रमेश दवे जनसत्ता 2 मई, 2012: उत्तर-आधुनिकता ने न जाने कितने प्रकार के डरों का संजाल फैला दिया है। सबसे बड़ा डर भाषा को लेकर पैदा किया जा रहा है। भारतीय भाषाओं के खत्म हो जाने के खतरों को इस तरह पेश किया जा रहा है जैसे भारत के एक सौ इक्कीस करोड़ लोगों की भाषा केवल अंग्रेजी हो गई हो। हिंदी वालों का डर तो इतना विकराल है कि वे क्षेत्रीय लोकभाषाओं (जिन्हें बोलियां कहा जाता है) के संरक्षण को भी हिंदी की अस्मिता के लिए खतरनाक मानते हैं। लोकभाषाएं किसी भी मानक भाषा की संजीवनी शक्ति होती हैं। जब तक लोक (जन या अंग्रेजी में फोक यानी आदिम मनुष्य या आदिवासी, जनजाति) जिंदा रहेगा, उसके साथ-साथ उसकी भाषा भी जिएगी। बोलियों के समाप्त होने के खतरे तब बढ़ जाते हैं, जब बोलने वाले समुदाय मिटा दिए जाते हैं, जैसा कि अमेरिका ने अनेक रेड इंडियन समुदायों के साथ किया, आस्ट्रेलिया ने एब-ओरिजिंस और न्यूजीलैंड ने मावरी जनजाति के साथ किया। भाषा-भाषी समुदाय मरता तब है, जब एक तो वह स्वेच्छा से अपनी मूल भाषा का इस्तेमाल परिवार, परिवेश और लोकाचारों में बंद कर दे। यह मात्र एक पीढ़ी में नहीं होता। जब पीढ़ी-दर-पीढ़ी भाषा-समुदाय रोजगार के लिए अन्य भाषा क्षेत्र में जाने लगता है तो वहां की स्थानीयता को न केवल भाषा, बल्कि भोजन, वस्त्र, लोकाचार तक में अपनाने लगता है। जिस दिन किसान के पास खेत नहीं रहेंगे या देश की सौ प्रतिशत खेतिहर भूमि अंग्रेजी भाषी 'औद्योगिक किसानों' के पास चली जाएगी तो खेत और किसान से वंचित होते ही देश की अपनी भाषा या तो मर जाएगी या अन्य भाषा के वर्चस्व से मार दी जाएगी। अगर भारत की सत्तर प्रतिशत आबादी ग्रामीण है और यहां की सत्तर प्रतिशत जमीन में से लगभग साठ प्रतिशत पर खेती होती है तो इसका अर्थ है, खेत अभी जिंदा हैं। यह हो सकता है कि सत्तर प्रतिशत या साठ प्रतिशत जमीन को जोतने वाले सभी किसान नहीं होते। जमीन जोतने वाले किसान तो बड़े किसानों के मजदूर होते हैं। जिनके पास पांच-दस एकड़ जमीन है, वे ही जोतदार हैं, बाकी बड़े किसान तो जमीन के उसी प्रकार मालिक, मैनेजर या मैनेजिंग डायरेक्टर हैं जिस प्रकार उद्योगों में होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि वास्तव में देश में कृषक कम और कृषि मजदूर अधिक हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि बड़े-बड़े किसान भले ही शहरों में बाल-बच्चों सहित बस गए हों, उनके बच्चे भले अंग्रेजी माध्यम में पढ़ते हों, पर उन्होंने न तो खेती में खेत के मजदूरों की भाषा छोड़ी है, न वे परिवार में अभी अपनी भाषा छोड़ पाए हैं। मातृ संस्कृति का जिंदा बने रहनाभाषा के न मरने की उम्मीद का एक और बड़ा आधार है। जब माताएं अपनी मूल भाषा त्याग देंगी, तो बच्चे मां की भाषा से वंचित हो जाएंगे। तब जाकर 'मदर टंग' की जगह 'अदर टंग' लेने लगेगी। मां की अनन्यता खोकर जब बच्चे अन्य की भाषा अपना लेते हैं तो परिवार से बेदखल भाषा के कारण अन्य भाषा प्रभुत्व जमा लेती है। इसलिए मातृत्व की संस्कृति के साथ मां की मूल भाषा के संस्कार को बचाना आवश्यक है। एक अन्य तथ्य यह है कि बच्चे जन्मना बहुभाषी होते हैं। परिवार से बाहर वे परिवेश, पड़ोस से जब घुलते-मिलते हैं