BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Saturday, May 5, 2012

फरेबी मौतों, गुम कब्रों के सफे पर खड़ा है हिंदुस्‍तानी सिनेमा

http://mohallalive.com/2012/05/05/100-years-of-hindi-cinema/

 आमुखसिनेमास्‍मृति

फरेबी मौतों, गुम कब्रों के सफे पर खड़ा है हिंदुस्‍तानी सिनेमा

5 MAY 2012 2 COMMENTS

♦ प्रकाश के रे

हिंदुस्तान में सिनेमा का सौंवें साल की पहली तारीख कुछ भी हो सकती है। 4 अप्रैल, जब राजा हरिश्चंद्र के पोस्टरों से बंबई की दीवारें सजायी गयी थीं। 21 अप्रैल, जब दादासाहेब ने यह फिल्म कुछ चुनिंदा दर्शकों को दिखायी। या फिर 3 मई, जब इसे आम जनता के लिए प्रदर्शित किया गया। खैर, सिनेमा की कोई जन्म-कुंडली तो बनानी नहीं है कि कोई एक तारीख तय होनी जरूरी है।

अभी यह लिख ही रहा हूं कि टीवी में एक कार्यक्रम के प्रोमो में माधुरी दीक्षित पाकीजा के गाने 'ठाड़े रहियो वो बांके यार' पर नाचती हुई दिख रही हैं। अब मीना कुमारी का ध्यान आना स्वाभाविक है। क्या इस साल हम यह भी सोचेंगे कि इस ट्रेजेडी क्वीन के साथ क्या ट्रेजेडी हुई होगी? आखिर पूरे चालीस की भी तो नहीं हुई थी। इतनी कामयाब फिल्मों की कामयाब नायिका के पास मरते वक्त हस्पताल का खर्चा चुकाने के लिए भी पैसा न था।

कमाल अमरोही कहां थे? कहां थे धर्मेंद्र और गुलजार? क्या किस्मत है! जब पैदा हुई तो मां-बाप के पास डॉक्टर के पैसे चुकाने के पैसे नहीं थे। चालीस साल बंबई में उन्‍होंने कितना और क्या कमाया कि मरते वक्त भी हाथ खाली रहे। माहजबीन स्कूल जाना चाहती थी, उसे स्टूडियो भेजा गया। वह सैयद नहीं थीं, इसलिए उनके पति ने उससे बच्चा नहीं चाहा और एक वह भी दिन आया जब उन्‍हें तलाक दिया गया। क्या सिनेमा के इतिहास में मीना कुमारी का यह शेर भी दर्ज होगा…

तलाक तो दे रहे हो नजर-ए-कहर के साथ
जवानी भी मेरी लौटा दो मेहर के साथ

क्या कोई इतिहासकार इस बात की पड़ताल करेगा कि मधुबाला मरते वक्त क्या कह रही थीं? उन्‍हें तो तलाक भी नसीब नहीं हुआ। उनके साथ ही दफन कर दिया गया था उनकी डायरी को। कोई कवि या दास्तानगो उस डायरी के पन्नों का कुछ अंदाजा लगाएगा? अगर बचपन में यह भी मीना कुमारी की तरह स्टूडियो न जा कर किसी स्कूल में जातीं तो क्या होती उनकी किस्मत! बहरहाल वह भी मरी, तब वह बस छत्तीस की हुई थीं। वक्त में किसी मुमताज को संगमरमर का ताजमहल नसीब हुआ था, इस मुमताज के कब्र को भी बिस्मार कर दिया गया। शायद सही ही किया गया। देश में जमीन की कमी है, मुर्दों की नहीं।

कवि विद्रोही एक कविता में पूछते हैं… 'क्यों चले गए नूर मियां पकिस्तान? क्या हम कुछ भी नहीं लगते थे नूर मियां के?' मैं कहता चाहता हूं कि माहजबीन और मुमताज पकिस्तान क्यों नहीं चली गयीं, शायद बच जातीं, जैसे कि नूरजहां बचीं। तभी लगता है कि कहीं से कोई टोबा टेक सिंह चिल्लाता है, 'क्या मंटो बचा पकिस्तान में?' मंटो नहीं बचा। लेकिन सभी जल्दी नहीं मरते। कुछ मर-मर के मरते हैं। सिनेमा का पितामह फाल्के किसी तरह जीता रहा, जब मरा तो उसे कंधा देने वाला कोई भी उस मायानगरी का बाशिंदा न था। उस मायानगरी को तो उसके बाल-बच्चों की भी सुध न रही। कहते हैं कि यूनान का महान लेखक होमर रोटी के लिए तरसता रहा, लेकिन जब मरा तो उसके शरीर पर सात नगर-राज्यों ने दावा किया।

हिंदुस्तान के सिनेमाई नगर-राज्यों ने फाल्के की तस्वीरें टांग ली हैं। पता नहीं, लाहौर, ढाका, सीलोन और रंगून में उनकी तस्वीरें भी हैं या नहीं। दस रुपये में पांच फिल्में सीडी में उपलब्ध होने वाले इस युग में फाल्के का राजा हरिश्चंद्र किसी सरकारी अलमारी में बंद है।

बहरहाल, ये तो कुछ ऐसे लोग थे, जो जिए और मरे। कुछ या कई ऐसे भी हैं, जिनके न तो जीने का पता है और न मरने का। नजमुल हसन की याद है किसी को? वही नजमुल, जो बॉम्बे टाकीज के मालिक हिमांशु रॉय की नजरों के सामने से उनकी पत्नी और मायानगरी की सबसे खूबसूरत नायिका देविका रानी को उड़ा ले गया था। एस मुखर्जी की कोशिशों से देविका रानी तो वापस हिमांशु रॉय के पास आ गयीं, लेकिन नजमुल का उसके बाद कुछ अता-पता नहीं है। मंटो जैसों के अलावा और कौन नजमुल को याद रखेगा। खुद को खुदा से भी बड़ा किस्सागो समझने वाला मंटो दर्ज करता है : 'और बेचारा नजमुल हसन हम-जैसे उन नाकामयाब आशिकों की फेहरिश्त में शामिल हो गया, जिनको सियासत, मजहब और सरमायेदारी की तिकड़मों और दखलों ने अपनी महबूबाओं से जुदा कर दिया था।'

मंटो होता तो क्या लिखता परवीन बॉबी के बारे में? बाबुराव पटेल कैसे लिखते भट्ट साहेब के बारे में? किसी नायिका को उसकी मां के कमरे में उनके जाने की जिद्द को दर्ज करने वाले अख्तर-उल ईमान कास्टिंग काउच को कैसे बयान करते? है कोई शांताराम जो अपनी हीरोईनों के ड्रेसिंग रूम में अपने सामने कपड़े उतार के खड़े हो जाने का जिक्र करे? इतिहास फरेब के आधार पर नहीं लिखे जाने चाहिए। इतिहास संघ लोक सेवा आयोग के सिलेबस के हिसाब से नहीं बनने चाहिए। इतिहास की तमाम परतें खुरची जानी चाहिए। वह कोई 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' ब्रांड का नेशनल अवार्ड नहीं है, जिसे दर्जन भर लोग नियत करें।

(प्रकाश कुमार रे। सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता के साथ ही पत्रकारिता और फिल्म निर्माण में सक्रिय। दूरदर्शन, यूएनआई और इंडिया टीवी में काम किया। फिलहाल जेएनयू से फिल्म पर रिसर्च। उनसे pkray11@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)


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