसी अभिन्नता को सामने लाती है। यह निम्न जाति से आने वाली सतहत्तर-पचहत्तर साल की विधवा तेतरी की कहानी है, जो विडंबनापूर्ण स्थितियों में फंस कर ब्राह्मण परिवार में चली जाती है। बेटा-बेटी, नाती-पोता हो जाने के बावजूद जब यह पता चलता है कि वह निम्न जाति की है तो उसे घर से निकाल दिया जाता है कि उसने पूरा खानदान गंदा कर दिया है। यह कैसी विडंबना है कि लड़के और नाती-पोती ब्राह्मण हो गए और तेतरी की जाति नीच की नीच बनी रही। 

संजीव चूंकि ग्रामीण परिवेश और उस संरचना को बहुत गहराई से समझते हैं इसलिए वे यह देख पाते हैं कि जाति का प्रश्न स्त्री के मामले में अधिक क्रूर और निर्मम हो जाता है। 'लाज-लिहाज' कहानी भी समाज के ऐसे ही दोहरे चरित्र का पर्दाफाश करती है। दूसरी जाति के लड़के से प्रेम करने के कारण पंचायत लड़की को सजा सुनाती है। लेकिन औरत खरीद कर घर में लाने से उस पंचायत को कोई समस्या नहीं होती। 
'सौ टके की टीचर' कहानी एक ग्रामीण स्त्री की कहानी है, जो कठिन जीवन संघर्षों में उलझी हुई है। घर-बाहर के सभी काम करते हुए उसे सास-ससुर की फब्तियां भी दिन-रात सुननी पड़ती हैं। सौ रुपया महीने पर प्रौढ़ शिक्षा केंद्र में उसकी नौकरी है। उसकी समस्या है कि औरतें पढ़ने नहीं, मजदूरी करने चली जाती हैं, क्योंकि उनका   विचार है कि पढ़-लिख कर कुछ हासिल नहीं होगा, उलटे मजदूरी मारी जाती है। वह उनसे गिड़गिड़ाती है कि पढ़ने आ जाओ नहीं तो उसकी नौकरी चली जाएगी। एक स्त्री कहती है कि सौ रुपए के लिए तुम इतना दुख-तकलीफ सह रही हो, हम तीन सौ की खातिर जा रहे हैं, तुम भी चलो हमारे साथ। स्त्री पूछती है, पढ़-लिख कर मिलेगा क्या? वह निदेशक महोदय का वाक्य दोहराती है- 'कम से कम यह तो समझ सकोगी कि तुम पर कौन-कौन से जुल्म ढाए जा रहे हैं।' स्त्री कहती है कि वह तो हम बिना पढ़े-लिखे ही समझ जाते हैं, तुमको देख कर। कहानी एक स्त्री के संघर्ष, उसकी दयनीयता और प्रौढ़ शिक्षा की अव्यावहारिकता को उजागर कर देती है।
संजीव जहां पूंजीवाद के प्रगतिशील पक्ष को पहचानते हैं वहीं पूंजीवाद के दैत्याकार सर्वग्रासी रूप को भी। 'हत्यारे' कहानी प्राकृतिक संसाधनों के लूट के संदर्भ में कॉरपोरेट घरानों द्वारा नदी पर कब्जे और उस कब्जे के बाद ग्रामीणों की विडंबनापूर्ण स्थिति की मार्मिक कहानी है। सबसे दुखद बात यह है कि गांव वालों से उनकी जीवन-रेखा छीन लेने के इस अभियान में सरकार सहयोगी भूमिका में है। इस पूरे कुचक्र के खिलाफ भूख हड़ताल पर बैठी जगधर की माई की मौत हो जाती है। पुलिस उलटे जगधर को ही अपनी माई को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में पकड़ लेती है और इस तरह पूंजीपतियों का बाल बांका भी नहीं होता। कहानी सरकार और कॉरपोरेट घरानों के क्रूर और हिंसक गठजोड़ को दर्शाती है। कहानी इस बात को रेखांकित करती है कि चूंकि सरकार अपनी ही जनता के खिलाफ पूंजीपतियों के पक्ष में खड़ी हो गई है, इसलिए अब शांतिपूर्ण भूख हड़ताल जैसे तरीके निष्प्रभावी हो गए हैं। इस कहानी को देश भर में चल रहे जल, जंगल और जमीन की लड़ाई के संदर्भ में देखने की जरूरत है। यह प्रकारांतर से माओवादी विकल्प की अनिवार्यता को रेखांकित करती है। 
संजीव हिंदी के उन थोड़े-से लेखकों में हैं, जिनकी कहानियों में यथार्थ की तीक्ष्ण वैचारिक आलोचना कहानी की आत्मा को क्षति पहुंचाए बिना होती है। संग्रह की ग्रामीण परिवेश के बाहर लिखी गई कहानियां 'अभिनय' और 'हत्यारा' बहुत सशक्त और प्रभावी नहीं बन पाई हैं। इसी तरह 'नायक-खलनायक', 'सिंह-अ बनाम सिंघ्र-अ', 'फूटे कांच का चश्मा' और 'खबर' जैसी कहानियों में विषय-वस्तु नई है, पर घटनाओं का विकास बहुत विश्वसनीय नहीं लगता। इन सभी कहानियों में यथार्थ की आलोचना तो है, लेकिन रचनात्मक उन्मेष बहुत कम। इसीलिए ये कहानियां हमारी संवेदना को बहुत दूर तक नहीं झकझोरतीं। संग्रह की असल ताकत ग्रामीण परिवेश वाली कहानियां ही हैं। बाकी का परिमाणात्मक महत्त्व अधिक है, गुणात्मक कम।

दिनेश कुमार 
झूठी है तेतरी दादी: संजीव; वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली; 150 रुपए।

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