BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Wednesday, July 22, 2015

परेशां परेशां कि अलादीन अनेक और उनके विश भी अनेक और सारे के सारे एलियंस,जो तबाही पर आमादा हैं इस सूअरबाड़े में लेकिन असली सूअर भी कोई नहीं है। जरा उनका भी इलाज कराने की सोचिये जो नफरत से फिजां को बदमजा कर रहे हैं और उनकी इस हरमजदगी का भी कुछ इलाज सोचिये। स्टीफन हॉकिंग को मालूम नहीं है कि एलियंस ने हमें किस बेरहमी से कायनात की सारी बरकतों और रहमतों से बेदखल कर दिया है और कयामत के रक्तबीज वे कहां कहं बो रहे हैं कि उनको केसरिया रंग की कोई दुनिया मुकम्मल बनाना है और इंद्रदनुष से केसरिया के सिवाय सारे रंग उड़ाने हैं।एलियंस की खोज बाहर काहे करै हैं,हमारे मिलियनर बिलियनर तबका लेकिन वही एलियंस है,जिसको न इंसानियत की परवाह है और न कायनात की खैरियत की उनकी कोई मंशा है। उनका मजहब तबाही है। उका ईमान तबाही है। उनकी हरकत तबाही है। उनकी इबादत तबाही है। उनकी बोली तबाही है। उनका रब तबाही है। वे एलियंस हैं। नगाड़े लेकिन खामोश हैं।फिर भी नौटंकी का वही सिलसिला! किस्से बहुत हैं,मसले भी बहुत हैं,किस्सागो कोई जिंदा बचा नहीं है। पलाश विश्वास

परेशां परेशां कि अलादीन अनेक और उनके विश भी अनेक
और सारे के सारे एलियंस,जो तबाही पर आमादा हैं
इस सूअरबाड़े में लेकिन असली सूअर भी कोई नहीं है।

जरा उनका भी इलाज कराने की सोचिये जो नफरत से फिजां को बदमजा कर रहे हैं और उनकी इस हरमजदगी का भी कुछ इलाज सोचिये।

स्टीफन हॉकिंग को मालूम नहीं है कि एलियंस ने हमें किस बेरहमी से कायनात की सारी बरकतों और रहमतों से बेदखल कर दिया है और कयामत के रक्तबीज वे कहां कहं बो रहे हैं कि उनको केसरिया रंग की कोई दुनिया मुकम्मल बनाना है और इंद्रदनुष से केसरिया के सिवाय सारे रंग उड़ाने हैं।एलियंस की खोज बाहर काहे करै हैं,हमारे मिलियनर बिलियनर तबका लेकिन वही एलियंस है,जिसको न इंसानियत की परवाह है और न कायनात की खैरियत की उनकी कोई मंशा है।

उनका मजहब तबाही है।
उका ईमान तबाही है।
उनकी हरकत तबाही है।
उनकी इबादत तबाही है।
उनकी बोली तबाही है।
उनका रब तबाही है।
वे एलियंस हैं।
नगाड़े लेकिन खामोश हैं।फिर भी नौटंकी का वही सिलसिला!
किस्से बहुत हैं,मसले भी बहुत हैं,किस्सागो कोई जिंदा बचा नहीं है।

पलाश विश्वास
और तब पिताजी के  नानाजी बोले,तुम जैसे किसानों,तुम जैसे मेहनतकशों के मुकाबले ये बनैले सूअर भी बेहतर।

इस सूअरबाड़े में लेकिन असली सूअर भी कोई नहीं है।
एलियंस की कोज में निकले हैं स्टीफन हॉकिंग,जिनसे बेहतर कोई नहीं जानता कि वे हमें तबाह कर देगे,ठीक उसीतरह जैसे हम हालीवू़ड के टरमिनेटर जैसी दर्जनों फिल्मों में देख चुके हैं।

