BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Friday, May 4, 2012

वर्चस्व और हाशिए की भाषा

वर्चस्व और हाशिए की भाषा


Friday, 04 May 2012 10:49

महीप सिंह 
जनसत्ता 4 मई, 2012: हमारे देश में भारतीय भाषाओं की स्थिति बड़ी विडंबनापूर्ण है। हमारा संपूर्ण लोकतंत्र भारतीय भाषाओं पर टिका हुआ है। लोकसभा और सभी विधानसभाओं के लिए चुनाव-प्रचार भारतीय भाषाओं के माध्यम से होता है। इस सीमा तक ये भाषाएं महत्त्वपूर्ण हैं। इससे आगे की क्रिया में उस भाषा का प्रवेश होता है, जो दो प्रतिशत लोगों की भी भाषा नहीं है। अंग्रेजी के माध्यम से अगर कोई प्रत्याशी अपने मतदाताओं को रिझाने का प्रयास करे तो वह दो प्रतिशत मत भी प्राप्त कर सकेगा, इसमें संदेह है, मगर वर्चस्व इसी भाषा का दिखता है। चुनाव संबंधी जो बहसें, अनुमान और विश्लेषण प्रचार माध्यमों द्वारा किए जाते हैं उनमें अंग्रेजी सबसे आगे होती है। हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाएं यहां गौण भूमिका निभाती हैं। प्रश्न है कि इस देश में भारतीय भाषाएं अपनी दूसरे और तीसरे दर्जे की भूमिका कब तक निभाती रहेंगी? कब तक संभ्रांतता, अधिक प्रबुद्ध, सुयोग्य होने का मुकुट केवल अंग्रेजी पहने रहेगी? 
जो भाषाएं अपनी मत-शक्ति से संसद और विधानसभाओं का निर्माण करती हैं, करोड़ों बच्चों को स्कूल जाने और कुछ शिक्षा प्राप्त करने योग्य बनाती हैं, भावी पीढ़ी का निर्माण करती हैं, सामान्य से सामान्य जन के बीच संवाद का माध्यम बनती हैं वे कब तक उस भाषा के सम्मुख हीनताभाव से ग्रस्त रहेंगी, जिसे कुछ मुट्ठी भर लोग अपने निहित स्वार्थों के लिए देश के कंधों पर लादे रखना चाहते हैं?
भारतीय भाषाओं को सम्मान और उचित स्थान दिलाने के लिए प्रयत्नशील लोग, कम से कम पिछले सौ वर्षों से इन प्रश्नों से जूझ रहे हैं। स्वतंत्रता के बाद से तो यह प्रश्न निरंतर चर्चा और विवाद के केंद्र में रहा है और अनेक कोणों से इस पर विचार किया गया है। इस देश में भाषा के आधार पर राज्यों का गठन ही इसलिए किया गया था कि सभी क्षेत्रीय भाषाओं को अपने-अपने राज्यों में राजभाषा बनने का गौरव प्राप्त हो और उन्हें सभी दृष्टियों से प्रगति का अवसर मिले। इसी के साथ इस बात को भी आवश्यक समझा गया कि सभी भाषाओं में संवाद, पत्र-व्यवहार, अनुवाद और आदान-प्रदान में संपर्क भाषा की भूमिका निभाने का दायित्व हिंदी को हो, जो देश के अधिकतर भागों में बोली और समझी जाती है तथा केंद्र और उत्तर भारत के अनेक राज्यों ने उसे अपनी राजभाषा के रूप में मान्यता दी है। 
