Wednesday, 25 September 2013 10:16 |
आनंद कुमार सरकार की तरफ से शायद ही कभी ऐसा प्रयास हो, जिसमें शिक्षा केंद्रों को अधिकतम स्वायत्तता मिलती है, क्योंकि सरकार शिक्षा केंद्रों में चल रहे ज्ञान-मंथन, तथ्य-विश्लेषण और विद्वानों की स्वतंत्र शोध-क्षमता से सशंकित रहती है। सरकार का काम हमेशा कुछ आधा और कुछ पूरा- यह उसकी प्रवृत्ति भी है; लेकिन जब उसके अधूरेपन की आलोचना विद्याकेंद्रों से होने लगती है तो सरकार की समाज में साख गिरने लगती है। इसीलिए लोकतंत्र के बावजूद सरकार की तरफ से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीकों से विद्वानों और विद्याकेंद्रों को साधने की कोशिश की जाती है। इसमें साम, दाम, दंड, भेद, सबकुछ प्रयोग किया जाता है। तीसरा संकट शिक्षा के व्यवसायीकरण से जुड़ा हुआ है। उदारीकरण और निजीकरण की आड़ में, और भूमंडलीकरण की सनक में देश के हर कोने में निजी पूंजी के बल पर विश्वविद्यालयों का निर्माण हुआ है। जिन्हें डीम्ड विश्वविद्यालय कहा जाता है, उनकी अस्वस्थता से चिंतित होकर कुछ शिक्षाविदों ने पहले शिक्षामंत्री, फिर राष्ट्रपति और अंतत: विवश होकर सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई। न्यायालय के हस्तक्षेप से ऐसे कई सौ कागजी और कमाऊ विश्वविद्यालयों की मान्यता निरस्त हुई है। जांच जारी है। लेकिन यह सच तो सामने आ ही गया कि उच्च शिक्षा की बढ़ती भूख को शांत करने में असमर्थ सरकार ने अपने ही एक हिस्से यानी सरकारी राजनीतिकों को अच्छे-बुरे पूंजीपतियों के साथ मिलकर शिक्षा क्षेत्र के खुले दोहन की छूट दे दी है। आज हिंदुस्तान की हर बड़ी पार्टी के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय नेताओं में एक लंबी सूची ऐसे नेताओं की है जिन्होंने चिकित्सा, टेक्नोलॉजी, मैनेजमेंट, विधि और ऐसी रोजगारपरक डिग्रियां देने वाले विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा केंद्रों का ताना-बाना बुना है- जो पूरी तरह शिक्षा के व्यवसायीकरण की दिशा में बढ़ने वाला एक आत्मघाती कदम है। इसी के समांतर भारत सरकार ने अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों को भी यहां लाने का एक अभियान चला रखा है। इससे केंद्रीय विश्वविद्यालयों और आइआइटी तक में योग्य अध्यापक-अध्यापिकाओं की कमी हो रही है। पैसे के आकर्षण से लेकर स्थानीय गुटबाजी तक की समस्याओं के कारण अनेक युवा प्रतिभाएं सरकारी क्षेत्र के विद्याकेंद्रों के बजाय निजी क्षेत्र के विद्याकेंद्रों में जाने को विवश हो रही हैं। यह सब उच्च शिक्षा के ढांचे को चरमराने वाला है। इससे उच्च शिक्षा का समूचा तंत्र अब राष्ट्र-निर्माण के बजाय धन-संचय का बहाना बन रहा है। चौथी समस्या हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था में गुणवत्ता को लेकर है। पिछले दो दशक सूचना क्रांति और उच्च शिक्षा के बीच नई निर्भरता के रहे हैं। इन दो दशकों में हमने आधे-अधूरे तरीके