BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Wednesday, February 1, 2012

जब तक खुद को निर्दोष साबित नहीं करते, आप अपराधी हैं!

http://mohallalive.com/2012/02/01/defend-our-freedom-to-share-or-why-sopa-is-a-bad-idea/

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जब तक खुद को निर्दोष साबित नहीं करते, आप अपराधी हैं!

1 FEBRUARY 2012 NO COMMENT
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♦ क्ले शर्की

हाथ से बनाया गया एक चिन्ह है, जो एक छोटी सी बेकरी मे लगा था कुछ साल पहले ब्रुकलिन में मेरे पडोस के इलाके में। इस बेकरी में एक छोटी से मशीन लगी थी, जो कि शुगर-प्लेट पर छपाई कर सकती थी। और बच्चे अपनी-अपनी ड्राइंग लाते थे और दुकान में एक शुगर-प्लेट पर छपवा कर अपने बर्थ-डे केक के ऊपर लगाते थे।

मगर दुर्भाग्यवश, एक चीज जो बच्चे खूब बनाते हैं, वो है कार्टून चरित्रों की ड्राइंग। उन्हें मजा आता है लिटल मर्मेड बना कर, स्मर्फ बना कर, मिकी माउस बना कर। मगर असल में ये गैर-कानूनी है कि मिकी माउस का चित्र जो एक बच्चे ने बनाया है, एक शुगर-प्लेट पर छापा जाए। और ये कॉपी-राइट का हनन है। और ऐसे कॉपी-राइट को बच्चों के केक से बचाना इतना उलझा हुआ काम था कि कॉलेज बेकरी ने कहा, "ऐसा है, हम ये काम ही बंद कर रहे हैं। अगर आप शौकिया कलाकार हैं, तो आप हमारी मशीन का इस्तेमाल नहीं कर सकते। अगर आपको अपने बर्थ-डे केक पर छपाई चाहिए, तो आपको हमारे पास पहले से उपलब्ध चित्रों में से एक लेना होगा … केवल पेशेवर कलाकारों द्वारा बनाये गये चित्रों से।"

तो कांग्रेस में इस वक्त दो विधेयक पेश हो चुके हैं। एक है सोपा (SOPA) और दूसरा है पीपा (PIPA)। सोपा (SOPA) का अर्थ है स्टॉप ऑनलाइन पायरेसी एक्ट। ये सेनेट से आया है। पीपा (PIPA) लघु रूप है PROTECTIP का, जो कि स्वयं लघुरूप है प्रिवेंटिंग रियल ऑनलाइन थ्रेट्स टू इकॉनामिक क्रिएटिविटी एन्ड थेफ्ट ऑफ इन्टेलेक्चुअल प्रोपर्टी … इन चीजों को नाम देने वाले कांग्रेस के नुमाइंदों के पास बहुत ढेर सारा फालतू समय होता है। और सोपा और पीपा नाम की बलाएं आखिरकार करना ये चाहती हैं कि वो इतना महंगा बना देना चाहती हैं कॉपी-राइट के दायरे में रह कर काम करने को कि लोग उन काम-धंधों को छोड़ ही दें, जिनमें शौकिया रचना करने वाले शामिल होते हैं।

अब, ऐसा करने के लिए उनका सुझाव ये है कि उन वेबसाइटों को पहचान लिया जाए जो कॉपी-राइट हनन कर रहे हैं। हालांकि ये साइट कैसे कॉपी-राइट हनन कर रहे हैं, विधेयक इस मुद्दे पर चुप्पी साधे बैठा है … और फिर वो इन साइटों को डोमेन नेम सिस्टम से बर्खास्त कर देना चाहते हैं। वो इन्हें डोमेन नेम सिस्टम से निष्कासित कर देना चाहते हैं। देखिए, ये डोमेन नेम सिस्टम ही है, जो कि इंसानों को समझ आने वाले नामों को, जैसे कि गूगल डॉट कॉम, उन नामों में बदलता है जिन्हें कंप्‍यूटर समझता है … जैसे कि 74.125.226.212

असल खराबी इस सेंसरशिप के मॉडल में है, जो कि इन साइटों को ढूंढेगा, फिर उन्हें डोमेन नेम सिस्टम से हटाने की कोशिश करेगा, पर शायद ये काम नहीं करेगा। और आपको लग रहा होगा कि ये कानून के लिए खासी बड़ी दिक्कत होगी, मगर कांग्रेस इस बात से जरा भी परेशान नहीं लगती है। ये सिस्टम धवस्त इसलिए हो जाएगा, क्योंकि आप अब भी अपने ब्राउजर में 74.125.226.212 टाइप कर के या उसको क्लिक करने लायक लिंक बना कर अब भी गूगल तक पहुंच पाएंगे। तो जो सुरक्षात्मक घेरा इस समस्या के आसपास खड़ा किया गया है, वही इस एक्ट का सबसे बड़ा खतरा है।

