BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Monday, September 28, 2015

वीरेनदा का जाना और एक अमानवीय कविता की मुक्ति


वीरेनदा का जाना और एक अमानवीय कविता की मुक्ति

जनपद के कवि वीरेनदा,हमारे वीरेन दा कैंसर को हराकर चले गये!लड़ाई जारी है इंसानियत के हक में लेकिन,हम लड़ेंगे साथी!
आज लिखा जायेगा नहीं कुछ भी क्योंकि गिर्दा की विदाई के बाद फिर दिल लहूलुहान है।दिल में जो चल रहा है ,लिखा ही नहीं जा सकता।न कवि की मौत होती है और न कविता की क्योंकि कविता और कवि हमारे वजूद के हिस्से होते हैं।वजूद टूटता रहता है।वजूद को समेटकर फिर मोर्चे पर तनकर खड़ा हो जाना है।लड़ाई जारी है।
Let Me Speak Human!

वीरेनदा का जाना और एक अमानवीय कविता की मुक्ति


अभिषेक श्रीवास्‍तव 


वीरेन डंगवाल यानी हमारी पीढी में सबके लिए वीरेनदा नहीं रहे। आज सुबह वे बरेली में गुज़र गए। शाम तक वहीं अंत्‍येष्टि हो जाएगी। हम उसमें नहीं होंगे। अभी हाल में उनके ऊपर जन संस्‍कृति मंच ने दिल्‍ली के गांधी शांति प्रतिष्‍ठान में एक कार्यक्रम करवाया था। उनकी आखिरी शक्‍ल और उनसे आखिरी मुलाकात उसी दिन की याद है। उस दिन वे बहुत थके हुए लग रहे थे। मिलते ही गाल पर थपकी देते हुए बोले, ''यार, जल्‍दी करना, प्रोग्राम छोटा रखना।'' ज़ाहिर है, यह तो आयोजकों के अख्तियार में था। कार्यक्रम लंबा चला। उस दिन वीरेनदा को देखकर कुछ संशय हुआ था। थोड़ा डर भी लगा था। बाद में डॉ. ए.के. अरुण ने बताया कि जब वे आशुतोष कुमार के साथ वीरेनदा को देखने उनके घर गए, तो आशुतोष भी उनका घाव देखकर डर गए थे। दूसरों से कोई कुछ कहता रहा हो या नहीं, लेकिन वीरेनदा को लेकर बीते दो साल से डर सबके मन के भीतर था। 

मैं 2014 के जून में उन्‍हें कैंसर के दौरान पहली बार देखकर भीतर से हिल गया था जब रविभूषणजी और रंजीत वर्मा के साथ उनके यहां गया था। उससे पहले मैंने उन्‍हें तब देखा था जब वे बीमार नहीं थे। दोनों में बहुत फ़र्क था। मैं घर लौटा, तो दो दिन तक वीरेनदा की शक्‍ल घूमती रही थी। मैंने इस मुलाकात के बाद एक कविता लिखी और पांच-छह लोगों को भेजी थी। अधिकतर लोग मेरी कविता से नाराज़ थे। मंगलेशजी ने कहा था कि वीरेन के दोस्‍तों को यह कविता कभी पसंद नहीं आएगी और वीरेन खुद इसे पढ़ेगा तो मर ही जाएगा। विष्‍णु खरे ने मेल पर टिप्‍पणी की थी, ''जब मुझे यह monstrosity मिली तो बार-बार पढ़ने पर भी यक़ीन नहीं हुआ कि मैं सही पढ़ रहा हूं। यह आदमी, यदि इसे वैसा कहा जा सकता है तो, मानसिक और बौद्धिक रूप से बहुत बीमार लगता है, जिसे दौरे पड़ते हैं। इसे सर्जनात्मकता की अनुशासित, तमीज़दार मानवीयता के बारे में कुछ पता ही नहीं है। यह किसी horror film से बाहर आया हुआ कोई zombie या imbecile है।'' 