खैर,हालीवूड में एक फिल्म ऐसी भी बनी है कि एलियंस ने कहीं हमारी दुनिया पर धावा न बोलकर किसी और दुनिया में अवतार बनकर हमला कर दिया बाकी उन अवतारों के प्रतिरोध की कहानी है फिल्म अवतार में।

बजरंगी भाईजान पर कुर्बान जमाने में अवतार तो लोग बूल गये लेकिन स्टीफन हॉकिंग को भूलना मुस्किल है क्योंकि वे एलियंस की खोज में निकल पड़े हैं।

स्टीफन हॉकिंग महाशय को नहीं मालूम कि अवतारों के महादेश इस अखंड हिंदू राष्ट्र में एलियंस का ही राजकाज है कि
परेशां परेशां कि अलादीन अनेक और उनके विश भी अनेक
और सारे के सारे एलियंस,जो तबाही पर आमादा हैं

और नजारा यह है कि नगाड़े लेकिन खामोश हैं।फिर भी नौटंकी का वही सिलसिला! किस्से बहुत हैं,मसले भी बहुत हैं,किस्सागो कोई जिंदा बचा नहीं है।


नगाड़े खामोश है,शायद नैनीताल का युगमंच बी भूल गया है जैसे पूरा हिमालय भूल गया है गिरदा को।

हमारे कलेजे के उस टुकड़े ने लिखा था नगाड़े खामोश हैं इमरजंसी के खिलाफ और मालरोड,त्ल्ली मल्ली जोड़कर उसका मचान भी किया था गिरदा के युगमंच ने।

मजा यह है इमरजेंसी के खिलाफ वह नाटक इमरजेंसी में खेला गया लेकिन फिर कभी किसी ने उसका मचन किया हो या नहीं,हमें मालूम नहीं हैं।

उस नाटक की स्क्रिप्ट शायद हमारी हीरा भाभी के पास भी न हो,जिसे आखिरी बार हमने नैनीताल समाचार में देखा था।

ठेठ कुंमायूनी लोक शैली में लोक मुहावरों के साथ वह नाटक हुआ करै है।हमारी दुनिया फिर वही लोक,मुहावरों और किस्सों का देहात।

चार पांच दशक पहले जब इस महादेश में नौटंकी की धूम रही है तब जो जीते रहे हैं,उन्हे शायद याद भी हों कि नगाड़े क्या चीज हैं।

नगाड़ों की वह  गूंज सिर्फ अब सलवाजुड़ुम भूगोल के आदिवासी इलाकों में सुनी जा सकती है,जहां कोई नौटंकी लेकिन होती नही हैं।

बाकी देश में नगाड़े साठ के दशक से खामोश हैं।

नगाड़ों के बिना नौटंकी होती है नहीं,मगर मजा देखिये कि नगाड़े सारे के सारे खामोश हैं और नौटंकी की धूम मची है।

घर से लेकर सड़क और संसद तक वही नौटंकी का मजा है।

नारे,पोस्टर, वाकआउट,स्थगन,शोर शराबा सबकुछ जारी हैं जस का तस लेकिन न जन सुनवाई है,न जमनता के मसले हैं,न जनसरोकार कहीं है।खालिस मनोरंजन है।

देख लीजिये,जिनसे हुकूमत परेशां हैं,उनसे पीछा छुड़ाने की जुगतमें हैं,वे इस बहाने कैसे नप जायेंगे और वाहवाही में तालियों का शोर खत्म न होते होते कैसे सारे बिल विल विश फिश पूरे नजर आयेंगे।

मछली बाजार हैं तो हिलसा भी होंगे।

माफ कीजियेगा जो हमें दिमाग के मरीज समझते हैं और हमारा इलाज कराने पर तुले हैं।मुहब्बत करने वाल हर शख्स आखिर कोई दीवाना होता है और नफरत का सौदागर हर कोई सयाना होता है।

जरा उनका भी इलाज कराने की सोचिये जो नफरत से फिजां को बदमजा कर रहे हैं और उनकी इस हरमजदगी का भी कुछ इलाज सोचिये।

