एक बड़ी ज़िम्मेदारी गिरदा हम पर छोड़ गए हैं : रुपिन
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गिरदा ताऊजी का नाम आये वक्त घर पर लिया जाता था। उनसे मुलाकात होती रहती थी, लेकिन कभी कोई खास बातचीत का मौका नहीं मिला। शायद मैं ही यह मौके नहीं बना पाई। फिर भी, उनकी बिखरी हुई आँखों में हमेशा कुछ झलकता था। उनसे थोड़ी देर बात कर, सिर्फ हाल-चाल पूछ कर, एक बहुत गहरा भाव महसूस होता था। ऐसा लगता था कि इन रोज़ के सवालों में भी बड़ी गंभीरता है और इनका आदर करना चाहिए। जैसे इन आम सवालों और जवाबों में एक साधारण लेकिन स्पष्ट सच्चाई है, जो हम सब को जोडती है। इस गहराई में ताऊजी का सौहार्द हमेशा महसूस होता था। एक धैर्य भरा प्रेम, खुला, अपार-सा। और इस तरह उन हाल-चाल की बातों में बिना कहे बहुत बात हो जाती थी।
ऐसी कई यादें हैं। फ़ोन उठाते ही उनका 'हाँ जी' कहना, मिलते ही हाथ मिलाना। उनके बिखरे हुए बाल, बीड़ी और झोला। उनकी आवाज़, उसका लय, उसका खिंचाव, उसका दर्द। उनके गाने और कवितायेँ। इन यादों और बातों के गिर्दा ताऊजी का साया बहुत बड़ा है। कुछ लोगों के दिल इतने बड़े होते हैं कि उन्हें इस तरह पूरी सहजता के साथ अपना लिया जाता है। ताऊजी वैसे थे। अंत के वर्षों के सिमटे हुए शरीर से भी उनका जीव चमकता था।
ताऊजी की पहचान के कई लोग इसी तरह उनकी कमी को अपनी यादों के ज़रिये सह रहे हैं। बीते वक्त से यथार्थ के खालीपन को भर रहे हैं, लेकिन अगर हम इस पल को जीना चाहते हैं तो हम उनकी कमी को क्या रूप दे सकते हैं ? गिरदा का अर्थ अब हमारे लिए क्या होना चाहिए ? यह बड़ी ज़िम्मेदारी गिरदा हम पर छोड़ गए हैं।
- रूपिन मैत्रेयी
संपर्क : ntl_samachar@merapahad.com
गिर्दा की कुछ कविताऐं
ऊँ, हम और उ
उनरि नौणि है लै चुपाड़ छन हमार यों जाट
दै कि पराई है लै चुपाड़ छन चैंक खुस्याल
उनार सुकिला लुकुड़ाँ भितर चाऔ धैं
कदुक काव छू
हमार आँख उधाड़ियै निभै
उनार आँखन बड़वौक जाव छू
पै खबरदार रे ! होशियार हाँ !!
बखताक पेटन भाउ छू
जैक हाथन मैं अगिनि छू
जैक आँखन मैं उज्याव छू
वीक लिजी
उँ धिकमुर्कनैकि नौणि है लै चुपाड़ छन
हमार यौं जाट
उनार आँखन बड़वौक जाव छू
(य़ही कविता अब हिन्दी में)
ये,हम और वो
उनकी नवनीत से भी चिकनी है हमारी जटायें
और दही की मलाई से भी मुलायम है सर में पड़ी 'डन्ड्रफ'
उनके सफेद लिबास के भीतर देखिये
कितना काला है
हमारी आँखें तो खुली ही नहीं
मगर उनकी आँखों में मकड़जाला है
पर खबरदार रे ! होशियार हाँ !!
समय के गर्भ में है संतति
जिसके हाथों में अग्नि है
जिसके आँखों में उजाला है
उसके लिये
उन दुष्टों की नवनीत से भी चिकनी है
हमारी ये जटायें।
परिचय
गौं-गाड़ को पत पाणी दीण तो भई हमरी पुराणी परिपाटी-
जिल्ल अल्म्वाड़, गौं- ज्योलि, पट्टी- तल्लास्यूनरा में हलबागै की घाटी।
भुस्स पहाड़ को जन्म मेरो चून-चून बसी भै हिलालै की माटी,
सीस मेरे असमान पुजी काखि में लोटी रूँनी मेरी डांडी-काँठी ।।
(हिन्दी अर्थ : कि अपने गाँव-इलाके का अता-पता देना हमारी पुरानी परिपाटी रही है-जिला-अल्मोड़ा, गाँव – ज्योली, पट्टी- तल्लास्यूनरा पता है मेरा। गर्व है मुझे कि इस सुदूर पहाड़ी गाँव में जन्मा ठेठ पहाड़ी हूँ मैं। कि मेरे रोम-रोम में हिमालय की मिट्टी बसी है। कि शीश मेरा चूमता है असमान और मेरी गोद में खेलती हैं पर्वत श्रृंखलायें।)
हिमालय सौन्दर्य
उत्तरकाशी बै काली-कुमूँ जाँलै
क्या सुन्दर छाजि रै मेरी बाड़ी,
क्या कुनु खिच हँसैं पारबती
जो लाल बुरूँशी का ओट पिछाड़ी।
तराई-माल-हिमाल-बुग्याल
मोत्यूँ जैसा फोकी द्यूँ ऊ हँसी प्यारी,
ज्ञान-ध्यान धरिये रै जाँ जोगी को
खितकनी ह्यँयूँ की लली का अघ्याड़ी ।।
(हिन्दी अर्थ : कि उत्तर की काशी से लेकर काली-कुमाऊँ तक क्या सुन्दर फुलवारी सजी है। कि क्या कहें उस अनुपम दृश्य के बारे में जब लाल बुराँश की ओट शैलसुता पार्वती अनायास ही खिलखिला पड़ती है। अद्भुद, प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच ध्यान मग्न 'जोगी' को देखकर। कि तराई-भाबर-हिमाल और बुग्यालों में वही हँसी तो बिखरती है अनमोल मोती बनकर। कि अन्ततः सारा ज्ञान-ध्यान धरा का धरा रह जाता है 'जोगी' (शिव) का खिलखिलाती हिम लली (पार्वती) की उनमुक्त हँसी के सामने। )
सम्पादकीय : अहिंसक प्रतिरोधों की अनदेखी की जायेगी तो माओवाद पनपेगा
उत्तराखंड में लोहारीनाग पाला जल विद्युत परियोजना का निर्माण बंद कर दिया गया है। उड़ीसा में वेदान्ता कम्पनी को खनन करने से रोक दिया गया है। उ.प्र. में किसानों के जबर्दस्त प्रतिरोध के बाद केन्द्र सरकार भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव के लिये विवश हो गई है। पन्द्रह साल पहले बहुत जोर-शोर से जिस आर्थिक उदारीकरण के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों की भयंकर लूट शुरू हो गई थी, उसमें एक बहुत बड़ा अवरोध आ गया है। उदारीकरण और वैश्वीकरण के जैकारा लगाने वाले मुख्यधारा के मीडिया की जबर्दस्त घुसपैठ के कारण भारत की जनता पहले भ्रमित थी। अब वह काफी सतर्क हो गई है। इसीलिये जी.डी.पी. को खुशहाली का पैमाना मानने वाली सरकार तमाम दमन के बावजूद जनता के प्रतिरोधों के सामने अपने आप को विवश महसूस कर रही है। यह तय है कि जनता के प्रतिरोध अभी बढ़ेंगे। अहिंसक प्रतिरोधों की अनदेखी की जायेगी तो माओवाद पनपेगा।
यह द्वन्द्व निकट भविष्य में बहुत तेज होगा। तेजी से बढ़ते खरबपतियों और उससे कई गुना तेजी से बढ़ते कंगालों की संख्या के बीच सरकार निश्चित रूप से असमंजस में है। विकास का जो रास्ता उदारीकरण और वैश्वीकरण के बाद लिया गया है, उससे लाभान्वित होने वाले लोग हर राजनैतिक पार्टी में हैं और गाँव-गाँव तक फैले हैं। वे हाथ में आ रही मलाई को कैसे छोड़ दें ? यहाँ उत्तराखंड में ही अपने को राज्य आन्दोलन का अलमबरदार बतलाने वाला उत्तराखंड क्रांति दल लोहारीनाग पाला जल विद्युत परियोजना का निर्माण रोके जाने के विरोध में ताल ठोक कर खड़ा हो गया है। जब उत्तराखंड ही मानसखंड और केदारखंड के बदले ठेकेदार खंड बन गया हो तो इस महादेश की परिस्थितियों की तो सिर्फ परिकल्पना ही की जा सकती है।
श्रद्धान्जलियाँ : वे अलबलाट में हमसे बिछड़ गये
उनके जाने से यह नदी समाप्त हो चुकी है
'गढ़ गौरव' के अगस्त 2010 के अंक से जनकवि गिरीश तिवाड़ी 'गिरदा' के निधन का समाचार पढ़कर मुझे अत्यन्त दुःख हुआ। मैंने नैनीताल स्थित कई मित्रों को फोन मिलाया, किन्तु इस संचार क्रांति के युग में भी किसी से सम्पर्क न हो सका। गिरदा को मैं लगभग 40 वर्षों से जानता था। इधर दो बार कई दशकों के बाद नैनीताल में उनके कैलाखान आवास पर भेंट भी हुई थी। एक बार तो वे मेरे नगर श्रीनगर में किसी कवि सम्मेलन में भी आये थे। उनकी हिमालय पर लिखी कविता श्रोताओं को खूब भाई थी। आकाशवाणी लखनऊ में वे कई सुन्दर मधुर गीत रिकार्ड कर चुके थे। एक नहीं सैकड़ों गीत उनके मधुर कण्ठ से प्रसारित हुए। उत्तराखण्ड की संस्कृति में तो मैं उन्हें नदी के रूप में मानता था। ब्रजेन्द्र, अनुरागी व गिरदा, ये तीनों गीत भी लिखते थे और उन्हें गाते भी थे। अब यह नदी समाप्त हो चुकी है। एक विख्यात रंगकर्मी के रूप में वे सदैव याद किये जायेंगे।
- नित्यानन्द मैठाणी
वे अलबलाट में हमसे बिछड़ गये
गिरदा से मेरा सम्पर्क राज्य आंदोलन के दिनों में हुआ। उनके ओजस्वी एवं हृदय की गहराइयों से निकले हुए स्वरों ने हम सब को उत्प्रेरित किया। घरों की चारदिवारी से हजारों की संख्या में निकली मातृशक्ति, बालक, युवा व वृद्धजनों के सैलाब में उनकी वाणी ने प्रयाण गीत की भूमिका निभाई। पर्वतीय अंचल की लोक कलाओं व लोक गीतों में उनकी गहरी पैठ थी। अपनी कविताओं में उन्होंने पर्वतीय अंचल के जनजीवन का सटीक चित्रण किया है, जिसमें माटी की महक, वृक्षाच्छादित वनों से आई बयार की सरसराहट व गाड़ गधेरों का सुसाट-भुभाट है। वे अलबलाट में हमसे बिछड़ गये। मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि !
- गिरिजा शरण सिंह खाती
वह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंप गये
गिरीश भाई के साथ कई वर्ष गीत एवं नाटक प्रभाग में कार्य करते रहे। वे देश, काल परिस्थिति के अनुसार पद रचना करते, मैं उनकी संगीत रचनाएँ करता। कभी-कभी एक दूसरे की रचनाओं को समझने में वाद-विवाद भी होता, लेकिन वे सही चीज को अवश्य स्वीकारते। तब संगीत रचनाएँ मंच में तदनुरूप प्रभाव छोड़तीं। फिर कहते, हरदा का संगीत कुछ देर से सही समझ में आता है। मैं गाँव-गाँव व स्कूलों में सितार व संगीत को छोटे-छोटे भजन कीर्तन व लोकधुनों के माध्यम से समझाता। उन्हें बहुत हर्ष होता कि जन-जन में कुछ जागरूकता तो हो रही है, क्योंकि 40-50 वर्ष पूर्व उत्तराखण्ड की परिस्थितियाँ भिन्न थीं। इस प्रकार कार्यक्रमों के दौरान जन-जन में जुड़ाव होने लगा। उन्होंने देखा कि उत्तराखण्ड की वही विषम परिस्थितियाँ हैं। सरकारी तन्त्र व्यवस्था, उत्तराखण्ड की जनता का दुःख-दर्द उनसे नहीं देखा गया। वे चिपको आन्दोलन, नदी बचाओ आन्दोलन, चुनावों पर व्यंग करती हुई कविताएँ इस प्रकार हुड़का लेकर गीतों के माध्यम से जन-जन में जोश भरते रहे। ऐसा समाजसेवी व्यक्ति प्रेरणा का स्रोत व आदर्श रूप में हमारे सामने आया। समाज के दुख दर्द में आखिरी दम तक जूझता हुआ अमरत्व को प्राप्त हो गया और हम व हमारी आने वाली पीढ़ी के लिये बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंप गया।
- हरिकृष्ण लाल शाह
गिरीश तिवारी 'गिरदा' सशरीर अब हमारे बीच नहीं रहे। समाचार पत्र से यह जानकर मुझे बड़ा आघात लगा। जैसा कि समाचार में बताया गया है कि उनके स्वास्थ्य में सुधार हो रहा था, परन्तु अचानक मौत ने झपट्टा मारकर उन्हें हमसे छीन लिया।
मुझे उनसे मिलने और प्रत्यक्ष संवाद का बहुत कम अवसर मिला, परन्तु जितना कुछ मैं उनको समझा वह आंदोलनकारी, सामाजिक कार्यकर्त्ता की अपनी एक अलग पहचान रखते थे- जनकवि और गायक की उनकी अलग छवि अपनी जगह तो है ही। उनकी हमसे विदाई ऐसे समय हुई, जबकि उनकी और अधिक जरूरत हम सबको और हमारे पहाड़ी समाज को कुछ अधिक ही थी। एक-एक करके ऐसे संघर्षशील व्यक्तित्व बिछुड़ते जा रहे हैं, उनकी जगह लेने को अभी दूर तक कोई दिखाई नहीं दे रहा है।
हम सब बहुत व्यथित हैं। परन्तु आप लोग, नैनीताल-अल्मोड़ा की अपनी टीम जो आपस में ऐसे एकजुट थे, घर परिवार और समाज के स्तर पर वे सब कुछ अधिक ही व्यथित होंगे। उनके घर-परिवार को संभालने को आप अपने को अकेला न समझें, हम सब आपके साथ हैं। गिरदा के क्रांतिकारी, संघर्षशील व्यक्तित्व को मेरा विनम्र प्रणाम।
- धूमसिंह नेगी
याद आते हैं लखनऊ के वे दिन कि जब पहले-पहल मेरी भेंट दारूलशफा में गिरीश तिवाड़ी 'गिर्दा' से हुई थी। मैं तब लखनऊ में पढ़ता था और मेरे गार्जियन चन्द्र सिंह रावत विधायक हुआ करते थे। मेरी कविता, जो मैंने चीन के आक्रमण के दौरान बनाई थी, की उन्होंने मुग्ध कंठ से प्रशंसा की थी। कविताओं के आदान-प्रदान से पहली ही मुलाकात में घनिष्ठता हो गई थी। उन दिनों गिरदा क्ले स्क्वायर में अपने किसी संबंधी के घर में रहा करते थे। हम हजरतगंज की सैर करते और लाल बाग में आकर चाय-समोसे खाते। यह बात सन् 1966-67 की होगी। इसी बीच उन्होंने लखीमपुरखीरी के कुछ मित्रों से मिलाया और कहा कि ये लोग भी जनपक्षीय रुझान के हैं। कुछ दिनों बाद उन्होंने मुझे लखीमपुरखीरी में चल रहे आंदोलन के बारे में बताया। इसके काफी अरसे बाद हमारी मुलाकात नैनीताल में तल्लीताल पर हुई।ं उन्होंने बताया कि वे साउन्ड एण्ड ड्रामा डिवीजन में बतौर कलाकार चयनित हुए हैं। कहने लगे, उमा भाई, कुछ समय बाबूगिरी वर्कचार्जी में बिताया अब मुक्ति पाकर जो मेरा बचपन से शौक रहा उसमें आ गया हूं। एक बार टिहरी मेला प्रदर्शनी में आयोजित कवि सम्मेलन में भेंट हुई। जिला परिषद बंगले में पहुंचकर वहां पहले से कवि जीवानन्द श्रीयाल, घनश्याम सैलानी, सरदार प्रेमसिंह, भूदेव लखेड़ा ने हमारा गर्मजोशी से अभिवादन किया और हम को राम-लक्ष्मण की जोड़ी की संज्ञा दे डाली।