पिछले कुछ सालों में इस दृष्टि से उल्लेखनीय प्रगति भी हुई है। अब अनेक राज्यों का राजकीय कार्य बड़ी मात्रा में उनकी भाषाओं में होता है। जहां कुछ कमी है वहां उसे पूरा भी किया जा रहा है, पर इस स्थिति की सबसे बड़ी कमी यह है कि जब इन भाषाओं का केंद्र से संपर्क होता है या आपसी संवाद का अवसर आता है तो अंग्रेजी की शरण में जाए बिना इन्हें और कोई विकल्प नहीं सूझता। इस बिंदु पर अंग्रेजी की संप्रभुता स्वीकार कर ली जाती है। 
अंग्रेजीदां व्यक्ति यह समझने लगता है कि उसके बिना इस देश में न कोई सार्थक संवाद हो सकता है, न किसी प्रकार का कोई निर्णय किया जा सकता है। वह समझता है कि कार की पिछली पूरी सीट पर मैं अकेला पसर कर बैठूंगा। भारतीय भाषा वाले व्यक्ति को ड्राइवर के साथ वाली आधी सीट पर ही बैठना चाहिए। उसका काम सिर्फ इतना है कि जब कभी भटकने की स्थिति आ जाए तो वह कार की खिड़की से झांक कर सही रास्ते के संबंध में कुछ पूछताछ कर ले। भारत सरकार भी कभी-कभी भारतीय भाषाओं के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करती है। 
कुछ साल पहले मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने भारतीय भाषा प्रोन्नयन परिषद की स्थापना का निर्णय किया था। इस परिषद के अध्यक्ष प्रधानमंत्री और उपाध्यक्ष मानव संसाधन विकास मंत्री हैं। देश के विभिन्न भागों से बाईस विद्वानों और भाषाविदों को इस परिषद का सदस्य बनाया गया था। इस परिषद का काम था सरकार को भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भारतीय भाषाओं के विकास, प्रचार-प्रसार और प्रोन्नयन के लिए किए जाने वाले उपायों पर सलाह देना। यह बहुत स्वागतयोग्य कदम था। 
भारतीय भाषाओं के विकास प्रचार-प्रसार और प्रोन्नयन के लिए भारत सरकार सभी प्रकार के प्रयास करे, यह बहुत अच्छी बात है, लेकिन मेरी दृष्टि में इससे भी बड़ी समस्या इन भाषाओं में आपसी संवाद, सौहार्द और आदान-प्रदान की है। भारतीय भाषाओं के बीच यह नहीं है और अगर है तो बहुत थोड़ा है। यही कारण है कि हम अभी तक भारतीय साहित्य का कोई समग्र या समन्वित चित्र नहीं उभार सके हैं। साहित्य अकादेमी जैसी संस्थाएं जो कुछ करती हैं, वह अंग्रेजी के माध्यम से करती हैं और भारतीय साहित्य को समर्पित उनके अधिकतर समारोह अंग्रेजी समारोह मात्र होते हैं। भारतीय भाषाओं के मध्य ऐसी संवादहीनता का लाभ अंग्रेजी उठाती है और सूचीबद्ध भाषाओं के बीच वह 'दाल-भात में मूसलचंद' कहावत को चरितार्थ करती हुई सबके बीच में अध्यक्ष की कुर्सी अनायास ही प्राप्त कर लेती है। इस स्थिति से निपटना सरल नहीं है। 