स्टीफन हॉकिंग को मालूम नहीं है कि एलियंस ने हमें किस बेरहमी से कायनात की सारी बरकतों और रहमतों से बेदखल कर दिया है और कयामत के रक्तबीज वे कहां कहं बो रहे हैं कि उनको केसरिया रंग की कोई दुनिया मुकम्मल बनाना है और इंद्रदनुष से केसरिया के सिवाय सारे रंग उड़ाने हैं।

एलियंस की खोज बाहर काहे करै हैं,हमारे मिलियनर बिलियनर तबका लेकिन वही एलियंस है,जिसको न इंसानियत की परवाह है और न कायनात की खैरियत की उनकी कोई मंशा है।

उनका मजहब तबाही है।
उका ईमान तबाही है।
उनकी हरकत तबाही है।
उनकी इबादत तबाही है।
उनकी बोली तबाही है।
उनका रब तबाही है।
वे एलियंस हैं।

परेशां परेशां कि अलादीन अनेक और उनके विश भी अनेक
और सारे के सारे एलियंस,जो तबाही पर आमादा हैं


स्टीफन हॉकिंग हमारे पसंदीदा साइंटिस्ट हैं।हालांक न विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टि से इस धर्मोन्मादी मुक्तबाजार के नागरिकों और नागरिकाओं का कोई वास्ता है।

यूनिवर्सिटी ऑफ केम्ब्रिज में गणित और सैद्धांतिक भौतिकी के प्रोफेसर रहे स्टीफ़न हॉकिंग की गिनती आइस्टीन के बाद सबसे बढ़े भौतकशास्त्रियों में होती है।

हमने तो जिंदगी उलटपुलट जी ली वरना हम भी काम के ,मुहब्बत ने हमें नाकाम कर दिया है।

विज्ञान सिलसिलेवार पढ़ना न हुआ तो क्या स्टीफन हॉकिंग तो हैं जो विज्ञान को समझने के लिए हमारे खास मददगार हैं और उन्हें पढ़ते हुए सृष्टि के जन्म रहस्य से लेकर क्वांटम थ्योरी और बदलते हुए गति के नियम समझना उतना मुश्किल भी नहीं है।

यही स्टीफन हॉकिंग महाशय का करिश्मा है कि समीकरण बनाना बिगाड़ना भूल गये तो क्या विज्ञान की दुनिया में सेंध मारते रहने का शौक बहाल है।

स्टीफन हॉकिंग का कहना है कि शारीरिक अक्षमताओं को पीछे छोड़ते हु्ए यह साबित किया कि अगर इच्छा शक्ति हो तो व्यक्ति कुछ भी कर सकता है।

हमेशा व्हील चेयर पर रहने वाले हॉकिंग किसी भी आम इंसान से अलग दिखते हैं, कम्प्यूटर और विभिन्न उपकरणों के जरिए अपने शब्दों को व्यक्त कर उन्होंने भौतिकी के बहुत से सफल प्रयोग भी किए हैं।

बिन कंप्यूटर कैंसर से रीढ़ खोने वाले मेरे पिता पुलिनबाबू की रीढ़ जैसी मजबूत रीढ़ किसी की देखी नहीं है।

सृष्टि के नियम से वे मेरे पिता थे लेकिन हमारी भैंसोलाजी की दुनिया मे वे भी किसी स्टीफन हॉकिंग से कतई कमतर न थे जो इंसानियत की कोई सरहद नहीं मानते थे और न स्टीफन हॉकिंग मानते हैं।

स्टीफन हॉकिंग की तरह जेहन तो खैर किसी को मुनासिब होगा,खासतौर पर जो दाने दाने को मोहताज हुआ करें हैं,लेकिन मेरे पिता तो शारीरिक और मानसिक पाबंदियों को तोडने का जुनून जी रहे थे और उनका बेटा होकर उनकी विरासत को ढो न सका तो लानत है ऐसी दो कौड़ी की जिंदगी पर भइये।