मेरी उनकी पहली मुलाकात लखनऊ में हुई थी, जिसका अंत भी 25 मार्च 2009 को लखनऊ में ही हुआ। वहां हम उमेश डोभाल की शहादत दिवस पर गए हुए थे।
- उमाशंकर थपलियाल 'समदर्शी'
गिरदा का मेरा परिचय विगत 22 वर्षों से है। गिर्दा का सपना है समाज बदले, सब समान हों और महिलाओं का इसमें प्रमुख योगदान हो, जिससे सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलनों को बल मिले। इसके लिए जो परम्परायें हैं, उन्हें टूटना चाहिए। मैं चाहती हूँ कि उनके सपनों को साकार किया जाये, आन्दोलनो को बढ़ाया जाये। परम्पराओं को तोड़ा जाये तभी समाज बदलेगा। इन सपनों को साकार करने के लिए आओ मिलकर सब आगे बढें।
- चम्पा उपाध्याय
साथी गिरदा के असायमिक निधन का समाचार पाकर मन को बहुत दुःख हुआ। कृपया मेरी संवेदना उनके परिवार तक पहुँचा दीजियेगा।
- राधाकृष्ण कुकरेती
अलविदा प्रताप भय्या
इसे मात्र सहयोग कहें या भाग्य का लेख कि अभी आम जन की अभिव्यक्ति कहे जाने वाले गिर्दा की चिता ठण्डी भी नहीं हो पाई थी कि 22 अगस्त की रात पूर्व मंत्री प्रताप भैय्या के देहान्त की खबर ने सबको स्तब्ध कर दिया।
सात साल के शरारती प्रताप (जन्म: 30 दिसम्बर 1932, ग्राम च्यूरीगाड़) के दूध के दाँत भी अभी ठीक से नहीं टूटे थे कि वे आजादी के आंदोलन में शामिल हो गये। तब किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन पिछड़े पहाड़ी ओखलकांडा ब्लॉक का यह बालक उत्तर प्रदेश की विधान सभा में सबसे कम उम्र का विधायक और फिर कम उम्र में मंत्री बन गया। हालाँकि बचपन से ही राजनीति के प्रति उनके जुनून को देखते हुए मंत्री पद उनके लिये प्रत्याशित ही था। अपने स्कूली दिनों से ही उन्होंने राजनीति में गहरी रुचि लेना आरम्भ कर दिया था। वे जहाँ खड़े हो जाते, उनके पीछे जन सैलाब उमड़ पड़ता था।
बहुआयामी प्रतिभा के धनी प्रताप भैय्या राजनीतिज्ञ ही नहीं विधिवेत्ता एवं शिक्षाविद भी थे। अधिवक्ता के रूप में उन्होंने सरोवर नगरी में सैकड़ों विधिवेत्ताओं को बुलाकर सैकड़ों विधि गोष्ठियों का आयोजन किया। उनकी विधि-गोष्ठियों में वकीलों के अतिरिक्त उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्तियों से लेकर सिविल क्षेत्र के मुनसिफ तक भाग लेते थे। 'भैय्या जी' नाम उनके गुरु, महान समाजवादी आचार्य नरेन्द्र देव ने दिया था। नरेन्द्र देव के नाम पर ही भैय्या जी ने शैक्षिक निधि का गठन किया। इसके तहत वर्तमान में यूपी तथा उत्तराखण्ड में सैकड़ों विद्यालय चल रहे हैं, जिनमें सरोवर नगरी का भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय व खटीमा का थारू इण्टर कॉलेज प्रमुख हैं।
अपनी धुन के पक्के भैय्या जी जब कोई गोष्ठी करते तो उन्हें भाग लेने वाले वक्ताओं तथा श्रोताओं की संख्या से भी कोई सरोकार नहीं होता था। कभी चन्द ही वक्ता और श्रोता होते थे। एक बार उनके सहित केवल 5 श्रोता ही एक गोष्ठी में उपस्थित थे, जिनमें उनके पुत्र के अतिरिक्त केवल उनके जूनियर ही थे। उन्होंने पाँच पाण्डव कह कर गोष्ठी करा डाली। वह अपनी कामयाबी का श्रेय अपनी पत्नी बीना जी को बराबर देते थे। पत्नी बीना जी की मृत्यु के बाद उन पर प्रकाशित पुस्तक का विमोचन राष्ट्रपति भवन में कराया। इसके अतिरिक्त पत्नी के संस्मरणों पर आधारित उनकी जीवन गाथा पर एक छोटी फिल्म के सम्पादन का कार्य भी किया। भैय्या जी ने कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देने के अतिरिक्त जाति प्रथा के विरुद्ध सामाजिक लड़ाई भी लड़ी। विपुल प्रतिभा के धनी प्रताप भैय्या की ख्याति उत्तराखण्ड के बाहर सम्पूर्ण भारत तक फैली थी। देश के कई राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों से उनके निजी रिश्ते रहे।
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तुम हर एक उत्तराखण्डी के दिल में हो : गीता गैरोला
1988 का सितम्बर माह। 'नैनीताल समाचार' में उमा दी ने गिरदा से मिलवाया। गिरदा ये गीता गैरोला है, जिसने उत्तरा के लिये कविता भेजी है। मैंने दोनों हाथ जोड़, झुक कर अभिवादन किया। गिरदा अपनी जगह से उठकर मेरे पास आये। मेरे दोनों हाथ स्नेह से पकड़े और बोले, अरे ये तो छोटी लड़की है। कविताओं को पढ़ कर ऐसा लगा कि सयानी होगी। मेरे सिर पर बहुत हौले से दोनों हाथो से सहलाया और बोले, ऐसे ही लिखती रहना। बहुत अच्छी कवितायें लिखी हैं। ये थी मेरी गिरदा से आमने-सामने पहली मुलाकात। इससे पहले उनके गीत केवल पढ़े थे, गाये भी नही थे। मिलते समय डर था। इतने प्रसिद्ध व्यक्ति हैं, बात भी करेंगे या नहीं। गिरदा का वही स्नेह वही प्यार, वही प्रोत्साहन तब से लगातार बना रहा।
15 अगस्त 2010 को करीब 2 बजे 'समय साक्ष्य' से सुप्रिया का फोन आया। दीदी गिरदा आये हैं। बात करना चाहते हैं। मैने गिरदा को प्रणाम कहा। कहाँ हो बैणी, यहाँ आया हूँ। नराई लगी तो फोन कर दिया। वे उसी दिन रात को नैनीताल लौटने वाले थे। उस दिन मैंने आखिरी बार उनकी आवाज सुनी थी। मैं चाह कर भी उन से मिल नहीं पाई। ये फाँस जिंदगी की आखिरी साँस तक मन मे अटकी रहेगी कि उस दिन मिल लेती तो ? अभी तुम्हारे जाने की बात तो नहीं थी गिर्दा। जब भी हम तुम से पूछते थे स्वास्थ्य कैसा है तुम जवाब देते मैं तो ठीक हूँ शरीर साथ नहीं देता । हमसे ही भूल हो गयी गिरदा हम अपने लोगो को समय पर सम्भाल नहीं पाते। हम तुम्हारे ऋणी रहेंगे हमेशा स्नेह और प्रेरणा के साथ दिल को छू लेने वाले गीतों के लिये। तुम हर एक उत्तराखण्डी के दिल में हो।
- गीता गैरोला
वे सवाल हमेशा के लिये अनुत्तरित रह गये : विनीता यशस्वी
मैं नैनीताल समाचार के कम्प्यूटर पर 'गौर्दा' की एक कविता टाइप कर रही थी। 'गिरदा' और 'गौर्दा' के बीच फर्क न मालूम होने के कारण मैंने हरीश पंत जी से पूछा- मैं जिनकी कविता टाइप कर रही हूँ, क्या यही हैं जो बाहर बैठे हैं ?'' पंत जी ने कहा- नहीं ! गौर्दा मेरे परनाना हुए और बाहर बैठे गिरदा हमारे दोस्त। उस पहली मुलाकात में जब मैं गिरदा से मिली तो उन्होंने हाथ मिलाया और पूछा- कैसी है बब्बा ? कुछ ही दिन बाद उन्हें समाचार की निबंध प्रतियोगिता के पुरस्कार वितरण समारोह में 'कैसा हो स्कूल हमारा' कविता को पूरे हाव-भाव और लयात्मकता के साथ सुनाते देखा। मैं स्कूल से निकली ही थी, इसलिये लगा कि उन्होंने वह कविता बच्चों की जगह खुद को रख कर ही लिखी होगी।
फिर तो अक्सर समाचार कार्यालय में गिरदा से मुलाकात होती। वे हमेशा प्यार से मिलते। कितने बार तो कम्प्यूटर के कैबिन में ही मिलने चले आते। स्वास्थ्य बिगड़ने के साथ उनका ऑफिस आना कम हो गया। हम ही उनके पास जनमबार अंक, होली अंक या हरेला अंक के विषय में बातचीत करने जाते थे। जब भी वे नया सुझाव देते तो साथ में यह जरूर कहते- 'मेरी बात सुनी जाये पर मानी न जाये'। अपनी बात को जबरदस्ती मनवाने की कोशिश उन्होंने कभी नहीं की, न ही प्रकाशित हो चुके अंकों पर किसी तरह की टीका-टिप्पणी मैंने उनके मुँह से कभी सुनी।
इस साल पहली जनवरी को उनसे मिलने उनके घर गये थे। उनका स्वास्थ्य कुछ ढीला था, पर उन्होंने हमें अपनी कई कवितायें सुनाईं। दूसरे विषयों पर भी बातें करते रहे। 'मेरी तबियत खराब है' या 'मैं बीमार हूँ' कहते हुए मैंने उन्हें कभी नहीं सुना। हमेशा कहते- 'मैं बिल्कुल ठीक हूँ वीना बेटा।' पिछले कई समय से वे मुझे वीना बेटा कहकर ही बुलाते थे।
मेरे लिये दिल को छू जाने वाला पल वह है, जब उन्हें पता चला कि मेरी तबियत खराब है और उन्होंने मुझसे मिलने मेरे घर तक आने की जिद की। मुझे जवाब भिजवाया कि वीना से कहो मेरे घर आ जाये। बाद में जब मैं उन्हें बाज़ार में मिली तो उन्होंने बार-बार यही उलाहना दिया कि तू हमारे घर क्यों नहीं आ गयी ?
हमारी अंतिम मुलाकात 17 अगस्त को हुई जब मैं और हरीश पंत जी मॉर्निंग वॉक करते हुए उनके घर गये। हम आठ बजे से पहले ही पहुँच गये थे। पंत जी कह रहे थे, पता नहीं गिरदा उठे भी हैं या नहीं। इन दिनों वे बहुत देर से बिस्तर छोड़ पाते थे। लेकिन उस दिन गिरदा दूर से ही बरामदे में टहलते हुए दिख गये। हमें देख कर बहुत खुश हुए। लेकिन बीच-बीच में घड़ी में झाँकते रहे थे। जब मैंने उनसे पूछा कि इतनी बेचैनी क्यों हो रही है तो बोले- ''अरे यार ! अभी मैंने एक दवा खाई है। उसके बाद एक घंटे तक न कुछ खाना है और न सोना है। अब बस 2 मिनट ही और बचे हैं।'' दो मिनट पूरे होने पर वे हमारे साथ बैठे और चाय पी। आदतन 2-3 बीड़ियाँ भी सुलगाई। पंत जी ने मजाक में कहा- तिवाड़ी जी, नाश्ते में बीड़ी जरूर पीनी हुई ? गिरदा अपने अंदाज में हँस दिये। उस दिन गिरदा ने पहली बार मुझसे मेरी व्यक्तिगत ज़िन्दगी के बारे में बात की। स्वतंत्रता दिवस पर देहरादून में हुए कवि सम्मेलन, जो उनका आखिरी सार्वजनिक कार्यक्रम रहा, के बारे में बताया। फिर उदासी के साथ बोले- ''बब्बा, सब पैसों का खेल है, और कुछ नहीं।'' लौटने से पहले मैंने कहा- गिरदा, मुझे आपसे विस्तार से बातचीत करनी है। मैं फिर आउँगी।'' मैं ज़हूर दा, अरुण रौतेला जी, पंत जी और संपादक जी के साथ मिलकर गिरदा के लिये एक प्रश्नावली तैयार कर रही थी, ताकि हर विषय पर उनके विचार जान सकूँ। उन्होंने स्नेह से मेरे दोनों हाथों को दबाया और बोले- ''वीना बेटा, तेरा ही घर है जब चाहे आ जाना।'' …
वे सवाल हमेशा के लिये अनुत्तरित रह गये।
संपर्क : ntl_samachar@merapahad.com
उनकी बात ही अनोखी थी : अमीनुर्रहमान
1992 में हमने सांप्रदायिक सद्भाव के लिये अल्मोड़ा में 'युवा शांति मंच' के गठन उपरान्त कवि सम्मेलन व मुशायरे का आयोजन करने का निर्णय लिया गया। मगर सभी तैयारियों के बाद भी अधिकांश कवि-शायरों की शिरकत न होने से हम आयोजनकर्ता मायूस हो गये। तब आयोजन से एक दिन पूर्व साथी पी.सी. तिवारी ने गिरदा को फोन कर कहा कि आप आ जाते तो साथियों का प्रयास सफल हो जाता। गिरदा ने फौरन सहमति दे दी। हमारी चिन्ता दूर हो गयी।
थोड़े से श्रोता रैमजे इंटर कॉलेज के हॉल में थे। इक्का- दुक्का कवि व शायर भी। हर साथी मुँह लटकाये था। पहला प्रयास था, सफल नहीं होगा तो सबका हौसला टूटेगा, इसी की चिन्ता हो रही थी। कंधे में झोला टाँगे, वास्कट पहने, टोपी लगाये गिरदा सामान्य व्यक्ति की तरह दर्शक के रूप में मंच के सामने कुर्सी में बैठ गये। अचानक मेरी नजर उन पर गयी तो मैं उनके पास गया। उन्होंने तुरंत अपनी आदत के मुताबिक गले से लगा लिया। वे बड़ी मुश्किल से मंच पर मुख्य अतिथि की हैसियत से बैठने को राजी हुए। श्रोता, जो वापस जाना चाह रहे थे, उनका नाम सुन कर रुक गये। बल्कि, कार्यक्रम की शुरूआत में ही गिर्दा ने अपनी मधुर आवाज में जो कविता पाठ किया उसे सुनकर बाहर से भी लोग भारी संख्या में अंदर हॉल में आ गये। फिर लोगों के आग्रह व उत्साह को देखते हुए गिरदा ने एक के बाद दूसरी रचनायें प्रस्तुत कीं। हॉल फुल हो गया और तालियों की गड़गड़ाहट होने लगी। कवि सम्मेलन रात्रि दो बजे तक चला।
हम लोग उन्हें नैनीताल से अल्मोड़ा आने-जाने का मामूली सा किराया दे रहे थे, पर उन्होंने लेने से इंकार कर दिया। कार्यक्रम में बिना नखरे के एक दम आना व अपनी जेब के पैसे खर्च करना फिर पूरी दिलचस्पी से कविता पाठ करना अपने आप में अनोखी बात थी।
- अमीनुर्रहमान
धोखेबाज तिवाड़ी जी !!
तेवाड़ी जी, तुम तो बहुत धोखेबाज निकले यार ….बड़े ही बेमुरव्वत!
