सुपरपावर हिन्दू राष्ट्र के पंख खुलने लगे
पलाश विश्वास
बंगाल में जमीन और मुसलमान वोट बैंक हासिल करने के खातिर बंगाली कुलीन ब्राह्मण मार्क्सवादी और कांग्रेसी अमेरिकी गुलामों के सौजन्य से भारत अमेरिकी परमाणु समझौते के बहाने आपरेशन ब्लू स्टार के जरिये राष्ट्रव्यापी सिखनिधन, राम मंदिर आंदोलन और बाबरी विध्वंस के बाद फिर एक बार ब्राह्मणवादी हिन्दू पुनरुत्थान ने जोर मारा है और उत्तर आधुनिक आकाशगंगा मनुस्मृति व्यवस्था का ग्लोबल श्वेत यहूदी ब्राह्मण सत्तावर्ग बाग बाग है कि नेपाल में अंतिम हिंदू राष्ट्र का अवसान हुआ तो क्या भारत अब सुपर पावर हिन्दू राष्ट्र , बस, बनने ही वाला है।
मार्क्सवादी, कम्युनिस्ट और नक्सलवादी धड़ों के तमाम नेता चूंकि व्राह्मण ही हैं, सो हिन्दू राष्ट्र के इस इंद्रधनुषी सपने से उनकी नींद में खलल नहीं पड़ने वाली। आखिर वे अच्छी तरह जानते हैं कि कांग्रेस की सरकार गिरी तो भी आखिरकार राज करेंगे बामहण ही। अमेरिकी आका नाराज भी न होंगे, क्योंकि जो परमाणु समझौता रुका हुआ है साठ वामपंथी सांसदों की नौटंकी की वजह से, वह संघ परिवार के सत्ता में आते ही अमल में आ जाएगा।
भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते पर कांग्रेस और वामपंथी दलों के बीच जारी गतिरोध आज और गहरा हो गया तथा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने धमकी दी कि अगर संप्रग सरकार ने इस समझौते को आगे बढ़ाया तो वह उससे समर्थन वापस ले लेगी ।
आज नई दिल्ली में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की पोलित ब्यूरो की बैठक के बाद जारी बयान में कहा गया कि अगर सरकार ऐसे हानिकारक समझौते को आगे बढ़ाने का फैसला करेगी, जिसे संसद में समर्थन नहीं मिला है, तो माकपा अन्य वामपंथी दलों के साथ मिलकर संप्रग सरकार से समर्थन वापस ले लेगी ।
परंतु संप्रग की नेता कांग्रेस ने इस धमकी को ज्यादा महत्व न देते हुए कहा कि इस चेतावनी में कुछ भी नया नहीं है । गौरतलब है कि संप्रग सरकार वामपंथी दलों के 59 सांसदों के सहयोग पर टिकी हुई है, जो बाहर से समर्थन दे रहे हैं ।
संप्रग के महत्वपूर्ण सहयोगी दल, राष्ट्रीय जनता दल, जिसके 24 सांसद हैं, ने विश्वास जताया कि इस समझौते पर सरकार नहीं गिरेगी और यह समझौता भी सम्पन्न होगा ।
सरकार इस समझौते को आगे ले जाने की इच्छुक है, जिससे सरकार और वामपंथी दलों के बीच गतिरोध गहराता जा रहा है । माकपा के महासचिव प्रकाश करात ने आज एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में समर्थन वापस लेने की पहली सार्वजनिक घोषणा की ।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जैसे अन्य वामपंथी दल पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि अगर सरकार इस समझौते पर अड़ी रही तो वे समर्थन वापस ले लेंगे, लेकिन माकपा अभी तक केवल समर्थन वापस लेने के संकेत दे रही थी ।
बताया जाता है कि अब संप्रग सरकार समाजवादी पार्टी, जिसके 39 सांसद हैं और कुछ अन्य छोटे दलों का समर्थन लेने का प्रयास कर रही है ताकि वामपंथी दलों द्वारा समर्थन वापस लिये जाने पर लोकसभा में उसे पर्याप्त सांसदों का समर्थन मिल जाए और सरकार बची रहे ।
अब सबकी नजरें समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव पर टिकी हुई हैं, जिन्होंने अपनी पार्टी के रवैये के बारे में कुछ खुलासा नहीं किया है और कहा है कि वह 3 जुलाई को फैसला करेंगे, जब यूएनपीए की बैठक होगी । परंतु समझा जाता है कि उनके प्रमुख सहयोगी अमर सिंह के अमेरिका से लौटने के बाद कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच समझौते की कवायद शुरू हो जाएगी ।
भारतीय विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी ने सोमवार को कम्युनिस्ट नेता प्रकाश करात से मिलकर अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के साथ समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए उनकी मंजूरी लेने की कोशिश की थी ।
परंतु कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने कहा है कि अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के साथ यह समझौता स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इससे अमेरिकी सौदे को आगे बढ़ाया जा सकेगा ।
प्रस्तावित परमाणु सौदे से भारत को परमाणु ईंधन और तकनीक में व्यापार करने की अनुमति मिल जाएगी । भारत अपने कुछ नागरिक परमाणु रियेक्टरों को राष्ट्र संघ की निगरानी में भी रखेगा ।
भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले हफ्ते कहा था कि इस समझौते से भारत अन्य देशों के साथ नागरिक परमाणु सहयोग कर सकेगा, जो भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिए बहुत आवश्यक है ।
अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा के अतिरिक्त, इस समझौते के लिए न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप और अमेरिकी कांग्रेस से मंजूरी लेना भी आवश्यक है ।
सभी शुभ नक्षत्रों के योग का अवसर बांचकर संघ परिवार ने सत्ता हस्तांतरण का समां भी बांध दिया है। संख्या ज्योतिष के हिसाब से भावी प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी समेत छह उम्मीदवारों कके नामों की घोषणा करते हुए। इन्ही आडवाणी के जनतादल शासनकाल में सूचना व प्रसारण मंत्रित्व काल में मीडिया में घुसपैठ करने वाले संघी बालवृंद अब विदेशी पूंजी निवेश और उपभोक्ता संस्कृति के मक्खन मलाई से बालिग हो गए हैं। संघ परिवार और इंदिरा गांधी के आपातकाल का विरोध करने वाले, सत्ता और व्यवस्था परिवर्तन की गुहार लगाने वाले, विचारधारा का परचम लहराने वाले लोग अब चांद सूरज हाथ में लेकर ढंढने से भी कही नहीं मिलेंगे। सब सार्वभौम बाजार और रियेलिटी शो, उपहार, पुरस्कार और अनुदान की संताने हैं या कारपोरेट मालिकों के अंग्रेजीपरस्त अधपढ़ अनपढ़ दलाल और भड़ुवे। जिन्हें शौच और सोच की तमीज नहीं हैं, समाचार ,सूचना , विचार और इतिहास का ज्ञान नहीं हैं, वे मालिक के कारिन्दे प्रबंधक हुक्मवरदार संपादक सत्तानशीं है। इनमें से भी ज्यादातर ब्राह्मण या सवर्ण। सूबों और केंद्र में शासक दलों के जूठन पर पलने वाले तमाम सुविधाओं, सहूलियतों, संबंधों और रियायतों से लैस। संघ परिवार की हवा बनाने वालों में इन महाशयों का भारी योगदान है।
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वामदलों की ओर से लगातार मिल रही धमकियों के बीच लगभग सभी राजनीतिक दलों ने चुनावी तैयारियाँ शुरू कर दी हैं।
अमेरिका के साथ परमाणु करार को लेकर चौतरफा संकट झेल रही संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का घटक दल राष्ट्रीय जनता दल भी इससे अछूता नहीं है। भारतीय जनता पार्टी ने तो लोकसभा चुनाव के लिए छह सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नाम की घोषणा भी कर दी है।
उत्तरप्रदेश में सत्तारुढ़ बहुजन समाज पार्टी और मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी भी कई उम्मीदवारों की घोषणा कर चुकी हैं।
इस संबंध में राजद ने शनिवार को अपनी कोर कमेटी और केन्द्रीय समिति की बैठक की। राजद प्रमुख एवं रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव की अध्यक्षता में चली बैठक में पार्टी ने परमाणु करार और महँगाई के कारण देश में व्याप्त संकट को देखते हुए चुनाव की तैयारियाँ शुरू कर दी।
बैठक में पार्टी ने अगले लोकसभा चुनाव में धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक न्याय के मूल्यों में आस्था रखने वाली पार्टियों के साथ चुनावी गठबंधन करने के बारे में भी विचार-विमर्श किया।
भारत-अमेरिका परमाणु करार को आगे बढ़ाने पर सरकार से समर्थन वापस लेने की वाम दलों की धमकी को खास अहमियत नहीं देते हुए प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने सोमवार को कहा कि वे समझौते के क्रियान्वयन से पहले इस मुद्दे पर संसद का सामना करने को तैयार हैं।
भारत-अमेरिका परमाणु करार पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की संसद का सामना करने की नई पेशकश ने वाम दलों को और नाराज कर दिया। करार पर सरकार के कदम बढ़ाने को सुनिश्चित मानकर अब वामदल समर्थन वापसी की तारीख पर विचार-विमर्श करने लगे हैं।
प्रधानमंत्री ने परमाणु करार मुद्दे पर कहा कि सरकार समझौते के कार्यान्वयन से पूर्व संसद का सामना करने को तैयार है लेकिन उससे पहले अंतरराष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी और परमाणु आपूर्ति समूह के साथ प्रक्रिया पूरी करना चाहेगी।
कांग्रेस को हालांकि वाम दलों के समर्थन वापस लेने पर सरकार बच जाने के सपा से कुछ सकारात्मक संकेत मिले हैं जिसके 39 सांसद लोकसभा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
इस मुद्दे पर संप्रग और वाम दलों के बीच बने गतिरोध के एक पखवाड़े बाद अपनी चुप्पी तोड़ते हुए प्रधानमंत्री ने वरिष्ठ संवाददाताओं से कहा अगर संसद महसूस करती है कि सरकार ने कुछ गलत किया है तो इसे 'तय' करने दिया जाना चाहिए।
करार पर चिंताओं के बारे में उन्होंने कहा, 'करार को क्रियान्वित किए जाने से पहले मैं इसे संसद में लाने के लिए राजी हूं। इससे अधिक तार्किक क्या हो सकता है।' सिंह ने कहा, 'मैंने पहले भी कहा है। मैं इसे फिर दोहराऊंगा कि मैंने वाम दलों को बताया है कि आप प्रक्रिया को पूरी होने दीजिए। जब प्रक्रिया पूरी हो जाएगी, मैं इसे संसद के सामने लाऊंगा और सदन के मुताबिक चलूंगा।'
परमाणु करार पर वाम दलों से बढ़े गतिरोध के एक पखवाड़े बाद सिंह ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा कि वे चाहते हैं कि सरकार को आईएईए और एनएसजी से वार्ता प्रक्रिया को पूरा करने की अनुमति दी जाए।
उन्होंने विश्वास जताया कि अमेरिका के साथ परमाणु सहयोग के संबंध में उनकी सरकार वाम दलों सहित सभी पक्षों की चिंताओं का निराकरण करने में सफल होगी।
समझौते पर एक कदम भी आगे बढ़ने की स्थिति में सरकार से समर्थन वापस लेने की माकपा महासचिव प्रकाश करात की धमकी के बारे में प्रधानमंत्री ने कहा ऐसी स्थिति आने पर हम उसका सामना करेंगे।
उन्होंने कहा कि मुझे उम्मीद है कि हम रास्ता निकाल सकते हैं। हम अभी भी ऐसे निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं, जो सभी दलों को संतुष्ट कर सके।
मूलनिवासी सर्वहारा समुदाय असहाय है तो भारतीय वामपंथियों, समाजवादियों और दलितनेताओं के विश्वासघात से। जो ईमानदार है वे मूलनिवासियों का साम्राज्यवाद विरोधी सामंतवाद विरोधी मनुस्मृतिविरोधी विरासत से अनजान हैं। जो बैईमान हैं वे खुल्लमखुल्ला आम जनता को बेवकूफ बना रहे हैं। वामपंथी इतिहास नहीं जानते, ऐसा हो नहीं सकता। अप
ढ़ या अधपढ़ भी नहीं है कारत वाहिनी। सत्तावर्ग तो आदिमकाल से शस्त्र और शस्त्र के विशेषज्ञ हैं। विचारधारा और इतिहासबोध के हिसाब से तो वामपंथियों को ग्लोबल यहूदी श्वेत हिंदू साम्राज्यवादी फासीवादी, नाजीवादी सामंती मनुस्मृतिपरस्त रंगभेदी सत्तावर्ग के खिलाफ मूलनिवासियों और सर्वहारा का साझा विश्वव्यापी मोर्चा का नेतृत्व करना चाहिए था। समाजवादी अगर भारतीय वर्ण व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहे होते तो संघ परिवार को कोई मौका देने की नौबत ही कहां आती? दलित नेता मूलनिवासी साम्राज्यवाद विरोधी विरासत से कोई सरोकार रखते तो ग्लोबीकरण, अंग्रेजी, शहरीकरण और औद्योगीकरण के जरिए मूलनिवासियों के सफाये हेतु जारी नरमेधयरज्ञ के खिलाफ मोर्चाबंदी करते। रंगभेद विरोधी मनुस्मृति विरोधी साम्राज्यवाद विरोधी अंतरराष्ट्रीय मोर्चाबंदी की अगुवाई करते।
ऐसा कुछ नहीं हो रहा है।
१९७७ और १९८९ में संघियों के साथ केंद्र में सरकार चलाने के अनुभव से धनी वामपंथी केरल, बंगाल और त्रिपुरा के गढ़ सुरक्षित कककरने में लगे हैं। बाकी देश पर संघ परिवार का राज हो तो क्या?
नवउदारवाद, ग्लोबीकरण, निजीकरण, विनिवेश और विदेशी पूंजी का विरोध करना तो दूर, वामपंथियों के सौजन्य से अब जार्ज बुश और बुद्धदेव भट्टाचार्य का गठबंधन है। हेनरी कीसिंजर विदेशी पूंजी के आयात के लिए वामपंथियों के सबसे बड़े मददगार हैं। सेज और कैमिकल सेज के लिए वाम शासित बंगाल में नंदीग्राम और सिंगुर में जनविद्रोह कुचलने के लिए मार्क्सवादी कांग्रेसी ब्राह्मणों ने जो साझा दमन कार्यक्रम चलाया, उसकी सानी है? गुजरात नरसंहार के खिलाफ खूब चिल्लाने वाले वामपंथियों के राज में मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों के क्या हाल है?