तो जिस अधिकार से अपने घर की भाषा बोलते हैं वैसा ही स्वाभाविक अधिकार वे परिवेश की भाषा पर कर लेते हैं। बहुभाषी समुदाय में खेलते-खेलते बच्चों के लिए भाषा भी खेल बन जाती है। वे जब स्कूलों में जाने लगते हैं और किशोर उम्र में एक या दो भाषाएं सीखने लगते हैं तो उनका बहुभाषीपन समाप्त होने लगता है। अब वे मातृभाषा में कुछ नहीं सीखते। स्कूल की हर भाषा अन्य भाषा है, चाहे वह हिंदी हो, मराठी, गुजराती या दक्षिण की भाषा ही क्यों न हो। सीखने की दो प्रणालियां हैं- एक है संवेगात्मक (इंसटिक्टिव), जो बच्चे परिवार से वैसे ही ग्रहण कर लेते हैं, जैसे वे नित्य कर्म करना, नहाना, वस्त्र पहनना, खाना खाना सीख जाते हैं। उसका न तो कोई पाठ्यक्रम होता है, न टाइम टेबल, न टीचर और न परीक्षा। यह डर-मुक्त स्वाभाविक सीखना होता है। जब भाषा स्कूलों में औपचारिक तरीकों से सिखाई जाती है तो बच्चों को अनेक बातें भूलनी होती हैं, जिसे 'अनलर्न' कहा जाता है। अब प्रश्न यह है कि अनलर्न की यह प्रक्रिया, मूल भाषा के साथ क्या परिवारों में भी अपनाई जाती है? उत्तर है, नए-नए पढ़े-लिखे परिवारों में यह प्रक्रिया बहुत तेज है। ऐसे कई उदाहरण हैं जब माता-पिता और अन्य परिजनों ने मूल भाषा क्षेत्र से बाहर निकल कर अन्य क्षेत्र की भाषा को अपना लिया। रोजगार, परिवेश, मित्र और लोकाचार सब जगह वे अन्य भाषा में अंतरक्रिया करते-करते अन्य भाषा के ही मूलभाषी हो गए। ऐसे में जिन बच्चों का जन्म अन्य भाषा में हुआ, वे यह जानते ही नहीं कि उनकी मूल भाषा क्या है। अय्यर, नैयर, पटेल, सुब्रमण्यम जब हिंदी क्षेत्र में आ गए तो उनके बच्चों की मूल भाषा हिंदी हो गई और माता-पिता ने भी अपने अस्तित्व की रक्षा में अन्य भाषा को पारिवारिक भाषा बना लिया। इसका एक उदाहरण यह है कि छत्तीसगढ़ में बसे आंध्र के तेलुगू भाषी मूल भाषा भूल कर अब छत्तीसगढ़ी-भाषी हो गए, मालवा-निमाड़ में बसे गुजराती अब मालवी-निमाड़ी भाषी हो गए, ओड़िया और भोजपुरी भाषी छत्तीसगढ़ में आकर ओड़िया, भोजपुरी भूलने लगे। भाषा का भूत सवार है तीन जगहों पर। उद्योग जगत विश्व-भाषा के नाम पर अंग्रेजी ठूंस रहा है। उसकी दलील है कि अंग्रेजी को अपनाने से खासकर वैश्वीकरण के दौर में हमें बहुत लाभ हुआ है। लेकिन चीन ने बिना अंग्रेजी के ही ऐसी बढ़त हासिल की कि वह दो दशक से ज्यादा समय से सबसे तेज आर्थिक वृद्धि दर वाला देश रहा है। हम औद्योगिक प्रगति को अंग्रेजी से जोड़ने की कितनी भी कोशिश करें, पर इस तर्क में कोई दम नहीं है। क्या जर्मनी और फ्रांस अंग्रेजी के बल पर विकसित देश बने हैं? सच यह है कि टाटा पारसियों से आज भी गुजराती में बात करते हैं, अंबानी गुजराती बोलते हैं, बिड़ला, बांगड़ सिंघानिया के परिवारों या कोलकाता के तमाम मारवाड़ी उद्योगपतियों के घरों में अब भी मारवाड़ी जारी है। यह बात अलग है कि अन्य लोगों ने स्थानीय जरूरत के लिए अन्य भाषा अपना कर मूल भाषा की उपेक्षा कर दी हो। इस प्रकार परिवार, परिवेश और लोकाचार तीनों जगह अभी मूल भाषा मरी नहीं है। अब एक चर्चा का विषय यह है कि मीडिया की पैठ रसोईघर से लेकर बाजार तक हो गई है। मां-बाप बच्चों को दो साल की उम्र से प्ले स्कूल में भेज रहे हैं; वीडियो