BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Thursday, May 3, 2012

बड़े भूमाफियों का सुरक्षा कवच भूदान

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बड़े भूमाफियों का सुरक्षा कवच भूदान

बड़े भूमाफियों का सुरक्षा कवच भूदान

By  | May 3, 2012 at 7:49 pm | No comments | आपकी नज़र

रणधीर सिंह 'सुमन'

आचार्य विनोबा भावे

आज़ादी के बाद आज़ादी के सुख के प्रसाद का वितरण प्रारम्भ हुआ, जिसमें सामन्तों, अभिजात वर्ग के लोगों को राज्यपाल, विदेशों में राजदूत तथा देश के अन्दर सरकारी धन से पोषित होने वाले विभिन्न संगठनों में मानद पद दिए गए, जिससे वे लोग आज़ादी का सुख प्राप्त कर सकें। आज़ादी का सुख प्रदान करने हेतु उद्योगपतियों को अंधाधुंध कमाई करने की छूट दे दी गई्र।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति के लिए समाज के विभिन्न तबकों ने अनेक प्रकार के बलिदान दिए थे। जिसमें भूमि हीन खेत मजदूर तबकों का एक बहुत बड़ा हिस्सा आजादी के संघर्ष में शामिल था। भूमिहीन खेत मजदूरों को आजादी का सुख देने के लिए महात्मा गांधी के एक अनन्य सहयोगी 'आचार्य विनोबा भावे' ने कथित राष्ट्रीय नेताओं की सह पर भूदान यज्ञ का स्वांग रचा।
आचार्य विनोबा भावे ने अप्रैल 1951 में भूदान यज्ञ प्रारम्भ किया। भूदान यज्ञ में बड़े-बड़े राजाओं, महराजाओं, सामन्तों ने अपनी निष्प्रयोज्य जमीनें दीं। देश में लगभग 60 लाख एकड़ जमीन भूदान में प्राप्त हुई जिसमें लगभग 30 लाख एकड़ भूमि, भूमिहीन मजदूर किसानों में वितरित भी हुई। विडंबना यह हुई कि बहुत से लोगों को कब्जा ही नहीं मिला और वे भूमिहीन खेत मजदूर किसान बनने की चाहत में मुकदमे-बाज बन गए और उन्हें आजादी का यह सुख प्राप्त हुआ।
भूदान को कानूनी जामा पहनाने के लिए भूदान अधिनियम का निर्माण हुआ, जिसके कोई भी सार्थक परिणाम नहीं आए। 'बाराबंकी' जनपद के एक बड़े भू-दानी ने सैकड़ों बीघे जमीन दान दी लेकिन 'भूदान समिति' के एक पदाधिकारी ने हेराफेरी करके उस जमीन को अपने नाम करा ली। इस तरह के कारनामे पूरे देश में हुए। भूदान के लगभग 61 वर्ष हो चुके हैं परन्तु राज्यों के पास उसका कोई लेखा जोखा नहीं है। अधिकांश सम्पत्तियाँ नौकरशाहों, दबंगों और भू माफिया के कब्जे में हैं, इन जमीनों को वितरित करने की राज्य सरकारों के पास इच्छा शक्ति का अभाव है। केन्द्र सरकार ने 2007 में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में 'राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद' का गठन किया किन्तु इच्छा शक्ति के अभाव में परिषद की कोई बैठक अभी तक नहीं हो पाई है।
भूदान में प्राप्त भूमि का राजस्थान, बिहार, आन्ध्रप्रदेश जैसे राज्य भूदान अधिनियम का उल्लंघन करते हुए उसका अन्य उपयोग कर रहे हैं। बिहार राज्य में तो सरकार ने सभी दलों के विधायकों को ही भूदान की जमीनें आवंटित कर दी थीं। वहीं आन्ध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम जनपद में सरकार ने भूदान की भूमि रहवासी प्रयोजनाओं को दे दी। 'रंगा रेड्डी' जिले में भूदान का बड़ा हिस्सा उद्योगपतियों को आवंटित कर दिया गया है, आवंटित भूमि का अनुमानित बाजार मूल्य 1500 करोड़ रूपये है।