आडवाणी के गृहमंत्रित्व में लोकसभा में पेश दलित बंगाली शरणार्थियों के देश निकाला नागरिकता संशोधन विधायक पास कराने में संघ परिवार, कांग्रेस और वामपंथियों की सहमति के बाद भी इनमें भद करने की कोशिश आत्मघाती है।
अपना अपना वोटबैंक सुरक्षित करने के लिए भोली भाली हिंदुस्तानी मूलनिवासी जनता को बेवकूफ बनाने के लिए चुनावों में अलग अलग पार्टियों के झंडेवरदार ब्राह्मण वर्चस्व बनाये रखने के लिए और ग्लोबल सत्तावर्ग के हित साधने के लिए संसद और विधान सभायों में एकजुट है। संवैधानिक आरक्षण बेमतलब है, क्योंकि इस ग्लोबीकरण के कारपोरेट अमेरिकी उपनिवेश बने शाइनिंग इंडिया और सेनसेक्स इंडिया ने अप्रासिंक हो गया है। आरक्षण युद्ध अब वोट बैंक हासिल करने का सबसे बढिया जरिया है, मीना गुर्जर विवाद के अवसान के बाद सबरंग आररक्षण के महारानी वसुंधरा के फार्मूले से यह साबित हो चुका है। आरक्षण से कारपोरेट राज में नौकरियां नहीं मिल सकती। सरकारी राजकाज में बड़ा पद चाहे आरक्षण से मिल जाये, पर नीति निर्धारण अल्पसंख्यक तीन प्रतिशत ब्राह्मण ही करेंगे। प्रधानमंत्री चाहे सिख अर्थशास्त्री अमेरिकी गुलाम मनमोहन सिंह बन जायें, पर तमाम फैसले करेंगे उनसे बड़े गुलाम बंगाली कुलीन ब्राह्मण प्रणव मुखर्जी। जो एक नहीं, दो नहीं, उनचालीस संसदीय समितियों के चेयरमैन हैं और सबसे मजे की बात बंगाल में कांग्रेस वाममोर्चा तलमेल से परिवर्तन की हर संभावन की हवा निकालने में माहिर सोवियत माडल से अमेरिकी नैनो में तब्दील प्रणव मुखर्जी ही भारत अमेरिकी सैन्य संबंधों और परमाणु समझौते का मुख्य सूत्रधार है। वामपंथी बंदरघुड़किय से निपटने में उनकी दक्षता देखते ही बनती है।
सिर पर मैला ढोने की प्रथा के उन्मूलन के लाख दावों के बावजूद हालत यह है कि देश के कई राज्यों में यह प्रथा मौजूद है।
राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग ने अपने अध्ययन में पश्चिम बंगाल के सफाई कर्मचारियों की हालत को देश में सबसे बदतर बताते हुए कहा है कि वहाँ स्थायी सफाई कर्मचारी मैला ढोने को मजबूर हैं और उन्हें न्यूनतम वेतन तक नहीं दिया जाता। आयोग की अध्यक्ष सुश्री संतोष चौधरी ने बताया कि इस संबंध में केंद्र द्वारा राज्यों को अरबों रुपए दिए जा चुके हैं, लेकिन समस्या समाप्त नहीं हो पाई है।
बंगाल बेहाल : पश्चिम बंगाल का जिक्र करते हुए सुश्री चौधरी ने कहा कि लाखों लोगों का मैला साफ करने वाले राज्य के सफाई कर्मचारियों के साथ पूरा न्याय नहीं किया जा रहा है। वहाँ अस्थायी नहीं बल्कि स्थायी सफाई कर्मचारी तक मैला ढो रहे हैं और उन्हें न्यूनतम वेतन तक नहीं दिया जाता।
भारत-अमेरिका परमाणु करार पर अपने रुख के बारे में समाजवादी पार्टी ने अपने पत्ते अभी तक छिपाए रखे हैं जबकि सरकार ने उम्मीद जताई है कि इस मुद्दे पर कायम गतिरोध का कोई स्वीकार्य समाधान ढूँढ़ लिया जाएगा। हालाँकि अभी यह साफ नहीं हुआ है कि सरकार करार पर आगे बढ़ेगी या नहीं।
लोकसभा में 59 सांसदों की ताकत वाले वाम मोर्चे का नेतृत्व कर रही माकपा ने करार का विरोध जारी रखते हुए प्रधानमंत्री पर आरोप लगाया है कि उन्होंने ही इस मुद्दे पर देश को राजनीतिक संकट में धकेल दिया है।
आईएईए में भारत केन्द्रित सुरक्षा समझौते पर आगे बढ़ने या नहीं बढ़ने का फैसला करने से पहले सरकार और कांग्रेस सभी विकल्पों को पूरी तरह से तौल लेना चाहते हैं क्योंकि वाम दल आगाह कर चुके हैं कि परमाणु करार पर सरकार अगर आगे बढ़ी तो वह समर्थन वापस ले लेंगे।
उधर समर्थन वापस लेने की स्थिति में लोकसभा में होने वाले शक्ति परीक्षण में अहम भूमिका निभा सकने की ताकत रखने वाली 39 सांसदों की सपा ने अभी तक अपने पत्ते छिपाए रखकर सरकार के भविष्य पर संशय को बनाए रखा है।
मुलायमसिंह ने लखनऊ में कहा कि तीन जुलाई को यूएनपीए की बैठक के बाद पार्टी इस बारे में अपने रुख को स्पष्ट करेगी। उन्होंने कहा कि परमाणु करार के मुद्दे पर कांग्रेस की ओर से अभी तक उनसे किसी ने संपर्क नहीं किया है।
हालाँकि कांग्रेस के प्रति नरम रुख अपनाने संबंधी सभी सवालों को जवाब में उन्होंने उत्तरप्रदेश की मायावती सरकार को निशाना बनाकर संकेत दिया कि उनकी पार्टी कांग्रेस के साथ रिश्तों में गरमाहट लाने के विचार के खिलाफ नहीं है।
कहा जाता है कि सपा इस प्रयास में पिछले दरवाजे से कांग्रेस के साथ वार्ता का सिलसिला चला भी रही है। खासकर मायावती की बसपा द्वारा संप्रग सरकार से समर्थन वापस ले लेने के फैसले के बाद दोनों दलों के बीच रिश्तों में गरमाहट लाने की सरगर्मियाँ बढ़ गई हैं।
सपा के अन्य वरिष्ठ नेता अमर सिंह इन दिनों विदेश यात्रा पर हैं। उम्मीद है कि कुछ दिन बाद उनकी स्वदेश वापसी पर इस संदर्भ में पार्टी की स्थिति में और स्पष्टता आएगी।
आयोग के अनुसार प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह ने अब 31 मार्च 2009 तक देश से इस प्रथा को पूरी तरह समाप्त करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। पहले इसके लिए 31 दिसंबर 2007 तक का समय निर्धारित था।
भारत-अमेरिका परमाणु करार पर ताजा संकट के लिए मार्क्सवादी नेता प्रकाश करात द्वारा सीधे प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह पर निशाना साधे जाने के बाद प्रमुख वाम दलों ने उन्हें या तो करार को आगे बढ़ाने का बालहठ या प्रधानमंत्री पद छोड़ देने की सलाह दी।
करार पर सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की मुखिया कांग्रेस तथा वाम दलों की आर-पार की मुद्रा के बीच राजनीतिक परिदृश्य पर चर्चा तथा अगले कदम पर विचार के लिए माकपा की प्रस्तावित पोलित ब्यूरो की बैठक से पहले माकपा नेताओं ने डॉ. सिंह पर गलत प्राथमिकताएँ तय करने का भी आरोप लगाया और कहा कि उन्हें करार पर अमल की जिद छोड़कर बेतहाशा मूल्य वृद्धि तथा रिकॉर्ड मुद्रास्फीति से निबटने पर ध्यान देना चाहिए।
लोकसभा में माकपा के उपनेता मोहम्मद सलीम तथा भाकपा के राष्ट्रीय सचिव शमीम फैजी ने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री को अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश से किए गए अपने वादे पर अमल को 'राष्ट्रहित' नहीं बताना चाहिए।
फैजी ने तो यहाँ तक कहा कि अगर उन्हें जापान में विकसित देशों के समूह जी-8 की शिखर बैठक मे इस बारे में बुश को अंतिम फैसला बताने की इतनी परवाह है तो उन्हें प्रधानमंत्री पद छोड़ देना चाहिए। उन्होंने कहा कि भारत का प्रधानमंत्री अमेरिका का सेवक नहीं हो सकता।
रेलमंत्री और राजद के प्रमुख लालू प्रसाद ने रविवार को कहा कि संप्रग सरकार नहीं गिरेगी और अमेरिका के साथ किया गया परमाणु करार अंतिम परिणति तक पहुँचेगा।
लालू प्रसाद का यह बयान ऐसे समय आया है, जब वामपंथी दल भारत के सुरक्षा मानक समझौते के लिए आईएईए के पास जाने की स्थिति में मनमोहनसिंह सरकार से समर्थन वापसी की धमकी दे रहे हैं। उन्होंने एक समाचार चैनल से कहा कि चुनाव समय पर होंगे। सरकार नहीं गिरेगी और परमाणु करार भी पारित होगा। समय से पहले चुनाव की संभावना से जुड़े एक सवाल के जवाब में प्रसाद ने कहा कि मैं फिर दोहराता हूँ कि चुनाव तय समय पर होंगे।
भारत-अमेरिकी परमाणु करार पर राजनीतिक संकट के लिए प्रधानमंत्री के जिम्मेदार होने के माकपा के आरोप को खारिज करते हुए विदेशमंत्री प्रणब मुखर्जी ने शनिवार को कहा कि प्रधानमंत्री जो कुछ भी कर रहे हैं, वह देश के व्यापक हित में है।
डेरा बाबा नानक की यात्रा के दौरान मुखर्जी ने कहा प्रधानमंत्री के लिए राष्ट्रीय हित सर्वोच्च है और वे संकट के कारण नहीं हैं, जो कुछ भी वे कर रहे हैं वह देश के व्यापक हित में है।
माकपा महासचिव प्रकाश करात ने इस सप्ताह के शुरू में आरोप लगाया था कि परमाणु करार और मूल्य वृद्धि जैसे अन्य मुद्दों पर संप्रग सरकार और वाम के बीच गतिरोध के लिए सिर्फ प्रधानमंत्री जिम्मेदार हैं।
मुखर्जी ने कहा कि परमाणु करार गतिरोध को लेकर संप्रग सरकार को कोई खतरा नहीं है और यह अपना कार्यकाल पूरा करेगी। उन्होंने कहा सरकार परमाणु करार पर हस्ताक्षर करने की जल्दी में नहीं है।
यह पूछे जाने पर कि सरकार से वाम दलों के समर्थन वापस लेने की स्थिति में क्या सपा गठबंधन में शामिल होगी, उन्होंने कहा हम निगाह रख रहे हैं क्योंकि वे अपनी पार्टी की तीन जुलाई को बैठक कर रहे हैं। उनके रुख को पहले देखते है।
परमाणु करार की पैरवी करते हुए मुखर्जी ने कहा कि बिजली आपूर्ति में चार गुना बढ़ोतरी जो 2030 तक लगभग आठ लाख मेगावाट होगी। बिजली उत्पादन का सर्वश्रेष्ठ और पर्यावरण मित्र तरीका परमाणु स्रोतों से है।
इसपर भी आप शक करेंगे कि संघ पिरवार के पुनरूत्थान में प्रणव बुद्धदेव की निर्णायक भूमिका है। जब भी समर्थन वापसी की नौबत आयी है, इस जोड़ी ने रस्सी पर चलने का करतब कर दिखाया है। संसदीय नौटंकी के सूत्रधार बंगा के एक और कुलीन ब्राहमण सोमनाथ चटर्जी हैं तो साहित्य अकादमी का अध्यक्ष ब्राह्णण देवता सुनील गंगोपाध्याय हैं।
एक नजीर पेश है। आडवाणी और बुद्ध बाबू की घनिष्ठता की। आडवाणी के गृहमंत्रित्व के दौरान दोनों की मुलाकातों के विवरणों पर मुलाहिजा फरमाया जाये। सदरसों में आतंकवादी त्तवों का जमावड़ा और बांग्लादेश मेसे घुसपैठ के मुद्दों पर दोनों की जुगलबंदी पर गौर किया जाये। फिलहाल गोरखालैंड आंदोलन पर दोनों का रवैया देखें। मालूम हो कि संसद में वामपंथियों के समर्थन का भरोसा पाने के बाद बुद्धबाबू की सिफारिश पर ही आडवाणी ने नागरिकता संशोधन विधेयक पास कराया और इस कानूनी अंजाम दिया जा रहा है प्रणव मुखर्जी की अगुवाई में।
राजनैतिक आरक्षण से कोई फायदा नहीं है। जगजीवन राम के उत्थान से मूलनिवासियों का क्या भला हुआ, इतिहास गवाह है। राम विलास पासवान और शरद यादव १९७७ के बाद हर रंग की सत्ता में सिपाहसलार हैं तो लालू और नीतीश का निराला खेल छुपा नहीं है। मायावती ब्राह्मणों के साथ सत्ता शेयर कर रहे हैं। इन दलित नेताओं को ब्राह्मणों के साथ मेलबंधन स्वीकार है , पर राष्ष्ट्रीयताओं के मुद्दे पर कोई जानकारी नहीं है। आदिवासियों के साथ संवाद तक नहीं है। मनुवाद का विरध करते हैं पर द्रविड़ आंदोलन और द्रविड़ सभ्यता से नाता नहीं है। मूलनिवासी हितों की बात करते हैं पर सेज का विरोध नहीं करते। अमेरिकी साम्राज्यवाद या फासीवादी संघपरिवार के खिलाफ इनकी कोई मोर्चाबंदी नहीं है। साम्राज्.ावाद विरोधी फासीवाद विरोधी मूलनिवासी आंदोलन से विश्वास घात करने वाले ब्राह्मण मार्क्सवादी आगे हैं तो दलित नेता कतई पीछे नहीं है।
नतीजतन धूमधड़ाके से भारत की ब्राह्मणवादी संसदीय सत्ता में संघ परिवार की वापसी क तैयारी हो रही है।
मीडिया यह भल गया कि अखबारों और मीडिया में विदेशी पूंजी के जरिए उनकी मेधा और स्वतंत्रता का अपररण करके चंपुओं और दलालों भड़ुवों को मीडिया कर्णधार बनाने की रस्म अदायगी भावी प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने ही की थी। अंग्रेजी पत्रकारिता, भाषा और साहित्य के आगे मातृभाषाओं की हत्या भी संघ परिवार ने नरसिम्हा राव मनमोहन जोड़ी आयातित नवउदारवाद के जरिए किया । जिसके तहत प्राकृतिक आजीविका, भारतीय कृषि, उत्पादन प्रणाली, मूलनिवासी संस्कृति, बोली , राट्रीयताओं का संहार हुआ। अंग्रेजी के बिना, कंप्यूटर ज्ञान के बिना नौकरियों अब असंभव है। भविष्यनिधि और पेंशन को मजाक बना दिया गया। स्थाई नौकरियां अब सपने में भी नहीं मिलती। वीआरएस शुरू हुआ।
इन्हीं संघियों के शासन काल में मणिसाना आयोग के जरिए हर संसकरण के लिए अलग कंपनियां और वेतनमान का निर्माण हुआ। एक ही अखबारसमूह के अंग्रेजी पत्रकारों को न्यूनतम वेतन १५ हजार ौर अधिकतम कुछ भी, तो हिंदीवालों को दशकों से प्रोमोशन नहीं, अधिकतम वेतन १५- १६ हजार। वरिष्ठता और योग्याता ताक पर रखकर अंधेर नगरी चौपट राजा टके सेर भाजी टके सेर खाजा का सिद्धंत लागू हुआ देसी भाषाई अखबारों में। जो मलाईदार हैं, वे बखूब समर्थन करें संघी पुनरूत्थान का , पर जो आम मीडियाकर्मी ह , उन्हें थोड़ा लाज शर्म है या नहीं या फिर कूकूर योनि मुबारक?
