BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Welcome

Website counter
website hit counter
website hit counters

Saturday, May 11, 2013

बिन कोयला जग अंधियारा।लेकिन दुनिया को रोशन करेनवाले कोयलांचलों में विकास के नाम पर अंधेरा ही अंधेरा!

 बिन कोयला जग अंधियारा।लेकिन दुनिया को रोशन करेनवाले कोयलांचलों में विकास के नाम पर अंधेरा ही अंधेरा!


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​


कोयला घोटाला कोई नई बात है नहीं। लेकिन इस वक्त पूरे देश में कोयलाघोटाला फोकस पर है।इन दिनों देश में कोल ब्लॉक आवंटन को लेकर सियासी बवंडर मचा हुआ है। कांग्रेस कोल ब्लॉक के आवंटन को सही बताकर सीएजी की रिपोर्ट को ठेंगा दिखा रही है, जबकि भाजपा ने इस घोटाले के विरोध में जमीन-आसमान को सिर पर उठा लिया है। कांग्रेस का कहना है कि आवंटन में कोई अनियमितता नहीं हुई, जबकि भाजपा के नेता सीएजी की रिपोर्ट को सच ठहराते हुए भारी घोटाले का आरोप लगा रहे हैं। विडंबना तो यह है कि अकूत खनिज संपदा से समृद्ध कोयलाचलों के विकास की चर्चा होती ही नहीं है। चर्चा होती है तो माफिया युद्ध की, खूनी घटनाओं की, माफिया सरगना की या फिर कभी कभी भंडाफोड़ हो जाने वाले घोटालों की! पर यहां तो घोटाला और भ्रष्टाचार कोयला के परत दर परत में  है। रोजमर्रे की जिंदगी की परत दर परत में है। "मधु कोड़ा', "रेड्डी बंधु',"टू-जी' हो या "कोल-गेट' आदि  महाघोटाले प्राकृतिक संसाधनों को निजी हाथों में सौंपने की नीतियों के कारण ही संभव हो सके। भाजपा प्रधानमंत्री से इस्तीफा तो मांग रही है, लेकिन निर्बाध निजीकरण की नीतियों पर खामोश है।


सबसे बड़ा घोटाला तो विकास गाथा का है। विकास के नाम पर उजाड़े जाते हैं कोयलांच के लोग। न पुनर्वास होता है और न मुआवजा मिलता है।न विकास का तोहफा मिला। दामोदर वैली निगम की परियोजनाएं स्वतंत्रता के तुरंत बाद शुरु हुईं, लेकिन इस योजना के तहत बेदखल लोगों को आजतक न पुनर्वास मिला और न मुआवजा।दुर्गापुर से लेकर मैथन के सैकड़ों गांवों और दर्जनों कस्बों का मौके पर मुायना करके देखें। कल्याणेश्वरी मंदिर या राजरप्पा मंदिर में मन्नत मागने के अलावा लोगो की जिंदगी में कोई आशा की किरण नहीं है।


अब कोयला खानों में लगी आग से कोकिंग कोयला जैसी बेशकीमती संपदा को निकालने के लिए रानीगंज और झरिया जैसे जीवंत शहरों को स्थानांतरित करने की योजना है, जो दशकों से लागू ही नहीं हो रही है।यह राजनीति के बंद खदानों की आग है। अगर ऐसा नहीं होता तो हंगामा पिछले साल ही बरपा होता जब सरकार ने "खान और खनिज (विकास और नियमन) विधेयक-10' को मंजूरकर नये कानून बनाये थे।यह कानून खनिज और खनन प्रक्षेत्र में में निर्बाध निजीकरण के लिए ही बनाये गये थे ।विशेषज्ञों ने उस समय कहा था कि यह कानून खनिज व खनन प्रक्षेत्र को निजीकरण के नये दौर में लेकर जायेगा, जिससे सरकार की भूमिका में व्यापक बदलाव होंगे। निर्बाध निजीकरण के नये कानूनों से खनिजों के उत्पादन, प्रसंस्करण, वैल्यू एडिशन और विपणन में सरकार की भूमिका कम होती जायेगी और वह धीरे-धीरे नियंत्रक और नियामक की भूमिका में सीमित होती जायेगी। यही हो भी रहा है। अब सरकार प्राकृतिक संसाधनों के सर्वाधिकारी की भूमिका में नहीं, बल्कि नियंत्रक और नियामक की भूमिका में आ चुकी है। स्वाभाविक रूप से मंत्रालय में बैठे लोग लाबीदार हो गये हैं और उनकी जेब खूब गरम हो रही है, लेकिन देश की प्राकृतिक संपदाएं दोनों हाथों से लूटी जा रही हैं।विकास कुछ लेकिन हो नहीं रहा है।