इन प्रतिक्रियाओं के बाद मैंने कविता को आगे तो बढ़ाया, लेकिन फिर किसी और को पढ़ने के लिए संकोचवश नहीं भेजा। मुझे लगा कि शायद वास्‍तव में मेरे भीतर ''सर्जनात्‍मकता की अनुशासित, तमीज़दार मानवीयता'' नहीं रही होगी। एक बात ज़रूर है। रंजीत वर्मा के कहे मुताबिक इस कविता को मैं आशावादी नहीं बना सका गोकि मैंने इसकी कोशिश बहुत की। मैंने चुपचाप ज़ॉम्‍बी बने रहना इस उम्‍मीद में स्‍वीकार किया कि वीरेनदा ठीक हो जाएं, कविता का क्‍या है, वह अपने आप दुरुस्‍त हो जाएगी। उन्‍हीं के शब्‍दों में कहूं तो- ''एक कवि और कर भी क्‍या सकता है / सही बने रहने की कोशिश के सिवा''। 

मेरा डर गलत नहीं था, उसकी अभिव्‍यक्ति चाहे जैसी भी रही हो। अब वीरेनदा हमारे बीच नहीं हैं और मैं उन पर लिखी इन कविताओं के तमीज़दार व मानवीय बनने का इंतज़ार नहीं कर सकता। ऐसा अब कभी नहीं होगा। बीते डेढ़ साल से इन कविताओं की सांस वीरेनदा के गले में अटकी पड़ी थी। जीवन का डर खत्‍म हुआ तो कविता में डर क्‍यों बना रहे फिर? वीरेनदा के साथ ही मैं उन पर लिखे इन शब्‍दों को आज  मुक्‍त कर रहा हूं। 


वीरेन डंगवाल (05.08.1947 - 28.09.2015)
(तस्‍वीर: विश्‍व पुस्‍तक मेला, 2015)


वीरेन डंगवाल से मिलकर  



एक

मरे हुए आदमी को देखकर डर नहीं लगता
डर लगता है
एक मरते हुए आदमी को देखकर।

मरता हुआ आदमी कैसा होता है?

फर्ज़ करें कि सिर पर एक काली टोपी है
जो कीमो थेरेपी में उड़ चुके बालों
और बचे हुए खड़े सफेद बालों को
ढंकने के लिए टिकी हो बमुश्किल।
मसलन, चेहरा तकरीबन झुलसा हुआ हो
और दांत निकल आए हों बिल्‍कुल बाहर।
आंखों पर पुराना चश्‍मा भी सिकुड चुके चेहरे में
अंट पाने को हो बेचैन।
होंठ-
क्षैतिज रेखा से बाईं ओर कुछ उठे हुए,
और जबड़े पर
शरीर के किसी भी हिस्‍से, जैसे कि जांघ
या छाती से निकाली गई चमड़ी
पैबंद की तरह चिपकी, और
काली होती जाती दिन-ब-दिन।
वज़न घट कर रह गया हो 42 किलो
और शर्ट, और पैंट, या जो कुछ कह लें उसे
सब धीरे-धीरे ले रहा हो शक्‍ल चादर की।
पैर, सिर्फ हड्डियों और मोटी झांकती नसों का
हो कोई अव्‍यवस्थित कारोबार
जो खड़े होने पर टूट जाए अरराकर
बस अभी,
या नहीं भी।
पूरी देह ऐसी
हवा में कुछ ऊपर उठी हुई सतह से
कर रही हो बात
सायास
कहना चाह रही हो
डरो मत, मैं वही हूं।
और हम, जानते हुए कि यह शख्‍स वो नहीं रहा
खोजते हैं परिचिति के तार
उसके अतीत में
सोचते हुए अपने-अपने दिमागों में उसकी वो शक्‍ल
अपनी आखिरी सामान्‍य मुलाकात
जब वह हुआ करता था बिल्‍कुल वैसा
जैसा कि सोचते हुए हम आए थे
उसके घर।

क्‍या तुम अब भी पान खाते हो?
पूछा रविभूषण जी ने।
कहां यार?
वो तो भीतर की लाली है...
और बमुश्किल पोंछते हुए सरक आई अनचाही लार
ठठा पड़ा खोखल में से
एक मरता हुआ आदमी
अंकवार भरके अपने रब्‍बू को...
हवा में बच गया
फि़राक का एक शेर।

यह सच है कि मैं वीरेन डंगवाल के पास गया था
यह भी सच है कि उन्‍हें देखकर मैं डर गया था। 


