BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Saturday, May 5, 2012

तीन बरस में 90 से ज्यादा आदिवासियों को मारा गया है

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तीन बरस में 90 से ज्यादा आदिवासियों को मारा गया है

तीन बरस में 90 से ज्यादा आदिवासियों को मारा गया है

By  | May 5, 2012 at 9:40 am | No comments | आजकल | Tags: ,,

कलेक्टर की रिहाई के पीछे का अंधेरा

पुण्य प्रसून बाजपेयी

पसीने से लथपथ। कांधे पर काले रंग का बैग। थके हारे। और पूछने पर एक ही जवाब- बहुत थका हुआ हूं, सबसे पहले घर जाना चाहता हूं, बात कल करुंगा। यह पहली तस्वीर और पहले शब्द हैं एलेक्स पाल मेनन की। सुकमा के कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन। दक्षिणी बस्तर के चीतलनार जंगलों के बीच न्यूज चैनलों के कैमरे से महज सवा किलोमीटर की दूरी पर जैसे ही माओवादियों ने एलेक्स मेनन को रिहा किया वैसे ही सुकमा में एलेक्स की पत्नी ने चाहे राहत की सांस ली और एलेक्स मेनन के पैतृक घर चेन्नई में चाहे आतिशबाजी शुरु हो गई लेकिन रायपुर में सीएम दफ्तर ने यही कहा कि अभी तक एलेक्स हमारे अधिकारियो तक नहीं पहुंचे हैं, और जब तक वह अधिकारियो तक नहीं पहुंचते तब तक रिहाई कैसे मान लें। तो बस्तर के जंगल में माओवादियों के सामानांतर सरकार की यह पहली तस्वीर है। या फिर सरकार का मतलब सिर्फ सुरक्षा घेरे में अधिकारियों की मौजूदगी होती है यह जंगल में एलेक्स को लेने पहुंचे अधिकारियों के 35 किलोमीटर मौजदूगी से समझने की दूसरी तस्वीर है। संयोग से ठीक दो बरस पहले 6 अप्रैल 2010 को जिस चीतलनार कैंप के 76  सीआरपीएफ जवानो को सेंध लगाकर माओवादियों ने मार दिया था। उसी चीतलनार कैंप से महज 55 किलोमीटर की दूरी पर कलेक्टर एलेक्स मेनन जंगल में बीते 13 दिनों तक रहे। लेकिन सुरक्षा बल उन तक नहीं पहुंच सके। जबकि दो बरस पहले गृह मंत्री चिदंबरम ने देश से वादा किया था कि चार बरस में माओवाद को खत्म कर देंगे और नक्सल पर नकेल कसने के साथ साथ विकास का रास्ता भी साथ साथ चलेगा। लेकिन इस जमीन का सच है क्या।