सिख विरोधी दंगा, बाबरी विध्वंस, गुजरात नरसंहार की नींव पर खड़े संघ परिवार की आत्मा तीव्र दलित मुसलमान घृणा में ही बसती है।
अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव में डेमोक्रेटिक दल की ओर से उम्मीदवार बनने जा रहे बराक ओबामा को मिल रहे भारतीय अमेरिकियों के समर्थन में इजाफा हो रहा है। अमेरिका के एक शीर्ष दैनिक ने इसके लिए भगवान हनुमान की भाग्यशाली मूर्ति के प्रति धन्यवाद प्रकट किया है।
यह समर्थन उस तस्वीर के प्रकाशित होने के बाद से बढ़ गया है जिसमें खुलासा हुआ था कि 46 वर्षीय सीनेटर ओबामा अपने साथ तांबे से निर्मित हनुमान की छोटी मूर्ति रखते हैं।
वाशिंगटन पोस्ट में प्रकाशित एक लेख के अनुसार जब बात अमेरिकी राजनेताओं की आती है तो बिल क्लिंटन भारतीयों के सबसे चहेते हैं। अखबार ने लिखा कि डेमोक्रेटिक दल के प्राथमिक चुनावों के दौरान यह प्रेम हिलेरी क्लिंटन के प्रति प्रकट किया गया। यह प्रेम विशेषकर भारतीय अमेरिकियों के बीच व्हाइट हाउस की अपनी दौड़ के लिए कोष जुटाने के दौरान देखा गया। अखबार के अनुसार अब भारतीयों ने ओबामा का समर्थन किया है। इसके लिए धन्यवाद भगवान हनुमान को दिया जाना चाहिए।
भारत-अमेरिका परमाणु करार को लेकर वामपंथी दलों के साथ जारी राजनीतिक गतिरोध के मद्देनजर समाजवादी पार्टी को रिझाने की कांग्रेस की कोशिश के सोमवार से गति पकड़ने की संभावना है। अमरसिंह कल अमेरिका से लौट रहे हैं और इसके साथ इस दिशा में प्रयास तेजे होने की संभावना जताई जा रही है।
प्रमुख वामपंथी पार्टियों ने प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के इस तर्क को खारिज कर दिया है कि अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी आईएईए तथा परमाणु ईंधन आपूर्तिकर्ता देशों के समूह एनएसजी से वार्ताएँ पूरी करने के बाद भी अमेरिका के साथ परमाणु करार पर अमल के लिए देश बाध्य नहीं होगा।
माकपा तथा भाकपा के शीर्ष नेताओं ने दोनों अंतरराष्ट्रीय संगठनों से वार्ता पूरी करने के बाद संसद में उसे रखने के डॉ. सिंह के वक्तव्य को पुराना राग बताते हुए पूछा कि संसद के दोनों सदनों में दो बार बहस हो चुकी है और संसद का बहुमत इस करार के खिलाफ अपनी भावना व्यक्त कर चुका है फिर वे करार पर अमल के बारे में संसद की राय का पालन करने की बात कहकर देश को गुमराह क्यों कर रहे हैं।
भाकपा के महासचिव एबी बर्धन तथा राष्ट्रीय सचिव शमीम फैजी ने कहा कि आईएईए से भारत केन्द्रित परमाणु सुरक्षा उपायों के मसौदे को बोर्ड ऑफ गवर्नर की अंतिम मंजूरी के बाद एनएसजी तथा अमेरिकी कांग्रेस में करार पर अनुमोदन हासिल करने में भारत की कोई भूमिका नहीं बचेगी। इसलिए आईएईए तथा एनएसजी में प्रक्रिया पूरी करने के बाद संसद की राय लेने की बात देश को गुमराह करने की कोशिश के अलावा कुछ नहीं है।
माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी ने भी बोर्ड ऑफ गवर्नर में अगले कदम के बाद करार के ऑटो पायलट भारत की भूमिका के बिना लागू होने के भाकपा नेताओं की बात दोहराते हुए कहा कि इसके बाद सरकार के लिए कदम वापस खींचना असंभव होगा।
इसलिए वामपंथी पार्टियाँ आईएईए में सुरक्षा उपायों को अंतिम मंजूरी के लिए नहीं जाने देने के अपने रुख पर कायम हैं। पार्टी महासचिव प्रकाश करात ने भी प्रधानमंत्री के ताजा बयान के बारे में सवाल पर पूछा कि इसमें नया क्या है।
उन्होंने पार्टी पोलित ब्यूरो की बैठक के बाद जारी वक्तव्य दुहराते हुए कहा कि सरकार ने आईएईए के बोर्ड ऑफ गवर्नर के समक्ष अगला कदम उठाया तो चारों वामपंथी पार्टियाँ उससे समर्थन वापस ले लेंगी।
अमरसिंह के कल दोपहर बाद अमेरिका से यहाँ पहुँचने के पश्चात कांग्रेस की ओर से सपा नेता मुलायमसिंह यादव के साथ संपर्क के लिए रास्ते खोले जाने की संभावना है।
परमाणु करार को अमल में लाने के लिए संप्रग सरकार की पहल के बाद अगर वामपंथी दल अपना समर्थन वापस ले लेते हैं तो ऐसे में लोकसभा में 39 सदस्यों वाली सपा सरकार बचाने में अहम भूमिका अदा कर सकती है।
बहरहाल मुलायम इसको लेकर संदेह बनाए हुए हैं। उन्होंने कहा कि यूएनपीए की तीन जुलाई की होने वाली बैठक के बाद पार्टी का रुख तय होगा।
एक सवाल के जवाब में मुलायम ने कहा कि हमने जब भी किसी चीज का विरोध किया तो इसका कारण होगा कि वह हमारे सिद्धांत के खिलाफ होगा या लोगों के हित में नहीं होगा। हमने हमेशा उन दलों का साथ दिया है, जो लोगों के लिए काम करते हैं।
भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु करार को लेकर संप्रग और माकपा के बीच पैदा हुआ गतिरोध रविवार को उस समय और गहरा गया, जब माकपा ने चेतावनी दी कि अगर केन्द्र की कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार इस नुकसानदेह समझौते के अमल पर आगे बढ़ती है तो वह अन्य वाम दलों के साथ सरकार से अपना समर्थन वापस ले लेगी।
पार्टी पोलित ब्यूरो की रविवार को हुई एक महत्वपूर्ण बैठक के बाद पार्टी महासचिव प्रकाश करात ने कहा कि प्रधानमंत्री तथा कांग्रेस नेतृत्व द्वारा भारत-अमेरिका परमाणु करार पर आगे बढ़ने की जिद के संदर्भ में पोलित ब्यूरो ने संप्रग में कांग्रेस के सहयोगी दलों से अपील की कि वे यह सुनिश्चित करें कि ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जाए, जिससे सांप्रदायिक शक्तियों को मदद मिले।
उन्होंने कहा कि पोलित ब्यूरो का मानना है कि सुरक्षा उपाय संबंधी समझौते को आईएईए के संचालक मंडल की मंजूरी के लिए ले जाना परमाणु करार पर वाम-संप्रग समिति की पिछले साल 16 नवंबर को हुई बैठक में बनी समझ का खुला उल्लंघन है।
करात ने पोलित ब्यूरो द्वारा जारी एक बयान पढ़ते हुए कहा कि यदि सरकार ऐसे नुकसानदेह समझौते के अमल पर आगे बढ़ती है, जिसे संसद में बहुमत का समर्थन हासिल नहीं है तो माकपा वामदलों के साथ संप्रग सरकार से समर्थन वापस ले लेगी।
महँगाई के मोर्चे पर सरकार नाकाम : पोलित ब्यूरो ने बढ़ती महँगाई पर भी सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए कहा यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब सरकार को महँगाई से निपटने के लिए हरसंभव कदम उठाने चाहिए प्रधानमंत्री तथा कांग्रेस नेतृत्व परमाणु करार को अमल में लाने संबंधी अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश से किए अपने वादे के प्रति ज्यादा चिंतित है।
महँगाई से निपटने में मनमोहन सरकार को बुरी तरह विफल करार देते हुए माकपा ने घोषणा की कि कांग्रेस नेतृत्व की सरकार के परमाणु करार पर राष्ट्रीय हितों की बलि चढ़ाने और महँगाई कम करने में उसकी विफलता का पर्दाफाश करने के लिए वह अन्य वाम दलों के साथ मिलकर पूरे देश में सघन संयुक्त अभियान चलाएगी।
करात ने बताया कि पोलित ब्यूरो ने तेजी से बढ़ रही मुद्रास्फीति पर जो बीते सप्ताह बढ़कर 11.42 तक पहुँच गई भारी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि सरकार मुद्रास्फीति से निपटने में बुरी तरह विफल रही है। रोजमर्रा की की चीजों के दाम बढ़ने से जनता की कमर टूट रही है और खाद्य वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों के कारण गरीबों का जीना मुहाल हो गया है।
पोलित ब्यूरो यह रेखांकित करना चाहता है कि कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार तत्काल ऐसे कदम उठाने से इनकार कर रही है, जिससे महँगाई कम हो और लोगों को राहत मिले।
परमाणु करार पर आगे बढ़ने के प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेतृत्व की जिद के कारण पैदा हुए गतिरोध के बीच हुई इस बैठक में पोलित ब्यूरो ने 123 करार का पुन: दृढ़तापूर्वक विरोध किया और कहा कि अमेरिका से सामरिक गठबंधन को मजबूत बनाने वाला यह करार हमारी ऊर्जा सुरक्षा की जरूरतों को पूरा नहीं करता बल्कि देश की स्वतंत्र विदेश नीति तथा सामरिक स्वायत्तता को कमजोर करता है।
पिछले कुछ चुनावों में भाजपा की बढ़ती ताकत के बीच पार्टी ने कहा पोलित ब्यूरो यह याद दिलाना चाहता है कि संप्रग का गठन सांप्रदायिक ताकतों को दूर रखने के लिए किया गया था। अब इस तरह का कदम उठाने और उसके फलस्वरूप सामने आने वाले नतीजों से यह मकसद कमजोर हो जाएगा।
सबसे बड़ा वामपंथी दल माकपा प्रारंभ से ही 123 करार का विरोध कर रहा है, लेकिन इस मसले पर उसके शीर्ष नेताओं की यह पहली बैठक थी और इसमें परमाणु समझौते पर आगे बढ़ने के खिलाफ आगाह करते हुए संप्रग सरकार को खुली चेतावनी दी गई। माकपा ने प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह और कांग्रेस नेतृत्व पर तीखे प्रहार किए।
उधर इस पूरी स्थिति को भाँपते हुए कांग्रेस ने वाम दलों के समर्थन वापस ले लेने की सूरत में सरकार बचाने के लिए कवायद शुरू कर दी है और इस प्रयास के तहत उसने समाजवादी पार्टी से भी संपर्क साधा है।
समाजवादी पार्टी ने कहा कि कांग्रेस के साथ उसकी कटुता पुरानी बात हो चुकी है और राजनीति में कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता।
समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव एक निजी टीवी चैनल को समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच कटु संबंधों के बारे में पूछे गए प्रश्न का जवाब दे रहे थे।
यादव ने कहा कि राजनीति में कोई शत्रु नहीं होता है। विचारधारा के आधार पर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन अब यह अध्याय समाप्त हो गया है।
उन्होंने यह भी कहा कि भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु करार पर सपा का यूएनपीए के साथ कोई मतभेद नहीं है, जिसके घटकों में अन्नाद्रमुक, आईएनएलडी, तेदेपा, एमडीएमके और एजीपी शामिल हैं।
उत्तरप्रदेश में लोकसभा चुनाव अभियान की शुरुआत में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाए जाने के अपने वायदे को नहीं भूले, लेकिन पार्टी की इस रैली में भाजपा अध्यक्ष राजनाथसिंह और पूर्व मुख्यमंत्री कल्याणसिंह की गैर हाजिरी चर्चा का विषय रही।
शहर में शुक्रवार दोपहर से हो रही बारिश के कारण फूलबाग मैदान में काफी कम भीड़ एकत्र हो पाई। उत्तरप्रदेश में होने वाली इस विजय संकल्प रैली में आडवाणी राम मंदिर की बात कर पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भरना नहीं भूले।
उन्होंने कहा कि हिन्दुस्तान की जनता चाहती है कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनें। जनता की यह इच्छा अवश्य पूरी होगी, लेकिन साथ ही पार्टी यह भी चाहती है कि देश एक ऐसे मंदिर के रूप में सामने आए जिसमें कोई भूखा न रहे, आम जनता को शुद्ध पानी मिले, सबको शिक्षा मिले तथा प्रत्येक गाँव का पूर्ण विकास हो।
आडवाणी के मंदिर का नाम लेते ही फूलबाग मैदान जय श्रीराम के नारों से गूँज उठा। रैली में मंदिर आंदोलन के मुखिया और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याणसिंह तथा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथसिंह की कमी लोगों को महसूस हुई। यह दोनों नेता उत्तरप्रदेश के ही हैं तथा राज्य में आयोजित इस पहली रैली में क्यों नहीं आए, इसका जवाब पार्टी के किसी नेता के पास नहीं था।
अमेरिका के कई सांसद और विशेषज्ञ भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौते के जबर्दस्त पैरोकार हैं, पर उनका मानना है कि दोनों मुल्कों के रिश्ते को इस करार को लेकर पैदा हुए गतिरोध से मुक्त रखने की जरूरत है।
इन जन प्रतिनिधियों और विशेषज्ञों का मानना है कि करार के अंजाम तक नहीं पहुंचने के बावजूद दोनों देशों के रिश्तों में खटास नहीं आएगी। अमेरिकी संसद की एक प्रभावशाली समिति के अध्यक्ष और भारतीय हितों के संरक्षक रहे मुखर सांसद गैरी एकरमैन कहते हैं, "भारत-अमेरिकी संबंधों के लिए एटमी करार ही सब कुछ नहीं है। मैं 123 समझौते का जोरदार समर्थन करता हूं, क्योंकि यह ऐतिहासिक समझौता है। इसके बावजूद मेरा मानना है कि करार टूट जाने से रिश्ते के दायरे को बढ़ाने के प्रयास बंद नहीं होंगे।"
उन्होंने याद दिलाया कि जुलाई, 2005 के जिस संयुक्त घोषणा पत्र में एटमी करार की चर्चा थी, उसमें रिश्ते को सुधारने की दिशा में कई और कदम उठाए जाने की भी बात कही गई थी। उसमें कई नए उपायों की चर्चा थी। एकरमैन ने '123 समझौते से आगे भारत-अमेरिका संबंधों का भविष्य' विषय पर आयोजित एक परिचर्चा में यह कहा।
वरिष्ठ रिपब्लिकन सांसद जो विल्सन ने उनकी राय से सहमति जताई। उन्होंने कहा,"जरूरत इसकी है कि दोनों देश इस गतिरोध के दायरे से बाहर निकले और ऊर्जा सुरक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा आदि जैसे मसले पर एक-दूसरे के ईमानदार भागीदार बनें।"
ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूट में दक्षिण एशिया मामलों के विशेषज्ञ स्टीफन पीक़ कोहेन का मानना है कि भारत के वामदलों के अड़ियल रवैये के कारण एटमी करार के अंजाम तक पहुंचने की गुंजाइश क्षीण है। वह मानते हैं कि दूसरे कई क्षेत्रों में सहयोग का दायरा बढ़ाने के प्रयास जारी रहने चाहिए।
प्रधानमंत्री के विशेष दूत श्री श्याम सरन का 10 जनवरी, 2007 को इंडिया हैबिटैट सेंटर में संपर्क कार्यक्रम था जिसमें उन्होंने ‘असैनिक परमाणु सहयोग पर भारत-अमेरिका समझ-बूझ - आगे’ पर अपने विचार व्यक्त किए ।
विशेष दूत ने ऐसे अनेक मुद्दे स्पष्ट किए जिन पर, दोनों देशों में असैनिक परमाणु ऊर्जा सहयोग के लिए अमेरिकी कांग्रेस द्वारा हाल में हाइड एक्ट पारित करने पर चिंता जतायी गई है ।
उन्होंने बताया कि अगले चरणों में निम्नलिखित शामिल होंगे :-
।) असैनिक परमाणु ऊर्जा सहयोग संबंधी द्विपक्षीय भारत-अमेरिका सहयोग समझौता जिसे ‘123 समझौते’ के रूप में जाना जाता है, पर वार्ता करना और उसे संपन्न करना;
