BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Monday, January 30, 2012

महाराष्ट्र में दलित राजनीति कांग्रेस और शिवसेना के हवाले​ ​मुंबई से एक्सकैलिबर स्टीवंस विश्वास


​​महाराष्ट्र में दलित राजनीति कांग्रेस और शिवसेना के हवाले​

​मुंबई से एक्सकैलिबर स्टीवंस विश्वास

कांग्रेस ने अगले महीने होने जा रहे नगरपालिका चुनाव व जिला पंचायत चुनाव से पहले भारतीय रिपब्लिकन पार्टी-बहुजन महासंघ (बीआरपीबीएम) से हाथ मिलाया है। यह जानकारी दोनों पार्टियों के नेताओं ने रविवार को यहां दीबीआरपीबीएम का नेतृत्व तीन बार सांसद रह चुके प्रकाश अम्बेडकर करते हैं। प्रकाश अम्बेडकर भीमराव अम्बेडकर के पोते हैं। यह दल रिपब्लिकन पार्टी से 1999 में टूटकर अलग हुआ था। मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण, कांग्रेस की राज्य इकाई के अध्यक्ष माणिकराव ठाकरे और बीआरपीबीएम अध्यक्ष अम्बेडकर ने एक संवाददाता सम्मेलन में इस गठबंधन की संयुक्त रूप से घोषणा की।

चव्हाण ने कहा, कांग्रेस की बीआरपीबीएम के साथ सभी 27 जिला परिषदों और 300 पंचायत समितियों के लिए अगले महीने सात फरवरी को होने वाले मतदान के लिए एक सहमति होगी।

ठाकरे ने कहा कि 16 फरवरी को 10 नगर निगमों के लिए होने वाले चुनाव के लिए बीआरपीबीएम के साथ गठबंधन को अंतिमरूप देने के लिए बातचीत चल रही है।

इससे पहले आरपीआई (ए) के अध्यक्ष रामदास अठावले ने भगवा ब्रिगेड का दामन थाम लिया है। बृहन्मुम्बई नगर निगम (बीएमसी) चुनाव के लिए शिव सेना, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) ने गुरुवार को महागठबंधन की घोषणा की। इस महागठबंधन ने निकाय चुनाव में जीत का दावा किया और कहा कि विधानसभा पर कब्जा उसका अगला लक्ष्य होगा।



शिव सेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने कहा कि हफ्तेभर चली गहन मंत्रणा के बाद तय हुआ कि 227 सीटों वाले बीएमसी के लिए शिव सेना 135, बीजेपी 63 और आरपीआई 29 सीटों पर चुनाव लड़ेगी।

ठाकरे ने कहा कि हमने अपने नए घटक (आरपीआई) को अधिक सीटें देने का प्रयास किया, लेकिन यह महागठबंधन सिर्फ इस चुनाव भर के लिए नहीं है, बल्कि समूचे राज्य में कांग्रेस-राकांपा (राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी) से मुकाबला करने के लिए बना है।

महागठबंधन को ऐतिहासिक बताते हुए उन्होंने कहा कि यह 27 जिला परिषदों और 10 नगर निगमों के लिए क्रमशः सात व 16 फरवरी को होने वाले चुनाव में भारी जीत हासिल करेगा।

'शिव शक्ति के साथ भीम शक्ति' के गठबंधन का स्वागत करते हुए आरपीआई प्रमुख रामदास अठावले ने कहा कि यह सिर्फ शुरुआत है। महाराष्ट्र विधानसभा के अगले चुनाव (2014 में) बहुमत हासिल करना हमारा मुख्य लक्ष्य है।




कुछ महीने पहले शिवसेना प्रमुख बाबासाहेब ठाकरे से मिलने के बाद अठावले ने शुक्रवार को भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी से भी मुंबई में मुलाकात की. इसके बाद अठावले ने भगवा खेमे में जाने का ऐलान किया।

अठावले ने कहा कि देश की जनता के हित में उन्होंने भाजपा के साथ जाने का ऐलान किया है।


बीजेपी-शिवसेना ने शरद पवार के भरोसेमंद कहे जाने वाले आरपीआई नेता रामदास अठावले को अपने खेमे में लाने के बाद शक्ति प्रदर्शन की ठानी थी, लेकिन आजाद मैदान बस एक फ्लाप शो का गवाह बनकर रह गया।

महंगाई और भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते हुए अठावले ने सभी राजनीतिक दलों से कांग्रेस के खिलाफ लामबंद होने की अपील की। अठावले ने आरोप लगाया कि दलित वोटों के बूते कांग्रेस और एनसीपी ने महाराष्ट्र में सत्ता हासिल की लेकिन अब वो दलितों को भूल गई है।




हालांकि इस पूरे घटनाक्रम के पीछे अठावले का कांग्रेस के साथ निजी खुन्नस है।
गौरतलब है कि 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में अठावले महाराष्ट्र के शिर्डी लोकसभा चुनाव से प्रत्याशी थे।