23 बरस पहले पहली बार नक्सली बस्तर के इस जंगल में पहुंचे। दण्डकारण्य का एलान 1991 में पहली बार बस्तर में किया गया। पहली बार नक्सल पर नकेल कसने के लिये 1992 में बस्तर में तैनात सुरक्षाकर्मियो के लिये 600 करोड़ का बजट बना। लेकिन आजादी के 65 बरस बाद भी बस्तर के इन्ही जंगलों में कोई शिक्षा संस्थान नहीं है। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र नहीं हैं। साफ पानी तो दूर पीने के किसी भी तरह के पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। रोजगार तो दूर की गोटी है। तेदूं पत्ता और बांस कटाई भी ठेकेदारों और जंगल अधिकारियो की मिलीभगत के बाद सौदेबाजी के जरीये होती है। जहां 250 तेदू पत्ता की गड्डी की कीमत महज 55 पैसे है। और जंगल की लकड़ी या बांस काटने पर सरकारी चालान 50 रुपये का होता है। यह सब 2012 का सच है। जहां सुकमा के कलेक्टर के घर से लेकर चितलनारप के कैंप तक के 100 किलोमीटर के घेरे में सरकार सुरक्षा बलों पर हर साल 250 करोड़ रूपये खर्च दिखा रही है। 1200 सीआरपीएफ जवान और 400 पुलिसकर्मियों के अलावा 350 एसपीओ की तैनाती के बीच यहां के छोटे छोटे 32 गांव में कुल 9000 आदिवासी परिवार रहते हैं। इन आदिवासी परिवारों की हर दिन की आय 3 से 8 रुपये है। समूचे क्षेत्र में हर रविवार और गुरुवार को लगने वाले हाट में अनाज और सब्जी से लेकर बांस की लकडी की टोकरी और कच्चे मसले और महुआ का आदान प्रदान होता है। यानी बार्टर सिस्टम यहां चलता है। रुपया या पैसा नहीं चलता। जितना खर्चा रमन सिंह सरकार और जितना खर्च केन्द्र सरकार हर महीने नक्सल पर नकेल कसने की योजनाओं के तहत इन इलाकों में कर रहे है, उसका 5 फीसदी भी साल भर में 9 हजार अदिवासी परिवारों पर खर्चा नहीं होता। इसीलिये दिल्ली में गृहमंत्री चिदंबरम की रिपोर्ट और सुकमा के कलेक्टर की रिपोर्ट की जमीन पर आसमान से बड़ा अंतर देखा जा सकता है। एलेक्स मेनन की रिपोर्ट बताती है कि जीने की न्यूनतम जरुरतों की जिम्मेदारी भी अगर सरकार ले ले तो उन्हीं ग्रामीण आदिवासियों को लग सकता है कि उन्हें आजादी मिल गई जो आज भी सीआरपीएफ की भारी भरकम गाड़ियों के देखकर घरों में दुबक जाते हैं। सुकमा कलेक्टर के अपहरण से पहले उन्हीं की उस रिपोर्ट को रायपुर में नक्सल विरोधी कैंप में आई जी रैंक के अधिकारी के टेबल पर देखी जा सकती है, जहां एलेक्स ने लिखा है कि दक्षिणी बस्तर में ग्रामीण आदिवासियों के लिये हर गांव को ध्यान में रखकर 10 – 10 करोड़ की ऐसी योजना बनायी जाये, जिससे बच्चों और बड़े -बुजुर्गों की न्यूनतम जरुरत जो उनके मौलिक अधिकार में शामिल है, उसे मुहैया करा दें तो भी मुख्यधारा से सभी को जोडने का प्रयास हो सकता है। और मौलिक जरुरत की व्याख्या भी बच्चों को पढ़ाने के लिये जंगल स्कूल, भोजन की व्यवस्था, पीने के पानी का इन्फ्रास्ट्रक्चर और बुजुर्गो के इलाज के लिये प्रथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और जंगल में टूटी पेड़ों की टहनियों को जमा करने की इजाजत। साथ ही जगह जगह सामूहिक भोजन देने की व्यवस्था।