उस रोज जब तुम पाईंस के नया घाट में चिता पर लेटे थे, बगल में टिन शेड के नीचे औरतें कोरस में 'हम ओड़, बारुड़ि, ल्वार, कुल्लि कभाड़ि….' गा रही थीं और भीड़ में धँसकर तुम्हारे करीब पहुँच कर तुम्हारा चेहरा मलासते हुए मैं तुमसे 'बाई' कह रहा था, तब यही तो सोच रहा था कि अब तो तुम्हारी जरूरत नहीं पड़ेगी। अपने हिस्से का इतना सारा तो निपटा गये हो तुम…..
तुम्हें मालूम है कि शेखर….हाँ-हाँ तुम्हारा 'चना'……'प्रोफेसर' रातों को सो नहीं पा रहा है उस दिन से और यहाँ यह अंक…..?
बार-बार हाथ 238430 नंबर डायल करने को आगे बढ़ जाता है कि उधर से तुम ''हाँ….जीऽऽ'' कहते हुए फिर आश्चर्य से पूछोगे कि ''आज बेवक्त…..क्या बात ?'' मैं तुम्हें बताउँगा कि यह स्साला अंक गले में फँस गया है। उमा ने न जाने कहाँ-कहाँ फोन कर लिखवाया है, नब्बू ने पूरी लिस्ट भेजी है समाचार में छपे तुम्हारे लिखे की, हरीश पंत हर तीसरे दिन आ जाता है हल्द्वानी से कि आज मैटर फाइनल कर ही देते हैं करके…….और तो और दिनेश उपाध्याय भी कई बार आकर टोपटाल मार गया है……..मैं कई चक्कर लगा चुका हूँ पवन राकेश की दुकान के कि 'आओ, अब आकर निपटा ही दो' कहने। मगर यह सामग्री इतनी फैल और बिखर गई है कि दिमाग ही काम नहीं कर रहा है। पेज भी बढ़ायें तो कितने ? आखिर अखबार के इन पन्नों की औकात जो क्या हुई जो तुम्हें समेट सकें। हालाँकि हमने तय किया है कि कम से कम साल भर तक तुम्हारे बारे में लगातार, हर अंक में सामग्री देते रहेंगे। मगर अपने लेखकों का क्या करें ? सभी का तुम पर बराबर का हक हुआ, जिसके भी हरफ न छपें उसी के दिल पर चोट लगेगी। वैसे ही इल्जाम लगाते हैं कि जो सबसे महत्वपूर्ण था मेरे लिखे में, वही काट दिया सम्पादक जी ने करके। इस बार तो तुम्हें लेकर उनकी घनीभूत भावनायें उन्हें और जल्दी क्रुद्ध कर देंगी। गोविन्द पहले ही बिफरा पड़ा है कि 'पिछले अंक का कबाड़ा कर दिया…….इतना पर्फेक्शनिस्ट था गिरदा…….उस पर ऐसा अंक! लानत है! इससे बेहतर है कि ताला ठोंक दो समाचार में।'…….अब बताओ बन्द भी कैसे करें ? तुम मान जाओगे क्या ?
……मैं खामख्याली में उम्मीद करता हूँ कि तुम बोत्याते हुए जवाब दोगे, ''फिकर मत कर बब्बा……मैं आ रहा हूँ…….डाक्टर के पास आना ही है आज…….वहीं होटल में बैठ कर थोड़ी देर बकबक करेंगे……..कुछ न कुछ निकल ही आयेगा।''
मगर तत्काल ही सच्चाई झटका मारती है। मुझे ध्यान आ जाता है कि तुम नहीं आओगे…….कहा न…….तुम
धोखेबाज जो निकले तेवाड़ी जी! …….चलो फिर ऐसे ही सही! जितना छपेगा, जो छपेगा उतना ही सही। मना लेंगे बाकी लोगों को बाद में। हाथ जोड़ लेंगे। बाद में धीरे-धीरे सभी को छापेंगे। तुम्हें याद रखने का एक तरीका यह भी तो हुआ। फिलहाल तुम्हें 'इन्ट्रोड्यूस' तो करें अंक में। मेरे विचार से 15 से 31 दिसम्बर 1977 के 'नैनीताल समाचार' में छपा, मेरा लिखा यह फीचर ठीक रहेगा। उससे पहले तुम कवि, रंगकर्मी, राजनीतिक कार्यकर्ता जो भी रहे होगे, सड़क पर उतर कर 'गिरीश तिवाड़ी' से 'गिरदा' बनने की शुरूआत तो तुम्हारी वहीं से हुई ठहरी…..और 1 से 14 जनवरी 2010 के अंक में प्रकाशित 'नये साल का एहतेराम', जो शायद तुम्हारी अन्तिम कविता साबित हुई…….
किस्सा गौर्दा, गिरदा और हुड़के का….
राजीव लोचन साह
हुड़के से हर पहाड़ी व्यक्ति परिचित है। डमरू की तरह का विशुद्ध पहाड़ी वाद्य यंत्र। गिरदा यानी एक बत्तीस साला दढ़ियल, कवि, नाटककार, गायक और हर ईमानदार मुद्दे को लेकर लड़ने-मरने को तत्पर एक घोर दुर्गुणी इन्सान- गिरीश तिवाड़ी। और गौर्दा ? कुमाउंनी के प्रसिद्ध कवि स्व. गौरीदत्त पांडे, जिन्होंने 1926 में लिखी अपनी कविता 'वृक्षन को विलाप' में जंगल को जिस समग्रता के साथ महसूसा है, ठेकेदारों से घिरे वन मंत्री उसे 1977 में भी नहीं महसूस पा रहे हैं। यह बहुत आश्चर्यजनक नहीं कि पिछले दिनों नैनीताल वन आन्दोलन में गौर्दा, गिरदा और हुड़का एकाकार हो गये।
27 नवम्बर की उस रात हम आगे के लिये सोच रहे थे। कुमाऊँ वि. वि. में इतिहास के प्रवक्ता शेखर पाठक, पिथौरागढ़ से आये जनता पार्टी के नेता महेन्द्र मटियानी और उनके भाई दीवान मटियानी, गिरदा और मैं। विश्वसनीय सूत्रों ने बताया था कि लखनऊ से प्रशासन पर जबर्दस्त दबाव पड़ रहा है और हम लोग रात में ही किसी वक्त गिरफ्तार किये जा सकते हैं। बेहतर था कि हम भूमिगत हो जाते और वही हमने किया। अन्य आन्दोलनकारी पता नहीं कहाँ-कहाँ छुपे रहे, पर हम उस वक्त खुले आसमान के नीचे घुटने पर सिर दिये बैठे थे। आसमान में बादल थे, झील के शान्त पानी में नैनीताल की रोशनियाँ झिलमिला रही थीं और हम सोच रहे थे कि रात कहाँ काटी जाये।
तभी हुड़के, यानी गिरीश तिवाड़ी की आवाज आई, ''यार दाज्यू, हम कब तक चोरों की तरह भागते रहेंगे ?'' मैं खुद
तनाव में था, झल्ला पड़ा, ''नहीं, चलो थाने में चलते हैं और कहते हैं कि हमें गिरफ्तार कर लो।''
हुड़का फिर शान्त हो गया।
लेकिन हम जो यह सोच रहे थे कि यह हाथ-पाँव छोड़ देने की शांति है, वह गलत साबित हुई। वह गिरदा की आंतरिक उथल-पुथल थी। अगले दिन सुबह जागने तक गौर्दा की कविता 'वृक्षन को विलाप' का हुड़का संस्करण तैयार
हो गया था और मेरे मुँह-हाथ धोने तक भाई लोग रिहर्सल करने लगे थे।
पौने दस बजे हुड़का शैले हॉल के आगे गूँजने लगा था, ''नी कर दियो हमरी निलामी, नी करण दियो हमरो हलाल।'' वह 28 नवम्बर का घटनापूर्ण दिन था। उस वक्त तक ठेकेदार आने लगे थे और हम प्रदर्शनकारी उन्हें मना रहे थे कि वे नीलामी में भाग न लें। पहाड़ के जंगल हमारी जिन्दगी हैं और इनसे छेड़छाड़ कर हमें खुद को तबाह नहीं करना चाहिये। हुड़का गूँज रहा था। लोग कुछ समझ रहे थे, कुछ नहीं समझ रहे थे।
तभी खबर आयी कि तल्लीताल में हमारे साथी गिरफ्तार हो गये हैं। बस फिर क्या था ? हुड़के को जोश आया। उसने सामने बने बैरीकेड और पुलिस की विशाल सेना की परवाह न कर शैले हॉल के अन्दर घुस जाने का प्रयास किया। लेकिन बेचारा गिरफ्तार हो गया।
जब गिरफ्तार हुड़का नैनीताल के बड़ा बाजार से ले जाया जा रहा था, तब भी वह गूँज रहा था, ''हिमालय के लाल, आज हिमालय तुझे पुकार रहा है।'' हम भाग लगाते हुए चाँचरी नृत्य नाचते हुए, बाजार से गुजर रहे थे और नैनीताल के नागरिक कुतूहल के साथ हमें देख रहे थे। जब रिक्शा स्टैण्ड पर हुड़के को पी.ए.सी. के ट्रक पर लादने की कोशिश की गई, तब उसने प्रबल विरोध किया। उसकी माँग सिर्फ यह थी कि वह जहाँ भी जायेगा, पैदल जायेगा और अपने देशवासियों को पेड़ का दर्द सुनायेगा।
मगर जब हुड़के को घसीटते हुए पी.ए.सी. के ट्रक पर जबरन फेंक दिया गया, तब वहाँ मौजूद हजारों नागरिकों
की आँखों में आक्रोश था- शुद्ध और जमा हुआ। बेचारे! उन्हें क्या मालूम था कि यह तो जुल्म की सिर्फ शुरूआत है।
हवालात में गिरदा ने हुड़का, दो जनेऊ, बीड़ी का बंडल और एक रुपये का नोट- मतलब अपनी समस्त जमापूँजी
थानेदार को सौंप दी। हुड़का बाहर रह गया। मगर हवालात के अन्दर कैदी चने खाते हुए गिरदा से धूमिल की कवितायें सुनते रहे।
लगभग छः घंटे बाद जब हुड़के को यह कह कर हल्द्वानी की हवालात से रिहा किया गया कि नैनीताल में नीलामी
स्थगित कर दी गई है तो वह आश्चर्यचकित रह गया। कैसा चमत्कार ? यह तो बाहर आकर पता चला कि नैनीताल में भयंकर हिंसाकांड हो गया है। नैनीताल क्लब जल गया है और पाँच लोग मारे गये हैं। हाँ, हल्द्वानी में अफवाह यही थी कि पाँच लोग मारे गये हैं।
हुड़का बहुत मायूस था। उसके होंठ बन्द थे और आँखों में कातरता थी। बहुत देर बाद अस्फुट से स्वर उसकी जबान
से निकले, ''यार दाज्यू, अब मैं किस मुँह से नैनीताल जाऊँ ? मैं लखनऊ जाउँगा और वन मंत्री से कहूँगा लो मेरी भी गर्दन काट लो।''
हुड़के की ही नहीं, उस रात सबकी मनःस्थिति ऐसी ही थी। यह तो बहुत देर बाद मालूम पड़ा कि मरा कोई नहीं
है। हुड़का अगले दिन प्रातः पुनः बहुत दुःखी दिखाई दिया। उसे बताया गया कि उसे नैनीताल पहुँचाने की व्यवस्था
नहीं की जा सकती। जबकि उसकी माँग थी कि जिस तरह उसे हल्द्वानी लाया गया है, उसी तरह नैनीताल पहुँचाया जाये।
जब उसकी बातें नहीं मानी गईं तो उसे क्रोध आ गया, ''ये आई.ए.एस.! हमारी ही किताबें पढ़ कर एम.ए. करते हैं और अफसर बन जाते हैं। हमारे साथ यह सलूक क्या इसलिये किया जा रहा है कि हम ढंग के कपड़े नहीं पहनते, अंग्रेजी में नहीं बोलते ?''
अपनी माँग मनवाने के लिये हुड़का फिर सड़क पर बैठ गया। हल्द्वानी के नागरिक एक के बाद एक आते रहे और
हुड़के की आपबीती सुन कर अफसरशाही को कोसते रहे। अन्ततः हुड़के की माँग स्वीकार हुई। उस शाम हुड़का मल्लीताल के रामलीला मैदान में फिर गूँज रहा था और पिछले दिन की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं से सहमी हुई नैनीताल की जनता, हजारों स्त्री-पुरुष हुड़के को सुन रहे थे, समझ रहे थे।
लोगों की दृष्टि में अब कुतूहल नहीं था। हुड़का उनके सुख-दुःख का साथी हो गया था।
हुड़का आजकल अल्मोड़ा, रानीखेत, बागेश्वर, कर्णप्रयाग, जोशीमठ तथा गोपेश्वर की यात्रा पर है। गौर्दा के शब्दों में, गिरदा के गीतों में तथा चंडीप्रसाद भट्ट के भाषणों में वह बतला रहा है कि जंगल क्यों नहीं कटने चाहिये। हमारा शोषण क्यों बन्द होना चाहिये और हमें क्यों सम्मानित नागरिकों की तरह रहने का अधिकार होना चाहिये।
पहाड़ को जगाने के लिये हुड़का अभी भी गूँज रहा है…………ल गा ता र!
साल का एहतेराम
वक्त का सिलसिला यों ही चलता रहा
और करता रहा बागियों को सलाम !
यों गुजरता रहा रात-दिन जुल्म से
हर बगावत से पाता नया इक मुकाम।
अपने–अपने समय के मेरे बागियो
इस समय का तुम्हारे समय को सलाम !
हर बगावत ने जो भी नया कुछ रचा-
गीत, नग्मा, रुबाई, गजल को सलाम !
सिलसिलों को सलाम, मंजिलों को सलाम
आने वाले तेरे-मेरे कल को सलाम !
साल का एहतेराम
'गिर्दा' गिरीश तिवाड़ी
खुद को बटोरे बिना ही चल दिये, गुरू!