।।) भारत द्वारा परमाणु अप्रसार संधि स्वीकार न किए जाने और अपनी सभी परमाणु सुविधाओं पर पूर्ण रक्षोपाय न होने के बावजूद, भारत के साथ असैनिक परमाणु ऊर्जा सहयोग के लिए परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एन एस जी) राष्ट्रों को अनुमति देने के लिए एन एस जी के दिशानिर्देशों में संशोधन; और
।।।) भारत की घोषित असैनिक परमाणु ऊर्जा सुविधाओं को शामिल करते हुए अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के साथ भारत विशिष्ट रक्षोपाय समझौते पर वार्ता ।
विशेष दूत ने बताया कि हाइड एक्ट का महत्व इस तथ्य में है कि यह, अमेरिकी प्रशासन को भारत के साथ असैनिक परमाणु सहयोग करने में अमेरिकी परमाणु ऊर्जा अधिनियम, 1954 के निम्नलिखित मुख्य प्रावधानों के अनुप्रयोग से स्थायी छूट प्रदान करता है :-
।) यह अपेक्षा कि भागीदार देश ने परमाणु विस्फोट न किया हो;
।।) यह अपेक्षा कि उस देश की अपनी सभी परमाणु सुविधाएं रक्षोपायों अर्थात् पूर्ण रक्षोपायों के अंतर्गत हों; और
।।।) यह अपेक्षा कि उस देश का सक्रिय परमाणु हथियार कार्यक्रम न हो जिसमें परमाणु हथियारों का विकास और उत्पादन शामिल है ।
उन्होंने कहा कि ये छूट, स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करती हैं कि भारत का सामरिक कार्यक्रम है और उसका वर्तमान परमाणु हथियार कार्यक्रम किसी प्रतिबंध के अधीन नहीं होगा । इसलिए ये छूट, परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र की सभी महत्वपूर्ण विशेषताएं स्वीकार करती हैं ।
विशेष दूत ने स्पष्ट किया कि भारत-अमेरिका परमाणु समझौता तथा बाद में परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के दिशानिर्देशों में समायोजन, भारत को अपनी बढ़ती ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायता करेगा तथा प्रौद्योगिकी प्रतिबंध व्यवस्था समाप्त होगी जो पिछले तीन दशकों से भारत पर लागू है ।
बाद में प्रश्नोत्तर काल में विशेष दूत से पूछा गया क्या कुछ ऐसी अपेक्षाएं हैं जिनसे भारत के राष्ट्रीय हितों को आघात पहुंचे, और क्या भारत फिर भी इस समझौते पर आगे बढ़ेगा विशेष दूत ने बताया कि यदि किसी चीज से भारत के राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा होती है, हम ऐसे समझौते पर आगे नहीं बढ़ेंगे । तथापि, पिछले अनेक महीनों में भारत और अमेरिका एक बहुत जटिल और मुश्किल विषय पर वार्ता करते रहे हैं और वे समस्याओं का समाधान कर पाए हैं । उन्होंने रचनात्मक और समस्याओं के समाधान की भावना प्रदर्शित की है । इस भावना को देखते हुए विशेष दूत ने कहा कि ऐसा कोई कारण नहीं है कि शेष मसलों का समाधान न किया जा सके और सफलतापूर्वक समझौता न किया जा सके । उन्होंने कहा कि इस विषय में वह आशावादी हैं । इस संबंध में कि कौन से विशिष्ट मसलों का समाधान किया जाना है, उन्होंने कहा कि भारत, अमेरिकी मूल के प्रयुक्त ईंधन को पुन: उपयोगी बनाने का अधिकार चाहता है ताकि हम तारापुर जैसी स्थिति में फिर न फंस जाएं जब हमारे पास प्रयुक्त ईंधन का भारी भंडार जमा हो गया था । उन्होंने कहा कि अमेरिका ने स्विटजरलैंड, जापान और यूरोटोम को ऐसा अधिकार प्रदान किया है और भारत भी ऐसा ही चाहता है ।
भविष्य में भारत के परमाणु परीक्षण करने के परिणाम का मुद्दा भी उठाया गया । विशेष दूत ने बताया कि अमेरिकी कांग्रेस द्वारा दी गई छूट, भारत द्वारा अतीत में किए गए परीक्षणों से संबंधित है किंतु भविष्य में ऐसे परीक्षण शामिल नहीं हैं । यह शुरू से ही स्पष्ट रहा है कि अमेरिका अथवा परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के देशों से ऐसी छूट की उम्मीद नहीं है क्योंकि इसके अनेक सदस्यों ने व्यापक परीक्षण प्रतिबंध संधि पर हस्ताक्षर कर दिए हैं और उसका अनुसमर्थन भी कर दिया है ।
इस संदर्भ में उन्होंने बताया कि भारत ने परमाणु परीक्षण पर स्वयं एकतरफा रोक लगाई है किंतु वह इसे कानूनी आश्वासन में परिवर्तित करने के लिए तैयार नहीं है । यदि भविष्य में किसी भी समय भारत, राष्ट्रीय हितों के वशीभूत परीक्षण करने का निर्णय लेता है तो यह किसी कानूनी आश्वासन का उल्लंघन नहीं होगा किंतु हमें इस तथ्य की जानकारी होनी चाहिए कि इसके परिणाम, सहयोग की समाप्ति अथवा अन्य संभावित प्रतिबंधों के संदर्भ में होंगे ।
ईंधन आपूर्ति आश्वासन से संबंधित एक अन्य प्रश्न के उत्तर में विशेष दूत ने कहा कि अमेरिकी प्रशासन ने पुष्टि की है कि इस कानून का कोई भी प्रावधान, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका को ईंधन आपूर्ति आश्वासन सहित 18 जुलाई के संयुक्त वक्तव्य और 2 मार्च की पृथक्करण योजना में भारत को दिए गए वादे को पूरा करने से नहीं रोकेगा ।
उन्होंने कहा कि हमें यह आश्वासन स्वीकार कर लेना चाहिए ।
नई दिल्ली
11 जनवरी, 2007
23 देशों के 130 से भी अधिक विशेषज्ञों और गैरसरकारी संगठनों ने भारत-अमेरिका परमाणु करार की आलोचना करते हुए कहा है कि इससे भारत को मौजूदा वैश्विक परमाणु व्यापार मानकों में छूट मिलेगी और परमाणु अप्रसार व्यवस्था तथा परमाणु निरस्त्रीकरण के प्रयासों को धक्का लगेगा।
इन विशेषज्ञों और गैरसरकारी संगठनों ने लगभग 50 देशों की सरकारों को इस सप्ताह भेजे एक पत्र में भारत-अमेरिका परमाणु करार को अस्तित्व में आने से रोकने के लिए सक्रिय भूमिका निभाने का आह्वान किया गया है। उनकी दलील है कि इस करार के क्रियान्वयन से परमाणु सुरक्षा व्यवस्था और कमजोर होगी तथा परमाणु शस्त्र बनाने में काम आने वाली तकनीकी के प्रसार को रोकने की कोशिशों को धक्का लगेगा। साथ ही इससे भारत के परमाणु हथियारों के भंडार में इजाफा होगा।
इस पत्र को एक अंतरराष्ट्रीय अपील बताते हुए सरकारों से भारत के साथ परमाणु व्यापार पर अतिरिक्त शर्तें और पाबंदियाँ थोपने का आग्रह किया गया है। इसमें भारत को मौजूदा परमाणु सुरक्षा उपायों के अलावा कोई विशेष छूट देने का पुरजोर विरोध करने की अपेक्षा सरकारों से की गई है।
पत्र पर संयुक्त राष्ट्र के निरस्त्रीकरण मामलों के पूर्व अवर सचिव और वर्ष 1995 में हुए परमाणु निरस्त्रीकरण संधि समीक्षा और विस्तार सम्मेलन के अध्यक्ष जयंत धनपाल,हिरोशिमा और नागासाकी के मेयरों, टोक्यो आधारित सिटीजंस न्यूक्लियर इनर्फोमेशन सेंटर और वाशिंगटन आधारित आर्म्स कंट्रोल एसोसिएशन सहित कई गैरसरकारी संगठनों और विशेषज्ञों के हस्ताक्षर हैं।
अपील में कहा गया है कि परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों के समूह के सदस्यों को किसी भी हालत में भारत को प्लूटोनियम प्रसंस्करण, यूरेनियम संवर्द्धन और भारी जल उत्पादन तकनीक हस्तांतरित नहीं करनी चाहिए जिसका इस्तेमाल परमाणु शस्त्र बनाने में हो सकता है।
उल्लेखनीय है कि अगले कुछ दिनों में 35 सदस्यीय अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी आईएईए और 45 सदस्यीय एनएसजी भारत-अमेरिका परमाणु करार के मुद्दे पर चर्चा करने वाले हैं।
पिछले साल भारत की अर्थव्यवस्था 9 प्रतिशत की दर से बढ़ी, जिसने इसे चीन के बाद विश्व में सबस तेजी से बढ़ने वाली महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्था बना दिया । परन्तु इस समाचार का दूसरा पहलू भी है । इस बात की चिंता सता रही है कि कच्चे तेल की अधिक कीमत और तेजी से बढ़ती मुद्रास्फीति विकास की रफ्तार को धीमी कर देगी । नई दिल्ली से अंजना पसरीचा की रिपोर्ट-
गत् वित्तीय वर्ष में भारत ने आर्थिक विकास का लक्ष्य अपेक्षित 9 प्रतिशत से अधिक रखा है । यह लगातार तीसरा वर्ष है, जब भारत की अर्थव्यवस्था में इस गति से वृद्धि हुई है ।
इस आंकड़े से सरकार का उत्साह से बढ़ना चाहिए था, लेकिन इन दो चुनौतियों का सामना करते हुए भारतीय अधिकारी वृद्धि दर का जश्न नहीं मना रहे । ये दो चुनौतियां हैं- कच्चे तेल की वैश्विक कीमतों में वृद्धि और बढ़ती हुई मुद्रास्फीति ।
कच्चे तेल की कीमतों में रिकॉर्ड वृद्धि भारत को गंभीर तरीके से नुकसान पहुंचा रही है, क्योंकि यह अपनी जरूरत का 70 प्रतिशत कच्चा तेल आयात करता है ।
सरकार पेट्रोलियम उत्पादों पर भारी सब्सिडी देती है । लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियां अब घाटे की वजह से खस्ताहाल हो रही हैं और उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर तेल की कीमतों में इजाफा नहीं किया गया तो उन्हें मुद्रा संकट का सामना करना पड़ सकता है ।
सरकार ईंधन तेलों की कीमतों में जल्द ही वृद्धि करने वाली है । लेकिन इस बात की चिंता है कि इस कदम से मुद्रास्फिति बढ़ेगी, जो पहले से ही बहुच ऊंची है ।
पिछले साल भारत की मुद्रास्फिति 8 प्रतिशत को पार कर गई, जो पिछले चार सालों में सबसे उच्चतम स्तर है ।
वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने कहा कि सरकार कीमतों को स्थिर करने की कोशिश कर रही है । लेकिन उन्होंने कहा कि इसका कोई आसान हल या अविलंब समाधान नहीं है ।
उन्होंने कहा- 8.1 प्रतिशत मुद्रास्फिति की दर से कोई भी खुश नहीं है । 8.1 प्रतिशत मुद्रास्फीति की दर चिंताजनक है । लेकिन हमें भरोसा है कि इस स्थिति पर हम काबू पाएंगे और कुछ समय में मुद्रास्फीति पर नियंत्रण कर लिया जाएगा । निश्चय ही यह कच्चे तेल की कीमतों और उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों पर निर्भर है ।
इसके बावजूद वित्तमंत्री ने सकारात्मक रुख अपनाते हुए कहा कि मौजूदा वित्त वर्ष में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 8.5 प्रतिशत बरकरार रहेगी ।
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि यह काम इतना आसान नहीं होने वाला है । पहले से ही इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर कुछ धीमी हो रही है । उत्पादन क्षेत्रों का विकास आंशिक रूप से इस वर्ष के शुरू में ही धीमा हो गया है, इसका एक कारण यह भी बताया जा रहा है कि उच्च कीमतों से आहत उपभोक्ता मांगों में कमी आई है ।
वास्तव में आने वाला वर्ष भारत के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है । अर्थशास्त्रियों का कहना है कि सरकार अर्थव्यवस्था के विकास दर ऊंचा रखने और मुद्रास्फिति को नियंत्रण में रखने की हतोत्साह करने वाली चुनौती का सामना कर रही है, जिससे देश में लाखों गरीब लोग आहत हो रहे हैं ।
आतंक के खिलाफ बाउचर पहुँचे पाक
इस्लामाबाद- द्विपक्षीय सबंधों को प्रगाढ़ बनाने तथा आतंकवाद के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय मुहिम में सहयोग की उम्मीद के साथ अमेरिकी उप-विदेश मंत्री रिचर्ड बाउचर सोमवार को पाकिस्तान पहुँचे।
बाउचर की यह यात्रा पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत के खैबर क्षेत्र में आतंकवादियों के खिलाफ जारी व्यापक सैन्य मुहिम के बीच हो रही है।
पाकिस्तान की नई सरकार के आतंकवादियों के साथ शांति वार्ता की नीति की आलोचक रही अमेरिकी सरकार ने खैबर क्षेत्र से विद्रोहियों को खदेड़ने की सरकार की मौजूदा कार्रवाई का स्वागत किया।
बाउचर ने यहाँ पहुँचते ही पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ राजा गिलानी से मुलाकात कर राजनयिक, आर्थिक और रक्षा क्षेत्र में दोनों देशों के बीच सबंध और मजबूत बनाने पर व्यापक चर्चा की।
उन्होंने इस मौके पर कहा कि हम दोनों देशों की जनताओं को परस्पर करीब लाने के लिए सांस्कृतिक तथा शैक्षिक, विज्ञान एंव प्रौद्योगिकी, ऊर्जा, निवेश तथा मुख्य रूप से व्यापार के क्षेत्र पर केन्द्रित व्यापक और दीर्घकालीन सबंधों को बढ़ावा देने के इच्छुक हैं।
गिलानी ने कहा कि देश में हाल में संपन्न चुनावों के बाद लोकतंत्र की बहाली अमेरिका और पाकिस्तान के सबंधों को और मजबूती प्रदान करेगी।
आउटसोर्सिंग पर ओबामा का कड़ा रुख
वॉशिंगटन- अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए डेमोक्रेटिक उम्मीदवार बराक ओबामा ने आउटसोर्सिंग के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया है। उन्होंने कहा है कि हमारे सामने दो विकल्प हैं। इनमें से हमें एक को चुनना है या तो हम जॉब आउटसोर्स नहीं करने वाली कंपिनयों को टैक्स का लाभ दें या फिर आउटसोर्सिंग करने वाली कंपनियों को इस लाभ से वंचित रखा जाए।
न्यू हैंपशर में एक कार्यक्रम में ओबामा ने कहा कि विदेशों में नौकरियों को आउटसोर्स करने वाली अमेरिकी कंपनियों को हम टैक्स का लाभ नहीं देंगे, अथवा न्यू हैंपशर में निवेश करने वाली कंपनियों को इसका लाभ दे सकते हैं। इस कार्यक्रम में सीनेटर हिलेरी क्लिंटन भी मौजूद थीं।
ओबामा ने कहा कि हम एक कानून तैयार कर सकते हैं जो बड़ी कंपनियों और धन कुबेरों को बड़ा मुनाफा करा सकती है। साथ ही इस कानून के तहत यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि 50 हजार डॉलर की सालाना आमदनी वाले सीनियर सिटीजन के लिए इनकम टैक्स की व्यवस्था खत्म हो, लोगों को उनकी कठोर मेहनत का उचित फल मिले, अमेरिका में 95 प्रतिशत परिवारों को टैक्स में एक हजार डॉलर की छूट मिले।
उनका कहना था कि साथ ही हम मिनिमम सैलरी में बढ़ोतरी कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि यह उस बदलाव का एजेंडा है जिसमें हम विश्वास कर सकते हैं। यह एक विकल्प है जिसे हम निर्वाचन के दौरान चुन सकते हैं।
ओबामा ने कहा कि ब्लैक, वाइट, हिस्पैनिक, एशियन, युवा, बुजुर्ग, धनी, गरीब- यह बातें ज्यादा अहमियत नहीं रखतीं हैं। देश का समग्र विकास और राष्ट्रहित सर्वोपरि है। मुझे पूरा यकीन है कि हम देश को नई ऊँचाइयों तक ले जाएँगे।