लेकिन रायपुर से दिल्ली तक इन जंगलों को लेकर तैयार रिपोर्ट बताती है कि जंगल-गांव का जिक्र कहीं है ही नहीं। सिर्फ माओवादी धारा को रोकने के लिये रेड कारिडोर में सेंध लगाने की समूचे आपरेशन का जिक्र ही है। और उसपर भी जंगल के भीतर आधुनिकतम हथियारों के आसरे कैसे पहुंचा जा सकता है और हथियार पहुंचाने के लिये जिन सड़को औऱ जिस इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरुरत है, उसके बजट का पूरा खाका हर रिपोर्ट में दर्ज है। इतना ही नहीं बजट किस तरह किस मद में कितना खर्च होगा अगर सारी रिपोर्ट को मिला दिया जाये तो केन्द्र और राज्य मिलकर माओवाद को खत्म करने के लिये हर बरस ढाई हजार करोड़ चाहते हैं। असल में जमीनी समझ का यही अंतर मध्यस्थों के मार्फत कलेक्टर की रिहाई तो करवाता है और रिहाई के लिये जो सवाल मध्यस्थ उठाते हैं, उस पर यह कहते हुये अपनी सहमति भी दे देता है कि माओवाद का इलाज तो उनके लिये बंदूक ही है। लेकिन जो मुद्दे उठे उसमे सरकार मानती है कि नक्सल कहकर किसी भी आदिवासी को पुलिस-प्रशासन जेल में ठूस सकती है। और नक्सल विरोधी अभियान को सफल दिखाने के लिये इस सरल रास्ते का उपयोग बार बार सुरक्षाकर्मियों ने किया। जिस वजह से दो सौ से ज्यादा जंल में बंद आदिवासियों की रिहाई के लिये कानूनी पहल शुरु हो जायेगी। सुरक्षाबलों का जो भी ऑपरेशन दिल्ली और रायपुर के निर्देश पर जंगल में चल रहा है, उसे बंद इसलिये कर दें क्योकि ऑपरेशन की सफलता के नाम पर बीते तीन बरस में 90 से ज्यादा आदिवासियों को मारा गया है।

सरकार ने मरनेवालो पर तो खामोशी बरती लेकिन यह आश्वासन जरुर दिया कि सुरक्षाबल बैरक में एक खास वक्त वक्त तक रहेंगे। जो सरकारी योजनाये पैसे की शक्ल में जंगल गांव तक नहीं पहुंच पा रही है उसका पैसा बीते दस बरस से खर्च कहां हो जाता है यह सरकार को बताना चाहिये। क्योंकि अगवा कलेक्टर इसी विषय को बार बार उठाते रहे। सरकार के अधिकारियों ने इस पर भी खामोशी बरती लेकिन योजनाओं के तहत आने वाले पैसे के खर्च ना होने पर वापस लौटाने की ईमानदारी बरतने पर अपनी सहमति जरुर दे दी। यानी जो दूरबीन दिल्ली या रायपुर से लगाकर बस्तर के जंगलों को देखा जा रहा है, उसमें तीन सवाल सीधे सामने खड़े हैं। उड़ीसा में विधायक अपहरण से लौटने के बाद विधायकी छोडने पर राजी हो जाता है। कलेक्टर थके हारे मानता है कि बीते 13 दिनो में उसने जंगल के बिगड़े हालात देखे वह बतौर कलेक्टर पद पर रहते हुये देख नहीं पा रहा था। तो माओवादियो के कंधे पर सवार होकर बंगाल में ममता सत्ता पाती हैं तो जवाब निकलता है कि सत्ता पाने के बाद ममता की तरह माओवादियो के निपटाने में लग जाया जाये। छूटने के बाद कलेक्टर की तरह सुधार का रास्ता पकड़ा जाये। या रिहाई के बाद विधायकी छोड कारपोरेट के खनन लूट से आदिवासी ग्रामीण के जीवन को बचाया जाये। असल में इन्हीं जवाब में सत्ता की तस्वीर भी है और बस्तर सरीखे माओवाद प्रभावित जंगलों का सच भी।

पुण्य प्रसून बाजपेयी

पुण्य प्रसून बाजपेयी ज़ी न्यूज़ में प्राइम टाइम एंकर और सम्पादक हैं। पुण्य प्रसून बाजपेयी के पास प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में 20 साल से ज़्यादा का अनुभव है। प्रसून देश के इकलौते ऐसे पत्रकार हैं, जिन्हें टीवी पत्रकारिता में बेहतरीन कार्य के लिए वर्ष 2005 काइंडियन एक्सप्रेस गोयनका अवार्ड फ़ॉर एक्सिलेंस और प्रिंट मीडिया में बेहतरीन रिपोर्ट के लिए 2007 का रामनाथ गोयनका अवॉर्ड मिला। उनके ब्लॉगhttp://prasunbajpai.itzmyblog.com/ से साभार

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