अन्तरिक्ष में सेक्स चाहिए या पृथ्वी पर जीवन?
पलाश विश्वास
किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं।
सरकार की कारपोरेट पक्षीय नीति के कारण किसानों की बढ़ी आबादी खेतों से बेदखल होने की कगार पर है।
खाद्य सामानों की बढ़ती कीमत से बड़े पैमाने पर भुखमरी की नौबत पैदा हो गई है। महंगाई से गरीब तो मर ही रहा है गरीबी के रेखा से ऊपर का भी एक बड़ा वर्ग भुखमरी के कगार पर पहुंच गया है। भुखमरी से राज्य के विवेक को धक्का नहीं लगता है जबकि मौत तक की दुखदायी यात्रा को छोटा करना दंडनीय है। कानूनों को लागू करने के तरीके भी भेदभावपूर्ण हैं। लोकतंत्र समानता के सिद्धांत पर आधारित है परंतु पहुंच वाले लोगों के पक्ष में अपवाद इसका मखौल उड़ाते हैं।
अगर दशकों से पूरी दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों पर अमेरिकी और यूरोपीय लोगों का दबदबा रहा है तो अब भारत और चीन जैसे एशियाई और अफ्रीकी मुल्कों के लोगों को भी उनका हक तो लेने दीजिए।
देश में आधे से ज्यादा बच्चे भुखमरी के शिकार हैं। इसकी वजह है कि उनकी मांओं को प्रेगनेन्सी के दौरान और जन्म देने के बाद कुछ खाने को ही नहीं मिला। देश का बड़ा वर्ग-श्रमिक वर्ग सुबह से रात तक काम में जुटा रहता है और फिर भी उसकी रोजमर्रा की जरूरतें पूरी नहीं हो पातीं। तो ऐसे हालात में मां की जरूरतों का अलग से किसको ख्याल? उल्लेखनीय है कि गेहूँ, चावल, मक्का, तेलों और अन्य आवश्यक वस्तुओं की कीमतें में हुई बेतहाशा वृद्धि से दुनिया के 40 सबसे गरीब देशों को हाल के दिनों में प्रदर्शन, हड़ताल और दंगों का सामना करना पड़ा है। दुनियाभर में 85 करोड़ से भी अधिक लोग भुखमरी के कगार पर हैं और दो अरब कुपोषण के शिकार हैं। उधर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि खाद्य संकट की मार से बच्चों को ताउम्र स्वास्थ्य समस्याओं से दोचार होना पड़ सकता है।
बुंदेलखंड के कई भीतरी इलाकों में आपको घर खाली मिलेंगे। या फिर हैं बूढ़ी औरतें और बच्चे। पत्थर दिल को भी द्रवित कर देने वाले यह अंश किसी किस्से कहानी के नहीं, उस केंद्रीय अध्ययन दल की रिपोर्ट से हैं जिसने बुंदेलखंड की पस्ती का ब्यौरा तैयार किया है।
अनाजों की आसमान छूती कीमतों की वजह से निर्धन लोग भुखमरी का शिकार होंगे और उनकी यह बदहाल स्थिति पूरे विश्व में भयानक तबाही लेकर आएगी। मानवाधिकार संगठनों की ओर से यह चेतावनी उस समय आई है जब महँगाई और खाद्य संकट पर चर्चा के लिए रोम में कल से शुरू हो रहे संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में शिरकत करने के लिए दुनिया के 44 देशों के जन प्रतिनिधियों का यहाँ पहुँचना जारी है। इतना ही नहीं, कई देशों में तो भीषण भुखमरी के कारण दंगे तक हुए हैं। इन देशों में भूख से बेहाल लोग रोटी के टुकड़े के लिए एक दूसरे की जान लेने से भी परहेज नहीं करते। संयुक्त राष्ट्र ने भी खाद्य संकट को लेकर गंभीर चिंता जताई है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने रोम में खाद्य संकट पर बुलाए गए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए मंगलवार को कहा कि भुखमरी से निपटने के लिए 2030 तक खाद्य उत्पादन को 50 प्रतिशत तक बढ़ाना होगा। ...
ब्रिटेन की एक संस्था ने कहा है कि म्यांमार में दो हफ्ते पहले आए समुद्री तूफान ‘नरगिस’ की वजह से वहां के इरावदी डेल्टा में बच्चे भुखमरी का शिकार हो रहे हैं। ‘सेव द चिल्ड्रेन’ नाम की इस संस्था के मुताबिक तूफान आने से पहले ही उन्होंने इन इलाकों में पांच साल से कम उम्र के करीब तीन हजार कुपोषित बच्चों का पता लगाया था। म्यांमार की सैन्य सरकार ने अंतरराष्ट्रीय सहायता के कई प्रस्ताव ठुकरा दिए हैं। ब्रिटेन स्थित एक संस्था ने कहा है कि बर्मा में दो हफ़्ते पहले आए समुद्री तूफ़ान की वजह से वहाँ के इरावदी डेल्टा में बच्चे भुखमरी का शिकार हो रहे हैं. ‘सेव द चिल्ड्रेन’ नाम की इस संस्था के मुताबिक तूफ़ान आने से पहले ही उन्होंने इन इलाकों में पाँच साल से कम उम्र के करीब तीस हज़ार कुपोषित बच्चों का पता लगाया था. बर्मा की सैन्य सरकार ने अंतरराष्ट्रीय सहायता के कई प्रस्ताव ठुकरा दिए हैं. कई सरकारों ने बर्मा सरकार को तूफ़ान की ...
दुनिया भर के वैज्ञानिक मंगल ग्रह से लाए जाने वाले सैंपलों का अधिक से अधिक फायदा उठाने पर विचार कर रहे हैं। मंगल ग्रह पर जीवन की संभावना की तलाश में भेजे गए यान फीनिक्स द्वारा एकत्र मिट्टी के नमूनों का यान में उपलब्ध उपकरणों से विश्लेषण की योजना मुश्किल में फंस गई है। शुक्रवार को फीनिक्स की रोबोटनुमा भुजा द्वारा मंगल की मिट्टी खोद कर यान में लगे विशेष उपकरण में रख दिया गया था। इस उपकरण में एक सप्ताह तक मिट्टी का परीक्षण होना था। परीक्षण के जरिए मिट्टी में जल एवं खनिज तत्वों की मौजूदगी का पता लगाना था। नासा के वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्हें मंगल पर बर्फ मिल गई है। जीवन की खोज में उनकी यह पहली सफलता है। मार्स के उत्तरी ध्रुव पर उतरे फीनिक्स से मिलीं नई तस्वीरों से वैज्ञानिकों को यह खुशखबरी मिली है। फीनिक्स पर लगातार नजर रख रहे दल के सदस्यों का कहना है कि मंगल पर उतरते समय फीनिक्स के थ्रस्टर्स ने स्पेस क्राफ्ट के नीचे की बर्फ को उभार दिया है। मंगल पर जीवन की सम्भावनाओं की खोज के लिए नौ महीने पूर्व रवाना हुआ नासा का अंतरिक्ष यान ‘फीनिक्स मार्स लैंडर’ तमाम जोखिमों को पार करता हुआ आखिरकार रविवार रात मंगल के उत्तरी ध्रुव आर्कटिक क्षेत्र में उतर गया। मंगल के ध्रुवीय क्षेत्र में सफलता पूर्वक उतरने वाला यह पहला अन्तरिक्ष यान है। फीनिक्स के मंगल पर उतरने की सूचना धरती पर 15 मिनट बाद पहुंची, क्योकिं पृथ्वी पर मंगल से रेडियो सिग्नलों के आने में इतना ही समय लगता है। दस महीने और 67 करोड़, 90 लाख किलोमीटर का सफर तय करके फीनिक्स मंगल ग्रह के वायुमंडल में छलांग लगाता है, पत्थर की तरह गिरते हुए वह अपनी रफ्तार कंट्रोल करता है, खुद को सूरज की ओर मोड़ता है और एक समतल जगह