'नैनीताल समाचार' की फाइलें पलट रहा था। पीले और भुरभुरे हो चुके पन्नों से गिर्दा महकने लगे। 'अच्छा ऐसा ऽऽऽ!' कहकर गिर्दा किसी पन्ने के बीच से चहकने लगते, 'हड़ि ' कहकर जैसे पूरी व्यवस्था को दुत्कारने लगे। 'शिबौ-शिब' उच्चार कर सत्ताधारियों की खिल्ली उड़ाने लगते। किसी शीर्षक से उनका रौद्र रूप प्रकट होता तो होली के बोलों पर आधारित कोई हेडिंग हिया में कुरकुताली लगाने लगती। नंदप्रयाग में गोली चलती तो गिर्दा की गजल-गोली 'समाचार' के पन्नों से जवाबी फायर करने लगती- 'गोलियाँ कोई निशाना बाँधकर दागी थीं क्या/खुद निशाने पर पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें।' कहीं फैज, कहीं साहिर, कहीं कबीर, कहीं नजीर, कहीं गौर्दा, कहीं सीधे लोक से बनाए गए प्रयोग-'जब से दशरथ ललन एम पी हो गए, हुए कृष्ण एमएलए तो मैं क्या करूं…।' अभिव्यक्ति को सटीक और मारक बनाने के लिए कहाँ-कहाँ उड़ जाता था गिर्दा और क्या-क्या चुन लाता था….। ट्रेडिल प्रेस पर छपने वाले अखबार में पीतल के रूल को मोड़-मरोड़ कर देश का नक्शा छापने की जिद वही सफल करा सकता था।
पर यह तो बहुत बाद की बातें हैं।
मैंने पहले-पहल गिरीश तिवाड़ी को 1971 में आकाशवाणी, लखनऊ के स्टूडियो में देखा था। कुमाउंनी-गढ़वाली बोली का 'उत्तरायण' कार्यक्रम, स्वतंत्रता दिवस, वसंत पंचमी आदि मौकों पर आमंत्रित श्रोताओं के समक्ष लोक कवि गोष्ठी आयोजित किया करता था। वह ऐसी ही एक कवि गोष्ठी थी, जिसके बारे में मुझे चन्द्रशेखर पाठक नामक उस लम्बे-पतले युवक ने बताया था जो पीडब्ल्यूडी में दिहाड़ी पर क्लर्की करते हुए संयोग से हमारी कैनाल कालोनी में सनवाल जी के कमरे में रहने आ गए थे और जो कुछ समय बाद दफ्तर में किसी बात से आहत होकर, अस्थाई नौकरी को लात मार कर वापस अल्मोड़ा लौट गए थे और कालान्तर में इतिहासविद प्रो. शेखर पाठक के नाम से विख्यात हुए।
खैर, तो 'उत्तरायण' की कवि गोष्ठी में उस शाम बृजेन्द्र लाल साह, पार्वती उप्रेती, चारु चन्द्र पाण्डे, लीलाधर जगूड़ी, जीवानन्द श्रीयाल, गोपाल दत्त भट्ट आदि के बीच एक गिरीश तिवाड़ी नाम्ना सुदर्शन कवि भी थे, जिन पर तब तक द्य्ना नहीं गया था जब तक कि कविता सुनाने की उनकी बारी नहीं आ गई। उन्होंने उस दिन अपनी 'वसंत' कविता सुनाई, बल्कि गाई- 'रात उज्याली, घाम निमैलो, डान-कानन में केसिया फुलो। हुलरी ऐगे वसंत की परी, फोकीगो जाँ-ताँ रंग पिंहलो ऽऽऽ…।' उनके मीठे गले ने, गीत ने, शब्दों को उच्चारने, हाथों को नचाने और चेहरे पर वसंत का उल्लास उतार लाने के अंदाज ने उस दिन आकाशवाणी, लखनऊ के पुराने स्टूडियो के कक्ष नंबर एक में बीस-पच्चीसेक श्रोताओं के बीच वह समाँ बाँध दिया था जिसे कहते हैं-महफिल लूट लेना!
मुझे याद है, उस दिन आमंत्रित कवियों को दो दौर में अपनी कविताएँ पढ़नी थीं। रिकॉर्डिंग का समय निर्धारित था। वंशीधर पाठक जिज्ञासु और जीत जड़धारी की जोड़ी बारी-बारी से संचालन कर रही थी। 40-45 मिनट की निर्धारित अवधि में रिकार्डिंग पूरी कर गोष्ठी का औपचारिक समापन कर दिया गया था, लेकिन अपनी बोलियों के काव्य-रस से सराबोर प्रवासी श्रोता और भी सुनना चाहते थे। सो, रिकार्डिंग बन्द करने के बाद देर तक गोष्ठी चलती रही। चारु चन्द्र पाण्डे, जगूड़ी, जीवानन्द श्रीयाल और गोपाल दत्त भट्ट की उस दिन सुनी कुमाउंनी-गढ़वाली कविताओं की मुझे आज थोड़ी-थोड़ी याद है। लेकिन गिरीश तिवाड़ी की कविताएँ ही नहीं, उनका उस दिन का पूरा गेट-अप भी स्मृति में जस का जस टँगा हुआ है। इसका एक कारण यह भी जरूर होगा कि कालान्तर में उनसे संबंध प्रगाढ़ होने पर वे कविताएँ कई बार सुनीं लेकिन उस दिन काली टोपी, गोरे मुखड़े पर करीने से बनी घनी काली दाढ़ी और काली शेरवानी में सबसे अलग और खूब फब रहे गिरीश तिवाड़ी की वह छवि मन से कभी उतरी ही नहीं। तब भी नहीं जबकि बाद में वे बिल्कुल अराजक, बल्कि अघोरी जैसा जीवन जीने लगे थे और हम सबके आत्मीय हो चुके फक्कड़ गिर्दा का उस सुदर्शन कवि गिरीश तिवाड़ी से रिश्ता जोड़ना अकल्पनीय जैसा लगने लगा था। हाँ, अपने फक्कड़पन के शुरूआती दिनों में भी गिर्दा को अपनी दाढ़ी से कुछ-कुछ लगाव रह गया था और तल्लीताल डाँठ के नुक्कड़ वाली नाई की दुकान में कभी-कभार वे लखनउवा खत बनवा लिया करते थे। नाई की दुकान के ठीक बगल में कबाब की दुकान भी हुआ करती थी, जहाँ से गाहे-ब-गाहे कबाब खाना-खिलाना भी उन्हें पसंद था।
तो, 1971 की उसी कवि गोष्ठी में गिर्दा ने अपनी 'चिट्ठी' कविता भी सुनाई थी, जिसने पहाड़ की नराई में व्याकुल रहने वाले मुझ किशोर को भीतर तक छू लिया था। अपने घर-गाँव और इजा-दीदी की नराई फेरने के लिए मैं तब अपने कमरे के एकान्त में कागज काला किया करता था। कविता, कहानी, उपन्यास से मेरा कोई वास्ता पड़ा न था। उस दिन जब गिर्दा ने सुनाया-'पै के करूँ, पापी पेटैल् छोड़ै दे म्योर मुलुक मैथैं/नन्तर क्वे काटि लै दिनो मैं कैं ताँ नि छोड़न्यू मैं' तो मेरी नराई को जैसे किसी ने वाणी दे दी हो। वहाँ उतने लोग न होते तो मैं शायद रो ही पड़ता।
कवि गोष्ठी के बाद सब लोग कवियों को बधाई दे रहे थे, बात कर रहे थे। परम संकोची मैं एक कोने में खड़ा गिरीश तिवाड़ी को देखे जा रहा था और उनसे बात करना चाहता था। चन्द्रशेखर पाठक शायद उस शाम वहाँ पहुँच नहीं पाए थे। किसी तरह हिम्मत करके गिरीश तिवाड़ी के पास गया और 'चिट्ठी' कविता की बाबत पूछने लगा। वे बहुत स्नेह से मिले थे, जैसा कि उनका स्वभाव अन्त तक सबके लिए बना रहा। प्यार से बोले थे-''भुला, एक किताब छपी छु-शिखरों के स्वर। वी में छु ये चिट्ठी। तु जिज्ञासु ज्यु थैं माँगि ल्हिये। उनार पास छन किताब।''
जिज्ञासु जी से भी इतना परिचय कहाँ था। उस कवि गोष्ठी की मीठी स्मृतियाँ और 'चिट्ठी' कविता की कसक मन में भरे लौट गया था। उस दिन से मैं भी उसी तरह की कविताएँ-गीत लिखने की कोशिश करने लगा था, हालाँकि एक भी पंक्ति कायदे की नहीं बनती थी। लेकिन तब तो यही लगता था कि बस, अब बन ही गया कवि…..।
कुछ समय बाद जिज्ञासु जी से परिचय भी चन्द्रशेखर पाठक ने ही करवाया, जो तब तक मेरा शेखर दा या ददा बन चुका था। शेखर दा तब दफ्तर से बचे समय में कहानी-कविता लिखता, दिनमान पढ़ता और नाक की डण्डी में उग आए एक दाने को अंगुली से लगातार घिसता हुआ अरविन्दो या चे ग्वेवारा की, मेरे लिए अबूझ-सी किताबों, में डूबा रहता था। बीच-बीच में मैं उसे अपने रचे 'महान साहित्य' से तंग किया करता था। शेखर दा का साल भर या शायद आठ-दस महीने ही लखनऊ के हमारे मुहल्ले में रहना मेरे लिए दिशा-निर्देशक बन गया।
जब शेखरदा पहाड़ लौट गया और अल्मोड़ा महाविद्यालय से इतिहास में एम.ए. करने लगा तब भी 'लक्ष्मेश्वर, अल्मोड़ा' से उसके पोस्टकार्ड बराबर आते रहते। जब भी वह लखनऊ आता मुझसे मिलने कैनाल-कालोनी जरूर आता। एक बार उसके साथ युवकों की पूरी टोली ही थी। अपने ही अंदाज में शेखरदा ने परिचय कराया-'ये शमशेर सिंह बिष्ट, अध्यक्ष हैं अल्मोड़ा डिग्री कालेज छात्र संघ के। ये विनोद जोशी-महामंत्री, ये हरीश जोशी…।' पहाड़ के उन ऊर्जावान युवकों से मिलना रोमांचक अनुभव था। वे पहाड़ के किसी विधायक के यहाँ रॉयल होटल में रुकते थे, जो आकाशवाणी भवन के पड़ोस में ही था। मैं अधिक से अधिक समय उन युवकों के साथ बिताता।
एक बार ऐसा संयोग हुआ कि गिरीश तिवाड़ी आकाशवाणी के कवि सम्मेलन में आए और अल्मोड़ा से शमशेर आदि भी विधायक निवास में ठहरे थे। उस पहली कवि गोष्ठी को दो-तीन बरस हो गए थे। 'चिट्ठी' कविता मन में गूँजती रहती थी और जिज्ञासु जी से 'शिखरों के स्वर' माँगने की हिम्मत पड़ी न थी। उस बार मैंने अपने प्रिय कवि से ही कहा-'गिर्दा, शिखरों के स्वर मुझे मिली नहीं।' उन्होंने क्या कहा मुझे याद नहीं। कवि सम्मेलन के तुरन्त बाद मैं शमशेर के साथ कहीं चला गया। गिर्दा बाद में शमशेर से मिलने गए होंगे मगर कमरे में कोई नहीं मिला। गिर्दा को उसी रात वापस लौटना था। दो चार दिन बाद जब मेरी जिज्ञासु जी से भैंट हुई तो वे मुझे अपने घर ले गए और एक किताब मुझे दी। किताब का नाम था-'शिखरों के स्वर।' मैं बहुत खुश हो गया। किताब खोली तो उसके भीतर एक छोटा सा पत्र रखा था-
'प्रिय नवीन! शम्भू कैं चाँण हूँ वीक कमार में गैयाँ, उ नि मिल। उ थैं कै दियै गिरदा न्है गो कै। त्वील 'शिखरों के स्वर' जिज्ञासु दाज्यू थैं मांङी न्हैं। मांङि ल्हियै। बाँकि फिर भैंट हुण पर। पहाड़ आलै तो भैंट करियै।'
पत्र के नीचे हस्ताक्षर थे जो मैंने पहले कभी नहीं देखे थे लेकिन समझना भी मुश्किल नहीं था कि किसके हैं। 'ग' में खूब लहरदार होकर काफी ऊपर तक चली गई छोटी 'इ' की मात्रा से शुरू हुए वे हस्ताक्षर बाद में हमारे बहुत अजीज दस्तखत बने। वह चिट्ठी 'शिखरों के स्वर' की उस प्रति में आज तक मेरे पास सुरक्षित है। उसमें तारीख नहीं पड़ी है लेकिन यह शायद 1975 की बात है।
आज वह चिट्ठी देखता हूँ तो पाता हूँ कि अंत तक गिर्दा का हस्तलेख और हस्ताक्षर वैसे के वैसे बने रहे। सिर्फ 'गिरीश' हस्ताक्षर में भी बदल कर 'गिर्दा' हो गया, बस। लम्बी चिट्ठियाँ तो उसने शायद ही कभी लिखी हों, लेकिन छोटी-छोटी चिट वह खूब लिखता था। बिल्कुल जुदा अंदाज में 'अ' लिखना और मात्राएँ खींचना। लिखता बहुत तबीयत से था वह और हाँ, कलम भी बहुत प्रिय थे उसे। कलम की भैंट वह बहुत लाड़ से स्वीकार करता था और नए कलम से कागज में इधर-उधर अपने हस्ताक्षर करके खुश हो जाता था। उसकी जेब में कलम न लगा हो, ऐसा शायद ही कभी हुआ हो।
इतने वर्षों में उसके लिखे चिटों में सिर्फ एक फर्क आया था-'प्रिय नवीन' का संबोधन 'नबुवा' या 'नब्बू' में बदल गया था। ज्यादा लाड़ में हो तो 'स्साले नबुवा!' काफी दिनों बाद मिलने पर कस कर गले लगाते हुए 'तुमर नष्ट है जौ, तुमर' तो उसने कहना ही ठैरा! यह उसके लाड़ जताने का तरीका था। यह अद्भुत बात है कि रचनाकार गिर्दा का मूल स्वर प्रखर प्रतिरोधी और बेमुरव्वत था लेकिन इन्सान गिर्दा के भीतर बेपनाह मुहब्बत का दरिया बहता था और कोई एक या कुछेक ही उसके दावेदार न थे। वह सबको हासिल था। और इश्क ? हाँ, उसे इश्क भी हुआ था और उसकी चोट उसमें बहुत गहरे टीसती रहती थी लेकिन इसका जिक्र करना तो दूर, वह अपने बारे में ही कहाँ कुछ बताता था। यह बात फिर कभी।
बाद के वर्षों की तो बेशुमार यादें हैं, एक-दूसरे में गुँथी और झंझावात की तरह दिमाग में बवण्डर मचाती हुईं। इस बवण्डर के शांत होने में काफी समय लगेगा।
अभी तो एक रील सी है। एक कोलाज, एक मोन्ताज सा। नैनीताल में पहले प्रमोद साह के साथ का कमरा, फिर नैनीताल क्लब के नीचे वाली वह ऐतिहासिक कोठरी और उसमें भी राजा की रसोई और रात गए तक गिर्दा का हारमोनियम, हारमोनियम तक पहुँचने से पहले की बेहिसाब बहसें और मयनोशी। 'नैनीताल समाचार' की उत्तेजक और झगड़ा-मचाऊ बैठकें, तर्क-वितर्क, 'नशा नहीं रोजगार दो' आन्दोलन के दौर की यात्राएँ, अल्मोड़ा में शमशेर की कोठरी का रात्रिवास, नाटक की वे रिहर्सलें और अभिनव प्रयोग। नाटक या कविता या लोकगीतों की किताबें छापने की ऐसी योजनाएँ जो उनके गीत-संगीत का कैसेट बनाकर आखिरी जिल्द की जेब में रखने की कल्पना तक जाती थी, हालाँकि तब तक ऐसे प्रयोग हमारे देखने में नहीं आए थे। हर प्रस्तुति को उसके सभी पक्षों में सम्पूर्णता तक ले जाने की उसकी जद्दोजहद। कभी अचानक, गीत-नाटक प्रभाग के दौरों के बीच से उसका आधी-आधी रात को लखनऊ आना, बदहवासी में थोड़े-बहुत पैसे का जुगाड़ और उसी तरह लौट जाना।
कभी फुर्सत से लखनऊ आना तो सारी-सारी रात बैठे-लेटे-पसरे भीतर के रचनात्मक बाँध का फूटते जाना। 'उठो, अब चलो,' कहने पर वह शायराना अंदाज '…..जरा खुद को बटोर लूँ तो चलूँ…। जाने कहाँ-कहाँ बिखरा पड़ा हूँ …..लेकिन समेटू कैसे, नबू'। पहाड़ी होलियों की एक विशद मंचीय प्रस्तुति लखनऊ में करने की वह तमन्ना, जिसमें मंच तीन स्तरीय होना था। एक स्तर बैठी होली का, दूसरा खड़ी होली का और तीसरा महिला-होली का और तीनों की प्रस्तुतियों का सिंक्रोनाइजेशन…..। रचनात्मकता की ऐसी उड़ानें जो कभी बहुत अव्यावहारिक लगतीं तो कभी दुस्साध्य और कभी खिझाने वाली भी। मगर साथ में यह टेर भी-'गो कि हमारी बात मानना कतई जरूरी नहीं, हाँ!……रिजेक्ट करो स्साले को अगर बात में दम नहीं है तो…।' अपने समय से बहुत आगे का उसका चिंतन!