 दो

एक सच यह है कि मैं वीरेन डंगवाल के पास गया था
दूसरा यह, कि उन्‍हें देखकर मैं डर गया था
तीसरा सच मुझे मंगलेश डबराल ने अगली सुबह फोन पर बताया-
''वो तो ठीक हो रहा है अब...
वीरेन के दोस्‍तों को अच्‍छा नहीं लगेगा
जो तुमने उसे लिखा है मरता हुआ आदमी
कविता को दुरुस्‍त करो।'' 

तो क्‍या मैं यह लिखूं
कि मरे हुए आदमी को देखकर डर नहीं लगता
डर लगता है
एक ठीक होते हुए आदमी को देखकर 

तीन

मंगलेशजी की बात में अर्थ है।
मरता हुआ आदमी क्‍या होता है?
वो तो हम सभी हैं
मैं भी, मेरे साथ गए बाकी दोनों लोग
और खुद मंगलेशजी भी।

हम
जो कि मौत को कम जानते हैं
इसलिए उसी से डरते हैं
हमें जिससे डर लगता है
उसमें हमें मौत ही दिखती है
जबकि बहुत संभव है
पनप रहा हो जीवन वहां
नए सिरे से।

तो वीरेनदा ठीक हो रहे हैं
यह एक बात है
और मुझे डरा रहे हैं
यह दूसरी बात।

मेरे डर
और उनकी हंसी के बीच 
एक रिश्‍ता है
जिसे काफी पहले
खोज लिया था उदय प्रकाश ने
अपनी एक कविता में।

चार

उन्‍हें देखकर
मैं न बोल सका
न कुछ सोच सका
और बन गया उदयजी की कविता का मरा हुआ पात्र
अपने ही आईने में देखता अक्‍स
ठीक होते हुए एक आदमी का
जिसे कविता में लिख गया
मरता हुआ आदमी।

पांच

फिर भी
कुछ तो है जो डराता होगा
वरना
रंजीत वर्मा से उधार लूं, तो
वीरेनदा
आनंद फिल्‍म के राजेश खन्‍ना तो कतई नहीं
जो हमेशा दिखते रहें उतने ही सुंदर?

क्‍या मेरा डर
वीरेनदा को सिर्फ बाहर से देख पा रहा था?
यदि ऐसा ही है
(और सब कह रहे हैं तो ऐसा ही होना चाहिए)
तो फिर
अमिताभ बच्‍चन क्‍यों डरा हुआ था
अंत तक खूबसूरत, हंसते  
राजेश खन्‍ना को देखकर?

छह

जिंदगी और फिल्‍म में फ़र्क है
जि़ंदगी और कविता में भी।
यह फ़र्क सायास नहीं है।

मैंने जान-बूझ कर रंजीतजी की कही बात
नहीं डाल दी रविभूषणजी के मुंह में।
मैं भूल गया रात होने तक
किसने पूछी थी पान वाली बात।
जैसे मैं भूल गया
फि़राक का वह शेर
जो वीरेनदा ने सुनाया था।

मुझे याद है सिर्फ वो चेहरा
वो देह
उसकी बुनावट
अब तक।

जो याद रहा
वो कविता में आ गया
तमाम भूलों समेत...
अब सब कह रहे हैं
कि इसे ही दुरुस्‍त कर लो।
अब,
न मैं कविता को दुरुस्‍त करूंगा
न ही वीरेनदा को फोन कर के
पूछूंगा फि़राक का वो शेर।

सात

वीरेन डंगवाल को देखना
और देखकर समझ लेना
क्‍या इतना ही आसान है?

रंजीत वर्मा दांतों पर सवाल करते हैं
वीरेनदा होंठों पर जवाब देते हैं
यही फ़र्क रचता है एक कविता
जो भीतर की लाली से युक्‍त
बाहर से डरावनी भी हो सकती है।
फिर क्‍या फ़र्क पड़ता है
कि किसने क्‍या पूछा
और किसने क्‍या कहा।

क्‍या रविभूषणजी के आंसू
काफी नहीं हैं यह समझने के लिए
क्‍या मंगलेशजी का आग्रह
काफी नहीं है यह समझने के लिए
क्‍या मेरा डर
काफी नहीं है यह समझने के लिए
कि वीरेन डंगवाल का दुख
हम सबको बराबर सालता है?

वीरेनदा का ठीक होना
इस कविता के ठीक होने की
ज़रूरी शर्त है।  

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