पर आराम से उतर जाता है। लेकिन ये तकनीकी बातें हैं और ऐसे कारनामों से हैरान होना हमने काफी पहले छोड़ा दिया है। साइंस अब चमत्कारों का पिटारा नहीं रहा। यहां तक कि अमेरिका में भी स्पेस साइंस को लेकर पहले जैसा उत्साह नहीं रहा। मंगल ग्रह पर पानी और जीवन की खोज करने 90 दिन के अभियान पर निकले नासा के अंतरिक्ष यान फीनिक्स ने मंगल के उत्तरी ध्रुवीय इलाके में उतरने के बाद जमे हुए इलाकों की तस्वीरें सफलतापूर्वक भेजी हैं। मंगल ग्रह पर अमरीका के यलोस्टोन नेशनल पार्क और न्यूजीलैंड के केंटरबरी मैदानों में मिलने वाले गर्म पानी के फव्वारों की ही तरह के प्राकृतिक फव्वारे (नेचुरल गीजर्स) होने के प्रमाण मिले हैं। मंगल का अध्ययन करने के लिए भेजा गया लैंड रोवर अन्वेषक ‘स्पिरिट’ ने एक खड्ड के चित्र भेजे हैं। इन चित्रों में ज्वालामुखी विस्फोट में बने वाष्प और गर्म जल के फव्वारों के प्रमाण मिलते हैं।
मौजूदा समय में प्रदूषण की वजह से हर घंटे जीव-जंतुओं की तीन प्रजातियों लुप्त हो जाती हैं। पृथ्वी के इतिहास में अब तक छह बार अनगिनत प्रजातियों का सफाया हो चुका है। ऐसा पिछली बार आज से लगभग 6 . 5 करोड़ साल पहले तब हुआ, जब डायनासॉर का खात्मा हुआ था। जीवों के प्राकृतिक आवासों के विनाश पर हुई एक नई स्टडी के मुताबिक प्रदूषण की बेलगाम रफ्तार बड़ी तेजी से जीवन का विनाश कर रही है। सीएसई के भी मुताबिक बढ़ते प्रदूषण की असल जड़ भी घटिया कार इंजन नहीं, बल्कि घटिया ईंधन है। वैसे, डीजल की कीमत कम रखने से औद्योगिक इकाइयों ने फर्नेस ऑयल ऐंड लो सल्फर हेवी स्टॉक (एफओएलएसएचएस) की जगह इसे इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। चूंकि एफओएलएसएचएस आज भी कुछ रिफाइनरियों के कुल उत्पादन का 20 फीसदी हिस्सा है, इस वजह से वे इसे घाटा सहते हुए भी निर्यात कर रहे हैं। आबादी बढने के साथ बढता प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, पिघलते ग्लेशियर और घटता भूमिगत जल भी संभावित जल संकट के अन्य कारण हैं। पिघलते ग्लेशियर भारत और चीन के लिए चिंता का सबब हैं। भारत और चीन की सभी प्रमुख नदियां -ब्रह्मपुत्र, सिंधु, यांगत्सी, गंगा और मिकांग हिमालय-तिब्बत के पठार से निकलती हैं। दुनिया की करीब 38 प्रतिशत आबादी को यह पानी उपलब्ध कराता है।
राहुल ने अपने बुंदेलखंड के हर दौरे में कहा कि अगर राज्य सरकार इस योजना को ठीक से लागू करे, तो सूखे के कारण भुखमरी के कगार पर आ पहुंचे लाखों लोगों को दो जून की रोटी मिल सकती है। इस योजना के लिए सारा पैसा तो केन्द्र सरकार देती है, मगर खर्च करने का अधिकार राज्य सरकारों के पास है। पिछले वित्त वर्ष में इस योजना के तहत 3.37 करोड़ परिवारों को रोजगार मुहैया करवाया गया। 2008-09 में 5 से 6 करोड़ परिवारों को रोजगार देने का लक्ष्य है।
अन्तरिक्ष में सेक्स चाहिए या पृथ्वी पर जीवन?
मोटरगाड़ियां और विमानयात्राएं ज्यादा जरूरी है या भूख से दम तोड़ते बच्चों को भोजन?
मनोरंजन अहम है या सूचनाएं?
दवाएं चाहिए कि दारू का इन्तजाम?
अपनी पहचान, अपनी सांस्कृतिक विरासत चाहिए कि खुला बाजार में निरंकुश क्रयशक्ति?
मनुष्य बचाये जायें या क्लोनिंग से बवे नयी सभ्यता?
जनपद चाहिए कि महानगर?
हरियाली चाहिए कि प्रदूषण?
जमीन चाहिए कि सेज?
परमाणु बम चाहिए कि विश्वशान्ति?
खेल चाहिए कि कारोबार?
साहित्य चाहिए कि ब्लू फिल्में?
साम्राज्यवाद चाहिए कि मानवतावादी लोकतन्त्र?
रंग बिरंगी पार्टियां चाहिए या सामाजिक परिवर्तन?
जनपद और लोकजीवन चाहिए कि भोपाल गैसत्रासदी?
ज्ञान चाहिए कि तकनीक?
संवेदनाएं चाहिए कि रोबोट?
अपनी आजीविका चाहिए कि बाजार की दलाली?
प्रेम चाहिए कि गर्म बिस्तर?
शान्ति चाहिए या फिर युद्ध?
हिरोशिमा और नागासाकी चाहिए कि तक्षशिला और नालंदा?
पुस्तकें चाहिए या फिर सूचना तकनीक?
स्कूल चाहिए कि बार रेस्तरां?
ब्राह्मण तंत्र जारी रहे या फिर समता पर आधारित वर्गहीन, वर्णहीन, रंगविहीन वैश्वक समाज?
अमरिका की गुलामी चाहिए या फिर स्वतन्त्र और सम्प्रभु भारत?
राष्ट्रीय हिंसा चाहिए या सर्वहारा की मुक्ति?
क्या हम आजाद हैं?
क्या हम सम्प्रभू हैं?
क्या हम मनुष्य हैं?
इस आकाशगंगा पर साम्राज्य विस्तार के लिए ग्लोबल कारपोरेट सत्तावर्ग पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन को दांव पर लगाया हुआ है। महाविनाश दरवाजे पर दस्तक दे रहा है और मधुचंद्रमा अन्तरिक्ष में, इसी काल्पनिक सत्य में जीते हुए अपनी जमीन और अपनी आजीविका से बेदखल किए जा रहे हैं हम। प्राकृतिक संसाधनों पर वर्चस्व के लिए दुनियाभर में युद्धतंत्र का तानाबाना और दुनियाभर की सरकारें, राजनीतिक पार्टियां, विचारधाराएं कमीशनखोर?
अप्रवासी भारतीय कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स के बाद अब लखनऊ के विवेक रंजन मैत्रेय ने भी अमेरिकी अन्तरिक्ष एजेंसी (नासा) की ओर रुख किया है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के एक पब्लिक स्कूल में नौवीं कक्षा के छात्र मैत्रेय ने नासा डेस्टिनेशन प्रतियोगिता में सफलता हासिल की है। मैत्रेय ने प्रतियोगिता के फाइनल राउण्ड में अखिल भारतीय स्तर की टॉप टेन सूची में चयनित होकर नासा की शैक्षिक यात्रा का अवसर हासिल किया है।
भारत और चीन पहले ही प्रदूषण मुद्दे को ध्यान में रखते हुए कोई दूरगामी आश्वासन देने से कतराते रहे हैं और उनका कहना है कि पहली प्राथमिकता तो आर्थिक विकास ही होनी चाहिए। इधर अमारी ने इसी हफ्ते टोक्यो में कहा था, 'भारत और चीन की भूमिका प्रमुख होगी।
पानी में प्रदूषण उच्चतम स्तर पर है और पानी आज तक के अपने न्यूनतम स्तर पर है। वाराणसी में गंगा अब घाटों से दूर जाने लगी है। गंगा के बीच में बालू के टीले पड़ गए हैं। ऐसे में गंगा प्रेमी तो चिंतित हैं ही अब जिला प्रशासन भी इस पर गंभीर होता नजर आ रहा है। वाराणसी के जिलाधिकारी अजय उपाध्याय ने आज पत्रकारों से अनौपचारिक बातचीत में कहा कि गंगा में पानी के कम होने का सिलसिला लगातार जारी है और स्थिति दिन पर दिन भयावह होती जा रही ...
आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) की एक रिपोर्ट में भी कहा गया है कि वायु प्रदूषण के चलते श्रमिकों का स्वास्थ्य प्रभावित होता है जिससे किसी देश के कुल उत्पादन पर असर पड़ सकता है। दुनिया जानती है कि चीन हवा में बड़े पैमाने पर हानिकारक और विषैले पदार्थों को छोड़ रहा है। इस साल चीन 53 करोड़ टन से अधिक इस्पात का उत्पादन कर रहा है। इसके अलावे उसने एल्युमिनियम की खपत को 10 लाख टन प्रति वर्ष तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा है।
बरसों से पश्चिमी कंपनियां पिछड़े देशों के किसानों को यह कहकर हाइब्रिड बीज बेचती रहीं कि इससे पैदावार बढ़ेगी। शुरुआत में पैदावार बढ़ी भी, लेकिन फिर इसमें गिरावट आने लगी। इन उन्नत बीजों को उर्वरक और सिंचाई की जरूरत है, जिससे खेती काफी महंगी हो जाती है। जाहिर है, खराब मौसम का असर उस किसान पर ज्यादा पड़ता है, जो महंगी खेती में लगा हो। यही वजह है कि अब एक्सपर्ट बिरादरी इन बीजों के खिलाफ बोल रही है। उसका कहना है कि इससे गरीबी घटने में कोई मदद नहीं मिली।
उधर वर्ल्ड बैंक का कहना है कि अनाज की बढ़ती कीमतों के चलते उसके उस बजट में 50 करोड़ डॉलर की कमी पड़ जाएगी, जो भूखों की मदद के लिए बनाया गया है। अमेरिकी प्रेजिडेंट जॉर्ज बुश ने 20 करोड़ डॉलर की मदद जारी की है। गौरतलब है कि अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि रहे रॉबर्ट जोएलिक फिलहाल वर्ल्ड बैंक के प्रेजिडेंट हैं। जोएलिक को यह पता होगा कि उनके बजट का एक अच्छा हिस्सा व्यापारियों की जेब में चला जाता है।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम की कीमतें बढ़ने के बाद खेती से तेल पैदा करने का चलन जोर पकड़ रहा है। इसके लिए किसानों को भारी सब्सिडी दी जा रही है। जाहिर है, कोई भी किसान इस आसान कमाई को पसंद करेगा। गौरतलब है कि बायो डीजल तैयार करने के लिए बड़ी मात्रा में मक्का की जरूरत होती है, इसलिए इसकी खेती का क्षेत्रफल बढ़ता जा रहा है। हालांकि यह पेट्रोलियम का आदर्श विकल्प नहीं है और न ही इससे प्रदूषण में कमी आती है।
मक्के की फसल का इस्तेमाल बायो डीजल के लिए करने से मवेशियों के चारे की कीमतें बढ़ गई हैं और एक नया संकट खड़ा हो रहा है। दूध और उससे बनने वाले डेरी प्रॉडक्ट महंगे होने लगे हैं। युनाइटेड नेशंस के सलाहकार और कोलंबिया युनिवर्सिटी के जाने-माने अर्थशास्त्री जेफ्री सैच का कहना है कि खाने की चीजों की महंगाई के चलते अमेरिका में भी गरीबों की तादाद में 20 फीसदी का इजाफा हो गया है।
सैच इस खाद्य संकट के लिए अमीर देशों की नीतियों को ही जिम्मेदार मानते हैं। उनका कहना है कि पिछड़े और विकासशील देशों के लिए आने वाला वक्त और भी बुरा होगा। अपनी नई किताब 'कॉमन वैल्थ' में उन्होंने लिखा है कि दुनिया की आबादी मौजूदा 6.6 अरब से बढ़कर सन 2050 तक 9.2 अरब हो जाएगी। धरती पर अधिक से अधिक 8 अरब लोगों के गुजारे लायक संसाधन हो सकते हैं। इसलिए सरकारों को मिलकर कोशिश करनी होगी कि यह लक्ष्मण रेखा पार न हो। इस बीच अगर तटीय इलाकों में बसाहत बढ़ती गई, तो समुद्री तूफान जैसी आपदाओं को रोकना मुश्किल हो जाएगा।
लेकिन अफसोस तो यही है कि संसाधनों को बर्बाद करने वाली पश्चिमी जनता अपनी लाइफ स्टाइल बदलने के लिए तैयार नहीं है। दूसरी तरफ गरीब और विकासशील देश अपनी बढ़ती आबादी का हल निकालने में नाकाम साबित हो रहे हैं। इस तरह दुनिया दोनों तरफ से संकट में घिरती जा रही है। जल्द ही सभी संसाधन खत्म हो जाएंगे और तब जो होगा, उसकी कल्पना ही डरा देने वाली है।
कई देशों में इसे लेकर दंगे भी हुए हैं और दुनिया के सामने भुखमरी का संकट लहरा रहा है. बान की मून कहते है कि इस संकट का हल तभी हो सकता है जब हम सब मिल कर, एक साथ काम करें. साथ ही उन्होने कहा कि भूख से बड़ा अभिशाप कुछ नहीं हो सकता, ख़ास कर तब, जब ये इनसानों की वजह से हो. संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन के महानिदेशक जेक्स डीओफ़ ने अमीर देशों को इस संकट का बड़ा ज़िम्मेदार ठहराते हुए कहा कि खाद्य सुरक्षा एक राजनीतिक मामला है. ...
प्रतिरोध की हर ताकत को आतंकवादी, माओवादी, नक्सलवादी, उग्रवादी, अराजकतावादी, अलगाववादी जैसे तमगे देकर सजाए मौत देने की आजादी हासिल है सत्तावर्ग को। भारत वर्ष की ब्रामणशासित व्यवस्था में मुसलमानों और सिखों को लम्बे अरसे से आतंकवादी करार देकर कुचला जाता रहा है। प्रिटिश हुकूमत के समय से आदिवासी साम्राज्यवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ लगातार जंग लड़ते रहे हैं। सिर्फ भारत ही नहीं, अमेरिका, अफ्रीका, लातिन अमेरिका, यूरोप, एशिया, आस्ट्रेलिया- सर्वत्र प्कृति और प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ी जनजातियों का विकास और उपनिवेश के लिए कत्लेआम होता रहा है? इसके खिलाफ उनका प्रतिरोध संघर्ष लाखों साल से सत्तावर्ग का सबसे बड़ा सिरदर्द रहा है।
वे हमारे पूर्वज हैं। मोहंजोदोड़ो, हड़प्पा, चट़गांव, मध्यएशिया, पूर्वी यूरोप, अफ्रीका, लातिन अमेरिका, आस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड में मारे जाने वाले तमाम लोग हमारे अपने हैं। खूंटियों पर टंगी हुए तमाम नरमुंड हमारे पूर्वजों के हैं। हर बलात्कीर की शिकार औरत हमारी मां है या फिर बहन। भूख से मरने वाला हर इंसान हमारा आत्मीय। जीवन और आजीविका से बेदखल हर मनुष्य हमारा भाई है। पर वे जब विद्रोह की आवाज बुलन्द करते हैं तो उन्हें माओवादी, नक्सल वादी, उग्रवादी , अलगाववादी कहकर निरंकुश नरमेध यज्ञ जारी हो जाता है।
हम खामोश तमाशबीन बने रहते हैं।
मूलनिवासियों की आजादी चाहिए या फिर अन्तरिक्ष में उपनिवेश?
हिन्दूराष्ट्र चाहिए या अपनी देशज उत्पादन प्रणाली?
आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध जरूरी हैं या राष्ट्रीयताओं की अस्मिता?
इस उपमहादेश में हजारों साल से जारी जनजातियों के जीवन युद्ध में मुख्यधारा की आबादी की कोई भूमिका नहीं है। संथाल विद्रोह, मुंडा विद्रोह, १८५७ का महाविद्रोह, सन्यासी विद्रोह, कोल विद्रोह, चुआड़ विद्रोह, भील विद्रोह, तीतूमीर विद्रोह, कोरेगांव विद्रोह - सर्वत्र गैर आदिवासी पर वर्णव्यवस्था आधारित ब्राह्मण शासित समाज में छह हजार जातियों में बंटे गुलाम मूलनिवासी जनजातियों के साथ कभी खड़े नहीं हुए।
भारत के मुक्ति आन्दोलन की सबसे बड़ी जुझारु ताकत को अलग रखकर ही हम बदलाव का सपना देखने के आदी हैं।
राष्ट्रीयता आन्दोलन के बारे में हम कुछ भी नहीं जानते।
भारत की प्राचीनतचम सभ्यता द्रविड़ सभ्यता से हमारा कोई लेना देना नहीं। हम न पंजाब को समझते हैं न मराठा मानुष की अस्मिता को। हमें हन्दी राष्ट्रीयता और दम तोड़ते जनपदो की कोई संववेदना कहीं स्पर्श नहीं करती और न हम उत्तर पूर्व भारत, दक्षिण भारत, उत्तराखण्ड, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और कस्मीर की तकलीफें समझ सकते हैं। बिहार और ओड़ीशा हमारे लिए हास्य और उपहास के विषय हैं।
भारत में आर्यों का आगमन ईसा के कोई 1500 वर्ष पूर्व हुआ । आर्यों की पहली खेप ऋग्वैदिक आर्य कहलाती है । ऋग्वेद की रचना इसी समय हुई । इसमें कई अनार्य जातियों का उल्लेख मिलता है । आर्य लोग भारतीय-यूरोपीय परिवार की भाषाएं बोलते थे । इसी शाखा की भाषा आज भी भारत, ईरान (फ़ारस) और यूरोप में बोली जाती है । भारत आगमन के क्रम में कुछ आर्य ईरान चले गए । ऋग्वेद की कई बाते अवेस्ता से मिलती हैं । अवेस्ता ईरानी भाषा के प्राचीनतम ग्रंथ है । दोनो ग्रंथों में बहुत से देवताओं तथा सामाजिक वर्गों के नाम भी समान हैं । ऋग्वेद में अफ़ग़ानिस्तान की कुभा तथा सिन्धु और उसकी पाँच सहायक नदियों का उल्लेख मिलता है ।