कैसे कांग्रेस ने ऐसा विधेयक लिख डाला, जो कि अपने मुकर्रर लक्ष्यों को कभी पूरा नहीं करेगा, मगर एक हजार नुकसानदायक साइड इफेक्ट बना डालेगा, ये समझने के लिए आपको इसकी कहानी में गहरे पैठना होगा। और कहानी कुछ ऐसी है…

सोपा और पीपा, ऐसे विधेयक हैं जिनका ड्राफ्ट मुख्यतः उन मीडिया कंपनियों ने लिखा जो कि बीसवीं सदी में शुरू हुई थीं। बीसवीं सदी मीडिया कंपनियों के लिए स्वर्णिम समय था, क्योंकि मीडिया कंटेट की बहुत ही ज्यादा कमी थी। अगर आप कोई टीवी शो बना रहे हैं, तो उसे बाकी सारे टीवी शो से बेहतर नहीं होना होगा; उसे केवल बेहतर होना होगा बाकी दो शो से, जो उसी समय प्रसारित होते हों … जो कि बहुत ही हल्की शर्त है स्पर्धा के लिहाज से। जिसका मतलब है कि यदि आप बिलकुल औसत कंटेंट भी बना रहे हैं, तो फ्री में अमरीका की एक-तिहाई पब्लिक आपकी बात सुनने को मजबूर है। कई लाख लोग एक साथ आपको सुन रहे हैं, तब भी, जबकि आपका बनाया कुछ खास नहीं है। ये ऐसा है, जैसे आपको नोट छापने का लाइसेंस मिल जाए, और साथ ही फ्री इंक भी।

मगर टेक्नालाजी आगे बढ़ गयी, जैसा कि वो हमेशा करती है। और धीरे-धीरे, बीसवीं शताब्दी के अंत तक, कंटेट की वो कमी खत्म सी होने लगी … और मेरा मतलब डिजिटल टेक्नालाजी से नहीं है, साधारण एनालाग टेक्नालाजी भी जरिया बनी। कैसेट टेप, वीडियो कैसेट रेकार्डर, यहां तक कि जेराक्स मशीन भी नये अवसर पैदा करने लगी ऐसे क्रियाकलापों के लिए, जिन्‍होंने इन मीडिया कंपनियों की हवा निकाल दी। क्योंकि अचानक इन्हें पता लगा कि हम लोग सिर्फ चुपचाप बैठ कर देखने वाले लोग नहीं हैं। हम सिर्फ कनज्‍यूम करना ही नहीं चाहते। हमें कनज्‍यूम करने में मजा आता है, मगर जब भी ऐसे नये अविष्कार हम तक पहुंचे, हमने कुछ रचने की भी कोशिश की और अपनी रचना को शेयर करने, बांटने का प्रयास किया। और इस बात ने मीडिया कंपनियों को घबराहट में डाल दिया … हर बार उनकी हालत पतली ही हुई।

जैक वलेंटी ने, जो कि मुख्य लॉबीइस्‍ट थे मोशन पिक्चर एसोसिएशन ऑफ अमेरिका के, एक बार घृणा योग्य वीडियो कैसेट रिकार्डर की तुलना जैक द रिपर से की थी और गरीब, हताश, बेचारे हॉलीवुड की उस कमजोर औरत से जो घर पर अकेले शिकार होने को बैठी है। इस स्तर पर चीख-पुकार मचायी गयी थी।

और इसलिए मीडिया इंडस्ट्री ने गिड़गिड़ा कर, जोर डाल कर, ये मांग रखी कि कांग्रेस कुछ करे। और कांग्रेस ने किया भी। 90 के दशक के पूर्वार्ध तक, कांग्रेस ने ऐसा कानून बनाया, जिसने सब कुछ बदल दिया। और उस कानून का नाम था 'द ऑडियो होम रेकार्डिंग एक्ट' सन 1992 का। 1992 का द ऑडियो होम रिकार्डिंग एक्ट ये कहता है कि देखिए, अगर लोग रेडियो प्रसारण को रिकार्ड कर रहे हैं, और फिर दोस्तों के लिए खिचड़ी-कैसेट (रीमिक्‍स) बना रहे हैं, तो ये अपराध नहीं है। इसमें कोई गलत बात नहीं है। टेप करना, रीमिक्स करना, और दोस्तों में बांटना गलत नहीं है। यदि आप कई सारी उम्दा क्वालिटी की कॉपी बना कर बेच रहे हैं, तो ये बिल्कुल भी सही नहीं है। मगर ये छोटा-मोटा टेप करना वगैरह ठीक है, इसे चलने दो। और उन्हें लगा कि उन्‍होंने मसले को हल कर दिया है, क्योंकि उन्होंने साफ लकीर बना दी थी – कानूनन गलत और कानूनन सही कॉपी करने के बीच।