से उच्च शिक्षा को नवीनतम ज्ञान, तकनीक से जोड़ने की कोशिश की है। एक तरफ विशेष अनुदानों का सिलसिला रहा है और दूसरी तरफ हाई स्कूल और इंटर पास विद्यार्थियों को मुफ्त लैपटॉप देने की सरकारी योजनाएं बनी हैं। लेकिन इस सबके बीच में उच्च शिक्षा के लिए जरूरी एकमुश्त अनुदान और बजट को बढ़ाने का राष्ट्रीय आह्वान- जिसे 1966 से कोठारी आयोग से लेकर 2011-12 की पित्रोदा समिति और यशपाल समिति तक ने बार-बार निस्संकोच दोहराया है- अर्थात राष्ट्रीय बजट का कम से कम छह प्रतिशत उच्च शिक्षा के लिए उपलब्ध कराना, यह नहीं हो रहा। एक तरफ तो हम सरकारी क्षेत्र में नए विश्वविद्यालय बनाने का स्वांग कर रहे हैं, लेकिन दूसरी तरफ इनमें से अधिकतर विश्वविद्यालयों में महज तीन साल और पांच साल की अवधि के लिए नियुक्तियां कर रहे हैं। कोई भी युवा प्रतिभा स्थायी नौकरी के बजाय तीन साला ठेकेदारी की नौकरी की तरफ भला कैसे आकर्षित होगी? इससे अंतत: या तो प्रतिभा पलायन हो रहा है, विश्व के अन्य ठिकानों की तरफ हमारे मेधावी विद्यार्थी अपने विश्वविद्यालयों से स्नातकोत्तर शिक्षा के बाद जा रहे हैं या उच्च शिक्षा के क्षेत्र में शोध की तरफ कदम ठिठकने लगे हैं। सबको यह पता है कि पिछले दिनों में हमने प्रतिभा संवर्द्धन के लिए जितनी योजनाएं शुरू कीं, उन सबका श्रेष्ठतम अंश अंतत: धौलपुर हाउस, अर्थात संघ लोक सेवा आयोग और राज्य सेवा आयोगों के दरवाजों पर कतार बांध कर खड़ा हो चुका है। आज भी यह देश के नवयुवकों के लिए बड़ी दुविधा है कि तेजस्वी होने के बावजूद शोध की तरफ बढ़ें या सरकारी नौकरियों की तरफ जाएं। क्योंकि शोध के बाद मिलने वाला अवसर उनकी प्रतिभा और उनकी जरूरतों के बीच उचित समन्वय नहीं पैदा करता। इन चार प्रश्नों को लेकर योगेंद्र यादव जैसे लोगों ने पिछले दिनों में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अंदर गरिमामय तरीके से कुछ सुधारों के प्रयास किए थे। इनमें शिक्षकों के लिए उचित कार्य-अवसर, उनकी पदोन्नति के लिए ठीक मापदंड, उनकी कार्य-सुविधाएं बढ़ाने के लिए तकनीकी और आर्थिक सुविधाओं को बढ़ाना, और अंतत: विश्व के बाजारी दबाव से हमारी उच्च शिक्षा को बचाना। ये सब आज के तकाजे हैं। इसमें योगेंद्र यादव जैसे लोगों को जोड़े रखना यूजीसी के हित में होता। अब योगेंद्र यादव यूजीसी के सदस्य नहीं हैं। लेकिन क्या मानव संसाधन विकास मंत्रालय इस बात की गारंटी लेगा कि उसने योगेंद्र यादव को बहिष्कृत करके उच्च शिक्षा के राजनीतिकरण का संकट दूर कर दिया है! क्या विश्वविद्यालय अनुदान आयोग देश को इस बात का भरोसा दिलाएगा कि आने वाले समय में हम उच्च शिक्षा के क्षेत्र में मंत्रियों और अफसरों की बढ़ती मनमानी और हस्तक्षेप को निरस्त करेंगे और विश्वविद्यालयों को उनकी स्वायत्तता के जरिए ज्ञान साधना के उत्कृष्ट केंद्रों के रूप में विकसित होने की पूरी छूट देंगे?
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