रही है। द्रविड़ सभ्यता के अवसान उपरान्त जारी वैदिकी हिंसा का सिलसिला बन्द नहीं हुआ है। जारी है शूद्रायन का महा अश्वमेध यज्ञ। जिसे हिन्दुत्व कहा जाता है। चन्द्र गुप्त मौर्य, सम्राट अशोक और पाल वंश के इतिहास में मूलनिवासी अस्मिता की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति है तो पुष्यमित्र ने अशोक का उत्तराधिकार को मनुस्मृति की व्यवस्था में बदल दिया। राजधर से बौद्धधर्म के विलोप और हिन्दुत्व के पुनरुत्थान से शुरु हुआ भारतीय समाज को छह हजार जातियों में विभाजित करने हेतु शूद्रायन का दूसरा चरण। पाल वंश के बाद बंगाल की दलित भूमि सेन वंश के शासनकाल में बामहनों के दखल में चला गया। मुगल पठान काल में भारतीय सत्तावर्ग ने मुसलिम शासकों का साथ निभाने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखायी। इसी काल में मूलनिवासियों पर जुल्मोसितम का इसतरह इंतहा कर दिया ब्राहअमणों ने कि व्यापक धर्मान्तरण हुआ। अंग्रेजी हूकुमत के दौरान मुम्बई, कोलकाता और मद्रास को केन्द्र में रखकर जो औपनिवेशिक शासन का तानाबाना बना उसमें सवर्ण ससत्तावर्ग की खास भूमिका थी। शूद्र, आदिवासी और मुसलमान किसान जहां समय समय पर बगावत करते रहे तो ब्राह्मणों की अगुवाई में सवर्म सत्तावर्ग ने ऐसे हर जनविद्रोह को कुचलने में विदेशी हुक्मरान का पूरा साथ दिया। मुंडा, संथाल, कोल, भील महाविद्रोह, सन्यासी विद्रोह, नील विद्रोह की कथा यही है। यहां तक कि सन १८५७ के महाविद्रोह में महाराष्ट्र. तमिलनाडु और बंगाल के कुलीन ब्राह्मणों की अगुवाई में सवर्ण सत्तावर्ग ने अंग्रेजों का साथ दिया। इनमें तथाकथित नवजागरण के मसीहा भी शामिल थे। हरिचांद ठाकुर या ज्योतिबा फूले के अस्जृश्यता विरोधी आन्दोलन और मूलनिवासियों की उच्चशिक्षा के खिलाफ थे ये लोग। दलित मुसलिम प्रजाजन पर सवर्ण जमींदारों के अत्याचारों के खिलाफ ढाका में ही मुसलिम लीग का गठन हुआ। पर बंगाल की अंतरिम सरकार बनी कृषक प्रजा पार्टी के फजलूल हक की अगुवाई में । उन्होंने किसानों से दगा करके ब्राह्मण नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी क मंत्री बनाया, तब जाकर कहीं मुसलिम लीग आंदोलन जोर पकड़ने लगा। महाप्राण जोगेन्द्र नाथ मण्डल और बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की अगुवाई में राष्ट्रीय दलित आन्दोलन जब मूलनिवासियों के हकहकूक के लिए तहलका मचाने लगे तो बंगाल और महाराष्ट्र के दलितों की तर्ज पर पूना और कोलकाता के बामहण एक जुट होकर भारत के विभाजन की तैयारी में जुट गया। इस बीच सवर्म सत्तावर्ग के राष्ट्रपिता ने दलितों के स्वतन्त्र मतदान अधिकार को पूना पैक्ट के जरिये खत्म कर दिया। दूसरे महायुद्ध ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को उपनिवेशों को स्वतन्त्र करने को मजबूर बनाया तो भारतीय ब्राह्मणों ने सत्ता हथिया लिया और देश के टुकड़े टुकड़े कर दिये। तो ब्राह्मणों ने सत्ता की खातिर पहले समाज को मनुस्मृति के जरिये बांटा । फिर देश को बांटने का क्रम शुरू हुआ। जिसका परिणाम आज रक्ताक्त यह महादेश भूगोल है।
विचारधाराएं और पार्टियां सत्ता समीकरण और सवर्ण हितों के मुताबिक बनती बिगड़ती रही। दक्षिणपंथ और मध्यपंथ, वामपंथ और गांधीवाद, समाजवाद, लोहियावाद, बहुजनवाद सबकुछ मूलनिवासियों के खिलाफ चला गया। आहिस्ते आहिस्ते अर्थव्यवस्थ, समाज और देश का ऐसा कारपोरेटीकरण होता गया कि सत्ता इने गिने परिवारों तक सिमटती गयी और अब मूलनिवासियों के अलाव देशभर की गरीब आम जनता आजीविका, नागरिकता और जीवन, मानवाधिकार और नागरिक अधिकार, प्राकृतिक संसाधनों पर नैसर्गिक अधिकारों से बेदखल हैं। यह उत्तर आधुनिक मनुस्मृतिवाद है। भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के तमाम महासचिव ब्राह्मण ही होते रहे हैं। किसी ने भारतीय समाज पर कभी फोकस नहीं किया। क्रान्ति के आयात तक सीमाबद्ध रहे। देश के इतिहास, द्रविड़ सभ्यता, राष्ट्रीयताओं , बौद्ध शासनकाल, दलित विरासत और मूलनिवासियों के हकहकूक की कोई फिक्र नहीं थी अबतक।
मूल रूप से द्रविड़ दक्षिण भारतीय माने जाते हैं मगर कभी ये सुदूर उत्तर में फल-फूल रहे थे। संस्कृत शब्द द्रविड़ मे दक्षिण भारत में निवास करने वाले सभी प्रमुख चार जाति समुदायों यानी मलयालम, तमिल, कर्नाटक और तेलुगू को शामिल माना जाता है। वैदिक काल में दक्षिण भारत को द्रविड़ों के नाम से नहीं बल्कि दक्षिणापथ के नाम ससे जाना जाता था। खास बात यह भी कि दक्षिण के क्षेत्रों में गुजरात, महाराष्ट्र समेत समूचा् दक्षिण भारत शामिल था। द्रविड़ शब्द तो संस्कृत में बहुत बाद में शामिल हुआ। दरअसल द्रविड़ शब्द तमिळ (तमिल) का रूपांतर है। भाषा के स्तर पर जो अर्थ संस्कृत का है यानी जो सुसंस्कृत हो या जिसमे संस्कार हो वही अर्थ तमिल का भी है। चेन्तमिल, तेलुगू , कन्नड़ आदि शब्दो के मूल में भी शुद्धता -माधुर्य आदि भाव छुपे हैं। द्रविड़ शब्द संस्कृत का है जरूर पर उसका मौलिक नहीं तमिळ का विकृत रूप है। इसका विकासक्रम कुछ इस तरह रहा है-
तमिळ > दमिळ > द्रमिळ > दमिड़ > द्रविड़ । दरअसल आर्य भाषा परिवार में ळ जैसा कोई वर्ण नहीं था और न ही ध्वनि थी इसलिए ळ वर्ण सहज रूप से ड़ में बदल गया। संस्कृत पर द्रविड़ परिवार के असर के बाद ही भारतीय भाषाओं में ळ वर्ण का प्रवेश हुआ और अब मराठी , गुजराती और राजस्थानी में भी इसका प्रयोग होता है। हालांकि इसमे कोई शक नहीं कि दक्षिण की सभी भाषाओं में तमिल भाषा सर्वाधिक शुद्ध है जबकि तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम पर आर्य भाषाओं का काफी प्रभाव पड़ा है। आर्य जिसे दक्षिणापथ कहते थे उसमें सौराष्ट्र और महाराष्ट्र समेंत दक्षिण के राज्य शामिल थे। महाराष्ट्रीय समाज आज भी खुद को द्रविड़ संस्कृति के निकट मानता है और पंचद्रविड़ भी कहलाता है।
ऋग्वैदिक काल के बाद भारत में धीरे धीरे सभ्यता का स्वरूप बदलता गया । परवर्ती सभ्यता को उत्तरवैदिक सभ्यता कहा जाता है । उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था और कठोर रूप से पारिभाषित तथा व्यावहारिक हो गई । ईसी पूर्व छठी सदी में, इस कारण, बौद्ध और जैन धर्मों का उदय हुआ । अशोक जैसे सम्राट ने बौद्ध धर्म के प्रचार में बहुत योगदान दिया । इसके कारण बौद्ध धर्म भारत से बाहर अफ़ग़ानिस्तान तथा बाद में चीन और जापान पहुंच गया । अशोक के पुत्र ने श्रीलंका में भी बौद्ध धर्म का प्रचार किया । गुप्त वंश के दौरान भारत की वैदिक सभ्यता अपने स्वर्णयुग में पहुंच गई । कालिदास जैसे लेखकों ने संस्कृत की श्रेष्ठतम रचनाएं कीं ।
ईसा पूर्व छठी सदी तक वैदिक कर्मकांडों की परंपरा का अनुपालन कम हो गया था । उपनिषद ने जीवन की आधारभूत समस्या के बारे में स्वाधीनता प्रदान कर दिया था । इसके फलस्वरूप कई धार्मिक पंथों तथा संप्रदायों की स्थापना हुई । उस समय ऐसे किसी 62 सम्प्रदायों के बार में जानकारी मिलती है । लेकिन इनमें से केवल 2 ने भारतीय जनमानस को लम्बे समय तक प्रभावित किया - जैन और बौद्ध ।
ये दोनों ही पहले से विद्यमान प्रणाली के कतिपय पक्षों पर आधारित हैं । दोनो यत्यास्पद जीवन (कठोरता पूर्ण और दुखभोगवादी) यानि यतित्ववादी और भ्रातृभाव पर आधारित है । यतित्ववाद का मूल वेदों में ही है तथा उपनिषदो से उसको प्रोत्साहन मिलता है ।
बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय के अनुसार कुल सोलह (16) महाजनपद थे - अवन्ति, अश्मक या अस्सक, अंग, कम्बोज, काशी, कुरु, कोशल, गांधार, चेदि, वज्जि या वृजि, वत्स या वंश , पांचाल, मगध, मत्स्य या मच्छ, मल्ल, सुरसेन ।