मगर मीडिया कंपनियों को ये नहीं चाहिए था। वो ये चाहते थे कि कांग्रेस किसी भी तरह की कॉपी करने पर पूर्ण रोक लगा दे। तो जब 1992 का ऑडियो होम रेकार्डिंग एक्ट पास हुआ, मीडिया कंपनियों ने ये विचार ही छोड़ दिया कि कॉपी करना किसी स्थिति में कानूनन सही माना जा सकता है क्योंकि ये साफ था कि यदि कांग्रेस इस नजरिये से सोचेगी, तो शायद नागरिकों को अपने मीडिया परिवेश में रचनात्मक भागीदारी करने के और भी अधिकार मिले। तो उन्‍होंने दूसरी ही योजना बनायी। उन्हें इस योजना को बनाने में थोड़ा समय जरूर लगा।

ये योजना पूर्ण रूप से सामने आयी सन 1998 में … डिजिटल मिलेनियम कॉपीराइट एक्ट के रूप में। (डीएमसीए) ये अत्यधिक जटिल कानून था, हजारों हिस्सों में बंटा हुआ। मगर डीएमसीए का मुख्यतः जोर ये था कि ये कानूनन सही है कि आपको ऐसा डिजिटल कंटेट बेचा जाए, जिसे कॉपी नहीं किया जा सकता … बस इतनी सी गलती हुई कि ऐसा कोई डिजिटल कंटेट नहीं हो सकता, जो कॉपी न हो सके। ये ऐसा था, जैसा कि एड फेल्टन ने कहा था, "ऐसा पानी बेचना जो गीला न हो।" बिट्स तो कॉपी लायक होते ही हैं। यही तो कंप्‍यूटर करते हैं। ये तो उनके सामान्‍य काम करने के तरीके का निहित अंग है।

तो ऐसी काबिलियत के नाटक के लिए कि असल में कॉपी नहीं होने वाले बिट्स बिक सकते हैं, डीएमसीए ने ये भी कानूनी रूप से सही करार दिया कि आप पर ऐसे सिस्टम थोपे जाएं, जो आपके यंत्रों की कॉपी करने की काबिलियत खत्म कर दें। हर डीवीडी प्लेयर और गेम प्लेयर और टीवी और कंप्‍यूटर जो आप घर ले जाते रहे… आप चाहे जो सोच कर उसे खरीद रहे थे … कंटेट इंडस्ट्री द्वारा तोड़ा जा सकता था, अगर वो चाहते कि इसी शर्त पर आपको कंटेंट बेचेंगे। और ये सुनिश्चित करने के लिए कि आपको ये पता न लगे, या फिर आप उस यंत्र की साधारण कंप्‍यूटरनुमा गतिविधियों को इस्तेमाल न कर पाएं, उन्होंने ये गैर-कानूनी करवा दिया कि आप रीसेट कर सकें उनके कंटेंट को कापी होने लायक बनाने के लिए। डीएमसीए वो काला क्षण है, जबकि मीडिया इंडस्ट्री ने उस कानूनी सिस्टम को ताक पर रख दिया, जो कानूनी और गैर-कानूनी कॉपी में फर्क करता था, और पूरी तरह से कॉपी रोकने का प्रयास किया, तकनीक के इस्तेमाल से भी।

डीएमसीए के कई जटिल असर होते आये हैं, और हो रहे हैं, और इस संदर्भ में उसका असर है – शेयरिंग पर कसी गयी लगाम, मगर वो ज्यादातर नाकामयाब ही हुए हैं। और उनकी इस असफलता का मुख्य कारण रहा है ये कि इंटरनेट ज्यादा फैला है और ज्यादा शक्तिशाली बन कर उभरा है, किसी की भी सोच के मुकाबले। टेप मिक्स करना, फैन मग्जीन वगैरह निकालना कुछ भी नहीं है उसके मुकाबले, जो आज घटित हो रहा है इंटरनेट पर।