महाराष्ट्र में भू दान की भूमि राजनेताओं, बाहुबली-बिल्डर्स, भू माफियाओं व कारपोरेट सेक्टर को आवंटित कर दी गई है। इस तरह से 9 राज्यों में भू दान की भूमि कारपोरेट घरानों को देने का सिलसिला जारी है।
मुख्य बात यह है कि तत्कालीन राजनेताओं को जनता के दबाव में 'सीलिंग एक्ट' लागू करना था तो उन्होंने बड़े-बड़े भू स्वामियों को अपनी निष्प्रयोज्य भूमि को भू दान यज्ञ में देने के लिए प्रेरित किया जिससे उनकी उपयोगी भूमि सीलिंग एक्ट से बची रह सके।
देश में बंगाल, केरल, त्रिपुरा को छोड़कर कहीं भी भूमि सुधार कानूनों को ईमानदारी से लागू नहीं किया गया, जिसकी परिणति नक्सली समस्या के रूप में हुई। बिहार और मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में आज भी बहुसंख्यक जनता भूमिहीन है और अपने अपने प्रदेश को छोड़कर खेत मजदूर के रूप मंे अन्यत्र जाने के लिए मजबूर है।
ब्रिटिश कालीन भारत में सारी भूमि राज्य सरकार, राजा या सामन्त की होती थी। खेती करने वाले लोग लगान पर जमीन प्राप्त करते थे। प्रकृति के अनुसार हवा, जल जंगल, जमीन धरती पर बसने वाले सभी लोगों के लिए है। लेकिन एकाधिकारी शक्तियों ने अपनी ताकत का प्रयोग करते हुए अपने को एक मात्र उसका स्वामी घोषित कर दिया। सामन्तवाद जब अपनी ढलान पर था तो औद्योगिक पूँजीवाद ने अपने हितों के अनुरूप उनकी जमीनों को बाँटने में रूचि दिखाई। जिससे बहुसंख्यक जनता को सामनतों की शारीरिक गुलामी से मुक्त कर औद्योगिक मुनाफे के लिए कुशल बेरोजगार श्रम शक्ति के रूप में तैयार किया जा सके।
बड़े-बड़े भू स्वामियों की जमीनों को वितरित करने के लिए भूदान, ग्रामदान तथा सीलिंग एक्ट जैसे सुधारवादी कानून आए, किन्तु कम्पनियों, तथा औद्योगिक घरानों को निर्धारित भूमि की सीमा से अलग रखा गया। जिससे एक समय तो यह स्थिति पैदा हो गई कि औद्योगिक बिरला समूह देश का सबसे बड़ा किसान बन गया। वर्तमान स्थिति में कई औद्योगिक घराने देश के बड़े बड़े किसानों की श्रेणी में हैं। अब औद्योगिक घराने तथा कारपोरेट सेक्टर देश की खेती-किसानी पर कब्जा करना चाहते हैं और उनके द्वारा संचालित सरकारें, उनकी सुविधा अनुरूप विधि का निर्माण कर रही हैं। ऐसे समय में जब किसानों से किसी न किसी बहाने से भूमि वापस ली जा रही है तब भूमि वितरण, भूमिदान का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। गंगा की उल्टी धारा बहाई जा रही है।
झारखण्ड, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक समेत कई राज्यों में जंगल और उसके नीचे छिपी हुई बहुमूल्य धातुओं तथा अन्य उपयोगी पदार्थों को प्राप्त करने के लिए कारपोरेट सेक्टर में भी जंग छिड़ी हुई है। कारपोरेट सेक्टर राज्य सत्ता का उपयोग कर आदिवासियों तथा स्थानीय जनता की जमीनों पर कब्जा कर रहे हैं।
भूदान का अर्थ बडे़-बड़े भू स्वामियों को समझा-बुझाकर उनसे अतिरिक्त भूमि लेकर भूमिहीनों को किसान बनाने का था जिससे देश की अधिकांश आबादी जो खेत मजदूर के रूप में थी वह किसान बनकर स्वाभिमान के साथ सम्मान जनक जीवन जी सके। लेकिन भूदान यज्ञ या आन्दोलन पूरी तरह से असफल रहा और कुलक या भूस्वामी ही इससे लाभान्वित होते रहें। आज तो स्थिति यह है कि सभी प्राकृतिक सम्पदाओं के ऊपर कारपोरेट सेक्टर का कब्जा होता जा रहा है।

रणधीर सिंह सुमन लेखक हस्तक्षेप.कॉम के सह सम्पादक हैं

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