कांग्रेस चुनावी रणनीति में जुटी
सोनिया गाँधी के पार्टी पदाधिकारियों को निर्देश
नई दिल्ली (भाषा), शनिवार, 28 जून 2008( 19:46 IST )
भारत-अमेरिका परमाणु करार के मुद्दे पर जल्द चुनाव होने की संभावनाओं के बीच कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने वरिष्ठ नेताओं से विधानसभा और लोकसभा चुनावों से पहले समयबद्ध कार्यक्रम और देश भर में पार्टी संगठन में नया जोश भरने के लिये रणनीति बनाने को कहा है।
पार्टी महासचिवों और प्रदेश प्रभारियों की शनिवार को हुई बैठक में सोनिया ने नेताओं को पाँच प्रदेशों के विधानसभा चुनावों और अगले लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी को हर स्तर पर हर जगह संगठित करने की जिम्मेदारी सौंपी।
कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि यह बैठक चुनाव की तैयारियों के लिए थी। इसमें लोकसभा चुनावों को लेकर भी चर्चा हुई। पार्टी को चुनावों के लिए तैयार होना है और सभी से कार्यक्रमों को निर्धारित करने और अगली बैठक में इसका विवरण सौंपने को कहा गया है।
दिलचस्प रूप से पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारियों के साथ चली एक घंटे की बैठक में उस भारत-अमेरिका परमाणु करार के मुद्दे को नहीं छुआ गया, जिसने सरकार और वाम दलों के बीच दूरी बढ़ा दी है। एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि इस मुद्दे पर पहले ही कार्यकारिणी की दो बैठकों में चर्चा की जा चुकी है। लोकसभा चुनाव अगले वर्ष अप्रैल में होना हैं। मौजूदा वर्ष में नवंबर में ही राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में भी विधानसभा चुनाव होने हैं।
वाम दलों ने सरकार को चेतावनी दी है कि अगर वह परमाणु करार पर आगे बढ़ती है तो उससे समर्थन वापस ले लिया जाएगा। कांग्रेस भी समाजवादी पार्टी और अन्य छोटे दलों को कथित तौर पर मनाने लगी लगी है ताकि लोकसभा में शक्ति परीक्षण की स्थिति में जरूरी संख्या जुटाई जा सके।
सप्रग के घटक परमाणु करार के समर्थन में हैं, लेकिन वह इतनी ही मजूबती के साथ जल्दी चुनाव कराने के विचार का विरोध भी कर रहे हैं। कांग्रेस के एक वर्ग का भी यह मानना है कि परमाणु करार चुनाव लड़ने का मुद्दा नहीं है।
कांग्रेस के मीडिया प्रकोष्ठ के अध्यक्ष वीरप्पा मोइली ने कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने पार्टी को हर स्तर पर संगठित करने के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं को समय सारिणी दी है।
यह पूछने पर कि क्या परमाणु करार के मुद्दे पर चुनाव को लेकर नेताओं ने चर्चा की है तो कांग्रेस महासचिव द्विवेदी ने कहा कि इस मुद्दे पर कोई चर्चा नहीं हुई है। उनसे जब पूछा गया कि क्या पार्टी यह महसूस करती है कि वाम दलों की ओर से कड़ी आलोचना झेल रहे प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह देश को सही दिशा में ले जा रहे हैं तो द्विवेदी ने कहा कि प्रधानमंत्री उसी तरह से सरकार चला रहे हैं जैसी कांग्रेस पार्टी को उनसे उम्मीद थी।
द्विवेदी ने इस बात से इनकार किया कि पार्टी जल्दी लोकसभा चुनाव कराने की तैयारी कर रही है। उन्होंने कहा संप्रग ने सत्ता में अपने चार वर्ष पूरे कर लिए हैं। आखिरी वर्ष में तो सभी दल चुनाव की तैयारी करते हैं।
मोइली का कहना था कि हमने समय सारिणी तय की है ताकि हर स्तर पर पार्टी की क्षमता बढ़ाई जा सके और पार्टी के साथ ही उसके कार्यकर्ता भी मतदाताओं से जुड़ने के लिए सक्रिय हो सकें। कांग्रेस की इस बैठक में भाग लेने वाले अधिकतर नेता जुलाई के अंत में चिंतन शिविर कराने के पक्ष में थे।
मोइली ने कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष ने वरिष्ठ नेताओं को दिए गए अनुसूचित जनजाति बहुल जिलों में रैली आयोजित कराने के कार्य की भी समीक्षा की। संप्रग सरकार द्वारा अनुसूचित जनजाति के नागरिकों के लिए पारित किए गए विधेयक के फायदों के बारे में उस वर्ग विशेष को अवगत कराने के लिए ये सभाएँ होंगी।
मोइली ने कहा कि गाँधी ने पार्टी कार्यकर्ताओं से जिला और प्रदेश स्तर पर सभाएँ आयोजित करने को कहा है जिससे लोगों के बीच कृषि ऋण माफी योजना के बारे में जागरूकता फैलाई जा सके और किसानों से इस योजना का लाभ उठाने का अनुरोध किया जा सके।
भारत में 9/11 जैसे हमले की योजना थी
नई दिल्ली (भाषा), रविवार, 29 जून 2008( 21:43 IST )
अमेरिका में 11 सितंबर के आतंकवादी विमान हमले के एक दशक पहले भारत पर भी आतंकवादी विमान हमले की योजना बनाई गई थी और इसके लिए पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने खालिस्तानी संगठन बब्बर खालसा से संपर्क भी किया था।
तब खालिस्तानी उग्रवादियों ने बंबई हाई के तेल प्लेटफार्म को निशाना बनाने की साजिश रचने पर विचार किया था। खुफिया संगठन रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के पूर्व अतिरिक्त सचिव बी. रमण ने रहस्योद्घाटन किया कि बब्बर खालसा के एक उग्रवादी ने स्वीकार किया था कि आईएसआई ने उसे उड़ान सिखाने वाले फ्लाइंग क्लब में शामिल होने और अपने विमान को बांबे हाई के तेल प्लेटफार्म से टकरा देने को कहा था।
रमण ने अपनी नई किताब 'टेररिज्म : यस्टरडे, टुडे एंड टुमारो' में कहा कि 9/11 हमलों के बारे में नई बात यह है कि इसे नाटकीय अंदाज में अंजाम दिया गया, जिसमें अमेरिकी सत्ता के नाजुक बिंदुओं पर नपे-तुले हमले संचालित करने के लिए इस तरीके (विमान से हमले का तरीका) को कार्यान्वित किया गया।
कश्मीर से हिन्दू विरासत मिटाने की साजिश-संघ
नई दिल्ली (एजेंसियाँ), रविवार, 29 जून 2008( 17:00 IST )
श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को आवंटित जमीन मामले में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आरोप लगाया है कि जम्मू-कश्मीर के नेता आतंकवादियों से मिलकर कश्मीर की हिन्दू विरासत को मिटाने की साजिश कर रहे हैं।
जमीन मामले से उपजे विवाद पर संघ ने अपने मुखपत्र 'आर्गेनाइजर'में कहा है कि भूमि आवंटन तो एक बहाना है, आतंकवादियों और उनके राजनीतिक समर्थकों की असली मंशा अमरनाथ यात्रा को रोकना तथा कश्मीर घाटी की हिन्दू धरोहर को मटियामेट करना है।
कांग्रेस, कम्युनिस्ट, पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस इस यात्रा का राजनीतिकरण कर रहे हैं। ये दल राज्य में आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर मुद्दे को साम्प्रदायिक रूप दे रहे हैं। संघ के अनुसार देश में सभी धर्मों के तीर्थयात्रियों को सम्मान और सुविधा दी जाती रही है। अमरनाथ यात्रा का विरोध पूरे देश के हिन्दू समुदाय की भावनाओं पर आघात करने वाला है, जिसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे।
विरोध देशहित में नहीं : भाजश अध्यक्ष सुश्री उमा भारती ने जमीन मामले में मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों द्वारा विरोध किए जाने की निंदा करते हुए चेतावनी दी है कि उनकी पार्टी इस मुद्दे पर राष्ट्रव्यापी आंदोलन करेगी।
उन्होंने कहा कि देशभर में जगह-जगह हज हाउस व हज टर्मिनलों के लिए जमीन दी गई है, करोड़ों रुपए की सबसिडी दी जाती है, फिर इस जमीन आवंटन का विरोध क्यों। उन्होंने कहा कि यदि इस विरोध से देश में साम्प्रदायिक माहौल बिगड़ा तो उसके लिए केंद्र व जम्मू-कश्मीर की सरकारें तथा मुस्लिम समुदाय जिम्मेदार होगा। उधर जम्मू में भगवा कार्यकर्ताओं ने जमीन आवंटन के समर्थन में रैली निकाली।
जिन्ना बनना चाहती हैं सोनिया-संघ
नई दिल्ली (भाषा), रविवार, 29 जून 2008( 13:16 IST )
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने चेतावनी दी है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी अगर 2009 के चुनावों में भी विजयी होकर सत्ता में बनी रहीं तो देश महाविनाश की ओर जाएगा, क्योंकि वे इंदिरा गाँधी नहीं बल्कि मोहम्मद अली जिन्ना का अनुसरण कर रही हैं।
संघ के मुखपत्र 'आर्गेनाइजर' में यह चेतावनी देते हुए कहा गया है सोनिया ने 1997 में जबसे कांग्रेस अध्यक्ष पद संभाला है, उन्होंने इंदिरा गाँधी नहीं, बल्कि मोहम्मद अली जिन्ना जैसा बनने का प्रयास किया है।
इसमें भाजपा से कहा गया है कि वह आगामी लोकसभा चुनाव में हर हाल में अपनी जीत सुनिश्चित करे, अन्यथा 2009 में भी सोनिया गाँधी अगर सत्ता में आईं तो देश वैसे ही विनाश का सामना करेगा, जैसा 1960 के दशक में चीन ने सांस्कृतिक क्रांति के समय किया था।
आलेख में भगवा पार्टी से कहा गया है कि ऐसे में सोनिया को सत्ता से बाहर करने के लिए देश में राष्ट्रवादी राजनीतिक खेमे का सबसे बड़ा धड़ा होने के नाते भाजपा की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह इस बार चुनाव में सफलता अर्जित करना सुनिश्चित करें।
संघ के मुखपत्र में कहा गया है सोनिया गाँधी ने मुसलमानों को हिन्दू समुदाय के अपने भाई-बहनों से पृथक करने की षड्यंत्रकारी योजना अपनाई हुई है, जबकि केवल हिन्दू पूजा स्थल ही ऐसे हैं, जो हिन्दू विरोधी प्रशासन द्वारा नियंत्रित हैं न कि चर्च गुरुद्वारे या मस्जिदें। वे मुस्लिम समुदाय में असुरक्षा का भाव भरने में जुटी हैं।
इसमें भाजपा से चुनावों में जीत सुनिश्चित करने को प्रेरित करते हुए कहा गया 2009 के चुनावों में और कुछ नहीं बल्कि सिर्फ भारत का भविष्य दाँव पर लगा हुआ है। संप्रग शासन में अलगाववाद के जिस उन्माद को हवा दी गई है उसे समाप्त करने की आवश्यकता है।
आलेख में सोनिया पर आरोप लगाया गया है कि वे मोहम्मद अली जिन्ना का अनुसरण करते हुए मुसलमानों और ईसाइयों को बहुसंख्य हिन्दू जनसंख्या से दूर करने का अथक प्रयास कर रही हैं। वे मुसलमानों में उत्पीड़न का शिकार होने का भाव भरने और हक पाने की प्यास जगाने के काम में लगी हैं।
इसमें कहा गया कि यह एकदम वही मानसिकता है, जिसे जिन्ना ने 1930 के दशक में मुसलमानों के मन में भरा था। मुसलमानों में यह भाव भरने के कारण ही बाद में देश का विभाजन हुआ।
सोनिया और मनमोहन को गिद्ध बताया!
कांग्रेस ने की भाजपा की कड़ी आलोचना
नई दिल्ली (वार्ता), सोमवार, 30 जून 2008( 20:20 IST )
कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश में प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह तथा पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी को गिद्ध के रूप दिखाए जाने वाले पोस्टर और बैनर लगाने के लिए भाजपा की कड़ी निंदा करते हुए सोमवार को कहा कि असहिष्णु तथा हिंसक मानसिकता को दर्शाता है।
पार्टी ने भाजपा से इन पोस्टरों, बैनरों को वापस लेने की अपील की है। कांग्रेस प्रवक्ता जयंती नटराजन ने कहा कि भाजपा ने उत्तरप्रदेश में कुछ स्थानों पर ऐसे पोस्टर तथा बैनर लगाए हैं, जिनमें डॉ. सिंह तथा श्रीमती गाँधी को गिद्ध के रूप में और भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को राम के रूप में उन्हें मारने के लिए तीर चलाते हुए दिखाया गया है। उन्होंने कहा कि ऐसे पोस्टर-बैनर लगाना इस बात को दर्शाता है कि भाजपा कितने नीचे के स्तर पर उतर गई है।
प्रवक्ता ने कहा कि लोकतंत्र में विभिन्न दलों में विचारिक मतभेद होते हैं, लेकिन इस स्तर पर उतरना निंदनीय है। ये भाजपा की असहिष्णुता और हिंसक मानसिकता के परिचायक हैं। उन्होंने भाजपा से इन पोस्टरों और बैनरों को वापस लेने की अपील की।
आडवाणी अछूत नहीं, सोनिया देश की बहू-रामदेव
भोपाल (वार्ता), सोमवार, 30 जून 2008( 20:45 IST )
योग गुरु बाबा रामदेव ने कहा कि लालकृष्ण आडवाणी उनके लिए अछूत नहीं है और सोनिया गाँधी को वे देश की बहू मानते हैं।
भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की पुस्तक 'माय कंट्री माय लाइफ' के हिन्दी रूपांतर 'मेरा देश मेरा जीवन' के विमोचन समारोह में भाग लेने आए बाबा ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के निवास पर बातचीत के दौरान ये विचार व्यक्त किए।
राजनीति से कोसों दूरी बनाए रखने वाले बाबा रामदेव से यह पूछे जाने पर कि आडवाणी के समारोह में शामिल होने का क्या तात्पर्य है। उन्होंने कहा कि मैं सर्वदलीय भी हूँ और निदर्लीय भी। उन्होंने कहा कि उनके लिए आडवाणी अछूत नहीं हैं। बाबा ने कहा कि वे तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी को देश की बहू मानते हैं।
पहली बार भाजपा के किसी नेता के कार्यक्रम में शिरकत करने आए बाबा रामदेव ने कहा कि राजनेताओं में पराक्रमशीलता, पारदर्शिता, दूरदर्शिता और विनयशीलता होनी चाहिए। उनका मानना है कि देश की आजादी और लोकतंत्र को बचाया जाना चाहिए और यह तभी संभव है जब अच्छे लोग राजनीति में आएँ।
बाबा रामदेव ने कहा कि इसके लिए 100 फीसदी मतदान की व्यवस्था होनी चाहिए तभी अच्छे लोग राजनीति में आएँगे और स्वस्थ समृद्ध और संस्कारवान भारत का सपना पूरा हो सकता है।
एक सवाल के जबाव में बाबा ने कहा कि वे भाजपा के किसी कार्यक्रम में हिस्सा लेने नहीं आए हैं बल्कि वे तो एक पुस्तक के विमोचन कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए आए हैं।
उन्होंने कहा कि इस तरह के कार्यक्रम में और भी कोई बुलाएगा तो वे उसमें भी जाएँगें। आडवाणी के पुस्तक विमोचन समारोह में बाबा रामदेव के अलावा श्रीश्री रविशंकर भी मौजूद थे।
शुक्रवार, 14 दिसंबर, 2007 को 12:32 GMT तक के समाचार
राजेश जोशी
बीबीसी संवाददाता, लंदन
नंदीग्राम पर सीपीएम काडर की कशमकश
पश्चिम बंगाल में तीस साल की सत्ता के दौरान मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को शायद ही कभी इतने बड़े पैमाने पर चौतरफ़ा आलोचना का सामना करना पड़ा हो.