हम आज ऐसे विश्व के बाशिंदे हैं, जहां ज्यादातर अमरीकी जो 12 वर्ष से बड़े हैं, एक दूसरे से ऑनलाइन चीजें शेयर करते हैं। हम लेख शेयर करते हैं, तस्वीरें साझा करते हैं, ऑडियो, वीडियो सब साझा करते हैं। हमारी शेयर की गयी चीजों में से कुछ हमारी खुद की बनायी होती हैं। कुछ ऐसी सामग्री होती है, जो हमें मिली होती है। और कुछ ऐसी सामग्री भी, जो हमने उस कंटेट से बनायी होती है, जो हमें मिला, और ये सब मीडिया इंडस्ट्री के होश उड़ाने के लिए काफी है।

तो पीपा और सोपा इस युद्ध की दूसरी कड़ी है। मगर जहां डीएमसीए अंदर घुस कर काम करता था … कि हम आपके कंप्‍यूटर में घुसे हैं, आपके टीवी का हिस्सा हैं, आपके गेम मशीन में मौजूद हैं, और उसे वो करने से रोक रहे हैं, जिसके वादे पर हमने उन्हें खरीदा था … पीपा और सोपा तो परमाणु विस्फोट जैसे हैं और ये कह रहे हैं कि हम दुनिया में हर जगह पहुंच कर कंटेंट को सेंसर करना चाहते हैं। और इसे करने की विधि, जैसे मैने पहले कहा, ये है कि आप हर उस लिंक को हटा देंगे, जो उन आईपी एड्रेस तक पहुंचेंगे। आप को उन्हें सर्च इंजिन से हटाना होगा, आपको ऑनलाइन डाइरेक्ट्रियों से हटाना होगा, आपको यूजर लिस्टों से हटाना होगा। और क्योंकि इंटरनेट पर कंटेट के सबसे बड़े रचयिता गूगल या याहू नहीं हैं, आप और हम हैं, असल में निगरानी आपकी और हमारी ही होगी। क्योंकि आखिर में, असली खतरा पीपा और सोपा के कानून बनने से हमारी चीजों को शेयर करने की काबिलियत को है।

तो पीपा और सोपा से खतरा ये है कि ये सदियों पुराने कानूनी सिद्धांत को, कि "जब तक सिद्ध नहीं, अपराधी नहीं" उलट देंगे कि – "जब तक सिद्ध नहीं, अपराधी" में आप शेयर नहीं कर सकते जब तक कि आप ये न दिखा दें कि आप जो शेयर कर रहे हैं, वो इनके हिसाब से ठीक है। अचानक, कानूनी और गैर-कानूनी होने का पूरा दारोमदार हम पर ही गिर जाएगा। और उन सेवाओं पर जो हमें नया नया काम करने की काबिलियत देना चाहती हैं। और अगर सिर्फ एक पैसा भी एक यूजर की निगरानी में खर्च हो, तो कोई भी ऐसी सेवा दिवालिया हो जाएगी, जिसके सौ मिलियन यूजर होंगे।

और यही इंटरनेट है इनके दिमाग में। सोचिए हर जगह ऐसा ही निशान लगा हो … और यहां कॉलेज बेकरी न लिखा हो, यहां लिखा हो यू-ट्यूब और फेसबुक और ट्विटर। सोचिए यहां लिखा हो टेड, क्योंकि कमेंटों की तो निगरानी हो ही नहीं सकती है किसी भी कीमत पर। सोपा और पीपा का असल असर बताये जा रहे असर से बहुत अलग होगा। असल खतरा ये है कि साबित करने का काम उलटी पार्टी का हो जाएगा, जहां अचानक हम सभी को चोरों की तरह देखा जाएगा, हर क्षण जब भी हम रचना की स्वतंत्रता का इस्तेमाल करेंगे, कुछ बनाने या शेयर करने के लिए। और वो लोग जिन्होंने हमें ये काबिलियत दी है … दुनिया भर के यू-ट्यूब, फेसबुक, ट्विटर और टेड – उनका मुख्य काम हमारी निगरानी करने का हो जाएगा, कि कहीं हमारे द्वारा शेयर की गयी चीज से उन पर तो फंदा नहीं कस जाएगा।

अब दो काम हैं, जो आप कर सकते हैं इसे रोकने के लिए … एक साधारण काम है और एक जटिल काम है, एक आसान काम है और एक कठिन है।

साधारण आसान काम ये है : यदि आप अमरीकी हैं, तो अपने विधायक को कॉल कीजिए। जब आप देखेंगे कि कौन लोग हैं, जिन्होंने सोपा को बढ़ावा दिया है, और पीपा के लिए प्रचार किया है, आप देखेंगे कि उन्होंने लगातार कई सालों से दसियों लाख डॉलर पाये हैं पारंपरिक मीडिया इंडस्ट्री से। आपके पास दसियों लाख डॉलर नहीं हैं, लेकिन आप अपने नेताओं को कॉल करके ये याद दिला सकते हैं कि आप के पास वोट है, और आप नहीं चाहते कि आपके साथ चोरों जैसा बर्ताव हो, और आप उन्हें सुझाव दे सकते हैं कि आप चाहेंगे कि इंटरनेट की कमर न तोड़ी जाए।