विकास का हाल यह है कि रोजगार और आजीविका में कोयलांचलों की पूरी आबादी माफिया गिरोहों की मरजी और मूड पर निर्भर ही नहीं हैं, बल्कि उनके बंधुआ मजदूर है। धंधा अवैध खनन और कोयला तस्करी का है। तीसरा धंधा देह व्यवसाय का है, जो कोयलांचलों में खूब फल फूल रहा है। साइकिलों में कोयला लादे पुरुष, स्त्री और बच्चे, बंद पड़े खानों में सैकड़ों की तादाद में काम करने वाले लोगों को देखने पर विकास की कलई खुल जाती है। पर देश ने इस ओर आंखें बंद की हुई हैं।


इस इलाके में निवेश का मतलब है माफिया के लसाये में जीना और मरना। रंगदारी टैक्स भरते रहना या राजनीतिक आकाओं के शरण में जाना , इसलिए उद्योगों और कारोबार का यहा कोई वर्तमान , अतीत या भविष्य है ही नहीं। जो कुछ है , वह कोयला आधारित है। बिन कोयला जग सून।जिसपर या तो माफिया या फिर राजनीति के वर्चस्व है। अंडाल विमान नगरी का का अधूरा है। वहां भूमि संकट के बिना काम रुका है। जमीन के अभाव में कोयला खनन रुका है। पर आसनसोल में दूसरे हवाई अड्डे की घोषणा हो गयी।धनबाद में हवाई अड्डे की गोषमा तो सत्तर के दशक से होती रही है।एक परियोजना पूरी नहीं होती तो दूसरी परियोजना शुरु कर दी जाती है। परियोजनाओं को अंजाम तक पहुंचाना किसी का मकसद नहीं होता।


बंगाल , झारखंड,बिहार, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीशा, छत्तीसगढ़,असम और महाराष्ट्र का अधिकांश कोयला भूगोल आदिवासी है। पांचवीं और छठीं अनुसूचियों के अंतर्गत। उड़ीशा में आदिवासी और अनुसूचित बयालीस फीसद है तो झारखंड और छत्तीसगढ़ का राजकाज आदिवासियों के नाम पर चलता है। लेकिन इससे वहां बंगाल,महाराष्ट्र, बिहार या असम या उत्तरप्रदेश के मुकाबले बेहतर हालात हों, ऐसा भी नहीं है। केंद्रीय अनुदान मिलता है। बजट घोषणाएं होती है। योजनाएं बनती हैं और कार्यान्वित दिखायी भी जाती हैं, पर जमीन पर कुछ होता नहीं है।न सड़कें बनी हैं, न कोयलांचल के गांवों में विद्युतीकरण हुआ है। बचीखुची खेतों के लिए डीवीसी की मौजूदगी के बावजूद सिंचाई का बंदोबस्त नहीं है। किसान वर्षा पर निर्भर हैं।पथरीली लाल जमीन पर अपने  खेतों पर वे खून पसीना एक करने के बावजूद खाने को अनाज के मोहताज हैं। शिक्षा का विस्तार हुआ नहीं है। स्वास्थ्य का हाल बहुत बुरा है। नागरिक सेवाएं बिना कुछ लिये दिये बिना मिलती नहीं हैं।कोयलांचल सहित आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों में गर्मी के दस्तक के साथ ही पानी के लिए हाहाकार मचना शुरू हो गया है।


कुल मिलाकर कोयलांचलों में सर्वत्र यही कथा व्यथा है। जहां धुआं, आग, राख, खून के अलावा आपको कुछ हासिल नहीं होता। विकास योजनाएं कोयला उद्योग के तमाम आंकड़ों की तरह कागजी है।ज्यादातर इलाके माओवादियों के कब्जे में है। खासकर आदिवासी इलाके।जो बचा हुआ है, वह माफिया के कब्जे में है,और इनसे भी जो बचा हुआ है, वह राजनीति के हवाले हैं।विकास की संभावना ही नहीं बन पाती। इस ओर न राज्य सरकारों का ध्यान है और न केंद्र का।


आसनसोल, धनबाद, रांची , हजारीबाग, कोरबा, बोकारो, दुर्गापुर, विलासपुर, चंद्रपुर जैसे दर्जनों नगर कोयलांचल में बसे हैं, वहां विकास ठहरा हुआहै। सरकारें न कार्यक्रमों का कार्यान्वयन कर पाती है और न योजनाओं को अमली जामा पहनाने की हालत है। बजट में मिला अनुदान वापस चला जाता है।​बोकारो जैसा सुनियोजित नगर है। जो बना, वह बिगड़ गया। जो बना ही नहीं, उसका क्या कहना!