इन बिन्दास बैठकों-बातों में वह जितना डूबता जाता, उतना ही उसका कलाकार, उसका विचारक, उसके भीतर बैठा आलोचक प्रखर होता जाता वह बोलता-बजाता-गाता जाता और हम जैसे लहरों पर तैरते रहते। नशा गिर्दा को डबल गिर्दा बना देता था। दरअसल वह सिर्फ नशा करना नहीं होता था। शराब उसकी रचनात्मकता को भड़का देती थी हालाँकि अति तक भी जाती थी। तब उसको रोकना-टोकना बेकार ही जाता। हम अक्सर सोचते, इस समय टेप रिकार्डर होना चाहिए था। लेकिन हर बार हम चूक जाते। गिर्दा इतना करीब था कि कभी उसका ठीक-ठाक इण्टरव्यू भी करने की हमने नहीं सोची। उसके पास इतना खजाना था कि उसे सँजोने की अच्छी से अच्छी योजनाएँ ही बनती रह गईं। हमेशा लगता था, गिर्दा तो यहीं है। जा कहाँ रहा है!
वह लखनऊ में ही था, दस साल पहले जब उसे दिल का दौरा पड़ा था। सुबह 10 बजे उसे दिखाने पीजीआई ले जाना तय था। नौ बजे प्रेस क्लब से फोन आया कि गिर्दा जी के सीने में बहुत दर्द है, आप फौरन आइए। वह प्रेस क्लब में ही ठहरना पसन्द करता था। घरबारी हो जाने के बावजूद घरों के लिहाज और बंदिशें उसे पसन्द न थे। प्रेस क्लब में भी पत्रकारों से कहीं ज्यादा वहाँ के कर्मचारियों से उसका याराना रहता था। सो, उस सुबह रंगलाल ही उसे रिक्शे पर लाद कर अस्पताल ले गया था, हमारे पहुँचने से पहले।
दिल अच्छा-खासा घायल हो चुका था और शरीर कुछ शिथिल पर गिर्दा का दिमाग और भी तेज चलने लगा था। 'रयूमेटाइड आर्थ्राइटिस' ने उसे बहुत तंग किया, पंगु बना देने की हद तक। दवाओं के दुष्प्रभावों ने उसे जितना हो सकता था, सताया परन्तु वह शरीर की गुलामी मानने वाला जीव था ही नहीं। वह विचारों की स्वच्छन्द और रचनात्मक उड़ान वाला परिन्दा था, हमेशा चैतन्य और रचनारत। इसीलिए हम सबको लगता था कि वह कमजोर तो है पर ठीक है। हीरा भाभी की सेवा-टहल ने उसे जिस तरह सँभाला था, उससे भी हमारी आश्वस्ति बढ़ती ही थी।
पेट में अल्सर फटने से वह बेहद तकलीफ में रहा होगा लेकिन एम्बुलेंस में नैनीताल से हल्द्वानी ले जाए जाते समय भी फोन पर मुझसे कह रहा था-'ठीक हूँ….चिंता मत करना…दास बाबू ( लखनऊ मेडिकल कालेज के डा. सिद्धार्थ दास जो उसकी गठिया का इलाज कर रहे थे) को बता देना…..।'
हम सबकी तरह खुद उसे भी अस्पताल से ठीक-ठाक लौट आने का पक्का भरोसा रहा होगा। वह यूँ चला जाने वाला जीव था ही नहीं। लेकिन देखो, एकदम सटक गया। पिछले कुछ समय से फोन पर बात खत्म करते हुए वह कहा करता था-'घर में सबको मलास देना, पलास देना। मेरे हाथों से अपने गाल मलास लेना। नबुआ, मैं ठीक हूँ। मेरी चिंता मत करना। फिर बात होगी। ओक्के। ' ओक्के, गिर्दा। ओक्के।
अब क्या कहें, सृष्टि के नियम से परे तो तुम भी नहीं थे न!
श्रद्धान्जलियाँ : वे अलबलाट में हमसे बिछड़ गये
उनके जाने से यह नदी समाप्त हो चुकी है
'गढ़ गौरव' के अगस्त 2010 के अंक से जनकवि गिरीश तिवाड़ी 'गिरदा' के निधन का समाचार पढ़कर मुझे अत्यन्त दुःख हुआ। मैंने नैनीताल स्थित कई मित्रों को फोन मिलाया, किन्तु इस संचार क्रांति के युग में भी किसी से सम्पर्क न हो सका। गिरदा को मैं लगभग 40 वर्षों से जानता था। इधर दो बार कई दशकों के बाद नैनीताल में उनके कैलाखान आवास पर भेंट भी हुई थी। एक बार तो वे मेरे नगर श्रीनगर में किसी कवि सम्मेलन में भी आये थे। उनकी हिमालय पर लिखी कविता श्रोताओं को खूब भाई थी। आकाशवाणी लखनऊ में वे कई सुन्दर मधुर गीत रिकार्ड कर चुके थे। एक नहीं सैकड़ों गीत उनके मधुर कण्ठ से प्रसारित हुए। उत्तराखण्ड की संस्कृति में तो मैं उन्हें नदी के रूप में मानता था। ब्रजेन्द्र, अनुरागी व गिरदा, ये तीनों गीत भी लिखते थे और उन्हें गाते भी थे। अब यह नदी समाप्त हो चुकी है। एक विख्यात रंगकर्मी के रूप में वे सदैव याद किये जायेंगे।
- नित्यानन्द मैठाणी
वे अलबलाट में हमसे बिछड़ गये
गिरदा से मेरा सम्पर्क राज्य आंदोलन के दिनों में हुआ। उनके ओजस्वी एवं हृदय की गहराइयों से निकले हुए स्वरों ने हम सब को उत्प्रेरित किया। घरों की चारदिवारी से हजारों की संख्या में निकली मातृशक्ति, बालक, युवा व वृद्धजनों के सैलाब में उनकी वाणी ने प्रयाण गीत की भूमिका निभाई। पर्वतीय अंचल की लोक कलाओं व लोक गीतों में उनकी गहरी पैठ थी। अपनी कविताओं में उन्होंने पर्वतीय अंचल के जनजीवन का सटीक चित्रण किया है, जिसमें माटी की महक, वृक्षाच्छादित वनों से आई बयार की सरसराहट व गाड़ गधेरों का सुसाट-भुभाट है। वे अलबलाट में हमसे बिछड़ गये। मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि !
- गिरिजा शरण सिंह खाती
वह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंप गये
गिरीश भाई के साथ कई वर्ष गीत एवं नाटक प्रभाग में कार्य करते रहे। वे देश, काल परिस्थिति के अनुसार पद रचना करते, मैं उनकी संगीत रचनाएँ करता। कभी-कभी एक दूसरे की रचनाओं को समझने में वाद-विवाद भी होता, लेकिन वे सही चीज को अवश्य स्वीकारते। तब संगीत रचनाएँ मंच में तदनुरूप प्रभाव छोड़तीं। फिर कहते, हरदा का संगीत कुछ देर से सही समझ में आता है। मैं गाँव-गाँव व स्कूलों में सितार व संगीत को छोटे-छोटे भजन कीर्तन व लोकधुनों के माध्यम से समझाता। उन्हें बहुत हर्ष होता कि जन-जन में कुछ जागरूकता तो हो रही है, क्योंकि 40-50 वर्ष पूर्व उत्तराखण्ड की परिस्थितियाँ भिन्न थीं। इस प्रकार कार्यक्रमों के दौरान जन-जन में जुड़ाव होने लगा। उन्होंने देखा कि उत्तराखण्ड की वही विषम परिस्थितियाँ हैं। सरकारी तन्त्र व्यवस्था, उत्तराखण्ड की जनता का दुःख-दर्द उनसे नहीं देखा गया। वे चिपको आन्दोलन, नदी बचाओ आन्दोलन, चुनावों पर व्यंग करती हुई कविताएँ इस प्रकार हुड़का लेकर गीतों के माध्यम से जन-जन में जोश भरते रहे। ऐसा समाजसेवी व्यक्ति प्रेरणा का स्रोत व आदर्श रूप में हमारे सामने आया। समाज के दुख दर्द में आखिरी दम तक जूझता हुआ अमरत्व को प्राप्त हो गया और हम व हमारी आने वाली पीढ़ी के लिये बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंप गया।
- हरिकृष्ण लाल शाह
गिरीश तिवारी 'गिरदा' सशरीर अब हमारे बीच नहीं रहे। समाचार पत्र से यह जानकर मुझे बड़ा आघात लगा। जैसा कि समाचार में बताया गया है कि उनके स्वास्थ्य में सुधार हो रहा था, परन्तु अचानक मौत ने झपट्टा मारकर उन्हें हमसे छीन लिया।
मुझे उनसे मिलने और प्रत्यक्ष संवाद का बहुत कम अवसर मिला, परन्तु जितना कुछ मैं उनको समझा वह आंदोलनकारी, सामाजिक कार्यकर्त्ता की अपनी एक अलग पहचान रखते थे- जनकवि और गायक की उनकी अलग छवि अपनी जगह तो है ही। उनकी हमसे विदाई ऐसे समय हुई, जबकि उनकी और अधिक जरूरत हम सबको और हमारे पहाड़ी समाज को कुछ अधिक ही थी। एक-एक करके ऐसे संघर्षशील व्यक्तित्व बिछुड़ते जा रहे हैं, उनकी जगह लेने को अभी दूर तक कोई दिखाई नहीं दे रहा है।
हम सब बहुत व्यथित हैं। परन्तु आप लोग, नैनीताल-अल्मोड़ा की अपनी टीम जो आपस में ऐसे एकजुट थे, घर परिवार और समाज के स्तर पर वे सब कुछ अधिक ही व्यथित होंगे। उनके घर-परिवार को संभालने को आप अपने को अकेला न समझें, हम सब आपके साथ हैं। गिरदा के क्रांतिकारी, संघर्षशील व्यक्तित्व को मेरा विनम्र प्रणाम।
- धूमसिंह नेगी
याद आते हैं लखनऊ के वे दिन कि जब पहले-पहल मेरी भेंट दारूलशफा में गिरीश तिवाड़ी 'गिर्दा' से हुई थी। मैं तब लखनऊ में पढ़ता था और मेरे गार्जियन चन्द्र सिंह रावत विधायक हुआ करते थे। मेरी कविता, जो मैंने चीन के आक्रमण के दौरान बनाई थी, की उन्होंने मुग्ध कंठ से प्रशंसा की थी। कविताओं के आदान-प्रदान से पहली ही मुलाकात में घनिष्ठता हो गई थी। उन दिनों गिरदा क्ले स्क्वायर में अपने किसी संबंधी के घर में रहा करते थे। हम हजरतगंज की सैर करते और लाल बाग में आकर चाय-समोसे खाते। यह बात सन् 1966-67 की होगी। इसी बीच उन्होंने लखीमपुरखीरी के कुछ मित्रों से मिलाया और कहा कि ये लोग भी जनपक्षीय रुझान के हैं। कुछ दिनों बाद उन्होंने मुझे लखीमपुरखीरी में चल रहे आंदोलन के बारे में बताया। इसके काफी अरसे बाद हमारी मुलाकात नैनीताल में तल्लीताल पर हुई।ं उन्होंने बताया कि वे साउन्ड एण्ड ड्रामा डिवीजन में बतौर कलाकार चयनित हुए हैं। कहने लगे, उमा भाई, कुछ समय बाबूगिरी वर्कचार्जी में बिताया अब मुक्ति पाकर जो मेरा बचपन से शौक रहा उसमें आ गया हूं। एक बार टिहरी मेला प्रदर्शनी में आयोजित कवि सम्मेलन में भेंट हुई। जिला परिषद बंगले में पहुंचकर वहां पहले से कवि जीवानन्द श्रीयाल, घनश्याम सैलानी, सरदार प्रेमसिंह, भूदेव लखेड़ा ने हमारा गर्मजोशी से अभिवादन किया और हम को राम-लक्ष्मण की जोड़ी की संज्ञा दे डाली।
मेरी उनकी पहली मुलाकात लखनऊ में हुई थी, जिसका अंत भी 25 मार्च 2009 को लखनऊ में ही हुआ। वहां हम उमेश डोभाल की शहादत दिवस पर गए हुए थे।
- उमाशंकर थपलियाल 'समदर्शी'
गिरदा का मेरा परिचय विगत 22 वर्षों से है। गिर्दा का सपना है समाज बदले, सब समान हों और महिलाओं का इसमें प्रमुख योगदान हो, जिससे सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलनों को बल मिले। इसके लिए जो परम्परायें हैं, उन्हें टूटना चाहिए। मैं चाहती हूँ कि उनके सपनों को साकार किया जाये, आन्दोलनो को बढ़ाया जाये। परम्पराओं को तोड़ा जाये तभी समाज बदलेगा। इन सपनों को साकार करने के लिए आओ मिलकर सब आगे बढें।
- चम्पा उपाध्याय
साथी गिरदा के असायमिक निधन का समाचार पाकर मन को बहुत दुःख हुआ। कृपया मेरी संवेदना उनके परिवार तक पहुँचा दीजियेगा।
- राधाकृष्ण कुकरेती
वे बात-बहस से शब्द चुनते थे
('नशा नहीं रोजगार दो' आंदोलन के दौरान गिरदा के आसपास एक शख्सियत प्रायः मौजूद रहती थी। बनियान के अन्दर एक कमीज और बनियान के बाहर वास्कट जैसा कुछ। पीठ और सिर के बीच कॉलर पर लटका स्टील के हैण्डिल वाला छाता। इस शख्स का नाम है राम सिंह……यानी रमदा। आज के दिन एक नाव के मालिक हैं तथा पैडल बोट कोऑपरेटिव में उनका हिस्सा है। – सम्पादक)
प्रश्न:- आप गिरदा को कब से जानते थे ?
उत्तर:- क्लब के डांठ पर चीना मन्दिर के सामने जब वे रहते थे तब से जानता हूँ। तब व तो मुझे नहीं जानते थे, पर मुझे उनके गीत आकर्षित करते थे।
प्रश्न:- उनसे घनिष्ठता कब हुई ?
उत्तर:- नाव आंदोलन के दौरान राजा बहुगुणा ने परिचय कराया। फिर साथ उठना-बैठना, आना-जाना शुरू हो गया। बैठने की अधिकांशतः दो जगहें होती थीं। एक उनका कमरा और दूसरा जहाँ अब हाइकोर्ट है उसका गार्डन। गार्डन में ज्यादातर चाँदनी रात मे देर रात तक बैठते थे और बातचीत होती थी।
प्रश्न:- बातचीत किस बारे में ?
उत्तर:- अधिकांशतः आंदोलनों के बारे में और आन्दोलनों से जुड़े गीतों के बारे में।
प्रश्न:- गीतों के बारे में ? आप तो संगीत नहीं जानते…
उत्तर:- हाँ। पर वे जब किसी हिन्दी या उर्दू के गीत का कुमाँउनी में अनुवाद करते तो कई शब्द हमारी बातचीत से ही निकलते थे।
प्रश्न:- जैसे……
उत्तर:- जब फैज की रचना 'हम मेहनतकश जग वालों से…' का अनुवाद हुआ तो 'ओढ़-बारुड़ि ल्वार' तथा 'हांग-फांग' जैसे शब्द बात-बहस से ही मिले। बात-बहस इसलिए कि गिरदा को उन्हें संगीत में बैठाना होता था। ……पर उनके साथ ज्यादा जुड़ाव 'नशा नहीं रोजगार दो' आन्दोलन के दौरान हुआ। तब उनसे व अन्य साथियों से लम्बी चर्चाएँ होती थीं। मेरा बहुत सा वक्त उनके साथ गुजरता। तब निर्मल जोशी भी साथ होते थे। साथ-साथ बैठ कर मजमून तैयार होता था और निर्मल की प्रेस में भवाली में छपता था। मैं निर्मल के साथ रामगढ़ होते हुए बागेश्वर पदयात्रा में भी गया था। हम पदयात्रा में गिरदा के जनगीत गाते थे।
प्रश्न:- गिरदा आज होते तो ?
उतर:- अपना काम करते रहते। वे जुझारू आदमी थे।
प्रस्तुति : दिनेश उपाध्याय
संपर्क : ntl_samachar@merapahad.com
गिर्दा आखिर क्या था ?