ईसापूर्व छठी सदी के प्रमुख राज्य थे - मगध, कोसल, वत्स के पौरव और अवंति के प्रद्योत । चौथी सदी में चन्द्रगुप्त मौर्य ने पष्चिमोत्तर भारत को यूनानी शासकों से मुक्ति दिला दी । इसके बाद उसने मगध की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया जो उस समय नंदों के शासन में था। जैन ग्रंथ परिशिष्ठ पर्वन में कहा गया है कि चाणक्य की सहायता से चन्द्रगुप्त ने नंद राजा को पराजित करके बंदी बना लिया । इसके बाद चन्द्रगुप्त ने दक्षिण की ओर अपने साम्राज्य का विस्तार किया । चन्द्रगुप्त ने सिकंदर के क्षत्रप सेल्यूकस को हाराया था जिसके फलस्वरूप उसने हेरात, कंदहार, काबुल तथा बलूचिस्तान के प्रांत चंद्रगुप्त को सौंप दिए थे ।
चन्द्रगुप्त के बाद बिंदुसार के पुत्र अशोक ने मौर्य साम्राज्य को अपने चरम पर पहुँचा दिया । कर्नाटक के चित्तलदुर्ग तथा मास्की में अशोक के शिलालेख पाए गए हैं । चुंकि उसके पड़ोसी राज्य चोल, पांड्य या केरलपुत्रों के साथ अशोक या बिंदुसार के किसा लड़ाई का वर्णन नहीं मिलता है इसलिए ऐसा माना जाता है कि ये प्रदेश चन्द्रगुप्त के द्वारा ही जीता गया था । अशोक के जीवन का निर्णायक युद्ध कलिंग का युद्ध था । इसमें उत्कलों से लड़ते हुए अशोक को अपनी सेना द्वारा किए गए नरसंहार के प्रति ग्लानि हुई और उसने बौद्ध धर्म को अपना लिया । फिर उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भी करवाया ।
उसी समय यूनानी यात्री मेगास्थनीज़ भारत आया । उसने अशोक के राज्य तथा उसकी राजधानी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) का वर्णन किया है । इस दौरान कला का भी विकास हुआ ।
बराक हुसैन ओबामा... इस नाम ने अमेरिका में नया इतिहास रच दिया है। पहली बार कोई अफ्रीकन अमेरिकन प्रेजिडेंट पद के लिए डेमोक्रेट पार्टी का उम्मीदवार बना है। 'चेंज' और 'होप', ओबामा ने दो ऐसे मैजिकल शब्द अमेरिका को सिखाए कि हिलेरी का जलवा भी फीका पड़ गया। ओबामा ऐसे अमेरिकी नागरिक की कहानी है, जिसने मुश्किल बचपन से सफर शुरू किया और अपने दम पर कामयाबी की बुलंदियां हासिल कीं। वह लाखों की महफिल में लोगों को हंसाता है, रुलाता है और हिम्मत रखता है यह कहने की - दुनिया को सबक़ देने वाले अमेरिका में कालों का गोरों से और गोरों का कालों से मनमुटाव है - वह है ओबामा... बराक हुसैन ओबामा... अमेरिका का पहला अफ़्रीकी-अमेरिकी राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार। ओबामा ने डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर अपनी जगह पक्की करके ही इतिहास नहीं बनाया, इस उम्मीदवारी ने कई इतिहास रचे हैं। और जब बराक हुसैन ओबामा ने मंगल की रात अपनी जीत का ऐलान किया तो उनका भी यही कहना था कि आज की रात एक ऐतिहासिक सफ़र का अंत हो रहा है दूसरा शुरू हो रहा है. सोलह महीने पहले जब ओबामा ने अपना अभियान शुरू किया था तो शायद बहुत गिने चुने लोगों को ही यकीन रहा होगा कि जिसने अभी अमरीकी सेनेट में मुश्किल से दो साल पूरे किए हैं वो बराक ओबामा हिलैरी क्लिंटन के सामने खड़े हो पाएंगे.
बंगाल के ब्राह्मण हम पर राज करते हैं उत्तर भारत के संघ परिवार और छद्म गांधीवादियों, मार्क्सवादियों, समाजवादियों और संघ परिवार के साथ। वोट लेने के लिए जनता को बांटने के लिए वे सब अलग अलग , एक दुसरे के जानी दुश्मन हैं। पर संसद और विधान सभाओं में मूलनिवासियों के जमीन, आजीविका, जीवन, नागरिकता और मानवाधिकार से वंचित करने के लिए एकजुट? सरकारें बदली, पर ग्लोबीकरण, निजीकरण, उदारीकरण की हवा तेज होती चली गयी।
जनवरी १९७९ में सुंदरवन के मरीचझांपी द्वीप में दंडकारण्य के शरणार्थियों को पुनर्वास की लालच देकर बुलाकर उन्हें भोजन और पानी स वंचित करके लम्बी नाकेबंदी के मध्य गोलियों से भून डाला गया। लाशों को न जलाया गया और न दफनाया गया। भबाघों का चारा बना दिया गया। नंदीग्राम, तसलिमा नसरीन और रिजवान प्रेमकथा पर हो हल्ला करने वाले कोलकाता और बंगाल के ब्राह्मण बुद्धजीवी, पत्रकार और राजनेत इसपर पिछले तीस साल से चुप्पी साधे रहे और कामरेड ज्योति बसु की जय जयकार करते रहे। मरीचझांपी भारत में मूलनिवासियों की कत्ल की नयी वैज्ञानिक संस्कृति की जन्मगाथा है। जिसे आज देशभर में रोजगार और विकास के नाम पर सेज आखेटगाहों में दशव्यापी पना दिया गया।
राम विलास पासवान और शरद यादव सतात्तर के बाद हर मंत्रिमंडल में शामिल हैं। सरकारे और पार्टियां बदल जाती हैं, पर राज करने वाले लोग वहीं रहते हैं। सिर्फ चुनाव नतीजों और सत्तासमीकरण के कारण सिद्धान्त, रणनीतियां और वफादारियां बदल जाती हैं।
बंगाल के ब्राह्मणों ने भारत विभाजन करके मूलनिवासियों को पहले शरणार्थी बनाकर बंगाल के इतिहास भूगोल से बाहर किया। अब सर्वदलीय सहमति से बनी नयी नागरिकता कानून के तहत उन्हे देश निकाला का इंडजाम भी पूरा। शरणार्थी समस्या का समाधान किये बिना, बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर होते निरन्तर उत्पीड़न के खिलाफ एक शब्द बले बिना , सीमापार से घुसपैठ रोकने की राजनीतिक कूटनीतिक व्यवस्था किए बिना शरणार्थियों को महज वोटबैंक में तब्दील करके देश में ब्राह्मणराज बनाये रखने के लिए मनचाहा जनससंख्या संन्तुलन बनाने में बंगाली कुलीन ब्रह्मणों और सत्ता में उनके साझेदार कायस्थों का कोई सानी नहीं है।
बंगाल पर कभी दलितों के साथ राज करने वाले मुसलमान दलितों को शरणार्थी बना दिये जाने के बाद सत्ताधारी बामहणों के रहमोकरम पर निर्भर हैं। सच्चर रपट में बंगाल में मुसलमानों के हाल का खुलासा हुआ है। नंदीग्राम में सरकारी हिंसा के शिकार हुए दलित और मुसलमान। इनकी मामूली नाराजगी से बंगाल में पंचायत चुनावों में ग्राम सभाओं की पचास फीसद सीचे खो दी हैं वाममोर्चे ने। हालांकि जिला परिषड सिर्फ चार गवांये। अगर मुसलमान, ओबीसी और आदिवासी एकजुट हो जाये तो बंगाल में ब्राह्मण मोर्चे का राजकाज तमाम हो सकता है।
पर विकल्प के तौर पर पेश किया जा रहा है फिर ब्राह्मणों को। वाममोर्चा सत्ता से बेदखल हुआ तो युद्धदेव बुद्धदेव की जगह मुख्यमंत्री बन जायेंगी ममत बनर्जी। कांग्रेस तृणमूल कांग्रेस के तमाम नेता ममता बनर्जी, प्रणव मुखर्जी, सुब्रत मखर्जी, सुदीप बंदोपाध्याय, प्रदीप भट्टाचार्य, सोमेन मित्र, पिरयरंजन दासमुंशी ब्राह्मण ही तों हैं।
देशभर के जिलों में जिलाधीश अस्सी फीसद से ज्यादा ब्राह्मण। तेईस राज्यों के १९ मुख्य सचिव ब्राहमण। केन्दरीय और राज्य सचिवालयों में भी ब्राह्मण काबिज। नीतियां तय करने वाले सारे के सारे ब्राह्मण।
राजनीतिक आरक्षण से अब नौकरियां नहीं मिल सकती। कारपोरेट शासन और उदारीकरण ने संविधान की हत्या करते हुए आरक्षण को बेमतलब बना दिया है। बल्कि आरक्षण से वंचित या अधूरे आरक्षण के शिकार ज्यादातर दलित, ओबीसी और जनजातियों के लिए अवसरों के तमाम दरवाजे बंद हैं। मसलन बंगाली शारणार्थी बंगाल से बाहर। तमाम ओबीसी जातियां बंगाल में, आजतक जिनकी पहचान नहीं हुई। संथाल और मुंडा असम में।
अब आरक्षण से सिर्फ वोट हासिल किये जा सकते हैं। इसीलिए कहीं गर्जरों और मीणा को लड़ाया जा रहा है तो कहीं आदिवासियों को गैर आदिवासियों से।
राजनीतिक आरक्षण से जो दलाल और भड़ुवे सत्ता के गलियारे में घूमते हैं, वे छह हजार से ज्यादा जातियों और भारत के तमाम ममूलनिवासियों की नुमाइंदगी नहीं करते। वे अपनी जातियों का भी सही मायने में प्रतिनिधित्व नहीं करते। बस, अपन कुनबे में मलाई बांट रहे हैं। जो राजनीतिक परिवर्तन बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में दिखा, वहां ताकतवर दो चार जातियों का या तो सवर्णों या फिर मुसलमानों से गठबंधन का चुनावी नतीजा है या फिर सत्ता समीकरण। इस पूरी प्रक्रिया से आदिवासी अलग थलग है और कमजोर दलित पिछड़ी जातियां भी।
इस ब्राह्मणवादी बांटो और राज करो राजनीति या राजनीतिक परिवर्तन से क्या जात पांत, भेदभाव और देश की कुल आबादी का पच्चासी प्रतिशत मूल निवासियों की लाखों सालों से जारी गुलामी खत्म होने का कोई आसार है?