# दुनिया भर में दूसरे ग्रहों के लोगों को खोजने के लिए कई प्रयास चलते रहे हैं और इस पर कई फिल्में भी बनी हैं।

अब ब्रिटिश कॉस्मोलॉजिस्ट स्टीफन हॉकिंग ने ब्रह्मांड में दूसरी दुनिया के लोगों को खोजने के लिए सबसे बड़े अभियान चलाया है. यह अभियान के लिए द ब्रेकथ्रू लिसेन प्रॉजेक्ट चलाया जाएगा और करीब 10 साल तक चलने वाले इस प्रोजेक्ट में दस करोड़ डॉलर के खर्च होंगे।

सिलिकन वैली के रूसी कारोबारी यूरी मिलनर का द ब्रेकथ्रू लिसेन प्रॉजेक्ट को समर्थन हासिल है। माना जा रहा है कि ब्रह्मांड के दूसरी दुनिया में इंसानों जैसी समझदारी भरी जिंदगी के निशान तलाशने के लिए इंटेसिव साइंटिफिक रिसर्च किया जाएगा।

लंदन की रॉयल सोसायटी साइंस अकैडमी में इस प्रॉजेक्ट की लॉन्च के मौके पर हॉकिंग ने कहा कि इस असीमित ब्रह्मांड में कहीं न कहीं तो जीवन जरूर होगा उन्होंने कहा कि यही समय है जब हम इस सवाल का हम धरती के बाहर की दुनिया में खोजें।  अभियान शुरू करने वाले स्टीफन हॉकिंग एक खास बीमारी के चलते बातचीत नहीं कर पाते हैं और वह अपने गाल की मांसपेशी के जरिए अपने चश्मे पर लगे सेंसर को कंप्यूटर से जोड़कर ही बातचीत कर पाते हैं।
दस करोड़ डॉलर खर्च करके ढूंढे जाएंगे एलियंस


गिरदा माफ करना।रंगकर्मी हम हो नहीं सके मुकम्मल तेरी तरह।न तेरा वह जुनून है।न तेरा दिलोदिमाग पाया हमने।

इमरजेंसी खत्म नहीं हुआ अब भी।नैनीझील पर मलबों की बारिश होने लगी है,जैसा तुझे डर लगा रहता था हरवक्त।मालरोड पर मलबा है इनदिनों और पहाड़ों में मूसलाधार तबाही है।

तू नहीं है।तेरा हुड़का नहीं है।तेरा झोला नहीं है।नगाड़े खामोश है उसी तरह जैस इमरजेंसी में हुआ करै हैं।

नगाड़े खामोश हैं,हम फिर माल रोड पर दोहरा नहीं सके हैं।
न हमारे गांव के लोग कहीं मशाले लेकर चल रहे हैं।
गिरदा,तू हमारी हरामजदगी के लिए हमें माफ करना।

फिर भी नौटंकी का वही सिलसिला!

किस्से बहुत हैं,मसले भी बहुत हैं,किस्सागो कोई जिंदा बचा नहीं है।
अमृतलाल नागर सिर्फ हिंदी के नहीं,इस दुनिया के सबसे बड़े किस्सागो रहे हैं।

ताराशंकर बंद्योपाध्याय,विक्चर ह्यूगो, दास्तावस्की और तालस्ताय को सिरे से आखिर तक पढ़ने के बाद राय यह बनी थी।

फिरभी हिमातक हमारी कि किस्सागो बनने का पक्का इरादा था।मंटो को पढ़ते रहे थे।फिर भी किस्सा अफसाना लिखने की ठानी थी।पचास से ज्यादा कहानियां छप गयीं।

कहानियों की दो किताबें पंद्रह साल पहले आ गयीं।पचासों कहानियों को फेंक दिया न जाने कहां कहां।