एक वाक्य में कहूँगा- 'गिरदा मैक्सिम गोर्की की कहानियों का एक साधारण सा पात्र था, जो अपने जीवन में एक ऐसा असाधारण कर जाते हैं कि दुनिया उन्हें सदा याद रखती है।'
गोस्वामी तुलसीदास के राम हर इन्सान के हृदय में ईश्वर की मूर्ति बन कर विराजमान हैं। अर्थात् हम ये स्वीकार करते हैं कि 'हे ईश्वर तू ही हमारा उद्धार कर सकता है।' 'मैं सेवक तुम स्वामी' की स्वीकारोक्ति के साथ हम उसे मनाने के लिए अगरबत्ती, घंटी,शंख, फूल, दिया-बत्ती, तिलक, चन्दन का प्रयोग करते हैं और उसके और अपने बीच में एक बहुत बड़ा फासला स्थापित कर लेते हैं। जब कि गोर्की के पात्र आम आदमी की तरह शराबी, जुआरी सभी कुछ हमारी तुम्हारी ही तरह हैं, जो हमें सही अर्थों में प्रेरणा देते हैं कि ऐसे गिरे हुए पात्र यदि महान कार्य कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं ?
गिरदा शराबी था
गिरदा और हम पाँच-छः लोग रात को गीत और नाटक प्रभाग के कार्यालय में बैठे हैं। बोतल गिलास, चना-चबेना, हारमोनियम,तबला, पैन-कलम सब हमारे पास है। गिरदा खड़ज में कहते है 'आराम से'……….'एक बात फेंक रहा हूँ मानी न जाए' और फिर 'माँ शेराँवाली, श्री कृष्ण, जयद्रथ वध, लव-कुश आदि ऐसी बहुत सी रचनाएँ रात के दो-दो बजे तक होती रहीं। ये था उनके साथ पीना कि पीकर अपनी ऊर्जा को सृजनात्मक कार्य में झोंक देना।
गिरदा जुआरी था
काशीपुर के किसी गाँव में रात को दल के हम कई लोग जुआ खेल रहे हैं। मैं दल सचिव। अपना दौरे का टी.ए.-डी.ए. तो हारा ही, ऑन एकाउण्ट भी हार गया। जीत रहे हैं सिर्फ गिरदा। पत्ता शेर। कभी 3-2-5, कभी ट्रेल, कभी टॉप। खेल खत्म होने से पहले उन्होंने मेरी चाल आने पर धुप्पल चलना शुरू कर दिया और जब मेरा सारा पैसा जब मेरे पास आ गया तो बोले, चलो, अब सो जाओ। मैंने पूछा, ''यार गिरदा तुमने ऐसा क्यों कर दिया ?'' गिरदा बोले, ''यार, वो तो तुम्हें लौटाने ही ठहरे बाबू। मनोरंजन हो गया, ठीक ही ठहरा।''
ओछा था गिरदा
कैरम बोर्ड खेलते हुए गिरदा कहते, 'अरे ऽ ऽ रे…रे…रे। फिर रह गई कुतिया स्याली (क्वीन) देखता हूँ मुझसे बच कर कहाँ जाएगी। ऐसा शॉट खेलूँगा, देखा नहीं होगा किसी ने।'मैं कहता गिरदा का ओछापन किसी ने इसलिए नहीं देखा, क्योंकि वो बेचारे कभी गिरदा के साथ कैरम नहीं खेले।
लीडरशिप की भावना नहीं थी
एक बार शुरू-शुरू में जबरदस्ती ड्रामा डिवीजन के दौरे में उन्हें दल सचिव बना दिया गया। दौरा किसी तरह पूरा करने के लिए उन्हें अपना ट्रांजिस्टर तक बेचना पड़ा। वैलीरियोज होटल में उन दिनों हम साथ-साथ रहते थे। एक रात बोले, ''यार, साह जी (श्री बी.एल. शाह) कह रहे हैं कि मैं उनसे सब लोकगीतों की धुन सीख लूँ, फिर वो मुझे प्रशिक्षक बना देंगे। यार वो तो लोकगीत वाली बात तो ठीक ठहरी, पर बंधु ये प्रशिक्षक और मैं ?… मैं कभी नहीं बनूँगा।'' बड़ी मुश्किल से सुबह तक मैं उन्हें मना पाया कि वो प्रशिक्षक अवश्य बनें।
वास्तव में वो बुनियाद का पत्थर ही रहना चाहते थे, जो अन्दर से बिना दिखाई दिए बिल्डिंग को मजबूती प्रदान करती है न कि बाथरूम की चमचमाती टाइल्स-जिसको सभी देखते हैं तारीफ करते हैं।
गिरदा बड़ा स्वार्थी था
'परमार जी, लोगों का स्वार्थ मेरा बच्चा, मेरा घर, मेरा परिवार तक ही सीमित है। पर मेरा स्वार्थ इन सब से कहीं बड़ा है। मैं पूरे उत्तराखण्ड के विकास के बारे में सोचता हूँ।' बस…यही बात है जहाँ एक साधारण सा आदमी असाधारण बन जाता है। यदि हम भी टाइल्स की तरह चमचमाना छोड़कर नींव का पत्थर बन अपनी माटी के प्रति अपने-अपने माध्यमों से कुछ जीवन में करने की ठान लें यही उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
अन्त में धूमिल जी के शब्दों में कहूँ तो-
बाबू जी
असल बात तो ये है,
यदि जिन्दा रहने के पीछे
सही तर्क नहीं है
तो राम-नामी बेचकर
या रण्डियों की दलाली कर
रोजी कमाने में
कोई फर्क नहीं है।
- धरमबीर परमार
उनके गीतों को सुनके धौ नहीं होती : कमल नेगी
गिरदा का नाम आते ही जेहन में उभरता है कुर्ता पायजामा पहने, कंधे में झोला लटकाये किसी बात पर मनन करता सा एक शान्त व्यक्तित्व। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान की वे बैठकें याद आती हैं, जिनमें गिरदा की अनिवार्य उपस्थिति रहती थी। बैठकें चलती रहतीं, सब लोग अपने विचार रखते। सबकी बातों को ध्यान से सुनते हुए गिरदा किसी ख़्याल में डूबे से दिखाई देते, मगर वास्तव में लोगों की बातों पर मनन करते हुए होते। अंत में बैठक की कार्यवाही समेटते तो कोई भी पक्ष ऐसा नहीं बचता, जो उनसे छूट गया हो। घर की चहारदीवारी से निकलकर पहली बार आंदोलन में कूदे हम लोगों को उनका बहुआयामी व्यक्तित्व आश्चर्यचकित कर देता था।
आंदोलन के दौरान 'नैनीताल समाचार' द्वारा प्रतिदिन शाम को तल्लीताल के क्रान्ति चौक और मल्लीताल बाजार में साध्यकालीन उत्तराखंड बुलेटिन प्रसारित किया जाता था। उसमें भी सबसे पहले गिरदा का कोरस होता, जिसमें समसामयिक घटनाओं का वर्णन होता था। इसका हमें बेसब्री से इंतजार रहता। उत्तराखंड के संघर्षों को वे बड़ी मार्मिकता से पेश कर एकत्र भीड़ को मंत्रमुग्ध कर देते। तल्लीताल में उन गीतों को एक बार सुनकर 'धौ' नहीं होती और हम दोबारा उन्हें सुनने मल्लीताल की दौड़ लगा देते। हर बार उनका गीत नया सा लगता और हममें नई स्फूर्ति भर देता।
पूरे छः साल तक चले उत्तराखंड आंदोलन में हम कई दौर से गुजरे। कई बार निराशा में डूब जाते, कभी गुस्सा आता और कभी भटकाव। जब-जब ऐसी स्थितिर्याँ आइं, हम हमेशा गिरदा की शरण लेते और उनके सुझावों से हमारा संकल्प और मजबूत हो उठता। उनके जनगीतों के साथ उनकी अन्तिम यात्रा में शामिल होकर और उन्हें अनन्त में विलीन होता देखकर भी मुझे नहीं लगता वे हमारे बीच नहीं है। लगता है अपने चिरपरिचित अंदाज में अभी कैंट की ओर से आते दिखाई देंगे।
- कमल नेगी
होली और रामलीला में वह जरूर याद आयेंगे : के.के.साह
गिरदा से मेरा परिचय 1970 के आसपास मेरे पूर्व अध्यापक कवीन्द्र शेखर उप्रेती जी के माध्यम से हुआ। तदोपरान्त 'नैनीताल समाचार' या अन्यत्र उनसे भेंट हो जाया करती थी। 'नैनीताल समाचार' एक ऐसा मंच था, जिसमें हर तरह के लोग जुड़ते गये। गिरदा को भी समाचार के रूप में एक अच्छा संगठन मिला, जिससे वे अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होते गये। उनसे घनिष्ठता सांस्कृतिक परम्परा को लेकर ही रही। होली, रामलीला व लुप्त होते अमूल्य लोकगीत व उनकी धुनों को लेकर उनसे वार्ता होती थी। उन्होंने व्यक्तिगत रुचि लेकर इस क्षेत्र में सभी को उत्साहित और प्रेरित किया। उदाहरणार्थ लगभग 25-30 वर्ष पूर्व इस क्षेत्र की होली गायन का ह्रास होने लगा था, जबकि हमें अपने बुजुर्गों से होली की सम्पन्न धरोहर मिली है। तब सभी ने संगठित रूप से होलियों को नवजीवन देने का बीड़ा उठाया। गिरदा ने एक ओर 'नैनीताल समाचार' परिवार तथा दूसरी ओर गीत एवं नाटक प्रभाग के कलाकारों व स्थानीय होलियारों को साथ लेकर भव्य आयोजन कर अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
इसी प्रकार विभिन्न राग-रागिनियों पर आधारित परम्परागत कुमाउँनी रामलीला के गिरते हुए स्तर की ओर भी उनका ध्यान गया। उन्होंने लोगों में रुचि व आशा की लहर पैदा की। एक बार नवरात्रि से पूर्व अधिमास पड़ जाने के कारण रामलीला मंचन में कुछ दिनों का विलम्ब हो गया। गिरदा व रामलीला प्रेमी लोगों ने 14-15 दिन तक घर के बैठक में ही प्रतिदिन सायं मिलकर साधारण वस्त्रों में साधारण ढंग से रामलीला नाटक का मंचन किया, जिसमें अन्य कलाकारों के साथ गिरदा ने भी कुछ पात्रों का अभिनय किया। बीच-बीच में वे बृजेन्द्र लाल शाह द्वारा रचित कुमाउंनी भाषा की रामलीला के गीत गाकर आनन्दित कर देते। एक गोष्ठी में बृजेन्द्र लाल शाह ने गिरदा के सम्मान में बोलते हुए कहा भी था कि ''गिरीश में जो टेलेंट है वह असाधारण है। यहाँ के सभी लोकगीतों, जो कि अलग-अलग स्थानों पर कुछ बदलती धुनों में पाये जाते हैं, को गिरदा प्रस्तुत करने की क्षमता रखते हैं।''
- के.के.साह
संपर्क : ntl_samachar@merapahad.com
उनकी श्रद्धा और स्नेह का स्मरण आते ही आँखें भर आती हैं: चारु चन्द्र पाण्डे
22 अगस्त को चन्दन डांगी जी का फोन आया कि गिरीश चन्द्र तिवारी 'गिरदा' नहीं रहे। मैं हतप्रभ था- कुछ ही दिन पूर्व वे अपनी श्रीमती व पुत्रवधू के साथ मुझसे मिलने यहाँ आये थे। अचानक यह कैसा वज्रपात हो गया। इतनी जल्दी यह सब कैसे हुआ। अभी भी लग रहा है जैसे यहाँ मेरे सामने दीवान पर बैठे मुस्कुरा रहे हैं। कुछ देर तो मैं इस हृदयविदारक खबर से स्तब्ध रह गया।
गिरीश के निधन से एक अपूरणीय क्षति हुई है। उनका मेरे प्रति असीम प्रेम था। उनकी श्रद्धा और स्नेह का स्मरण आते ही आँखें भर आती हैं। जी.आई.सी. अल्मोड़ा में वे मेरे एक होनहार छात्र थे। विद्यालय के कार्यकर्ताओं में एक उदीयमान छात्र के रूप में उनकी लगन, परिश्रम, विनम्रता और समर्पण की उदात्त भावनाओं ने मुझे बहुत आकर्षित किया। विद्यालय के सांस्कृतिक कार्यों में वे सदा सक्रिय रूप से भाग लेते थे। विद्यालय के नाट्य प्रदर्शनों एवं लोक संगीत के कार्यक्रम में उनका अभूतपूर्व योगदान रहा था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के 'विसर्जन' नाटक में मैंने उन्हें हिंसा बलिदान समर्थक पुजारी की भूमिका सौंपी, जिसका निर्वाह अभूतपूर्व कौशल से उन्होंने किया। उनमें उत्कृष्ट अभिनयक्षमता बचपन से ही विद्यमान थी- 'गीत नाटक प्रभाग' में आने पर उन्होंने बड़े मनोयोग से समस्त कार्यकलाप सम्पन्न किये। स्व. ब्रजेन्द्र लाल साह के भी बहुत प्रिय रहे।
जनकवि के रूप में गिरीश चन्द्र जी ने विशद कीर्ति अर्जित की। अपनी व्यंग्यात्मक शैली में कवितायें लिखकर, गाकर वे देशद्रोही, भ्रष्टाचारियों की खूब भर्त्सना करते रहते थे। होलियों के जलूस में भी उनका रूप रंग, संगीत देखते ही बनता था। राजीव जी की 'नैनीताल समाचार' टीम के वे अमूल्य रत्न थे। उक्त अखबार को सजाने-संवारने में उनकी निष्ठा अनुकरणीय रही। कुमाउंनी सांस्कृतिक धरोहर को अक्षुण्ण रखने, उसका सही आकलन करने में उनकी सूझबूझ अप्रतिम थी। उन्हें लोग कभी नहीं भूल सकते। वे 'शिखरों के स्वर', 'हमारी कविता के आंखर' में सहलेखक के रूप में, 'रंग डालि दियो हो अलबेलिन में' के गीत संकलनकर्ता के रूप में सदा याद रहेंगे। कई नाटकों का लेखन/निर्देशन भी उनके द्वारा सुचारु रूप से किया गया। झूसिया दमाई के दुर्लभ लोकगीतों की रिकॉर्डिंग एक प्रशंसनीय उपलब्धि रहेगी। उनकी 'नगाड़े खामोश हैं' आदि मंचकृतियाँ अविस्मरणीय हैं।
- चारु चन्द्र पाण्डे
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'उत्तरायण को आवाज दे गया वह'
गिरदा को पहला मंच देने वाले वंशीधर पाठक 'जिज्ञासु' से बातचीत
''ये गिरीश तेवाड़ी हैं। अल्मोड़ा के लोक कलाकार संघ से जुड़े रहे हैं। कुमाउंनी लोक गीत जानते हैं। पहाड़ी धुनों की पकड़ अच्छी है। पहाड़ की मिट्टी से जुड़े-रमे हैं। हुड़का भी बजा लेते हैं।'' ये शब्द प्रद्युम्न सिंह ने गिरीश का मुझसे परिचय कराते वक्त कहे। यह बात 1964 की है। वह पहली मुलाकात थी घुँघराले बालों वाले युवा, जोशीले, अल्हड़ गिरीश से।
मुझे लखनऊ आकाशवाणी आए हुए कुछ ही दिन हुए थे। 'उत्तरायण' कार्यक्रम के लिए कुमाउंनी-गढ़वाली गीतों का संकलन नहीं था और न ही यहाँ पर कलाकार जुटे थे। आकाशवाणी दिल्ली के पास कुछ पहाड़ी कलाकारों के रिकॉर्ड मिले। उन्हें मँगवाया। उन्हें ही बजाता था। रोज-रोज वही रिकॉर्ड, खास मजा नहीं आ रहा था। मुझे कुछ नई आवाजें, नए गीतों की तलाश थी। लखनऊ में उस समय रामलीला और होली में गाने वाले तो बहुत थे। मगर उत्तरायण में उनकी कला का प्रदर्शन नहीं हो पाया था। उत्तरायण पहाड़ के दूरस्थ अंचलों तक सुना जाता था। वहीं की माटी की गंध गीतों में भी चाहिए थी। उन दिनों प्रद्युम्न सिंह नैनवाल नाटकों, गोष्ठियों में सक्रिय रहते थे। नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ने वाले संस्कार भी सिखा रहे थे। मैंने उन्हीं से कहा था, ऐसा आर्टिस्ट बताओ जो कुमाउंनी-गढ़वाली गीतों का ज्ञाता हो।
सच बताऊँ तो उस समय मुझे ही कुमाउंनी बिलकुल नहीं आती थी। हमारा पैतृक गाँव भले ही उत्तराखण्ड में था, पर मैं पैदा शिमला में हुआ, वहीं पढ़ाई की। नौकरी भी करने लगा। इसलिए पहाड़ के संस्कार जितने भी मिले, वह घर से ही मिले। उत्तरायण में आने के बाद कुमाउंनी न जानने का दर्द टीसने लगा। प्रद्युम्न सिंह ने गिरीश से मिला कर अपना वादा निभाया। पहली मुलाकात में उसकी प्रतिभा आँकने का कोई जरिया न था। मैंने पूछा- ''क्या करते हैं ?'' गिरीश का जवाब था- ''हाईस्कूल किया है। पाँच-छह साल से यूँ ही घूम रहा हूँ इधर-उधर। हवालबाग में किसी ने कहा- संगीत का शौक रखते हो, गीत गा लेते हो ? अल्मोड़ा में मोहन उप्रेती से मिलो। सलीका आ जाएगा। वहाँ गया, सीखा, ज्यादा दिन नहीं रह पाया। यहाँ लखनऊ में अपने चाचा के पास आ गया।'' मैंने पूछा- ''कब आए पहाड़ से।'' उसने बताया कुछ ही दिन हुए हैं। फिर पूछा- ''यहाँ पर कहाँ-कहाँ गए हो ?'' उसने बताया- कुमाऊँ परिषद जाता हूँ अक्सर। मैंने कहा- दो-एक दिन में आकाशवाणी आ जाना। बाकी बातें वहीं करेंगे।