और अगर आप अमरीकी नहीं हैं, तो आप उन अमरीकियों से बात कीजिए, जिन्हें आप जानते हैं, और उन्हें उत्साहित कीजिए ये करने के लिए। क्योंकि इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाया जा रहा है, मगर ये है नहीं। ये इंडस्ट्री सिर्फ इस पर नहीं रुकेगी कि इसने अमरीका के इंटरनेट पर कब्जा कर लिया। यदि ये सफल हुए, तो दुनिया भर का इंटरनेट कब्जा लेंगी। ये तो था आसान काम। ये था साधारण काम।

अब कठिन काम : तैयार हो जाइए, क्योंकि और भी हमले होने वाले हैं। सोपा असल में कोयका (COICA) का नया रूप है, जिसे पिछले साल पेश किया गया था, मगर वो पास नहीं हुआ। और ये सारी कहानी ठहरती है डीएमसीए के असफल हो जाने में, टेक्नालाजी का इस्तेमाल करके शेयरिंग रोक पाने में असफल होने में। और डीएमसीए ठहरता है द ऑडियो होम रिकार्डिंग एक्ट पर, जिसने इस इंडस्ट्री के शहंशाहों की हवा निकाल दी थी। क्योंकि ये जटिल है कि पहले कहा जाए कि कोई कानून तोड़ रहा है और फिर सबूत इकट्ठे करना और सिद्ध करना, ये काफी असुविधा भरा है। "काश इसे सिद्ध करने के झमेले में न पड़ना पड़े" कंटेंट कंपनियां ये सोचती हैं। और वो इस झमेले में पड़ना ही नहीं चाहतीं कि ये सोचना पड़े कि क्या फर्क है कानूनी और गैर-कानूनी में। वो तो बस सीधा सरल उपाय चाहती हैं कि शेयरिंग बंद हो जाए।

पीपा और सोपा कोई नयी बात या अलग सा आइडिया नहीं है, न ही ये आज शुरू हुआ कोई खेल है। ये तो उसी पुराने पेंच का अगला घुमाव है, जो पिछले बीस साल से षड्यंत्र कर रहा है। और अगर हमने इसे हरा दिया, जैसा मैं आशा करता हूं, और हमले आएंगे। क्योंकि जब तक हम कांग्रेस को विश्वास नहीं दिला देते कि कॉपीराइट हनन से निपटने का सही उपाय वो है, जो कि नैप्स्टर या यूट्यूब ने इस्तेमाल किया, जहां एक सुनवाई होती है सारे सबूतों के साथ, सारे तथ्यों पर विचार कर के, और उपायों पर विमर्श कर के, जैसा कि प्रजातांत्रिक समाजों में होता है। यही सही तरीका है इस से निपटने का।

और इस बीच, कठिन काम ये है कि कमर कस लीजिए। क्योंकि यही पीपा और सोपा का असली संदेश है। टाइम वार्नर ने बुलावा भेज दिया है और वो हमें वापस सिर्फ कनज्‍यूमर बनाना चाहते हैं – काउच पोटेटो (couch potato) हम न रचें, न हम शेयर करें … और हमें जोर से कहना चाहिए, "नहीं।"

अनुवाद : स्‍वप्निल कांत दीक्षितसंपादन : वत्‍सला श्रीवास्‍तव

(अनुवादक के बारे में : स्वप्निल कांत दीक्षित। आईआईटी से स्नातक होने के बाद, कोर्पोरेट सेक्टर में दो साल काम किया। फिर साथियों के साथ जागृति यात्रा की शुरुआत की। यह एक वार्षिक रेल यात्रा है, और 400 युवाओं को देश में होने वाले बेहतरीन सामाजिक एवं व्यावसायिक उद्यमों से अवगत कराती है। इसका उद्देश्य युवाओं में उद्यमिता की भावना को जगाना, और उद्यम-जनित-विकास की एक लहर को भारत में चालू करना है। इस यात्रा में ये युवक जगह-जगह से नये सृजन के लिए उत्‍साह बटोरते चलते हैं। स्वप्निल उन युवकों में से हैं, जो बनी-बनायी लीक पर चलने में यकीन नहीं रखते। यात्रा की एक झलक यहां देखें।)

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