किस्सा गोई का मजा तब है,जव जमाना सुन रहा हो किस्सा।जमाना सो गया है,यारों।गिरदा तू ही बता,तू भी रहता आसपास कहीं तो सुना देता तुझे सारा का सारा किस्सा।

विष्णु प्रभाकर,अमृत लाल नागर और उपेंद्रनाथ अश्क से खतोकितवत होती रही है क्योंकि उन्हें परवाह थी नई पौध की।वे चले गये तो उनके खतूत भी सारे फेंक दिये।टंटा से बेहद मुश्किल से जान छुड़ाया।अब न कविताहै न कहानी है।

फिरभी किस्से खत्म हुए नहीं हैं।जाहिर सी बात है कि मसले भी खत्म हुए नहीं हैं।नगाड़े भले खत्म हो गये हैं।नौटंकी खत्म है।लेकिन नौटंकी बदस्तूर चालू आहे जैसे भूस्खलन या भूकंप।

यकीन कर लें हम पर,हमारे गांव देहात में अमृतलाल नागर से बढ़कर किस्सागो रहे हैं और शायद अब भी होंगे।

काला आखर भैंस बराबर उनकी दुनिया है।लिख नहीं सकते।बलते भी कहां हैं वे लोग कभी।लेकिन अपने मसलों पर जब बोले हैं,किस्सों की पोटलियां खोले हैं।

दादी नानी के किस्सों से कौन अनजान हैं।वे औरतें जो हाशिये पर बेहद खुश जीती थीं और किस्से की पोटलियां खुल्ला छोड़ घोड़ा बेचकर सो जाती थीं।

जमाने में गम और भी है मुहब्बत के सिवाय।लेकिन मुहब्बत के सिवाय इस दुनिया में क्या रक्खा है जो जिया भी करें हम!

हमें कोई फिक्र नहीं होती।कोई गम नहीं है हमें।न किसी बात की खुशी है और न कोई खुशफहमी है।

इकोनामिक्स उतना ही पढ़ता हूं जो जनता के मतलब का है।
बाकी हिसाब किताब मैंने कभी किया नहीं है क्योंकि मुनाफावसूल नहमारी तमन्ना है,न नीयत है।

मैं कभी देखता नहीं कि पगार असल में कितनी मिलती है।दखता नहीं कि किस मद में कितनी कटौती हुई।बजट कभी बनाता नहीं। गणित जोड़े नहीं तबसे जबसे हाईस्कूल का दहलीज लांघा हूं।खर्च का हिसाब जोड़ता नहीं हूं।

शादी जबसे हुई है,तबसे हर चंद कोशिश रहती है कि सविता की ख्वाहिशों और ख्वाबों पर कोई पाबंदी न हो,चाहे हमारी औकात और हैसियत कुछ भी हो।

बदले में मुझे उसने शहादत की इजाजत दी हुई है सो सर कलम होने से बस डरता नहीं।

सिर्फ सरदर्द का सबब इकलौता है कि कहीं कोई जाग नहीं है और जागने का भी कोई सबब नहीं है।
बिन मकसद अंधाधुंध अंधी दौड़ है और इस रोबोटिक जहां के कबंधों को कोई फुरसत नहीं है।

नगाड़े खामोश भी न होते तो कोई फर्क पड़ता या नहीं ,कहना बेहद मुश्किल है।जागते हुए सोये लोगों को जगाना मुश्किल है।

फिक्र सिर्फ एक है कि जो सबसे अजीज है,कलेजा का टुकड़ा वह अब भी कमीना है कि उसके ख्वाब बदलाव के बागी हैं अब भी और मां बाप के बुढ़ापे का ख्याल उसे हो न हो,अपनी जवानी का ख्याल नहीं है।बाप पर है,कहती है सविता हरदम।हालांकि सच तो यह है कि कोई कमीना कम नहीं रहे हैं हम।

कमीनों का कमीना रहे हैं हम।हमने भी कब किसकी परवाह की है।ख्वाबों में उड़ते रहे हैं हम।बल्कि अब भी ख्वाबों में उड़ रहे हैं हम।