​​

​कोयलांचल के विकास का जिम्मा जिस कोल इंडिया पर है, वह बाजार के दबाव में टूट रहा है और अपने अफसरों और कारिंदों पर उनका कोई नियंत्रण कभी रहा हो, ऐसा हमें नहीं मालूम है।


केंद्र सरकार के पास समाज कल्याण विभाग और आदिवासी कल्याण विभाग जैसे मंत्रालय हैं, जिनकी घोषणाएं बड़ी बड़ी होती है, कोयलांचल में दीखती कहीं नहीं है।


कोयला मंत्रालय केंद्र सरकार के सबसे मालदार विभाग है, जिसपर प्रधानमंत्री दफ्तरकी निगरानी रहती है। निजी कंपनियों को कोयला आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रपति भवन से भी डिक्री जारी हो जाती है, पर कोयला उद्योग और कोल इंडिया की सेहत की किसी को परवाह नहीं होती। आम नागरिक की चिंता त कोई सरकार नहीं करती। फिर कोयलांचलों में राजनीति माफिया के सहारे चलती है, आजाद नागरिकों के जनमत से नहीं। इसलिए राजनीति मफिया हितों की परवाह ज्यादा करती है, जनता के हित में विकास कार्य की किसे पड़ी है?


बच्चों और स्त्रियों में कुपोषण यहां आम है। महाजनी चरम पर हैं। बंधुआ मजदूरी हकीकत है।इस दिशा में किसी तरफ से कोई पहल नहीं होती। और तो और, कोयलांचल में शुद्ध पानी के लिए आप तरस जाओगे।


पूरे  देश के बिजलीघरों को चालू रखने के लिए कोयला आपूर्ति करनेवाले कोयलांचलों में अंधेरा ही अंधेरा है। सिंदरी खाद कारखाना का मुद्दा हो या बोकारो स्टील प्लांट या  सिंदरी खाद कारखाना की पुनरुद्धार योजना, सारी योजनाएं हवा हवाई हैं।

मुख्य रेलवे मार्गों के बीच पड़ने के बावजूद, आसनसोल, धनबाद, रांची, जमशेदपुर, विलासपुर, नागपुर जैसे रेलवेकेंद्रों के होने के बावजूद, नई रेलगाड़ियों की घोषणा होने के बावजूद रेलवे सेवा का हाल बाकी देश में बहुत बुरा है। रानीगंज, आसनसोल, दुर्गापुर, अंडाल, कु्ल्टी , बराकर,  जैसे रेलवे स्टेशनों की पूछिये मत। यही हाल छत्तीसगढ़ के कोरबा और महाराष्ट्र के नागपुर सेक्शनों मे है।कोरबा में औद्योगिकीकरण की रफ्तार बढ़ने से विकास को नये पंख अवश्य मिले हैं लेकिन इसके साथ-साथ समस्याओं की श्रृंखला का जन्म हो गया है। आलम यह है कि 40 किमी के दायरे में शुध्द वायु की प्राप्ति सपना बनकर रह गया है। जगह-जगह कोयला कणों से लेकर धूल का उठने वाला गुबार लोगों के लिए समस्या का वाहक बना हुआ है।कोरबा जिले में नाक-कान-गला रोगों की चिकित्सा करने वाले डाक्टरों का कहना है कि डस्ट चेम्बर बनने की ओर उतारू नगरीय क्षेत्र और आसपास के इलाके में एलर्जी से छींक, खांसी, सांस फूलने, श्वांस की नली के सिकुड़ने व बलगम जमने की समस्या सामने आ रही है। एलर्जिक साइनोसाइटिस से प्रभावित लोगों की संख्या भी दिनों-दिन बढ़ रही है।


मुंबई कोलकाता राजमार्ग और जीटी रोड जैसे सड़क​​मार्गों के तमाम पड़ाव इन्हीं इलाकों में हैं। लेकिन बस अड्डे कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण से पहले जिस हाल में थे, उसमें कोई बहुत ज्यादा सुधार नहीं हुआ। अन्य परिवहन तो रंगदारों के कब्जे में हैं। शौचालय तक मुश्किल से मिलते हैं।


स्थानीय निकायों से कोयलांचलों में आप कुछ उम्मीद नहीं कर सकते। सर्वत्र बाहुबली हावी हैं, इनसे आम लोग संवाद करने की स्थिति  में भी नहीं है। विकास उनके लिए कोयले के ही जैसा एक और काला धंधा है और कुछ नही। सर्वत्र गिरोहबंदी है। भ्रष्टाचार का बसेरा है।


No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...