ज़मीन बचाने के लिए आंदोलन कर रहे नंदीग्राम के किसानों पर 14 मार्च 2007 को पुलिस ने गोलियाँ चलाईं जिसमें कम से कम 14 लोग मारे गए.
हालाँकि मार्क्सवादी पार्टी और सरकार ने इस गोलीकांड को दुर्भाग्यपूर्ण बताया लेकिन आलोचना थमी नहीं. पार्टी विरोधी तो अलग, ख़ुद वामपंथी-उदारवादी विचारधारा के लोग भी नंदीग्राम की घटनाओं के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए. मेधा पाटकर ने मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य के इस्तीफ़े की माँग की.
राज्य सरकार से पुरस्कार पाने वाले सुमित सरकार और तनिका सरकार जैसे प्रतिष्ठित वामपंथी इतिहासकार भी नंदीग्राम की घटनाओं के विरोध में मार्क्सवादी पार्टी के ख़िलाफ़ हो गए. उन्होंने अपना विरोध सिर्फ़ शब्दों तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि राज्य सरकार का पुरस्कार लौटा कर विरोध दर्ज करवाया. कोलकाता की सड़कों पर वामपंथी बुद्धिजीवियों ने ही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के ख़िलाफ़ बड़े-बड़े जुलूस निकाले.
विरोधी विचारधारा के हमले को तो शायद मार्क्सवादी पार्टी झेल जाती लेकिन वामपंथी ख़ेमे के भीतर से ही आ रही विरोध की आवाज़ों का सामना करना उसके लिए मुश्किल हो रहा था. प्रतिष्ठा बचाने के लिए पार्टी समर्थकों का ध्यान नोम चोम्स्की, तारिक़ अली और हॉवर्ड ज़िन जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त वामपंथी बुद्धिजीवियों की ओर गया. कुछ ही दिनों बाद इन बुद्धिजीवियों की ओर से एक बयान जारी किया गया. इस बयान में आपसी मतभेद दूर करने की अपील की गई थी और कहा गया कि “ये समय मतभेद पैदा करने का नहीं है क्योंकि मतभेदों का आधार अब बचा ही नहीं है.”
लेकिन ये पासा उलटा पड़ गया. नोम चोम्स्की और तारिक़ अली का अंततराष्ट्रीय स्तर पर ईमानदार और जुझारू बुद्धिजीवियों के तौर पर नाम भले ही हो, लेकिन उन्हें शायद ये अंदाज़ा नहीं रहा होगा कि मार्क्सवादी पार्टी का बचाव करने के लिए उन्हें लेने के देने पड़ जाएँगे. उन्हीं की विचारधारा के लोग उनके ख़िलाफ़ हो गए, मसलन अरुंधति रॉय, महाश्वेता देवी, सुमित सरकार और तनिका सरकार जैसे बुद्धिजीवियों ने नोम चोम्स्की और तारिक़ अली के बयान की आलोचना की.
बयानबाज़ी
एक जवाबी बयान में लेखिका अरुंधति रॉय, महाश्वेता देवी आदि ने नोम चोम्स्की और तारिक़ अली के प्रति अपनी नाराज़गी खुले शब्दों में ज़ाहिर की. इसके बाद चोम्स्की आदि को अपनी सफ़ाई में एक और बयान जारी करना पड़ा. तारिक़ अली और चोम्स्की की आलोचना करने वालों में कोलकाता के पास जादबपुर विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफ़ेसर कुणाल चट्टोपाध्याय भी शामिल हैं. वो नंदीग्राम में मार्क्सवादी पार्टी की भूमिका के कट्टर आलोचकों में से हैं.
लेकिन जहाँ देश भर में मार्क्सवादी पार्टी की आलोचना हो रही है, नोम चोम्स्की जैसे बुद्धिजीवी उनके बचाव में क्यों आए? प्रोफ़ेसर कुणाल चट्टोपाध्याय कहते हैं कि मार्क्सवादी पार्टी इतने बरसों से सत्ता में है इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसका उदाहरण दिया जाता है. उनका कहना था कि चोम्स्की आदि के बयान पढ़कर हमें ऐसा लगा कि जैसे कहा जा रहा हो कि ठीक है कुछ समस्याएँ ज़रूर हैं नंदीग्राम में लेकिन चूँकि अमरीकी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई सबसे बड़ा मुद्दा है, इसलिए आपको इन चीज़ों को भूल जाना चाहिए.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य मानते हैं कि बयान देने से पहले नोम चोम्स्की को सोचना चाहिए था. उन्होंने बीबीसी से एक बातचीत में कहा कि चोम्स्की की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्वसनीयता है. अगर किसी दूसरे देश के बारे में उन्होंने बयान दिया होता तो हम उस पर पूरी तरह विश्वास कर लेते.
लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता और सांसद नीलोत्पल बसु का नज़रिया अलग है. वो कहते हैं कि जो बात अरुंधति रॉय और महाश्वेता देवी नहीं समझ पाईं, नोम चोम्स्की उसे समझ गए. उन्होंने महाश्वेता देवी पर दक्षिणपंथियों के साथ मिलकर वाममोर्चा सरकार का विरोध करने का आरोप लगाया.
नीलोप्तल बसु को अरुंधति रॉय की भूमिका पर भी ऐतराज़ है. उन्होंने इस बात पर ताज्जुब ज़ाहिर किया कि एक छोर पर आनंदमार्गी तो दूसरे छोर पर अतिवामपंथी माओवादी – सभी मार्क्सवादी पार्टी के ख़िलाफ़ कैसे एकजुट हो गए?
उन्होंने वामपंथी इतिहासकार सुमित सरकार की आलोचना से भी परहेज़ नहीं किया है. नीलोत्पल बसु ने सुमित सरकार पर नंदीग्राम में हिंसा भड़काने का आरोप लगाया.
अगर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थक नोम चोम्स्की और तारीक़ अली से बयान दिलवाकर छवि सुधारने की मंशा रखते हों तो ये उन्हें दाँव उलटा पड़ गया है. और शायद ये बयान उन पर भी उलटा पड़ गया जो अमरीकी साम्राज्यवाद के ख़तरे के प्रति आगाह करते हुए नंदीग्राम जैसे आंदोलनों को भूल जाने की सलाह दे रहे थे.
नंदीग्राम से खुलती मार्क्सवादी भूमिसुधारों की पोल
http://www.tehelkahindi.com/SthaayeeStambh/KhulaaManch/268.html
फॉन्ट आकार
नंदीग्राम की डरावनी कहानियों का रंग उतरना शुरू हो गया हैं. ऐसे में इस तूफान के पीछे के कारणों को जानना महत्वपूर्ण है.
पहेली जैसा प्रश्न ये है कि सीपीएम ने नंदीग्राम मामले में जो हुआ वो क्यों होने किया? शायद वे उस चीनी नेतृत्व के पदचिन्हों पर चलने का प्रयास कर रहे रहे थे, जिसने खुलेआम थिआनानमेन चौक पर छात्रों के प्रदर्शन का दमन किया था और उसके बाद इतना कड़ा रुख अपनाया गया कि बीजिंग के महाशक्ति के रूप में तेज़ी से उभरने की वजह से अब इस बारे में कोई बात भी नहीं करना चाहता.
हालांकि, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी विशेष आर्थिक क्षेत्रों की जरूरत के सवाल पर एक मत नहीं हैं. पार्टी के ज्यादातर सदस्य इण्डोनेशियाई भागीदारी को लेकर सशंकित हैं. पार्टी का एक दूसरा बड़ा खेमा किसानों की जमीनें अधिग्रहित करने के मुद्दे पर खुश नहीं है. फिर ऐसा क्या है कि पार्टी नेता भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के आंदोलन को दबाने की कोशिशें कर रहे थे? इसका जवाब साफ है. दरअसल नंदीग्राम में पश्चिम बंगाल के भूमिसुधार की कई कड़वी सच्चाईयां दफन हैं. भूमि वितरण के मामले में पार्टी ने अल्पसंख्यकों के साथ, जिसमें बांग्लादेश से आए मुसलमान भी शामिल थे, बड़ा पक्षपात किया. लाभार्थियों को जमीनों पर कब्जा तो दे दिया गया, लेकिन उनके मालिकाना हक देने वाले कागजात उन्हें नहीं दिए गए. ये कागजात आज तक सीपीएम के दफ्तरों में हैं.
इससे अलग दूसरा कारण ये कि पार्टी के बहुत से कैडरों की निगाहें उस सूत्र पर भी गड़ी हुई हैं, जिसके तहत वे करोड़ों की सेज परियोजना में अपने लाभ का गणित हल कर सकते हैं.
पूरा मिदनापुर जिला और खासतौर से नंदीग्राम क्षेत्र मार्क्सवादियों का गढ़ माना जाता रहा है. वहां भूमि सुधारों की प्रक्रिया के दौरान बड़ा उत्साह देखा गया क्योंकि ज़मींदारों से अपनी खुन्नस निकालना, उन्हें चिढ़ाना उस समय पार्टी समर्थकों का एक पसंदीदा सिद्धांत बन गया था. दूसरी ओर भूमि वितरण के मामले में पार्टी ने अल्पसंख्यकों के साथ, जिसमें बांग्लादेश से आए मुसलमान भी शामिल थे, बड़ा पक्षपात किया. लाभार्थियों को जमीनों पर कब्जा तो दे दिया गया, लेकिन उनके मालिकाना हक देने वाले कागजात उन्हें नहीं दिए गए. ये कागजात आज तक सीपीएम के दफ्तरों में हैं. यानी जमीनों पर कागजी कब्जा एक तरह से सीपीएम के पास है. कागजातों का सीपीएम के पास होना ही वो राज़ है, जिसके कारण सीपीएम अचानक उस क्षेत्र के 80 प्रतिशत तक वोट झटकने की स्थिति में पहुंच गई. लोग अपनी ज़मीन छिन जाने के डर से सीपीएम का हर हाल में साथ देने के लिए मजबूर थे. जब सेज का प्रस्ताव आया तो इस क्षेत्र को चुना भी इसीलिए गया. सीपीएम नेता इस अतिविश्वास में थे कि यहां के लोग इस मुद्दे पर ज़्यादा विरोध करने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि जमीनों के कागजात तो पार्टी के कब्जे में थे.
लेकिन, जिस बिंदु पर सीपीएम गौर नहीं कर पाई, वो ये कि बिना कागजातों के भी भूमि नंदीग्राम के लोगों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन चुकी थी. बस पहले से ही पक्षपात के शिकार किसानों ने छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने का निर्णय लिया. उन्होंने भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति(बीयूपीसी) के बैनर तले अपने को संगठित किया और राज्य पुलिस, प्रशासन और सीपीएम के अनधिकृत बाहुबलियों से जमकर लोहा लिया. 14 मार्च, 2007 को हुए संघर्ष में 140 से ज्यादा किसान मारे गए, सैकड़ों घायल हो गए. नतीजा ये निकला कि सीपीएम समर्थकों का उस क्षेत्र के गांवों में रह पाना मुश्किल हो गया. भाग कर सभी ने खेजुरी के शरणार्थी शिविर में शरण ली.
नवम्बर से पहले अधिग्रहण का विरोध कर रहे बिना कागजातों की ज़मीन वाले लोगों को सबक सिखाना ज़रूरी हो गया. सीपीएम की योजना के मुताबिक अब तक इन किसानों द्वारा जोती जा रही भूमि पर पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा कब्जा किया जाना था. केवल कागजी कब्जे से तो कोई मकसद हासिल होने वाला था नहीं जब जमीन पर असल कब्जा अधिग्रहण का विरोध कर रहे किसानों का था. और ज्यादा दिन अगर ये सब चलता तो ये बात भी दुनिया के सामने आ जाती कि भूमि सुधारों में दी गयी ज़मीनों के कागजात सीपीएम के ऑफिसों में रखे हुए हैं.
दुख इस बात का है कि कई राज्यों में कांग्रेस भी कुछ ऐसी ही कार्य-प्रणाली अपना रही है. आपात भूमि सुधार के दौरान जिन लोगों ने जमीनें पाईं थीं, उनमें से बहुत-से लोग अब खेती में रुचि नहीं रखते. बहुत सारे जो पिछड़ी जातियों से संबंधित हैं, आरक्षण के तहत नौकरी पा गए और शहरों में चले गए गए. लिहाजा वे बस नाम के ही भूस्वामी रह गए. स्थानीय दबंग नेता अनपढ़ गरीब किसानों को इन नाममात्र के भूस्वामियों के रूप में दिखा कर पावर ऑफ़ अटॉर्नी अपने किसी आदमी के नाम करवा देते हैं. बाद में इन जमीनों को किसी अनजान अप्रवासी भारतीय को बेच दिया जाता है. ये लोग जमीनों को एक लाभकारी निवेश के रूप में देखते हैं. यानी कि जो काम महाराष्ट्र में कांग्रेस कर रही है वही काम नंदीग्राम में वामपंथी कर रहे हैं.