कि बदलाव का ख्वाब अभी मरा नहीं है यकीनन।

हो चाहे हालात ये कि बदलाव की गुंजाइश कोई नहीं है और फिजां में मुहब्बत कहीं नहीं है।

दुनिया बाजार है।
जो आगरा बाजार नहीं है।
नहीं है।नहीं, नहीं है आगरा बाजार यकीनन।

नगाड़े भले खामोश हों और झूठी नौटंकिया भले चालू रहे अबाध महाजनी पूंजी और राजकाज के फासिज्म की मार्केंटिंग के धर्मोन्माद की तरह जैसे फतवे हैं मूसलाधार,मसले चूंकि खत्म नहीं हैं,न पहेलियां सारी बूझ ली गयी है।

खेत खलिहान श्मशान हैं।

घाटियां डूब हैं।

नहीं है कोई नदी अनबंधी।

जल जंगल जमीन नागरिकता और सारे हकहकूक,जिंदा रहने की तमाम बुनियादी शर्तें सिरे से खत्म हैं यकीनन।

शर्म से बड़ा समुंदर नहीं है।

खौफ से बढ़कर आसमान नहीं है।

काजल की कोठरियां भी छोटी पड़ गयी है,इतनी कालिख पुती हुई हैं दसों दिशाओं में।

किसान बेशुमार खुदकशी कर रहे हैं थोक भाव से।
मेहनतकशों के हाथ पांव कटे हुए हैं ।
युवाजन बेरोजगार है।

छात्रों का भविष्य अंधकार है।
बलात्कार की शिकार हैं स्त्रियां रोज रोज।

बचपन भी बंधुआ है।
दिन रात बंधुआ है।
तारीख भी बंधुआ है।
बंधुआ है भूगोल।

किराये पर है मजहब इनदिनों।
किराये की इबादत है।

किराये पर है रब इनदिनों तो
किराये पर है मुहब्बत इन दिनों।

डालर बोल रहे हैं खूब इनदिनों
नगाड़े खामोश हैं इनदिनों

खुशफहमी में न रहे दोस्तों,
नौटंकियां चालू हुआ करे भले ही
नौटकियों का सिलसिला हो भले ही
रंगों के इंद्रधनुष से कोई गिला न करें।
न किसी किराये के टट्टू से करें मुहब्बत
क्योंकि मुहब्बत फिरभी मुहब्बत है
नगाड़े बोले या नहीं बोले नगाड़े
लैला की मुहब्बत फिरभी मुहब्बत है
मजनूं की मुहब्बत फिरभी मुहब्बत है

किसी किराये के रब से भी न करें मुहब्बत
कि मजहब भी बेच दिया यारों
उनने जिनने देश बेच दिया है।

वालिद की मेहरबानी थी कि उनने हमें अपना सबसे बड़ा दोस्त समझा हमेशा।

वालिद की मेहरबानी थी कि उनने हर सलाह मशविरा और फैसलों के काबिल समझा हमें,जबसे हम होश में रहे।

दिवंगत पिता के वारिश हैं हम।
उनके किस्सों के वारिश भी हुए हम।
तराई में दिनेशपुर के बगाली उपनिवेश में नमोशुद्रों के गांव भी अनेक थे।हमारे गांव में हमारे परिवार को जोड़कर सिर्फ पांच परिवार नमोशूद्र थे।
बाकी जात भी अलग अलग।
लेकिन हमारी कोई जाति अस्मिता न थी।


बसंतीपुर में बोलियां भी अलग अलग।
किसी से किसी का कोई खून का रिश्ता न था।
हर रिश्ता लेकिन खून के रिश्ते से बढ़कर था।
साझा चूल्हे का इकलौता परिवार था।
जिसमें हम पले बढ़े।