भारत चीन सीमाविवाद को लेकर भारतीय कम्युनिस्ट पा्र्टी का विभाजन हो गया । मूल भाकपा कांग्रेस की पिछलग्गू बनी रही सोवियत इशारे से। पर माकपा चीन को हमलावर नहीं मानती और सीमाविवाद के लिए नेहरु को जिम्मेवार मानती रही। ऱूस चीन समन्वय खत्म होने के बाद माकपाई चीनी लाइन पर चलने लगे। किन्तु जब बीजिंग में बंगाल में वसन्त का वज्र निनाद सुनायी पड़ा तो माकपाई सहम गये। इस बीच बांग्लादेश युद्ध के दौरान भारत सोवियत मैत्री संधि पर दस्तखत के साथ भाकपा की पहचान इंदिरा कांग्रेस के चुनाव चिह्न गाय बछड़े तक सिमटकर रह गयी। भाकपा ने इंदिरा के आपातकाल का पुरजोर समर्थन किया । इससे पहले १९७१ के मध्यावधि चुनाव में भाकपा कांग्रेस के साथ मोर्चाबद्ध थी। दूसरी तरफ रूसपंथी समाजवादी इंदिरा गांधी को तानाशाह बताते हुए उसे उखाड़ने के लिए अमेरिकापरस्त पूर्व राजा रजवाड़ों, समाजवादियों और संघ परिवार के साथ जुड़ गयी माकपा। इसमे बसु, नंबूदरीपाद और सुरजीत की खास भूमिका थी। इस तरह उत्तर भारत में माकपा की भूमिका चिरकुट की हो गयी। इसीतरह वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के लिए फिर अमेरिकापरस्त संघ परिवार से गठजोड़।
गौरतलब है कि कांग्रेस की विदेशनीति और आर्थिक नीतियो के पूरी तरह अमेरिकी हो जाने से पहले तक माकपा उसे नंबर एक दुश्मन मानती रही। विश्व बैंक ने मनमोहन सिंह को भारत का वित्त मंत्री बना दिया और नवउदारवादी अर्थव्यवस्था चालू हो गयी तो ५६ हजार कल कारखानों को बंद कराने के बाद, चायबागानों, जूट और कपड़ा उद्योग को तबाह करने के बाद माकपा ने मनमोहन के प्रधानमंत्रीत्व में पूंजीवादी विकास का रास्ता अपना लिया। मजे की बात है कि वोट की राजनीति में माकपा इन्हीं आर्थिक नीतियों और विदेशनीतियों, अमेरिकापरस्ती के खिलाफ बोलते हुए कदम दर कदम कांग्रेस का सहयोग करते हुए उसे जनविरोधी और राष्ट्र विरोधी कहने से नहीं हिचकिचाती। जब अमेरिका के खिलाफ थी कांग्रेस तब माकपा उसके सख्त खिलाफ थी। और अब जब कांग्रेस मनमोहन प्रणव कमलनाथ चिदम्बरम की अगुवाई में पूरीतरह अमेरिकी हो गयी तब कांग्रेस की सबसे बड़ी सहयोगी माकपा। कीसिंजर का राइटर्स में भव्य स्वागत, इंडोनेशिया में कम्युनिस्टों के कत्लेआम के लिए कुख्यात सलेम के खातिर नंदीग्राम में कैमिकल हब के लिए नरसंहार और भोपाल गैस त्रासदी के लिए जिम्मेवार यूनियन कार्बाइड खरीदने वाली नापाम बम विशेषज्ञ डाउज को बंगाल में न्यौता की वैचारिक पृष्ठभूमि क्या है- बतायेंगे कामरेड?
आंतरिक स्वशासन, सशक्तीकरण और मूलनिवासियों की सामग्रिक एकता के बगैर भारत या दुनिया में कहीं भी मूल परिवर्तन असंभव है।
इस परिवर्तन का आधार प्राकृतिक संसाधनो के दोहन और इसके लिए जारी कारपोरेट नरसंहार और राष्ट्रीय हिंसा के सक्रिय विरोध के लिए मूलनिवासियों, दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और धर्मान्तिरत मूलनिवासियों की एकजुट मजबूत मोर्चाबंदी से ही बन सकता है।
२००३ में तेल की कीमत २५ डालर प्रति बैरल था। आज १३९ डालर प्रति बैरल।
तेल कीमतों पर बवाल मचाने वाले ढोंगी राजनेताओं से पूछन की जरुरत है कि ऐसा क्यों हुआ? इराक पर अमेरिकी हमला रोकने के लिए कभी निर्गुट देशों का अगुवा रहे भारत ने कौन से गुल खिलाए? अमेरिकी युद्धक विमानों को भारत से तेल भरने की अनुमति देने के अलावा? अफगानिस्तान पर जब मिसाइलों की वर्षा हो रही थी, तो भारतीय आकाश सीमा के उलंघन पर भारत की क्या प्रतिक्रया रही?