गेम्स, कंप्यूटर चैट, मोबाइल टॉक आदि के साधन और अवसर उपलब्ध करवा रहे हैं। क्या वे अपने बच्चों को अपनी मूल भाषा से वंचित कर अंग्रेजी भाषी हो जाने का दुस्वप्न नहीं देख रहे हैं! स्कूल से भाषा सीखते हैं जरूर, मगर कोई स्कूल आपके परिवार की भाषा तब तक नहीं छीन सकता, जब तक परिवार और खासकर मां मूल भाषा का त्याग नहीं करती। कोई भी भाषा, भाषा या संप्रेषण का माध्यम मात्र नहीं होती। वह एक समूची संस्कृति की प्रतिनिधि और संवाहक भी होती है। उसमें एक समाज की परंपरा, उपलब्धियां, ज्ञान, संस्कार, सोच आदि सब बोलते हैं। राष्ट्र-भाषा तो वह तब बनती है, जब उसमें राष्ट्र के जन-जीवन, राष्ट्र की परंपरा और राष्ट्र के प्रति प्रेम दिखाई दे। उसे मंच की भाषा के बजाय, मन की भाषा बनाना होता है। कोई भी भाषा जब उस समुदाय की आत्म-भाषा बन जाती है तो आत्म-भाषा ही व्यापक रूप से राष्ट्र-भाषा बन जाती है। हिंदी न तो अंग्रेजी की तरह प्रतिष्ठा-प्रतीक बन पाई, न सही अर्थ में आत्म-भाषा या मन की भाषा। अभी तक हिंदी की जो भी यात्रा है, वह औपचारिक अधिक और आत्मीय कम रही है। बावजूद इसके हिंदी के मरने का कोई डर नहीं पालना चाहिए, भले ही अंग्रेजी आपके बाथरूम, बेडरूम और किचन तक क्यों न फैल गई हो। अगर आॅक्सफर्ड कोश में प्रतिवर्ष हिंदी के सौ-पचास शब्द जुड़ सकते हैं तो हिंदी शब्दकोश में अंग्रेजी के या अन्य भाषाओं के शब्दों को समाहित कर उन्हें हिंदी के ही शब्द बनाया जा सकता है। उसे हम हिंग्लिश क्यों कहें, वह तो हमारी हिंदी ही हो गई। दुनिया में भाषाएं तब मरती हैं, जब रेड इंडियंस, अफ्रीकी, नैटिव्ज आदि की भाषाओं की तरह हिंदी का भाषा समुदाय भी नष्ट कर दिया जाए, जिसकी आशंका इसलिए नहीं है कि अब किसी विदेशी सत्ता या उपनिवेश की संभावना भारत में नहीं है। बाजार आए, भूमंडल भारत में बिछ जाए, मगर खेत, खेती, खलिहान और देसी खान-पान जब तक जीवित हैं, भाषा भी जीवित रहेगी। हिंदी एक समग्र-संपूर्ण भाषा बने कुल सौ-सवा सौ वर्ष का ही तो इतिहास जी रही है। अगर हम आत्महीनता से मुक्त होकर, स्कूल, कॉलेज के स्तर पर अंग्रेजी की तरह हिंदी को एक अनिवार्य विषय बना दें, यहां तक कि तकनीकी की शिक्षा में भी, तो पढ़ी-लिखी, अच्छी हिंदी की पीढ़ी खड़ी हो सकती है। अभी तो हालत यह है कि प्राथमिक शिक्षा का माध्यम भी बड़े पैमाने पर अंग्रेजी हो गई है। निजी स्कूलों का कारोबार देश के हर कोने में फैल गया है और इन अधिकतर स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। अगर शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाएं न हों तो वे ज्ञान-विज्ञान का माध्यम कैसे हो सकती हैं? जिस प्रकार सही अंग्रेजी, शुद्ध अंग्रेजी बोलने को हमने प्रतिष्ठा से जोड़ रखा हैं वैसा भाव हिंदी के प्रति हर स्तर पर होना जरूरी है। हिंदी की पाचन-शक्ति बहुत अच्छी है, वह अन्य भाषाओं की तुलना में अधिक सहिष्णु, उदार और उन्मुक्त है। अगर हमारा पूरा अध्यापक, प्राध्यापक और छात्र समुदाय अपनी भाषा और खासकर हिंदी को जीवन की भाषा बना ले तो एक दिन वह जीविका की भी भाषा बनेगी और हिंदी उस दिन सच्चे अर्थ में आत्मभाषा भी होगी और राष्ट्रभाषा भी। |
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