शरद जोशी
(लेखक राज्य सभा सदस्य और किसानों के मुद्दों से जुड़ी संस्था शेतकरी संगठना के संस्थापक हैं)
पृष्ठभूमि
http://www.golwalkarguruji.org/biography-20
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जनक स्व. डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने निरन्तर १५ वर्षों तक अविराम परिश्रम करके संघ को अखिल भारतीय स्वरुप दिया। १९४० के संघ शिक्षा वर्ग में भाग लेने हेतु आये कार्यकर्ताओं के समक्ष अपना अंतिम भाषण देते हुए डॉक्टर जी के उद्-गार थे कि मैं यहां हिन्दू राष्ट्र का लघु रुप देख रहा हूं। बाद में २१ जून १९४० को डाक्टर जी ने श्री माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरुजी के कंधों पर संघ का सारा दायित्व सौंपकर इहलोक की अपनी यात्रा समाप्त कर सबसे बिदा ली।
डाक्टर जी के बाद श्री गुरुजी संघ के द्वितिय सरसंघचालक बने और उन्होंने यह दायित्व १९७३ की ५ जून तक अर्थात लगभग ३३ वर्षों तक संभाला। ये ३३ वर्ष संघ और राष्ट्र के जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण रहे। १९४२ का भारत छोडो आंदोलन, १९४७ में देश का विभाजन तथा खण्डित भारत को मिली राजनीतिक स्वाधीनता, विभाजन के पूर्व और विभाजन के बाद हुआ भीषण रक्तपात, हिन्दू विस्थापितों का विशाल संख्या में हिन्दुस्थान आगमन, कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण, १९४८ की ३० जनवरी को गांधीजी की हत्या, उसके बाद संघ-विरोधी विष-वमन, हिंसाचार की आंधी और संघ पर प्रतिबन्ध का लगाया जाना, भारत के संविधान का निर्माण और भारत के प्रशासन का स्वरूप व नितियों का निर्धारण, भाषावार प्रांत रचना, १९६२ में भारत पर चीन का आक्रमण, पंडित नेहरू का निधन, १९६५ में भारत-पाक युद्ध, १९७१ में भारत व पाकिस्तान के बिच दूसरा युद्ध और बंगलादेश का जन्म, हिंदुओं के अहिंदूकरण की गतिविधियाँ और राष्ट्रीय जीवन में वैचारिक मंथन आदि अनेकविध घटनाओं से व्याप्त यह कालखण्ड रहा। इस कालखण्ड में परम पूजनीय श्री गुरुजी ने संघ का पोषण और संवर्धन किया। भारत भर अखंड भ्रमण कर सर्वत्र कार्य को गतिमान किया और स्थान-स्थान पर व्यक्ति- व्यक्ति को जोड़कर सम्पूर्ण भारत में संघकार्य का जाल बिछाया। डाक्टर जी ने सूत्ररुप में संघ की विचार-प्रणाली बतायी थी। उसके समग्र स्वरुप को अत्यंत प्रभावी ढंग से श्री गुरुजी ने उद् घाटित किया। विपुल पठन-अध्ययन, गहन चिंतन, आध्यात्मिक साधना व गुरुकृपा, मातृभूमि के प्रति निस्वार्थ समर्पणशीलता, समाज के प्रति असीम आत्मीयता, व्यक्तियों को जोडने की अनुपम कुशलता आदि गुणों के कारण उन्होंने सर्वत्र संगठन को तो मजबूत बनाया ही, साथ ही हर क्षेत्र में देश का परिरक्व वैचारिक मार्गदर्शन भी किया। भारत का राष्ट्र-स्वरुप, उसका सुनिश्चित जीवन-कार्य और आधुनिक काल में उसके पुनरुत्थान की वास्तविक दिशा के सम्बन्ध में उनके ठोस व तथ्यपरक विचार तो इस देश के लिए महान विचार-धन ही सिद्ध हुए हैं। इस प्रकार उनका जीवन अलौकिक एवं ऋषितुल्य था। अध्यात्मिक दृष्टी के महान् योगी किन्तु समष्टिरुप भगवान की पावन अर्चना के लिए जनसामान्य के बीच रहकर उनके हितों की चिंता करनेवाला यह महापुरुष एकांत-प्रिय तथा मुक्त होने पर भी अपने दायित्व और कर्तव्य-बोध से राष्ट्र और समाज-जीवन में अत्यंत सक्रियता का परिचय देनेवाला विलक्षण प्रतिभा का धनी था। राष्ट्र- जीवन के अंगोपांग की आदर्शवादी स्थिति की टोह लेनेवाला वह व्यक्तित्व था। संघ के विशुद्ध और प्रेरक विचारों से राष्ट्रजीवन के अंगोपांगों को अभिभूत किये बिना सशक्त, आत्मविश्वास से परिपूर्ण और सुनिश्चित जीवन कार्य पूरा करने के लिए सक्षम भारत का खड़ा होना असंभव है, इस जिद और लगन से उन्होंने अनेक कार्यक्षेत्रों को प्रेरित किया। विश्व हिंदू परिषद्, विवेकानंद शिला स्मारक, अखिल भारतीय विद्दार्थी परिषद्, भारतीय मजदूर संघ, वनवासी कल्याण आश्रम, शिशु मंदिरों आदि विविध सेवा संस्थाओं के पीछे श्री गुरुजी की ही प्रेरणा रही है। राजनीतिक क्षेत्र में भी डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को उन्होंने पं. दिनदयाल उपाध्याय जैसा अनमोल हीरा सौंपा। तात्कालिक संकटों के निवारणार्थ समय-समय पर भिन्न-भिन्न समितियों का गठन कर उन्हें कार्य-प्रवृत्त किया। स्वयं को किसी भी आसक्ति अथवा ईषणा का कभी कोई स्पर्श तक नहीं होने दिया। इसीलिए श्री गुरुजी के वैचारिक मार्गदर्शन की राष्ट्रजीवन पर एक व्यापक एवं अमिट छाप पड़ी है। राष्ट्रीय विचार, जीवन दृष्टी और जीवन निष्ठा का कल्याणकारी वरदान जिन लोगों ने श्री गुरुजी के कार्यकाल में ग्रहण किया ऐसे सहस्त्रावधि लोग आज देश भर में कार्यरत हैं। अराष्ट्रीय और दोषपूर्ण विचार प्रणाली से पूर्वकाल में प्रभावित लोग अपने भ्रमों का निवारण होने के कारण संघ की विचारधारा से जुड़ते जा रहे हैं। उच्चतम शासकीय स्तर से संघ के विरुद्ध लगाये गये आरोप भी मिथ्या और निराधार साबित हुए हैं। वैसे ही स्वार्थी सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञों द्वारा संघ को बदनाम करने हेतु किया जानेवाला अपप्रचार भी निष्प्रभावी होकर शिथिल पड़ता गया है। यही नहीं अपप्रचार करनेवाले लोग ही जनता की निगाह से उतरते गये और अपनी विश्वासार्हता खो बैठे।
किन्तु श्री गुरुजी विरोधों की जरा भी परवाह न करते हुए निर्भयता से अपने अति प्राचीन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विचार जनता के बीच प्रस्तुत करते रहे। श्री गुरुजी ने केवल कहा ही नहीं बल्कि विशुद्ध राष्ट्रनिष्ठा रखने वाले सहस्त्रों व्यक्ति खड़े किये, यही उनकी विशेषता थी। अपप्रचार के कारण श्री गुरुजी अनेक बार विवाद का विषय बने। उनके द्वारा प्रतिपादित अनेक मतों को विकृत रूप में प्रचारित कर राजनीतिक लाभ उठाने का भी विरोंधियों द्वारा प्रयास किया गया। किंतु घृष्टं घृष्टं पुनरपि पुनः चन्दनं चारु गंधम् के न्याय से श्री गुरुजी कभी विचलित या प्रक्षुब्ध नहीं हुए। उन्होंने अपना स्तर बनाये रखा। उनके निर्मल मन में कभी द्वेषभावना प्रवेश नहीं कर सकी। उन्होंने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा। हिन्दू जीवन-विचार और उस विचार के मूर्त प्रतीक स्वरूप हिन्दुराष्ट्र के पुनरुत्थान के उद्देश्य से वे कभी डिगे नहीं। व्यवहार में अत्यंत स्नेहशील श्री गुरुजी सिद्धान्तों के मामलों में अत्यन्त आग्रही थे। आत्मविस्मृति अथवा आत्म-वंचना की ओर ले जोनेवाला अथवा राष्ट्र की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाने वाला कोई समझौता उन्हें स्वीकार नहीं हुआ।
ऐसे व्यक्तित्व के प्रति लोगों में जिज्ञासा पैदा हो, यह स्वाभाविक ही है। श्री गुरुजी को कर्करोग से जर्जर अपना शरीर त्यागे लगभग २४ वर्ष हो रहे है, फिर भी संघ स्वयंसेवकों के अंतःकरण में श्री गुरुजी की अनेक प्रेरक स्मृतियाँ आज भी ताजा हैं। इतना ही नहीं, तो पूजनीय श्री गुरुजी द्वारा समय-समय पर एक द्रष्टा के रूप में जो विचार व्यक्त किये गये उनका भी उत्कटता ले स्मरण कराने वाली परिस्थिति आज देश में निर्माण हो रही है। प्रत्येक देश का समाज और उसकी गुणवत्ता ही राष्ट्रीय गौरव का आधार माने जाते है। केवल शासन सत्ता में परिवर्तन से यह गुणवत्ता निर्माण नहीं होती। सातत्य से चारित्र्य निर्माण करनेवाले गुणों का संस्कार करानेवाली व्यवस्था का होना अत्यावश्यक है, यह विचार श्री गुरुजी आग्रहपूर्वक रखते थे। इसकी अनुभूति हमें आपातकाल के बाद के कालखंड में हुई। सभी कार्यों और परिवर्तन का केन्द्रबिन्दु व्यक्ति ही है। व्यक्ति यदि अच्छा नहीं रहा तो अच्छी योजना व व्यवस्था भी वह बर्बाद कर डालता है। भारत के संविधान के विषय में जो विवाद उठ खड़ा हुआ है, उस संदर्भ में श्री गुरुजी द्वारा मानवी गुणवत्ता पर बल दिये जाने का विचार ही अत्यंत सार्थक प्रतीत होता है। डाक्टर हेडगेवार और श्री गुरुजी, इन दो कर्तृत्ववान तथा ध्येयसमर्पित महापुरुषों के उत्तराधिकारी के रूप में सरसंघचालक पूजनीय बालासाहेब देवरस ने भी संघ को सम्पूर्ण समाज के साथ समरस बनाने की दिशा में सेवाकार्यों पर अधिक बल देकर उल्लेखनीय कार्य किया है। संघ के विरोधियों ने इन तीनों में वैचारिक भिन्नता का आभास निर्माण कर भ्रम फैलाने का प्रयास किया किंतु स्वयं बालासाहेब ने इस भ्रामक प्रचार का अनेक प्रसंगों पर स्पष्ट शब्दों में निराकरण किया। वे कहा करते कि श्री गुरुजी का चयन डाक्टर जी ने स्वयं किया था और उसी तरह श्री गुरुजी ने मेरा चयन किया है, बस यही एक तथ्य हमारे बीच वैचारिक भिन्नता का भ्रम फैलानेवालों को पूर्ण और सशक्त उत्तर है।
श्री गुरुजी का समग्र चरित्र लिखना हो तो वह एक बहुत बडा ग्रंथ हो जायेगा। उनके विचारों का संकलन ही करना हो अथवा उनके चुने हुए पत्रों को ही प्रकाशित करना हो तो सैकड़ों पृष्ठ भी कम पड़ेंगे। वैसे देखा जाए तो श्री गुरुजी के संघजीवन में उनका निजी अथवा वैयक्तिक कुछ था ही नहीं। जिस तरह डाक्टर जी ने व्यक्तिगत घर-गृहस्थी बसाने का कोई विचार नहीं किया, उसी प्रकार श्री गुरुजी ने भी अपनी व्यक्तिगत गृहस्थी नहीं बसायी। संघ को, पर्याय से राष्ट्र को अपना परिवार माना। उनके ईश्वर-निष्ठ जीवन में विराट् समाजपुरुष उनका आराध्य देव बना और जीवन भर वे उसी की निष्काम सेवा भक्तिभाव से करते रहे। गीता के कर्मयोग को अपने जीवन में उतारा। संघविचार और अपनी मातृभूमि को गौररव प्राप्त कराने के लिए प्रभावी प्रयत्नों की पराकाष्ठा ही उनके ६७ वर्षीय जीवन का अभिन्न अंग रहा। जिस देह से यह सेवा नहीं हो सकती उस देह के प्रति मोह उनके मन को कभी स्पर्श नहीं कर पाया। कर्क रोग अपना काम करेगा, किंतु मुझे अपना अंगीकृत कार्य करते रहना चाहिये। ऐसा वे हँसकर कहा करते थे। श्री गुरुजी का जीवन विरागी किन्तु कर्तव्यप्रवण था। ऐसे राष्ट्रसमर्पित महान् कर्मयोगी जीवन के बारे में जिज्ञासुओं का समाधान करने तथा राष्ट्र की नयी पीढ़ी को व्यक्तिगत तथा समाज जीवन के हर क्षेत्र में चिरंतन प्रेरणा स्त्रोत के रूप में विद्दमान एक महान् आदर्श जीवन का परिचय कराने के उद्देश्य से ही यह एक प्रयास है।
'मोदी एक महान व्यक्ति हैं'
http://www.tehelkahindi.com/Sakshaatkar/Mulaquaat/710.html
फॉन्ट आकार
दक्षिण भारत में पहली बार दौड़े भगवा रथ के सारथी बीएस येदियुरप्पा ने कर्नाटक के प्रति अपनी भावी योजनाओं से लेकर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और संघ से रिश्तों तक पर रोशनी डाली। इसके अलावा वो कर्नाटक को देश के अग्रणी राज्यों की श्रेणी में खड़ा करने के लिए मोदी के गुजरात मॉडल की पुरज़ोर तरफदारी भी करते नज़र आए।
कर्नाटक में भाजपा की जीत को जबर्दस्त विजय के रूप में पेश किया जा रहा है।
हमारे राष्ट्रीय नेताओं विशेषकर आडवाणीजी और वाजपेयीजी के लिए ये स्वप्न के साकार होने जैसा है। इसे दक्षिण भारत में भाजपा के प्रवेश के रूप में देखा जा रहा है। इस जीत को लेकर प्रवेशद्वार के तौर पर जो भी चर्चाएं हो रही हैं वो पूरी तरह से सही हैं। हम कहीं और इस तरह की सफलता हासिल नहीं कर सकते थे। व्यक्तिगत रूप से मैं इसे एक चुनौती के रूप में देख रहा हूं। हमारे सामने एक ऐसी सफल सरकार चलाने की चुनौती है जो जनता की आशाओं को पूरा कर सके।
क्या आपको उम्मीद थी कि आप 110 सीटें जीतकर बहुमत के इतने करीब पहुंच पाएंगे?
मैं 125-130 सीटें जीतने की उम्मीद कर रहा था। लिहाजा ये उम्मीदों से थोड़ा कम ही रहा। लेकिन दूसरी ओर हमने कर्नाटक से जनता दल-एस का पूरी तरह से सफाया कर दिया। ये पूरी तरह से दो पार्टियों, कांग्रेस और भाजपा, के बीच की लड़ाई थी।
खुद आपकी पार्टी के नेता नतीजे आने से पहले 90-95 सीटें जीतने की उम्मीद कर रहे थे। क्या ये बात सही नहीं है कि चुनाव प्रक्रिया शुरू होने से एक हफ्ते पहले राज्य के आरएसएस नेतृत्व ने सभी संघ कार्यकर्ताओं को भाजपा की जीत के लिए काम करने का आदेश दिया था? ये आदेश राज्य भर में आरएसएस की शाखाओं के माध्यम से 3 मई को जारी हुआ था?