एक दिन वह आ गया। मैंने आकाशवाणी में ऑडीशन देने कहा। वह टाल गया। मैंने कई बार कोशिश की मगर नहीं माना। हालाँकि आवाज उसकी काफी बुलंद थी। उन दिनों 'कुमाऊँ परिषद' सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र था। वहाँ गायक तो थे, पर गायिकाएँ नहीं थीं। पता चला भातखण्डे में चार-पाँच पहाड़ी लड़कियाँ संगीत सीखती थीं। उनमें बीना तिवारी, मंजुला पाण्डे, मंजू बिष्ट की अच्छी आवाज थी। मैंने गिरीश से कहा, जो तुमने अल्मोड़ा में लोक कलाकार संघ से सीखा है, वही इन लड़कियों को सिखा दो। दरअसल अल्मोड़ा का लोक कलाकार संघ बहुत ऊर्जावान था उन दिनों। पंडित उदयशंकर ने इसकी नींव रखी थी। लेनिन पंत, चारु चन्द्र पाण्डे, तारा दत्त पाण्डे, मोहन उप्रेती, ब्रजेन्द्र लाल शाह, सुरेन्द्र सिंह मेहता, सैमुअल माधोसिंह जैसे नाम जुड़े थे इस संस्था से। मोहन उप्रेती सुदूर गाँवों से गीत और धुनें लाते। चारु पाण्डे उन धुनों पर नए गीत भी रचते और ब्रजेन्द्र संगीत देते। मोहन तो महीनों तक सुदूरवर्ती गाँवों में रह कर वहाँ की सांस्कृतिक विरासत लेकर लौटते। गिरीश ने बाद के वर्षों में ब्रजेन्द्र के साथ खुद भी यह प्रयोग किया। अस्कोट, मुन्स्यारी की रामलीला गीतों की धुनें ब्रजेन्द्र के अलावा सिर्फ गिरीश के पास ही सुरक्षित थीं। युवा गिरीश जब लखनऊ आ गया तो कुछ समय बाद ब्रजेन्द्र और मोहन ने दिल्ली का रुख कर लिया। प्रद्युम्न के साथ रिहर्सल के लिए कभी ये सभी कभी विद्या अवस्थी के घर जुटते तो कभी बीना तिवारी या फिर मंजू बिष्ट के घर। शिखर संगम संस्था के नाम पर बर्लिंगटन होटल में एक कमरा किराए पर मिल गया तो रिहर्सल वहीं होने लगी। धीरे-धीरे गिरीश-प्रद्युम्न की टीम में 30-35 कलाकार हो गए। इनमें से 15 लोग छाँटे गए। इसी ग्रुप का एक सामूहिक ऑडीशन आकाशवाणी में लिया गया, जिसमें गिरीश भी शामिल था। फिर तो आकाशवाणी के पास गायकों की एक टीम थी।
हम लोगों की टीम में पीडब्ल्यूडी विभाग के एक ओेवरसियर पंत जी भी थे। वह शौकिया बाँसुरी बजाया करते। उन्होंने ही गिरीश तिवारी के साथ मुलाकात कराई। गिरीश यहाँ नए-नए आए ही थे। जिज्ञासु जी ने कह रखा था कि नई-नई प्रतिभाओं को सामने लाओ। दो-तीन दिन बाद ही एक प्रोग्राम में जिज्ञासु जी मिल गए। वहीं गिरदा का परिचय उनसे कराया। फिर तो वातावरण ही बदल गया। बर्लिंगटन होटल में रिहर्सल, आकाशवाणी में प्रोग्राम, तमाम गतिविधियाँ। उर्मिल, बीना तिवारी, प्रमिला जोशी, गिरदा, जिज्ञासु जी और भी कई उत्साही कलाकार। एक टीम बन गई। एक-दो बार गढ़वाली रामलीला में कुमाउँनी गीत गाने गणेशगंज तक पहुँचे। स्टेज पर गिरदा के हाथ में हुड़का था। छपेली- लाली हो. . . तिले धारो बोला, में वह जोड़ मारते, हम लोग आवाज भरते। लम्बे अर्से बाद उनसे 'निःसर्ग' के सम्मान कार्यक्रम में मुलाकात हुई। मैंने पूछा- क्या पहचान रहे हैं ? बोले- ऐसा कहीं हो सकता है ? लखनऊ के शुरुआती दिन तो आपके साथ ही बिताए ठैरे। बहुत देर तक बातें हुईं। एक बार नैनीताल जाना हुआ तो तल्लीताल में साह जी की प्रेस में बहुत देर तक इंतजार किया। बाद में फोन से बात हुई। दूसरे दिन मुलाकात का वादा था, फिर पूरा नहीं हो सका। अब तो वह बहुत दूर जा चुके हैं। -प्रद्युम्न सिंह नैनवाल (उप्र सचिवालय से सेवानिवृत्त, कुमाउंनी नाटककार) |
गिरीश सिर्फ लोकधुनों का अच्छा जानकार, बेहतरीन गुरु या फिर मौलिक गायक ही नहीं था, साहित्य में भी उसकी पकड़ अच्छी थी। घुमक्कड़ी से उसने जीवन में बहुत कुछ सीखा। मैंने उससे ठेठ पहाड़ी में कहानियाँ और संगीत रूपक लिखवाए। ऋतुरैण का निर्देशन भी उसने किया और उसमें हुड़का भी बजाया। वह स्वाभिमानी था। थोड़ा गड़बड़ हो गई तो बोलता ही नहीं था। इसी बीच उसकी दोस्ती इंजीनियर दुर्गेश पन्त से हो गई। दुर्गेश ने ही उसे सीख दी कि प्यार से कराया गया काम ज्यादा बेहतर होता है और आसानी से हो जाता है। इसका असर उसके जीवन में देखने को मिला। इस जोड़ी ने 1969 में एक किताब भी निकाली- 'शिखरों के स्वर'। गिरीश को लखनऊ में नाम और शोहरत मिलनी शुरू हो गई थी। मगर आजाद परिंदा शहर के पिंजड़े में कहाँ रहता ? दो-तीन साल बाद एक दिन खबर मिली कि वह नौकरी करने लगा है पीलीभीत में दुर्गेश के डिपार्टमेन्ट में। फिर वह नैनीताल के संगीत और नाटक प्रभाग में काम करने लगा। फिर भी वह आम आदमी से जुड़ा रहा। लखनऊ आना-जाना बना रहा। जब भी यहाँ आता, हम लोगों से मिलने घर आता। खूब बातें होतीं, श्रीमतीजी तो उसे सेहत के लिए बहुत टोक देतीं। वह भी अपनी बोज्यू का बुरा नहीं मानता। दिन बीते, साल गए, पता ही नहीं चला कि कब वह 'गिरदा' हो गया। आन्दोलनों में रहता, जन जागरणों में जाता, अकेला निकल पड़ता और आज तो क्या कहा जाए, अब वह हम सबका पूजनीय भी बन गया है।
एक है गिरदा
21 अगस्त 2010। शाम लगभग 4 बजे बेस अस्पताल हल्द्वानी की दूसरी मंजिल में आपरेशन थिएटर के बाहर स्टेचर पर करवट लेटे गिरदा से मैंने हाथ मिलाया था। हमेशा की तरह अपार ऊर्जा से भरे उसके हाथ की अंगुलियों ने स्पर्श की भाषा में मुझे अपने प्यार से लबरेज कर दिया। आँखों में पीड़ा तो थी, मगर हमेशा की तरह का आत्मविश्वास भी साफ दिख रहा था। मैने कहा, गिरदा यार फटाफट ठीक होकर बाहर आना। उसे आँखों से हामी भरी। फिर स्ट्रेचर अन्दर चला गया। उस समय मेरा मन किसी अनहोनी को लेकर जरा भी आशंकित नहीं था। अस्पताल में मौजूद तमाम साथियों को भी सब कुछ ठीक हो जाने की ही सहज उम्मीद थी। पिछले कई वर्ष से बीमारियों से लड़ रहे गिरदा के स्वास्थ्य को लेकर हम सब चिन्तित तो जरूर रहते थे, लेकिन गिरदा को कुछ हो जाएगा ऐसा तो कोई सोच भी नहीं सकता था। आखिर कुछ साल पहले लखनऊ में एक के बाद एक लगातार दो दिल के झटकों से भी तो वह उबरकर मौत के मुँह से बाहर आ ही गया था। इस बार भी हम सब, कुछ ऐसी ही उम्मीद लगाए बैठे थे। लेकिन गिरदा ने, जो अपनी जिन्दगी का कलाकार भी खुद था और निर्देशक भी खुद, एकाएक नाटक का ऐसा अन्त कर दिया कि समूचा उत्तराखण्ड और उत्तराखण्ड के बाहर मनुष्यता की लड़ाई लड़ रहा हर एक शख्स भीतर तक भरभरा उठा। नाटक का यह अंतिम अंक कुछ ज्यादा ही घटनाप्रधान रहा। पहले बाबू की मौत, फिर प्रेम का विवाह और फिर यह, सबको सन्न कर जाने वाला ड्राप सीन!
'नगाड़े खामोश हैं' की तैयारियों के दिनों में गिरदा को मैंने पहली बार देखा था। हम तब इण्टर के छात्र थे और सती मास्साब के कारण रिहर्सल के दौरान प्रायः हमें वहाँ रहना पड़ता था। वह रिहर्सल किसी उत्सव की तरह हो रही थी। तरह-तरह के लोग वहाँ आते थे। अपने-अपने क्षेत्र की विलक्षण प्रतिभाएँ, मगर उन सब के बीच एक शख्स हमें कुछ अजीब सा लगता था। एक रहस्यमय सा व्यक्तित्व! उसका अंदाज बहुत आत्मीय था। एकाध बार उसने कुछ छोटा-मोटा काम बताया होगा हमें। ज्यादा कुछ बात भी नहीं हुई होगी, पर अपने विशिष्ट अंदाज के कारण वह मन में कहीं अटक गया था। फिर कई वर्ष बाद उत्तरकाशी की डबरानी झील बनने से आई बाढ़ के सिलसिले में उत्तरकाशी आए गिरदा से मेरी पहली अंतरंग मुलाकात हुई। मुझे सम्मोहित सा कर दिया था उस मुलाकात ने। तब उत्तरकाशी की स्थितियाँ बेहद खतरनाक और भयावह थीं। हम हरसिल से ऊपर के गाँवों में नमक पहुँचाकर लौट रहे थे और गिरदा-शमशेरदा की टोली 'नैनीताल समाचार' के लिए उत्तरकाशी का हाल जानने पहुँची हुई थी।
नैनीताल समाचार मेरी जिन्दगी की एक बड़ी पाठशाला रहा और गिरदा उसके सबसे अलग गुरुओं में एक, एकदम अलग किस्म का! और मेरा रिश्ता भी उससे उसी तरह का बनता चला गया। एकदम अलग किस्म का रिश्ता। गिरदा मेरा दोस्त था, बड़ा भाई था, गुरु था, संस्कार देने वाला पिता था। क्या-क्या नहीं था ? और मेरा ही क्या, गिरदा तो मेरे जैसे हजारों-लाखों लोगों के लिए ऐसा ही था।
'गोविन्द…गोविन्द…गोविन्द' प्रायः कविता के अन्दाज में वह तीन बार मेरा नाम पुकारता था। कभी अचानक (हाल के सालों में) उसका वक्त बेवक्त फोन आ जाता था। ''यार एक छन्द बना है, सुनने की मनःस्थिति में है ? सुनाऊँ ?'' और फिर गिरदा आठ-दस पक्तियाँ सुनाकर अभिभूत कर देता। फिर पूछता ठीक बना है? ये क्षण ऐसे होते जिन्हें गिरदा सचमुच शिद्दत के साथ, पूरे रोमांच के साथ जीता था, दूसरे के साथ बाँटता था।
नैनीताल समाचार के सबसे सुनहरे उन दिनों में, गिरदा मल्लीताल में नैनीताल क्लब वाले मोड़ में एक रेस्टोरेन्ट के पीछे वाले कमरे में रहता था। इस कमरे में बाबू उसका हमदम था, उसका कुक, उसका हमप्याला, उसका संरक्षक, सभी कुछ। इस कमरे में यों तो ताला नहीं लगता था और कभी सस्ता सा ताला लगता भी तो उसकी चाभी साथ वाले रेस्टोरेंट में होती थी और गिरदा का नाम लेकर कोई भी उसे हासिल कर सकता था। हम जैसे लोगों को यह विशेषाधिकार भी मिला हुआ था कि हम रेस्टोरेंट से गिरदा के नाम पर चाय, समोसा, आमलेट आदि जो चाहें खा भी सकते थे।
वह कमरा गिरदा की तपस्थली जैसा था। बेहद अंधेरा, एक मरियल सा पीला बल्ब, बाहर से घुसते ही एक टॉयलेट और साथ में छोटी सी रसोई। कमरे में दो खाट, एक गिरदा की, एक बाबू की। बिस्तर के नाम पर उधड़ी-आधड़ी सी रजाई या कभी स्लीपिंग बैग। नीचे दरी, चादर, गद्दा सब गड्डमड्ड। जहाँ-तहाँ बीड़ी के ठुड्डे। एक-आध लुड़के-पुड़के गिलास प्याले, कुछ पत्रिकाएँ, कुछ किताबें अखबार, पम्फलेट, एक खूँटी में लटका हुड़का, कभी-कभी कैसेट रिकार्डर जैसा कोई यंत्र भी दिख जाता। मुझे वह कमरा फ्रांस की क्रांति के दिनों के किसी कम्यून का जैसा लगता।
गिरदा वहाँ होता तो भाँति-भाँति के 'गण' भी वहाँ होते। कभी कोई, कभी कोई, एक से एक रहस्यमय व्यक्तित्व। अक्सर वहाँ बैठकें होतीं। शाम से शुरू होकर बैठकों का यह सिलसिला देर रात तक चलता। प्रायः दो-तीन बजे तक, जब तक कि आखिरी योद्धा थककर सो नहीं जाता। बीच-बीच में बाबू का आग्रह होता…. खाना बन गया है, खाना ठण्डा हो रहा है, कुछ तो खा लो। एक आध गण जिन्हें जल्दी खिसकना होता, थाली लगवाकर कुछ खा लेते और गिरदा भी उसी में एक आध ग्रास खा लेता। वही उसका खाना हो जाता। अक्सर उसका खाना ढंग से नहीं हो पाता था, हालाँकि खाने का उसे बेहद शौक था। स्वाद पहचानने और उसे दूसरों तक संप्रेषित करने में तो वह माहिर था। मटर छीलती, पालक बीनती उसकी अंगुलियाँ कलाकार की अंगुलियों की तरह नृत्य करती दिखाई देतीं। मगर अक्सर खाना खा पाने तक की नौबत ही नहीं आती। कई बार तो बाबू नाराज हो जाता। खाना पटक देता और सो जाता। गिरदा के उस कमरे में रात बिताना एक तरह की श्मशान साधना जैसा अनुभव था। एक रात जिसे उस कमरे में सोने का मौका मिल गया, उसका तन-मन जाग जाता। मन विचारों से और तन तरह-तरह के प्राणियों के हमलों से त्रस्त होकर।
वह गिरदा के वैचारिक मंथन का बेहद सक्रिय दौर था। उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी की सक्रियता का सुनहरा दौर। आईपीएफ के जन्म से पूर्व का दौर। 'चिपको' से 'नशा नही रोजगार दो आन्दोलन' तक के बीच का वह दौर उत्तराखण्ड में जन चेतना के उभार का सबसे तेज दौर था। उन दिनों नैनीताल में होने पर गिरदा का नैनीताल समाचार के दफ्तर में एक चक्कर आना अनिवार्य सा था। बिला नागा वो दोपहर में आता, एक आध घंटा समाचार में कुछ चिन्तन-मनन होता। किसी अंक की परिकल्पना के बारे में, किसी अंक के मुखपन्ने के बारे में, किसी लेख के बारे में, या किसी शीर्षक के बारे में। कभी-कभी तो एक-एक शब्द को लेकर घंटों बहस हो जाती। गिरदा चीजों में परफेक्शन का इतना हिमायती था कि नैनीताल समाचार में छपने वाले एक शब्द के बारे में उसका कहना होता था कि यार जो हम छाप रहे हैं, उसकी जवाबदेही भी तो हमारी है, गलत करेंगे तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा।
तब वो एक जबर्दस्त पत्रकार होता था। मानवीय सरोकारों पर उसकी पकड़ इतनी मजबूत थी कि उसमें कोई कसर बाकी होने की गुंजाइश ही नहीं होती। समाचार की उन बैठकों में खुली बहस होती थी। और हर किसी को अपनी बात कहने की पूरी आजादी थी। बड़े से बड़े विद्वानों से लेकर गिरदा के शब्दों में 'पॉलीटिकल लारवा' किस्म के लोगों तक, सबको विचार रखने का पूरा मौका होता। गिरदा अपनी राय या विचार जबरन मनवाने का प्रयास कभी नहीं करता था। 'यार! ये विचार है अब आप लोग सोचों कि ये एक्जीक्यूट कैसे होगा और पहले ये कि एक्जीक्यूट होने लायक है भी या नहीं ?' वह अक्सर कहा करता। या कभी वह कहता '….ऐसा जैसा कुछ!' यानी जो सूत्र उसने सोचा है, उसको किस तरह कागज पर उतारा जा सकता है। एक अच्छे निर्देशक की तरह वह सूत्र दे देता था, बाकी काम दूसरों को करना होता। उस दौर में मेरी गिरदा से खूब बहसें हुई, झगड़े हुए, तीखी नोंकझोंकें भी हुई। शायद गिरदा ने इस तरह लड़ने-झगड़ने, डाँटने-डपटने का विशेषाधिकार मुझे दे रखा था, और यह अधिकार मेरे पास उसके अंतिम दिनों तक बना रहा। इसी जुलाई में जब वह लखनऊ आया था, तब भी उसने मेरे इस अधिकार का मान रखा था और मुझे इस बात का अहसास कराया था, कि मेरे पास यह अधिकार अब भी हैं। इतना अपनापा और इतना बड़प्पन था उसमें!