व्यापक दृष्टि से अंग्रेजी ने हम सभी के अंदर गहरा हीनता भाव उत्पन्न कर दिया है। अंग्रेजी में हम बातचीत करना, अंग्रेजी अखबार और पुस्तकें पढ़ना, अंग्रेजी संगीत सुनना, अंग्रेजी फिल्में देखना और बड़े विश्वास से अंग्रेजी में ही यह मत व्यक्त करना कि यह तो अंतरराष्ट्रीय भाषा है। ज्ञान-विज्ञान की सभी खिड़कियां इसी भाषा के माध्यम से खुलती हैं। इसलिए अंग्रेजी ही हमारे   व्यक्तित्व का सही प्रतिबिंब लोगों के सामने रखती है। 
हमारे लेखक-आलोचक भी इस हीनता भाव से मुक्त नहीं हैं। वे सभी धाक जमाने के लिए अपने भाषणों और लेखों में जितने उदाहरण और उद्धहरण देते हैं उन सभी में यूरोप और अमेरिका की चर्चा होती है। अनेक अवसरों पर गलत-सलत अंग्रेजी बोलना उन्हें ठीक-ठाक हिंदी बोलने से अधिक तृप्ति देता है। ऐसे हीनता भाव पर किस प्रकार विजय प्राप्त की जा सकती है! 
इस साल फरवरी के पहले हफ्ते में महाराष्ट्र के चंद्रपुर में पचासीवां अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन आयोजित हुआ। इस सम्मेलन की विशेषता यह है कि इसमें किसी गैर-मराठी लेखक को विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित कर उसका सम्मान किया जाता है। इस वर्ष सम्मेलन के आयोजकों ने मुझे आमंत्रित किया था। 
मुझे यह बात लगातार अनुभव होती रही है कि भारत की विभिन्न भाषाओं में आपसी संवाद नहीं के बराबर है। सभी भाषाओं के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मेलन होते रहते हैं। लेकिन ऐसे सम्मेलन प्राय: उसी भाषा के लेखकों और विद्वानों तक सीमित रहते हैं। 
कई विश्व हिंदी सम्मेलनों में मैंने भाग लिया है। अनेक विश्व पंजाबी सम्मेलन भी हो चुके हैं। मैं पंजाबी में लिखता हूं, इसलिए उनमें भी मेरी भागीदारी रही है। पर मुझे यह स्मरण नहीं होता कि ऐसे सम्मेलनों में कभी इतर भाषा के लेखकों को आमंत्रित किया गया हो। साहित्य अकादेमी ऐसे आयोजन अवश्य करती है, पर उनमें संवाद और विचार-विमर्श की भाषा सदैव अंग्रेजी होती है। 
इस दृष्टि से अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन का कार्य बहुत सराहनीय है। स्वाभाविक है कि सम्मेलन का सारा कार्य, वक्तव्य और विचार-विमर्श मराठी में हुआ था। मेरे जैसे व्यक्ति ने वहां अपना भाषण हिंदी में दिया था। 20 जुलाई, 2011 को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में केंद्रीय हिंदी समिति की बैठक हुई थी। उसमें भी मैंने राष्ट्रीय भाषा आयोग के गठन की बात उठाई थी, जिसका अनेक सदस्यों ने समर्थन किया था। बाद में मैंने विस्तार से ऐसे आयोग के गठन की रूपरेखा देते हुए प्रधानमंत्री को एक पत्र भी लिखा था। 
यह आवश्यक है कि भारत सरकार एक राष्ट्रीय भाषा आयोग का गठन करे। यह आयोग उसी प्रकार और स्तर का हो जैसे राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग, पिछड़ा वर्ग आयोग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग या मानवाधिकार आयोग है। इस आयोग का दायित्व और कार्य कुछ इस प्रकार हो सकते हैं-
- सभी भारतीय भाषाओं के विकास, प्रचार-प्रसार और प्रोन्नयन के लिए योजनाएं बनाना और उनके कार्यान्वयन के लिए केंद्र और राज्य सरकारों से संपर्क करना और सलाह देना। 
सभी भारतीय भाषाओं में आपसी संवाद, आदान-प्रदान और अनुवाद कार्य को प्रोत्साहित करना, उसके लिए योजनाएं बनाना और इसके कार्यान्वयन के लिए साहित्य अकादेमी, नेशनल बुक ट्रस्ट और राज्यों की भाषा और साहित्य अकादमियों से संपर्क करना और सलाह देना। 
भारतीय भाषाओं के लेखकों-भाषाविदों-रंगकर्मियों के मिलेजुले सम्मेलन कराना, जिनमें सभी लोग आपस में विचार-विमर्श कर सकें, नई प्रवृत्तियों और रचनाओं से परिचित हो सकें। 
एक भाषा के लेखकों को दूसरी भाषा के क्षेत्र में भेजना, जिससे वे उस भाषा और उसके साहित्य का अंतरंग परिचय प्राप्त और क्षेत्रीय संस्कृति की विशेषताओं से अपना तादात्म्य स्थापित कर सकें। 
भारतीय भाषाओं के मिलेजुले विश्व सम्मेलन आयोजित करना और उनमें विदेशों में बसे विभिन्न भारतीय भाषा-भाषियों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करना। 
भारतीय साहित्य के एक समग्र और समन्वित स्वरूप के विकास की दिशा में ठोस कदम उठाना। 
भारतीय भाषाओं के बहुख्यात साहित्यकारों की जयंतियां अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित करना। 
एक से अधिक भारतीय भाषाओं में सिद्धता प्राप्त करके एक भाषा से दूसरी भाषा में सीधा अनुवाद कर सकने वालों को प्रोत्साहित करना।
विश्वविद्यालयों में भारतीय साहित्य के समग्र और समन्वित पाठ््यक्रम तैयार कराना और उन्हें स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर अध्ययन के लिए प्रोत्साहित करना। संभव हो तो इस कार्य के लिए एक केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना करना। 
सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि सभी भारतीय भाषाओं के बीच विचार-चर्चा और पत्र-व्यवहार के लिए हिंदी को संपर्क और संवाद की भाषा के रूप में आगे बढ़ाना।
ये कुछ सूत्र हैं, जिन्हें राष्ट्रीय राजभाषा आयोग अपने कार्य क्षेत्र में सम्मिलित कर सकता है। इसमें अन्य अनेक सूत्र और जोड़े जा सकते हैं। ऐसे आयोग की रचना के संबंध में अगर भारत सरकार कदम उठाए तो भारतीय भाषाओं को वह स्थान प्राप्त करना सुलभ हो जाएगा, जिसकी हम सभी कामना करते हैं।

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