कांग्रेस और राकांपा ने उन्हें इस चुनाव में समर्थन दिया था. लेकिन स्थानीय नेताओं के अठावले का साथ नहीं देने के कारण अठावले चुनाव हार गए।
इसके बाद से ही अठावले कई बार कांग्रेस-राकांपा पर राज्यसभा या फिर विधान परिषद में भेजने का दबाव बनाते रहे।

लेकिन कांग्रेस लगातार अठावले की अनदेखी करती रही तो अठावले ने शिवसेना-भाजपा के साथ जाने का फैसला किया।

अब हाल ही में महाराष्ट्र में स्थानीय निकाय चुनाव होने वाले है।

अठावले इस चुनाव में कांग्रेस गठबंधन को सबक सिखाने के मूड में है।

इस चुनाव में अठावले कांग्रेस गठबंधन के दलित वोटों को प्रभावित कर सकते हैं।

भारत में दलितों के अधिकारों की मांग आजादी से पहले से ही शुरू हो गई थी। जिसका सीधा सा कारण था अंग्रेजी शिक्षा और शासन। यद्यपि अंग्रेज देश की सामाजिक संरचना में किसी भी तरह का हस्तक्षेप पसंद नहीं करते थे इसके बावजूद मानवीय अधिकारों के संदर्भ में उनकी विचारधाराएं इतनी प्रबल थीं कि उन्हें दलितों के अधिकारों के संदर्भ में सोचने को मजबूर होना पड़ा। भारत में दलित आंदोलन की शुरूआत ज्योतिराव गोविंदराव फुले के नेतृत्व में हुई। ज्योतिबा जाति से माली थे और समाज के ऐसे तबके से संबध रखते थे जिन्हे उच्च जाति के समान अधिकार नहीं प्राप्त थे। इसके बावजूद ज्योतिबा फूले ने हमेशा ही तथाकथित 'नीची' जाति के लोगों के अधिकारों की पैरवी की। भारतीय समाज में ज्योतिबा का सबसे दलितों की शिक्षा का प्रयास था। ज्योतिबा ही वो पहले शख्स थे जिन्होंन दलितों के अधिकारों के साथ-साथ दलितों की शिक्षा की भी पैरवी की। इसके साथ ही ज्योति ने महिलाओं के शिक्षा के लिए सहारनीय कदम उठाए। भारतीय इतिहास में ज्योतिबा ही वो पहले शख्स थे जिन्होंने दलितों की शिक्षा के लिए न केवल विद्यालय की वकालत की बल्कि सबसे पहले दलित विद्यालय की भी स्थापना की। ज्योति में भारतीय समाज में दलितों को एक ऐसा पथ दिखाया था जिसपर आगे चलकर दलित समाज और अन्य समाज के लोगों ने चलकर दलितों के अधिकारों की कई लड़ाई लडी। यूं तो ज्योतिबा ने भारत में दलित आंदोलनों का सूत्रपात किया था लेकिन इसे समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का काम बाबा साहब अम्बेडकर ने किया। एक बात और जिसका जिक्र किए बिना दलित आंदोलन की बात बेमानी होगी वो है बौद्ध धर्म। ईसा पूर्व 600 ईसवी में ही बौद्घ धर्म ने समाज के निचले तबकों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। बुद्घ ने इसके साथ ही बौद्ध धर्म के जरिए एक सामाजिक और राजनीतिक क्रांति लाने की भी पहल की। इसे राजनीतिक क्रांति कहना इसलिए जरूरी है क्योंकि उस समय सत्ता पर धर्म का आधिपत्य था और समाज की दिशा धर्म के द्वारा ही तय की जाती थी। ऐसे में समाज के निचले तलबे को क्रांति की जो दिशा बुद्घ ने दिखाई वो आज भी प्रासांगिक है। भारत में चार्वाक के बाद बुद्घ ही पहले ऐसे शख्स थे जिन्होंने ब्राह्मणवाद के खिलाफ न केवल आवाज उठाई बल्कि एक दर्शन भी दिया। जिससे कि समाज के लोग बौद्घिक दासता की जंजीरों से मुक्त हो सकें।

यदि समाज के निचले तबकों के आदोलनों का आदिकाल से इतिहास देखा जाए तो चार्वाक को नकारना भी संभव नहीं होगा। यद्यपि चार्वाक पर कई तरह के आरोप लगाए जाते हैं इसके बावजूद चार्वाक वो पहला शख्स था जिसने लोगों को भगवान के भय से मुक्त होने सिखाया। भारतीय दर्शन में चार्वाक ने ही बिना धर्म और ईश्वर के सुख की कल्पना की। इस तर्ज पर देखने पर चार्वाक भी दलितों की आवाज़ उठाता नज़र आता है.....खैर बात को लौटाते हैं उस वक्त जिस वक्त दलितों के अधिकारों को कानूनी जामा पहनाने के लिए भारत रत्न बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर ने लड़ाई शुरू कर दी थी...वक्त था जब हमारा देश भारत ब्रिटिश उपनिवेश की श्रेणी में आता था। लोगों के ये दासता का समय रहा हो लेकिन दलितों के लिए कई मायनों में स्वर्णकाल था।