शादी गिरदा के जीवन की एक अजब घटना थी। गिरदा के मिजाज और विचारों से एक दम प्रतिकूल बात थी गिरदा का शादी करना। मगर जब शादी हो गई, तो हम सब ने गिरदा में एक अभूतपूर्व परिवर्तन देखा। गिरदा के बाहरी रूप में एकाएक बदलाव सा आ गया। गिरदा के बाल करीने से कढ़े दिखने लगे, कपड़े सलीकेदार हो गए, साफ-सुथरा चिकना चुपड़ा गिरदा हमें शुरू में बहुत असहज लगता था। लेकिन गिरदा की एडोप्टिबिल्टी देखने लायक थी। किसी बच्चे की तरह गिरदा नई जिन्दगी के व्यावहारिक गुर सीखता दिखता था। उसके हर काम मे बालसुलभ चंचलता दिखाई देती थी। उसने उस नई जिन्दगी के साथ जल्द ही तालमेल बना लिया। अराजकता अब कम हो गई। नियमित खान-पान, आचार व्यवहार का असर उसके व्यक्तित्व में भी दिखाई देने लगा लेकिन साथ ही साथ उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता, आदमी के लिए उसकी पीड़ा इस दौर में और अधिक मुखर होती गयी।
चिपको के बाद के दौर तक गिरदा की राजनीतिक प्रतिबद्धता उस पर अधिक हावी थी और इसी वजह से उसमें ज्यादा लचीलापन नहीं था। जो लाईन दिमाग में बसी थी उससे जरा भी इधर-उधर होना उसे मंजूर नहीं था। एक बार किसी सिलसिले में, मैं और गिरदा अल्मोड़ा गए थे। रात गिरदा की दीदी के घर रुकना था। नौ साढ़े नौ बजे हम उनके घर पहुँचे और फिर खाना खाते-खाते इस बात पर बहस शुरू हो गई कि गिरदा को अपनी रचनाओं का कैसेट बनाना चाहिए या नहीं। गिरदा तब इसका सख्त विरोधी था। मेरा कहना था कि यह नये जमाने का नया साधन है। अब लोग मुँह से सुन कर याद रखने या पढ़कर आत्मसात करने के बजाय कैसेट सुन कर मजा लेना ज्यादा पसंद करते हैं, इसलिए गिरदा को भी इस तकनीक का फायदा उठाना चाहिए। मगर गिरदा इस बात को मानने को कतई तैयार नहीं था। उस रात लगभग तीन बजे तक हम लड़ते रहे, बहस करते रहे। सुबह दीदी ने चाय दी तो हैरानी भरे अंदाज में पूछा दिन में क्यों नहीं लड़ लेते तुम लोग। मगर कुछ ही वर्ष बाद गिरदा तकनीकी के इस कमाल को स्वीकार करने लगा था, और बाद में नैनीताल में जागर कैसेट के नाम से तीन कैसेटों की एक रिकार्डिंग करवा कर गिरदा ने इस विधा में दखल भी दिया हालाँकि उस रिकार्डिंग में उसका 'अपना' बहुत कम था।
गृहस्थी के सुख ने गिरदा को लगातार परिपक्व किया। अराजकता के दौर के उमड़ते-घुमड़ते विचारों का ज्वालामुखी शांत होकर अपने बहाव की दिशा बनाने लगा था। हालाँकि उसकी आग और आँच कभी खत्म नहीं हुई। 'नशा नही रोजगार दो' आन्दोलन' के दौर में गिरदा आन्दोलन का सबसे बड़ा सूत्रधार बन गया था। उसके गीत जन-जन की जुबान पर चढ़ गए थे। छात्र, युवा, महिलाएँ सभी उसके गीतों को गुनगुनाने लगे थे, दोहराने लगे थे। उसके शब्दों की आग हर ईमानदार दिल को जोश दिला रही थी।
इस आन्दोलन की एक बड़ी खूबी यह थी कि इसका फैलाव गरुड़ सोमेश्वर, बसभीड़ा, चौखुटिया, द्वाराहाट, बाड़ेछीना, भवाली, गरमपानी, गंगोलीहाट, लोहाघाट, देवीधुरा, गैरसैंण, ताकुला, बेतालघाट और भीमताल जैसे कस्बों तक फैला हुआ था, इसलिए गिरदा के जनगीत इस आंदोलन में इन कस्बों और इनसे जुड़े गाँवों तक भी पहुँच रहे थे, ध्वनित हो रहे थे। नैनीताल-अल्मोड़ा जैसे शहरों में तो वे पहले से ही लोगों की जुबान पर चढ़े हुए थे।
आन्दोलनकारी गिरदा, क्रान्तिकारी गिरदा, जनकवि गिरदा, फक्कड़ गिरदा अब एक गम्भीर दार्शनिक व चिन्तक गिरदा भी बन गया था। हालाँकि इस दौर में उसमें एक बदलाव यह भी आया कि अब वह असहमति को भी सहजता से स्वीकार करने लगा था, दूसरों की आक्रामक आलोचना उसने एकदम बन्द कर दी थी। किसी का विचार, किसी का व्यवहार, किसी की कोई हरकत उसे नापसंद भी होती तो भी उस पर वह खुद कोई टिप्पणी नहीं करता था। हाँ, उस बारे में अपना पक्ष या अपना विचार वो जरूर स्पष्ट कर देता था। नीलकण्ठ सा हो गया था वह! शराब आंदोलन के बाद का निराशाजनक दौर उसे गहरे तक सालता था, विचार के नाम पर आसपास की प्रगतिशील एकता का टुकड़ों में बटकर बिखरना उसके लिए बेहद पीड़ादायक था। कबीर दास की तो मौत के बाद उन पर अलग-अलग आस्थाओं के लोगों ने हक जताया मगर गिरदा को तो जीते जी इस स्थिति का सामना करना पड़ रहा था। हर खण्ड-विखण्ड गिरदा को अपना बता रहा था और गिरदा था कि अपने विचार को, अपनी ऊर्जा को खण्ड-खण्ड होता देखकर तड़प रहा था। ज्वालामुखी भीतर ही भीतर दहक रहा था, मगर अब वह फट नहीं रहा था। उसकी सारी आग गिरदा पी रहा था, खुद को जला कर।
उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन ने गिरदा को एक और विस्तार दिया। उत्तराखण्ड की लोक संस्तुति और परम्पराओं की जड़ों तक पहुँचे होने का उसका अनुभव राज्य की जरूरत महसूस करते लाखों उत्तराखंडियों को जुबान दे रहा था। नीति से नानकमत्ता तक और तवाघाट से त्यूणी तक उत्तराखण्ड की माँग में गिरदा के सुर अपारिहार्य रूप से शामिल हो गए थे। फिर राज्य तो बन गया, मगर गिरदा जैसों का सपना पूरा नहीं हो पाया। इसलिए उसने राज्य बनने के 6 साल बाद एक फिर लम्बी कविता के जरिए पूछा कि क्या इसी सबके लिए हमने देखा था अपने राज्य का सपना ? बाद में जैसे-जैसे उसकी शारीरिक क्षमताएँ कम होती गईं, उसकी छटपटाहट बढ़ती गई। 'नदी बचाओ आंदोलन' के दौर तक आते-आते उसका वैश्विक चिन्तन बेहद मुखर हो चुका था। पैसे का मुँह उसने कभी देखा नहीं, मगर आर्थिक दबाव तो थे ही। स्वास्थ्य भी इजाजत नहीं देता था। मगर उत्तराखड की हर गतिविधि में शामिल होने की उसकी प्यास अभी भी बुझी नहीं थी। इसलिए सशरीर किसी कार्यक्रम में न पहुँच पाने पर भी वो मोबाइल के जरिए वहाँ जरूर पहुँच जाता। वापस लौटने वालों से वहाँ का हाल जानने की उसकी आतुरता देखने लायक होती थी।
लखनऊ में एक बार होली में अपने संगी-साथियों के साथ आकर बैठकी करने को उसकी बड़ी इच्छा थी। तीन वर्ष पहले एक बार ऐसा होने की स्थिति भी बनी, मगर कुछ संगतकारों को छुट्टी न मिल पाने से वह इच्छा पूरी नहीं हो सकी और अब तो वह हमारे लिए एक न पूरा हो सकने वाला सपना ही रह गई है।
गिरदा की आत्मीयता, उसका बड़प्पन, उसकी फूल झरती जुबान अब सिर्फ यादें बन गई हैं। भौतिक मायामोह से छत्तीस का आँकड़ा होने के बावजूद उसे हर मित्र-सहयोगी के सुख-दुःख की हमेशा चिन्ता रहती थी। कविताओं और गीतों में वो अपने आसपास के लिए जितना चिन्तित और परेशान दिखता था, असल जिन्दगी में भी वैसा ही था। अहं तो उसमें था ही नहीं और 'मैं' का तो दूर-दूर तक नाम भी नहीं। पानी जैसी तरलता और जाड़ों में गंगोत्री के गंगाजल जैसा पारदर्शी था उसका मन। 'कहो मित्र!' किसी अनजान, अपरिचित को भी उसका यह संबोधन बाँध सा देता था। मुझे लगता है कि अपने व्यक्तिगत दुःख सुख जिस तरह मैंने गिरदा के साथ बाँटे होंगे वैसे शायद ही किसी दूसरे के साथ बाँटे होंगे। वह दुःख बाँटना जानता था तो उत्साहवर्द्धन करना भी जानता था। दूसरे की प्रशंसा करना मुश्किल काम होता है। मगर गिरदा उन्मुक्त भाव से, खुले दिल से ऐसा करता था। वह जानता था कि प्रोत्साहन क्या चीज होती है, इसलिए वह हर मिलने वाले को उसके सकारात्मक पहलुओं के लिए प्रोत्साहित करता था, प्रेरित करता था। 'और सुना, कोई नया चिन्तन, कोई नया विचार चल रहा है क्या मन मस्तिष्क में?''
प्रायः वह यह जरूर पूछ लेता था। गिरदा जबतक सशरीर हमारे साथ था, हमें कभी लगा ही नहीं कि गिरदा कितना बड़ा है। घर की मुर्गी दाल बराबर थी। अब वह सशरीर नहीं है तो उसकी एक-एक बात, एक-एक विचार, एक-एक शब्द और एक-एक अंदाज रह-रह कर याद आ रहे हैं। कभी अपनी मूर्खताओं का अहसास करा रहे हैं तो कभी गिरदा की महानता का!
गिरदा शताब्दियों में एक बार पैदा होता है, इसलिए गिरदा मरता नहीं। उसका शरीर नहीं है तो क्या हुआ ? उसके विचार तो हमें चेता रहे हैं, चेताते रहेंगे, जगाते रहेंगे। दही की ठेकी की तरह समाज को एक बने रहने की जो सीख उसने दी थी, गिरदा को मानने वाले, जानने वाले और समझने वाले, सभी बड़े और छोटे इसे आत्मसात कर लेंगे तो इंसानियत की बेहतरी के लिए तड़पता गिरदा का मन भी शांत होगा और उसके सपने भी सच होने के ज्यादा करीब पहुँच सकेंगे। वो खुद भी कहता था, ''यार गोविन्द। जिन्दगी इतुक नानि हुनेर भैं। आदिम ये में ले दुहार हूँ लड़नौक टैम निकाल लिनेर भै। वाह, क्या बात है।''
'चिफलो भैं बाट, खुट धरिया सँभाल
हिल मिल लडुँल तो जीत भैं हमैरि
आपस में लड़ि मरों, भलि ऊँ भेटाल
छै पधानाक जाँ नौ चुल ह्वाला
समझिलियो वाँका के ह्वाला हाल।'
गिरदा यही कहता था, गिरदा यही कह रहा है, गिरदा यही चाहता था और गिरदा आज भी यही चाह रहा है!!
Palash Biswas
Pl Read:
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