राहुल बजाज ने कहा कि हम कच्चा तेल इतना महंगा आयात कर रहे हैं और इसे सस्ते में देश में बेच रहे हैं तो इस घाटे की पूर्ति कहीं न कहीं से तो करनी ही पड़ेगी। चाहे ऑयल बॉण्ड जारी करें, तेल कम्पनियों को नीलाम होने दें, या किसी और तरह का राजस्व घाटा उठाएं। इसलिए किसी और तरह से उपभोक्ताओं पर बोझ डालने से अच्छा है कि सीधे तौर पर तेल की कीमतों में वृद्धि की जाए। इससे तेल के उपभोग में भी कमी आएगी और वातावरण में प्रदूषण कम फैलेगा।
दुनिया में मौजूदा खाद्य संकट के लिए अमेरिका और यूरोप भले ही भारत और चीन की तेज आर्थिक तरक्की को दोषी बता रहे हों, लेकिन असलियत यह है कि इस संकट ने अमीर देशों के अनाज व्यापारियों को मालामाल होने का नायाब मौका दे दिया है, जबकि पिछड़े देशों में गरीबों की आबादी बढ़ती जा रही है। हाल के बरसों में जब लगभग पूरी दुनिया में तरक्की की लहर चल रही थी, पिछड़े देशों में भी करोड़ों लोगों को बेहतर जिंदगी जीने का मौका मिलने लगा था। लेकिन फिर अनाज की कीमतें बढ़ने लगीं, जिसका सिलसिला पश्चिम की मंडियों से शुरू हुआ। इसका असर पिछड़े देशों पर बहुत बुरा पड़ा और जिंदगी का रुख बदलने लगा। इस संकट के चलते अशांति फैलने लगी है। हैती और मिस्त्र से दंगे की खबर मिली है, जिन्हें अब फूड रॉयट्स कहा जाने लगा है। जानकारों का अंदाजा है कि दूसरे देशों में भी ऐसे हालात बन रहे हैं।
भारत अमेरिकी परमाणु समझौते का हकीकत क्या है? वियतनाम के कसाई हेनरी कीसिंजर से कोलकाता के राइटर्स बिल्डिंग में बैठक करने वाले मार्क्सवादी पूंजीवादी विकास के ब्रांड मुख्यमंत्री बुद्धदेव को पार्टी कांग्रेस में शहरीकरण औद्योगीकरण नीतियों का मुख्य प्रवक्ता बनाने वाली माकपा की अगुवाई में वामपंथियों के अमेरिका विरोध का राज क्या है? उत्तरपूर्व भारत और कश्मीर में राष्ट्रीयताओं के दमन के लिए अमेरिका और इसराइल की मदद पर संयुक्त युद्धाभ्यास के खिलाफ हंगामा करनेवाले वामपंथी खामोश क्यों रहे? भोपाल गैस त्रासदी के जिम्मेवार यूनियन कार्बाइड को खरीदने वाले वियतनाम युद्ध में बरसाये गये नापाम बमों के विशषज्ञ डाउज पर रसायनों के उत्पादन में कानून के उलंघन के लिए अमेरिका में करोड़ डालर का जुर्माना हुआ। उसी डाउज के लिए पलक पांवड़े बिछाने वाली माकपाई बंगाल सरकार अमेरिकी पंजी के लिए मर मिट रही है। जमीन अधिग्रहण एकमात्र माकपाई एजंडा है, जिसे पंचायत चुनावों में झटके के बावजूद बदला नहीं गया है।
केंद्र में सरकार को बाहर से समर्थन दे रही प्रमुख वामपंथी पार्टी के महाधिवेशन सत्र में परमाणु करार को लेकर पार्टी के गंभीर विरोध की बात दोहराई गई और जोर दिया गया कि पार्टी इसे कार्यान्वयन से रोकने के लिए अपना पूरा दमखम लगा देगी। कांग्रेस और भाजपा से इतर तीसरा विकल्प तैयार करने के आह्वान और भारत अमेरिका सैनिक संधि को समाप्त करने की मांग के साथ माकपा की छह दिवसीय कांग्रेस शनिवार को शुरू हुई। इसमें वाशिंगटन के साथ नागरिक परमाणु समझौते पर गंभीर आपत्ति जताते हुए कहा गया कि पार्टी इसे कार्यान्वयन से रोकने के लिए अपना पूरा जोर लगा देगी। 19वीं कांग्रेस के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए माकपा महासचिव प्रकाश करात ने कहा कि भाजपा के नेतृत्व वाली सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता में आने से रोकने के लिए सभी कदम उठाए जाने चाहिए और तीसरा विकल्प नीतियों के वैकल्पिक मंच पर आधारित होना चाहिए जो महज चुनावी गठबंधन नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा कि ऐसी लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष पार्टियां हैं, जो जनोन्मुख आर्थिक नीतियों, सामाजिक न्याय के उपायों और स्वतंत्र विदेश नीति पर वाम से सहमत हो सकती हैं। ऐसा मंच नि:संदेह चरित्र में गैर सांप्रदायिक होगा। इस अपील में उनका साथ देते हुए भाकपा महासचिव एबी बर्धन ने कहा कि यह वक्त है जब हमें कांग्रेस और भाजपा दोनों का एक वाम तथा लोकतांत्रिक विकल्प तैयार करने का हर प्रयास करना चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था पर अमेरिकी मंदी के असर का जिक्र करते हुए करात ने कहा कि सरकार में हमारे कुछ नेता पशु भावना का त्याग करने की बात करते हैं और अब भी पूंजी खाता परिवर्तनीयता की बात करते हैं, हमें आशा है कि मौजूदा संकट कुछ उचित सबक सिखाएगा। उन्होंने कहा कि यह दुखद है कि सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान में कई मानते हैं कि अमेरिका दुनिया की प्रमुख शक्ति बनने में भारत की मदद करेगा। उन्होंने कहा कि यह त्रुटिपूर्ण है जिसकी वजह से अमेरिका के साथ सामरिक तालमेल की बात सत्ताधारी वर्ग में उपजती है। संप्रग सरकार ने उसी को आगे बढ़ाया है, जिसे भाजपा नीत सरकार ने शुरू किया था।
अमेरिका और यूरोप में तीन हजार रसायनों पर रोक है। वहां रसायन उत्पादन के लिए जीरो प्रदूषण की अनिवार्य शर्त है , जबकि अपने रसायन कानून में कारपोरेट विदेशी कंपनियों को दी जाने वाली रियायतों के अलावा कुछ भी नहीं है। भोपाल गैसत्रासदी के पीड़ितों को अभीतक मुआवज नहीं मिला। न ही खतरनाक रासायनिक जखीरा हटाया गया है।
इसपर तुर्रा यह कि कैमिकल हब के लिए नंदीग्राम में कत्लेआम का सिलसिला जारी है दलितों और मुसलमानों की लाशों पर कारपोरेट विकास और राजनीति का खेल चालू है। नंदीग्राम जनप्रतिरोध के बाद अब समुद्रतटवर्ती नयाचर को निशाना बनाया जा रहा। देश भर में समुद्रतटवर्ती इलाकों में मूलनिवासियों का सफाया करके सेज और कैमिकल सेज के बहाने विदेशी उपनिवेश बनाये जा रहे हैं। इंडोनेशिया के जल्लाद कुख्यात कम्युनिस्ट संहारक सलेम के साथ नाता जोड़कर कौन सी क्रांति कर रहे हैं?
परमाणु समझौते का विरोध, पर मेदिनीपुर में हरिपुर जूनपुट इलाके में अमेरिकी संयंत्रों से परमाणु बिजली घर बनाने की तैयारी।
मध्यपूर्व में अमेरिकी हमला, आतंकवाद के खिलाफ युद्ध, यहूदी युद्धतंत्र और हथियार उद्योग आधारित साम्राज्यवादी अर्थ व्वस्था का उपनिवेश कैसे बना यह देश? कारगिल युद्ध की वास्तविकता क्या है। रक्षासौदों में कमीशनखोरी और स्विस बैंक खाते अब गोपनीय नहीं है। देशभक्ति का आलाप करते हुए हिंदूराष्ट्र साइनिंग इंडिया सेनसेक्स इंडिया के झंडवरदार मातृभूमि से लगातार बलात्कार कर रहे हैं।
जिस देश में तीस करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं , वहां मध्यवर्ग के उत्थान को ही सर्वोच्च प्राथमिकता देकर इस उपमहादेश को खुला बाजार में तब्दील करते हुए साम्राज्यवादियों का शिकारगाह बनाया किसने?
ईंधन संकट से निपटने के लिए अब बायोईंधन पर जोर है। बायो ईंधन के उत्पादन के लिए अनाज की खेती को तिलांजलि दी जा रही है। औद्योगीकरण और शहरी करण के लिए खाद्यसुरक्षा को ताक पर रखते हुए उपजाऊ जमीन किसानों से छीनी जारही है दुनियाभर में, भारत में भी।
भोजन नहीं। चिकित्सा नहीं। शिक्षा नहीं। रोजगार नहीं। आजीविका नहीं। महज निजीकरण। रीटेल चेन और खुला बाजार। क्रयशक्ति के बिना जिस बाजार में आम आदमी को प्रवेशाधिकार नहीं। रियेलिटी शो, क्रिकेट कार्निवाल, सास बहू सोप आपेरा और तरह तरह की नौटंकी, अखबारों में सेक्स, टीवी में सेक्स, मोबाइल पर सेक्स, वाहनों में सेक्स, दफ्तरों में सेक्स, पर्यटन के बहाने सेक्स, विज्ञापनों में सेक्स, कारोबार और राजनीति में सेक्स और अब अंतरिक्ष में भी सेक्स।
जनता भुखमरी और प्राकृतिक मानविक आपदाओं , दुर्घटनाओ , आपराधिक वारदातों, युद्ध, गृहयुद्ध, आतंकवादी वारदातों और सरकारी हिंसा, राजनीतिक हिंसा, कारपोरेट नरमेध यज्ञ में मारे जा रहे हैं। तो दूसरी और चांद, मंगल और इस आकाशगंगा की जाने अनजाने ग्रहों और उपग्रहों में कालोनियां बसाने के लिए तरह तरह के प्रयोग किये जा रहे हैं। इस वैज्ञानिक विकास का सामाजिक सरोकार क्या है? सभ्यता का विकास सत्तावर्ग का नंगा तांडव बन गया है।
जब दुनिया में तेल और गैस के साधन सीमित हैं तो मोटर और विमान उद्योगों के विकास के लिए मूलनिवासियों को जमीन और जीवन से बेदखल करने का खेल क्यों जारी है? ईंधन जरूरी है या भोजन? सब्सिडी हटा दें तो रसोई गैस की कीमत सात सौ पार हो जाये। तेल कीमतों में बढ़ोतरी के बाद सब्सिडी बढ़ाकर, बिक्रीकर घटाकर जो जलता को उल्लू बनाया जा रहा है, उससे होने वाले राजस्व घाटा का खामियाजा भुगतेगा कौन? ईरान से गैस पाइप लाइन के जरिए जो ईंधन का बन्दोबस्त किया जा रहा है, ईरान पर अमेरिकी हमला और पाकिस्तान में अमेरिकी दखलान्दाजी के बाद उसकी जमीनी हकीकत क्या है।
जब हम बच्चों को शिक्षा, भोजन, चिकित्सा, रोजगार के अवसर नहीं दे सकते तो आईपीएल की नंगी अश्लीलता के लिए हजारों करोड़ का न्यारा वारा किसकी मर्जी से होता है और उसका कर्ता धर्ता देश का कृषि मंत्री ही क्यों होता है?