पिछले 35 सालों से भाजपा राज्य के लोगों की सेवा में लगी हुई है। हम हमेशा से किसानों, मछुआरों, दलितों और पिछड़ों के मुद्दों को उठाते रहे हैं। हमने 2 विधायकों से 1 और फिर 110 तक का सफर तय किया है। ये कोई कम सफलता नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि इसे संभव बनाने के लिए इन सालों के दौरान बीजेपी और संघ परिवार ने साथ साथ काम किया। पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ जगन्नाथ राव के नेतृत्व में संघ कार्यकर्ताओं ने मिलकर काम किया और आज भी कर रहे हैं।
इस जीत में आरएसएस का कितना योगदान है? नतीजे आने के बाद अपनी पहली पत्रकारवार्ता में आपने आरएसएस कार्यकर्ताओं का भी आभार जताया था।
आज बीजेपी की जीत में एससी, एसटी, ओबीसी सभी समुदायों का योगदान है। मुझे ख़बरें मिली हैं कि मुस्लिम समुदाय ने भी हमारे पक्ष में वोट दिया है। आपको याद होगा कि ये परंपरागत रूप से कांग्रेस के वोटबैंक रहे हैं। तो सवाल ये है कि आखिर उन्होंने बीजेपी के लिए कांग्रेस को दरकिनार क्यों किया? ऐसा सिर्फ हमारे नारों की वजह से नहीं हुआ। इसकी वजह ये है कि संघ परिवार के संगठन लोगों की भलाई में लगे हुए हैं। कांग्रेस की तरह नहीं जो उनके बारें में सिर्फ बातें करने के अलावा और कुछ नहीं करती। संघ परिवार के कार्यकर्ता भी उसी पार्टी को वोट देंगे जो उनके हितों का ध्यान रखेगा। और वो पार्टी है भाजपा। लिहाजा ये स्वाभाविक ही है कि उन्होंने चुनावों में अपना सारा सहयोग बीजेपी को दिया।
आप खुद भी आरएसएस की पृष्ठभूमि से आते हैं।
मैं संघ परिवार में पला-बढ़ा हूं। सिर्फ 15 साल की उम्र में ही मैं संघ में शामिल हो गया था। इन सालों के दौरान मेरा सारा प्रशिक्षण संघ के अंदर ही हुआ। जो भी अनुभव मुझे हासिल हुए- राजनीतिक या दूसरे—वो संघ परिवार की ही देन हैं। मैं कभी भी अपने पुराने नेताओं को नहीं भूल सकता- शेषाद्री जी, जगन्नाथ राव, यादव राव जोशी। और अब हमारे सामने अनुसरण करने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी और एल के आडवाणी हैं।
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी आपके लिए प्रचार और अपना समर्थन व्यक्त करने के लिए आए थे।
मैं इसके लिए उनका बहुत शुक्रगुजार हूं। हमें उनकी उपस्थिति और उनकी सलाहों से काफी फायदा हुआ। मोदी एक महान व्यक्ति हैं। मेरे मन में उनके और गुजरात में उनकी उपलब्धियों के लिए गहरा सम्मान है।
हमने कर्नाटक के गुजरात मॉडल पर चलने के बारे में काफी सुना है। ये गुजरात मॉडल है क्या?
अभियान के दौरान हमने कहा था कि हम कर्नाटक में गुजरात को दोहराएंगे। हम इसके बहुत नजदीक आ गए हैं। मोदी ने हमसे कहा कि कर्नाटक को गुजरात से मीलों आगे होना चाहिए। मैं इसे सच होते देखने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हूं। वाजपेयीजी हमारे मुख्य प्रेरणास्रोत हैं, वो हमारे पिता हैं और हम सभी उनकी विनम्र संतानें हैं।
यानी आप गुजरात और जो कुछ भी वहां हो रहा है उससे प्रभावित हैं?
गुजरात की प्रगति अविश्वसनीय है। ये अकेला राज्य है जो भारत के विकास का आदर्श उदाहरण है। अगर आप विकास देखना चाहते हैं तो गुजरात जाइए। इस बात की चर्चा पूरे हिंदुस्तान में हो रही है। और हमें खुद से पूछना चाहिए कि इस सबके लिए जिम्मेदार कौन है? नरेंद्र मोदी. इस व्यक्ति की विनम्रता की कल्पना तो कीजिए जब वो ये कहता है कि कर्नाटक, गुजरात को पछाड़ सकता है।
मुझे नहीं पता आप गुजरात में किस तरह के विकास की बात कर रहे हैं। 2004 की गुजरात मानव विकास रिपोर्ट के मुताबिक वहां ग्रामीण मजदूरी की औसत दर 35 रूपए है। राज्य में बलात्कार की घटनाएं चौकाने वाली हैं...
मैं अकेला आदमी नहीं हूं जो गुजरात मॉडल की बात कर रहा है। खुद कांग्रेस भी इसकी चर्चा कर रही है। मेरे ख्याल से इसकी चर्चा राजीव गांधी फाउंडेशन ने भी की है। जाइए उनसे पूछिए कि ऐसा उन्होंने क्यों किया।
2002 के नरसंहारों के बारे में क्या कहेंगे?
जो कुछ भी हुआ परिस्थितिजन्य कारणों से हुआ। मैं इस पर आगे कोई चर्चा नहीं करना चाहता हूं। जब सारे लोग उन बातों को भुलाने की कोशिश कर रहे हैं, आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, तब मीडिया लगातार इसे कुरेद रहा है।
तो क्या आप ये कह रहे हैं कि वो एक ग़लती थी?
मेरा मतलब ये नहीं था। मेरा सिर्फ ये कहना है कि ये बीती बात है इसे भूल जाइए। इस बात को बार-बार कुरेदने में सिर्फ कांग्रेसियों की रुचि है. और मीडिया की।
जब आप गुजरात मॉडल के नकल की बात करते हैं तो ये संदेश जाता है कि आप समाज के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की बात कर रहे हैं।
हम यहां के क़ानूनों का पालन करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। किसी को भी क़ानून अपने हाथों में लेने की छूट नहीं दी जाएगी। हमने इस बात की चर्चा अपने चुनावी घोषणापत्र में भी की थी- हम आतंकवाद और आतंकवादी गतिविधियों के खिलाफ हैं।
मैं कर्नाटक में पहले से ही नियमित रूप से होने वाली सांप्रदायिक हिंसा की बात कर रही हूं, विशेषकर तटीय इलाकों में।
मेरे ख्याल से इस तरह की कोई घटना वहां नहीं हुई है।
2006 में उडुपी और दक्षिण कन्नड़ ज़िले में भयंकर दंगे हुए, जिनमें दो लोग मारे गए। हाल ही में मार्च 2008 में हुआ शांतिपुरा केस। इन सब में बजरंगदल के कार्यकर्ताओं के नाम आरोपपत्र में शामिल हैं।
मैं बीती बातों की चर्चा नहीं करना चाहता। ये काफी दिलचस्प है कि आप इन मुद्दों को उठा रही हैं— नक्सलवादी हिसा के बारे में बात क्यों नहीं करतीं? उन्होंने हाल ही में दो लोगों की हत्या कर दी। आप जैसे लोगों के लिए ये कोई मुद्दा क्यों नहीं होता?
दोनों को ही राज्य द्वारा हल किए जाने की जरूरत है। एक की आड़ में दूसरे को छिपाया नहीं जा सकता...
हम यही करने जा रहे हैं। उन सभी संस्थाओं और गतिविधियों पर लगाम लगाएंगे जो कर्नाटक की जनता की सुरक्षा को प्रभावित करनी हैं। चाहे वो मुस्लिम हों, नक्सली हों या फिर कोई और।
बाबाबूढ़नगिरी सांप्रदायिक संघर्ष के मामले में क्या आपकी सरकार हाईकोर्ट के फैसले का पालन करेगी और मंदिर में पूजा को रोकेगी?
इस पर बात करना अभी जल्दबाजी होगी। हम, अपनी पार्टी और सरकार के भीतर चर्चा करने के बाद, दिसंबर में इस पर कोई निर्णय लेंगे ।
जेडी-एस—बीजेपी गठबंधन सरकार में वित्तमंत्री रहते आपने दो करोड़ रूपए सिमोगा के रामचंद्रपुरा मठ को जारी किए थे। इसकी वजह बतायी थी जानवरों की भलाई की एक योजना। मठ ने बाद में इस धन से सिमोगा में विश्व गउ सम्मेलन आयोजित किया। मठ के संयोजक ने खुलेआम कहा कि दो करोड़ रूपए इसी सम्मेलन के लिए जारी हुए थे।
इस बारे में कोई दुविधा है ही नहीं। पैसा सम्मेलन के लिए ही जारी हुआ था। मुझे अच्छी तरह से याद है। ये एक ऐतिहासिक कार्यक्रम था। मैं पूरी तरह से मठ के समर्थन में हूं। गोरक्षा एक पवित्र काम है और हमें इसके लिए पूरी तरह से समर्पित होना चाहिए। भविष्य मे भी इस तरह के कार्यक्रमों को मेरा पूरा सहयोग रहेगा।
विश्व गउ सम्मेलन संघ परिवार का कार्यक्रम था।
तो क्या हुआ? में अभी भी मानता हूं कि ये बढ़िया विचार था। गांधीजी भी गौरक्षा की बात करते थे, वो भी उन्हें पवित्र मानते थे।
लेकिन हमने देखा है कि कि संघ परिवार के लोग गाय की रक्षा के लिए आदमी की हत्या के लिए तैयार रहते हैं।
इन बातों को लगातार दोहराने की कोई जरूरत नहीं है। मैंने पहले ही साफ कर दिया है कि इस तरह के कार्यक्रमों को सिर्फ आरएसएस का ही समर्थन नहीं है।
कर्नाटक ने 2002 में फिस्कल रिसपॉन्सबिलिटी एक्ट पास किया था। इसके हिसाब से 2013 तक जन सुविधाओं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, पेयजल पर होने वाले कुल खर्च को कम करके राज्य की जीडीपी के 25 फीसदी तक लाने का लक्ष्य था। अगले पांच साल आपकी सरकार रहने वाली है। क्या आपके चुनावी घोषणापत्र में किए गए मुफ्त बिजली, 2 रूपए किलो चावल के वादे सिर्फ वादे हैं? आप इसके लिए धन कहां से जुटाएंगे?
कठिन सवाल। मुझे जन सुविधाओं का लक्ष्य हासिल करने के लिए धन का जुगाड़ करने की चुनौती का अहसास है। लेकिन मुझे उस एक्ट की पूरी जानकारी नहीं है। मुझसे ये सवाल कुछ दिन बाद पूछिएगा।
भाजपा के 25 विधायक ऐसे हैं जिनके खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं। इनमें से सात ऐसे हैं जिनके खिलाफ हत्या के प्रयास के मामले दर्ज हैं। इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
कितने कांग्रेस विधायकों के खिलाफ इस तरह के रिकॉर्ड हैं? जाइए पता करके आइए।
आपकी पार्टी की सरकार है। ये विधायक मंत्री बन सकते हैं?
मेरे खिलाफ मामला दर्ज हो जाने भर से मैं अपराधी नहीं हो जाता। पहले इन आरोपो को कोर्ट में साबित हो जाने दीजिए फिर मैं इन पर ध्यान दूंगा।
संजना
अयोध्या हमले ने संघ परिवार को मिलाया
http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2005/07/050706_rss_family.shtml
विनोद वर्मा
बीबीसी दिल्ली संवाददाता
बाबरी मस्जिद राम मंदिर का मुद्दे ने हिंदुत्व की हवा बनाई थी
पाँच जुलाई को अयोध्या के विवादास्पद बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि परिसर पर हुआ हमले ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) परिवार को एक बार फिर एक कर दिया है.
जिस परिवार के मुखिया एक दिन पहले तक गुजरात के सूरत में बैठकर यह चर्चा कर रहे थे कि लालकृष्ण आडवाणी और उनकी पार्टी के साथ क्या सलूक किया जाए वही परिवार एकाएक एक साथ सड़क पर आ गया है.
केंद्र में एनडीए सरकार खो देने के बाद से जो आरएसएस परिवार हताशा में बिखरता दिख रहा था उसी परिवार के सदस्य फिर एक बार 'जय श्रीराम' 'मंदिर वही बनाएँगे' के नारे लगाते हुए कंधा से कंधा मिलाकर सड़कों पर उतर आए.
टूटती हुई उम्मीद एक बार फिर जागती दिख रही है और एक बार फिर नेतृत्व वही आडवाणी जी कर रहे थे जिनको लेकर आरएसएस उम्मीद खो चुका था और जो विहिप नेता तोगड़िया की नज़र में 'ग़द्दार' हो चुके थे.
बिखरता परिवार
वैसे तो लालकृष्ण आडवाणी को आरएसएस का चहेता माना जाता था लेकिन धीरे-धीरे परिवार का मोह भंग हो रहा था.
आडवाणी के नेतृत्व पर सवाल खड़े कर रहा था आरएसएस परिवार
केंद्र की सरकार हाथ से निकल जाने के बाद एकाएक परिवार को फिर से लगने लगा था कि सत्ता तक पहुँचने का रास्ता तो हिंदुत्व ही है.
लेकिन एनडीए के अनुभव से बहुत कुछ सीख जान चुके आडवाणी चाहते थे कि वे किसी तरह अटल बिहारी वाजपेयी की उदारवादी छवि हासिल कर सकें.
इसीलिए विहिप ने कहा कि आडवाणी और वाजपेयी अब पार्टी का नेतृत्व करने योग्य नहीं हैं और उनकी जगह युवा नेतृत्व को लेना चाहिए.
इतना मानों कम था कि आरएसएस प्रमुख केएस सुदर्शन ने भी कह दिया कि आडवाणी को अपना पद किसी युवा नेतृत्व के लिए छोड़ देना चाहिए.
इन बयानों का विवाद ख़त्म नहीं हुआ था कि अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने कह दिया कि मोहम्मद अली जिन्ना धर्मनिरपेक्ष थे.
इसके बाद संघ परिवार में जो घमासान शुरु हुआ उसने परिवार की आपसी खींचतान को सड़कों पर ला दिया, सार्वजनिक कर दिया.
आरएसएस परिवार के तीन प्रमुख घटक हैं. एक ख़ुद आरएसएस, दूसरा उसकी सांस्कृतिक इकाई यानी विश्व हिंदू परिषद यानी विहिप और तीसरी राजनीतिक इकाई भारतीय जनता पार्टी है.
तोगड़िया का उत्साह भी एकाएक लौट आया दिख रहा है
और इन तीनों के बीच ही कोई तालमेल नज़र नहीं आ रहा था.
आरएसएस और विहिप का दावा है कि भाजपा को सरकार बनाने की स्थिति तक पहुँचाने के पीछे उन्हीं का योगदान था. और भाजपा इस स्थिति में नहीं है कि वह इन दावों को नकार सके.
80 के दशक में शुरु हुआ लालकृष्ण आडवाणी का राम मंदिर आंदोलन किस तरह सफल हुआ यह भाजपा से बेहतर कौन जानता है भला.
एका
लेकिन इस बिखराव पर उन चरमपंथियों ने एकाएक रोक लगा दी है जिन्होंने अयोध्या के विवादित परिसर पर हमला किया.
1988-89 में 'जय श्रीराम' का नारा लगवाने वाले लालकृष्ण आडवाणी को जहाँ एक बार फिर सार्वजनिक रुप से नारा लगवाने का मौक़ा मिल गया वहीं भाजपा, विहिप और आरएसएस के कार्यकर्ताओं को मौक़ा मिल गया कि वह कह सके, 'रामलला हम आते हैं मंदिर वहीं बनाएँगे.'
जिस 'राम' को केंद्र में सरकार बनाने के लिए भाजपा ने भुला दिया था आख़िर उसी 'राम' ने उसे आरएसएस के साथ संबंध सुधारने का एक नायाब मौक़ा दे दिया है.
हिंदू संगठनों को एक बार फिर नारा लगाने का मौक़ा मिला
सोमवार तक जो अशोक सिंघल भाजपा नेतृत्व से नाराज़ थे और अलग राजनीतिक पार्टी बनाने तक की बात कर रहे थे उन्होंने मंगलवार को कहा कि आरएसएस परिवार को एक अभेद्य किला है और इसमें कोई दरार नहीं डाल सकता.
जिस विहिप के तोगड़िया को आडवाणी जी पर तनिक भी भरोसा नहीं बचा था उसी विहिप के नेता आडवाणी जी के नेतृत्व में आंदोलन करने उतर गए.
जैसा कि समाचार एजेंसी पीटीआई ने आरएसएस के एक वरिष्ठ नेता के हवाले से कहा है, "आरएसएस ने तय किया कि परिवार के सभी घटक मतभेद भुलाकर इस मुद्दे पर एक होकर क़दम उठाएँ."
भले ही आडवाणी कह रहे हों कि राम मंदिर का मुद्दा एक बार फिर सामने आ गया है लेकिन अब न तो वो परिस्थितियाँ हैं और न भाजपा को लेकर कोई भ्रम बचा है ऐसे में परिवार को राम कितने दिनों तक एक रख पाते हैं यद देखना दिलचस्प होगा.
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