मानुषखोर सत्ता पर जनप्रतिरोध का असर नहीं होता। पंचायती शिकस्त के बावजूद बुश बुद्ध गठजोड़ मों खरोंच तक नहीं। नैनो की दौड़ जारी रहेगी पूंजीवादी मार्क्सवादी कारपोरेट विकास मार्ग पर। भाजपा के पुनरुत्थान से मुसलमान वोट को साधने का नया मौका और प्रणव की अगुवाई में कांग्रेस पर अंकुश। परमाणु सौदा मरा भी नहीं है। सौदेबाजी के तरीके बदल गए।
पलाश विश्वास
सिंगुर नन्दीग्राम प्रतिरोध आन्दोलन का असर होता तो ग्राम बांग्ला में सफाया हो जाता वाममोर्चा का। दक्षिण २४ परगना में आरएसपी का प्रबल जनाधार है और वासंती में मंत्री की बहू की बम मारकर हत्या जैसी वारदात के साथ सहयोगी दलों पर राज्यभर में कहर बरपाने का खामियाज मोर्चा ने भुगता।
उत्तर बंगाल में फारवर्ड ब्लाक की नाराजगी विपक्ष के काम आयेगी। तो दूसरी ओर राजग और भाजपा से दामन छुड़ाकर नन्दीग्राम सिंगुर जनप्रतिरोध में हमेशा आगे रहकर एसयूसी जैसे वामपंथी कैडर बेस पार्टी के सहयोग की वजह से वोटबैंक को बूथों पर अपने हक में मतो में तब्दील करने में सीमित कामयाबी ममता ने जरूर हासिल कर ली है।
पूर्वी मेदिनीपुर में जहां वाम मोर्चा को जिला परिषद भी गवानी पड़ी, वहीं हुगली में सिंगुर में पंचायती पराजय के बावजूद माकपा का वर्चस्व बना रहा। उत्तर बंगाल में वैसे भी कांग्रेस की कामयाबी नयी बात नहीं है।
बाकी हिस्सों में नन्दीग्राम और सिंगुर प्रतिरोध का असर हुआ ही नहीं, इसके मद्देनजर आसनन् लोकसभा चुनावों में वाममोर्चा की दस सीटें हारने की अटकले या विधानसभा चुनाव में बंगाल से माकपा के सफाये का अनुमान लगाना बंगाल के सत्तावर्ग को न समझ पाने का सबूत है।
राजस्थान में गुर्जरों पर भाजपाई सरकार का पुलिसिया दमन और कर्नाटक में भाजपा की सत्ता जैसी वारदातें मुसलमानों को गुजरात नरसंहार प्रकरण की तरह असुरक्षा का माहौल दे रही हैं बंगाल में।
अब संघ परिवार के पुनरूत्थान के मद्देनजर अगर ममता बनर्जी ने हमेशा की तरह मौकापरस्ती का नायाब नमूना पेश करते हुए भाजपा और राजग के पाले में चली गयी, जिसकी पूरी संभावना है तो नाराज मुसलमानों के लिए फिर माकपा के पाले में लौटने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचेगा।
शरीक दलों को मनाने की कवायद शुरू हो गयी है।
संघपरिवार और अमेरिका पर हमला तेज करने के अलावा कांग्रेस को नयी राजनीतिक परिस्थितियों के मुताबिक कंद्र में सत्ता के खातिर बंगाल में सबकुछ सह लेने के लिए मजबूर करते रहने की रणनीति को वैज्ञानिक दक्षता से अंजाम दिया जा रहा है।
जहां पंचायती नतीजों के मद्देनजर तत्काल चुनाव की धमकियों से वामपंथियों को आतंकित करके परमाणु सौद को जिंदा करने की रणनीति थी कांग्रेस की, वहां कर्नाटक में भी भाजपा की जीत से यह चाल एकदम बेअसर हो गयी है।
कारपोरेट साम्राज्यवाद के सारे हित साधते हुए, अमेरिकापरस्त केंद्र सरकार को आक्सीजन देते हुए अमेरिकी पूंजी के आगे आत्मसमर्पण करते हुए माकपा अबभी अमेरिकाविरोधी तेवर और साम्राज्यवाद फासीवाद विरोधी मुहिम के जरिए मुसलमानों को अपने वोटबैंक में समाहित करने के लिए मजबूर कर सकती है।
जाहिर है कि वोट बैंक समीकरण और जनसंख्या जोड़तोड़ की राजनीते से बंगाल में कुछ भी नहीं बदलने जा रहा है। मान भी लें कि ममता सत्ता में आ जायेगी, तो भी मूल निवासियों के नरमेध यज्ञ के आयोजन में कोई फर्क नह पड़ेगा और न ही मानुषखोर सत्ता और सत्तावर्ग के चरित्र में कोई परिवर्तन आने वाला है।
सत्ता परिवर्तन के अनेक नजारे भारत ने देख लिये हैं। मानुषखोर सत्ता वहीं रह जाती है , पर सत्ता के रंग ढंग, तामझाम और भाषा में बदलाव के अलावा मूलनिवासियों के लिए बाकी बचती है मौत, बेरोजगारी और विस्थापन, भुखमरी, महामारी और आपदाएं।
गुजरात, राजस्थान, असम, ओड़ीशा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, बंगाल, पूर्वोत्तर, कश्मीर, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़. उत्तराखंड, झारखंड- सर्वत्र अलग अलग पार्टियों के राज में सत्तावर्ग का चेहरा और चरित्र एक है। हित भी एक हैं।
मूलनिवासियों की नियति चुनावी राजनीति से नहीं बदलती, इसे अब कितनी बार साबित किया जाये?
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