हिन्दू समाज में ÷ अछूत' मानी जाने वाली जातियों के लिए सम्भवतः सबसे पहले उन्नीसवी सदी में जोतिराव फुले ने ÷ दलित' शब्द का प्रयोग किया। उन्हें जाति विरोधी आन्दोलनों का अग्रदूत कहा जा सकता है। 1840 में उन्होंने मुम्बई में खास तौर पर ÷ अछूतों' के लिए एक स्कूल खोला और 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की, जिसका उद्देश्य ÷ शूद्र' और ÷ अतिशूद्र' कही जाने वाली जातियों को अपने मानवाधिकारों के प्रति जागरूक बनाना और उन्हें ब्राह्मण धर्मशास्त्राों में प्रतिपादित विचारधारा के प्रभाव से मुक्त कराना था।

डा. भीमराव आम्बेडकर केवल दलितों के सर्वप्रमुख राजनेता ही नहीं , मौलिक चिन्तक तथा असाधारण विद्वान थे जिन्होंने हिन्दू समाज की व्याधियों और दलितों की समस्या पर बहुत कुछ लिखा, जिनमें तीन कृतियां विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। 1935 में लाहौर के जातपात तोड़क मण्डल ने उन्हें अपने वार्षिक सम्मेलन का अध्यक्ष चुना और भाषण देने के लिए निमन्त्रिात किया। परन्तु भाषण की प्रति पढ़ने के बाद मण्डल ने कई अंशों पर आपत्ति जतायी और आम्बेडकर से उन अंशों को निकाल देने का अनुरोध किया। आम्बेडकर के मना करने पर अधिवेशन ही रद्द कर दिया गया। भाषण की आलोचना महात्मा गांधी ने भी हरिजन में की थी। अतः 1936 में आम्बेडकर ने स्वयं ही भाषण को महात्मा गांधी को दिये गये प्रत्युत्तर के साथ Annihilation of Caste with a Reply to Mahatma Gandhi के नाम से प्रकाशित कर दिया। मुल्कराज आनन्द के शब्दों में यह छोटी सी पुस्तिका किसी भी निरपेक्ष पाठक को ÷ अस्पृश्यों की गीता' प्रतीत होगी। मधुलिमए ने इसकी तुलना कार्ल मार्क्स के कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो से कीहै।

बाबा साहब अंबेडकर ने सबसे पहले देश में दलितों के लिए सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों की पैरवी की। साफ दौर भारतीय समाज के तात्कालिक स्वरूप का विरोध और समाज के सबसे पिछडे़ और तिरस्कृत लोगों के अधिकारों की बात की। राजनीतिक और सामाजिक हर रूप में इसका विरोध स्वाभाविक था। यहां तक की महात्मा गांधी भी इन मांगों के विरोध में कूद पड़े। बाबा साहब ने मांग की दलितों को अलग प्रतिनिधित्व (पृथक निर्वाचिका) मिलना चाहिए यह दलित राजनीति में आज तक की सबसे सशक्त और प्रबल मांग थी। देश की स्वतंत्रता का बीड़ा अपने कंधे पर मानने वाली कांग्रेस की सांसें भी इस मांग पर थम गई थीं। कारण साफ था समाज के ताने बाने में लोगों का सीधा स्वार्थ निहित था और कोई भी इस ताने बाने में जरा सा भी बदलाव नहीं करना चाहता था। महात्मा गांधी जी को इसके विरोध की लाठी बनाया गई और बैठा दिया गया आमरण अनशन पर। आमरण अनशन वैसे ही देश के महात्मा के सबसे प्रबल हथियार था और वो इस हथियार को आये दिन अपनी बातों को मनाने के लिए प्रयोग करते रहते थे। बाबा साहब किसी भी कीमत पर इस मांग से पीछे नहीं हटना चाहते थे वो जानते थे कि इस मांग से पीछे हटने का सीधा सा मतलब था दलितों के लिए उठाई गई सबसे महत्वपूर्ण मांग के खिलाफ में हामी भरना। लेकिन उन पर चारों ओर से दबाव पड़ने लगा.और अंततः पूना पैक्ट के नाम से एक समझौते में दलितों के अधिकारों की मांग को धर्म की दुहाई देकर समाप्त कर दिया गया। इन सबके बावजूद डॉ.अंबेडकर ने हार नहीं मानी और समाज के निचले तबकों के लोगों की लड़ाई जारी रखी। अंबेडकर की प्रयासों का ही ये परिणाम है कि दलितों के अधिकारों को भारतीय संविधान में जगह दी गई। यहां तक कि संविधान के मौलिक अधिकारों के जरिए भी दलितों के अधिकारों की रक्षा करने की कोशिश की गई।
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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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