ग्लोबल वार्मिंग, रासायनिक इलेक्ट्रानिक प्रदूषण, सुनामी, भूकंप, बाढ़, भुखमरी के पीछे अनन्त साजिशें हैं दुनियाभर के मुलनिवासियों के खिलाफ। ग्लोबल सत्तावर्ग के खिलाफ ग्लोबल प्रतिरध के लिए तमाम मूलनिवाियों की विश्वव्यापी मोर्चाबंदी के लिए कौन पहल करेगा?
भारत में यह सवाल उठाए जा रहे हैं कि अमेरिका में संभावित आर्थिक मंदी भारत की तेज गति से बढ़ती आर्थिक वृद्धि को कैसे प्रभावित करेगी । भारत की आर्थिक वृद्धि की रफ्तार कुछ धीमी होने की संभावना है, लेकिन आगामी वर्ष में स्वस्थ गति से आगे बढ़ती रहेगी । परंतु जनवरी में मुंबई शेयर बाजार का सूचकांक, सेंसेक्स अमेरिका में संभावित मंदी की वजह से उपजी आशंकाओं के चलते वैश्विक आर्थिक वृद्धि में गिरावट आने के कारण अन्य एशियाई बाजारों की तरह काफी नीचे गिर गया । उसके बाद के हफ्तों में स्तब्ध निवेशकों ने इस वर्ष के शुरू में सेंसेक्स को अपने चरम से 20 प्रतिशत से भी ज्यादा नीचे गिरते हुए देखा है । अर्थशास्त्री ऐसी आशंकाओं को दूर करने की कोशिश कर रहे हैं । श्री सौमित्र चौधरी प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य हैं । उन्होंने कहा कि अमेरिका की संभावित मंदी का भारत की आर्थिक वृद्धि पर बहुत मामूली असर पड़ेगा ।
कंप्यूटर और जेनेटिक इंजीनियरिंग का आविष्कार हो चुका है, इतिहास की पुस्तकों में दर्ज इस तथ्य पर कोई यकीन नहीं करता कि आर्यों ने भारत पर हमला किया था. वजह: पुरातत्वविदों ने सबूत दे दिया है कि आर्यों ने भारत पर हमला नहीं किया था, न ही यहां के लोगों को अपने अधीन किया था और जाति क्रम में सबसे ऊपर जा बैठे थे. और अब यह खोज: भारत और अमेरिका के क्त्त् वैज्ञानिकों ने मानव वंशाणुविद, यूताह विश्वविद्यालय के माइकल बामशाड की अगुआई में आधुनिक भारत की विभिन्न जातियों के वंशाणुओं के नमूनों की तुलना आधुनिक यूरोपीय और पूर्वी एशियाइयों के वंशाणुओं से की है.
वंशाणु चिक्कों का ह्णयोग करते ए उन्होंने भारतीयों के पिता से मिलने वाले वंशाणुओं की जांच वाइ-गुणसूत्र से की. माता से मिलने वाले वंशाणुओं की जांच सूत्रकणिका (माइटोकोड्रिंयल डीएनए) के आधार पर की.
इस अध्ययन के निष्कर्ष अमेरिका के जर्नल जिनोम रिसर्च में ह्णकाशित ए हैं. इससे यह स्पष्ट आ है कि भारत की ऊंची जातियां यूरोपीय लोगों के अधिक निकट हैं तो नीची जातियां एशियाइयों के. और यह भी कि हमारे मातृ वंशाणु एक-से हैं, लेकिन पितृ वंशाणु भिन्न हैं. कोलकाता के भारतीय साख्यिंकी संस्थान में मानव विज्ञान एवं मानव वंशाणु विज्ञान विभाग के अध्यह्न पार्थ ह्णतिम मजूमदार कहते हैं, ‘‘यह अध्ययन ब त महत्वपूर्ण है. इसमें विभिन्न जातियों की निश्चित विशिष्टताओं को साबित करने के लिए कई तरह के वंशाणु चिक्कों का इस्तेमाल किया गया है.’’
कैब्रिंज विश्वविद्यालय के मैकडॉनल्ड इंस्टीट्यूट फॉर आर्कियो-लॉजिकल रिसर्च के डॉ. पीटर फॉर्स्टर कहते हैं, ‘‘यह निष्कर्ष ठोस तथ्यों पर ही आधारित है कि ऊंची जाति के भारतीयों और पश्चिमी यूरेशियनों में वंशाणुगत साम्यता है.’’ तो क्या यह मान लिया जाए कि हमारे ब्राह्माणों और ह्नत्रियों का पिता कोई यूरोपीय रहा होगा?
हो सकता है, लेकिन इस बारे में अतिंम निष्कर्ष अभी नहीं आया है. लेकिन इस अध्ययन ने इतिहासविदों और मानव विज्ञानियों के बीच बहस का मसाला जुटा दिया है. बहस का सबसे दिलचस्प मुद्दा है-आखिर यूरोप के वंशाणु भारत में क्यों और कैसे आ प ंचे? शोधपत्र में कहा गया है कि ऊंची जाति के हिंदू आर्यों के वंशज हैं-वंशाणुओं की जांच यही बताती है. इसका जवाबी तर्क मौजूद है-सामाजिक मानवविज्ञानी वी.एन. श्रीवास्तव कहते हैं, ‘‘द्रविड़ और आर्य भाषायी अंतर दर्शाने वाले शब्द हैं, जातीय अंतर दर्शाने वाले नहीं. और फिर आर्य कोई विशिष्ट जाति नहीं है.’’ लेकिन आर्यों द्वारा हमलों की मान्यता अन्य बातों के अलावा भाषायी पहलू पर भी आधारित थी.
यूरोपीय भाषाओं और संस्कृत में समानता को देखकर ही यह पुष्टि ई कि यूरोप के लोग भारत आए होंगे. ऋग्वेद संस्कृत की सबसे ह्णाचीन ज्ञात रचना है. इसका रचनाकाल ख्000 ई. पू. है और लगभग इसी समय सिंधु घाटी सभ्यता का अंत आ था. दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास की रीडर नयनजोत लाहिड़ी का सवाल है, ‘‘ऋग्वेद तो श्रुति आधारित है, इसका रचनाकाल कैसे पता लगाया जा सकता है?’’ इसके अलावा ऋग्वेद में किसी जाति के भारत आने या किसी और देश का कोई उल्लेख नहीं है.
मौर्यों के पतन के बाद शुंग राजवंश ने सत्ता सम्हाली । ऐसा माना जाता है कि मौर्य राजा वृहदृथ के सेनापति पुष्यमित्र ने बृहद्रथ की हत्या कर दी थी जिसके बाद शुंग वंश की स्थापना हुई । शुंगों ने १८७ ईसापूर्व से ७५ ईसापूर्व तक शासन किया । इसी काल में महाराष्ट्र में सातवाहनों का और दक्षिण में चेर, चोल और पांड्यों का उदय हुआ । सातवाहनों के साम्राज्य को आंध्र भी कहते हैं जो अत्यन्त शक्तिशाली था ।
पुष्यमुत्र के शासनकाल में पश्चिम से यवनों का आक्रमण हुआ । इसी काल के माने जाने वाले वैयाकरण पतञ्जलि ने इस आक्रमण का उल्लेख किया है । कालिदास ने भी अपने मालविकाग्निमित्रम् में वसुमित्र के साथ यवनों के युद्ध का जिक्र किया है । इन आक्रमणकारियों ने भारत की सत्ता पर कब्जा कर लिया । कुछ प्रमुख भारतीय-यूनानी शासक थे - यूथीडेमस, डेमेट्रियस तथा मिनांडर । मिनांडर ने बौद्ध धर्म अपना लिया था तथा उसका प्रदेश अफगानिस्तान से पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक फैला हुआ था ।
इसके बाद पह्लवों का शासन आया जिनके बारे में अधिक जानकारी उपल्ब्ध नहीं है । तत्पश्चात शकों का शासन आया । शक लोग मध्य एशिया के निवासी थे जिन्हें यू-ची नामक कबीले ने उनके मूल निवास से खदेड़ दिया गया था । इसके बाद वे भारत आए । इसके बाद यू-ची जनजाति के लोग भी भारत आ गए क्योंकि चीन की महान दीवार के बनने के बाद मध्य एशिया की परिस्थिति उनके अनूकूल नहीं थी । ये कुषाण कहलाए । कनिष्क इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था । कनिष्क ने ७८ ईसवी से १०१ ईस्वी तक राज किया ।
Sunday, June 8, 2008
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