अब उसी साझे चूल्हे की बाते हीं करता हूं जो अब कहीं नहीं है।
सिर्फ एक ख्वाब है।उस बंजर ख्वाबगाह में तन्ही हूं एकदम।
सर से पांवतक लहूलुहान हूं।
यही मेरा कसूर है।

बसंतीपुर हो दिनेशपुर का कोई दूसरा गांव,या तराई के किसी भी गांव में मेरा बचपन इतना रचा बसा है अब भी कि नगरों महानगरों की हमवाें भी मुझे छुती नहीं है।

अनेक देस का वाशिंदा हूं।एक देश का वारिश हूं।

मेरा देश वही बसंतीपुर है जो मुकम्मल हिमालय है या यह सारा महादेश।मेरी मां भी लगभग अनपढ़ थीं।
इत्तफाकन उसकी राय भी यही थी।मां से बढ़कर जमीर नहीं होता।मेरी मां मेरा जमीर हैं।

उस गांव के लोग जब अपने मसले पर बोलते थे,किस्सों की पोटलियां खोलते थे।
पहेलियां बूझते थे।
मुहावरों की भाषा थी।

किस्सों के जरिये हकीकत का वजन वे तौलते थे।राय भी किस्से के मार्फत खुलती थी और पैसला भी बजरिये किस्सागोई।
एक किस्सा खत्म होते न होते दूसरा किस्सा एकदम शुरु से।

सुनने और सुनाने का रिवाज था।
समझने और समझाने का दस्तूर था।
ऐसा था सारा का सारा देहात मेरा देश।

वह देश मर गया है और हम भी मर गये हैं।

सारे के सारे नगाड़े खामोश हैं।

अब रणसिंघे बजाने का जमाना है।
हर कहीं महाभारत
और हर कहीं मुक्त बाजार।


इस मुक्त बाजार में हम मरे हुए लोग हैं
जो जिंदों की तरह चल फिर रहे हैं।
हमारी माने तो कोई जिंदा नहीं है यकीनन।
यकीनन कोई जिंदा नहीं है।

सारे नगाड़े खामोश हैं
फिरबी नौटंकी चालू है।

मेरे गांव में लोग कैसे बोलते थे ,कैसे राज खोलते थे और कैसे शर्मिंदगी से निजात पाते थे,वह मेरा सौंदर्यबोध है।व्याकरण है।

मसलन गांव की इजाजत लिये बिना,गांव को यकीन में शामिल किये बिना बूढ़े बाप के बेटे ने शादी कर ली तो फिर उस बाप ने अपने कमीने की मुहब्बत पर मुहर लगवाने की गरज से पंचायत बुलाई,जिसमें कि हम भी शामिल थे।

बाप ने मसला यूं रखाः

घनघोर बियावां में तन्हा भटक रहा था।
फिर उस बियाबां का किस्सा।
उससे जुड़े बाकी लोगों के किस्से।

बाप ने फिर कहा कि आंधी आ रही थी।पनाह कहीं नहीं थी।
किसी मजबूत दरख्त के नीचे बैठ गया वह।
फिर वैसे ही किस्से सिलसिलेवार।
आंधी पानी हो गया ठैरा तो उसने सर उठाकर देखा तो उस दरख्त पर मधुमक्खी का एक छत्ता चमत्कार।
पिर शहद की चर्चा छिड़ गयी।
उसकी मिठास की चर्चा चलती रही।

आखिर में बूढ़े बाप ने बयां किया कि जिसमें हिम्मत थी,मधुमक्खी के दंश झेलने की वह नामुराद वह छत्ता तोड़ लाया।

शहद की मिठास से गांव के लोगों को उसने खुश कर दिया तो फिर असली दावत की बारी थी।

मेरे पिता भी किस्सागो कम न थे।
लेकिन वे किस्से मधुमती में धान काटने और मछलियों के शिकार के किस्सों से लेकर देश काल दुनिया के किस्से होते थे।

उनके हर किस्से के मोड़ पर कहीं न कहीं अंबेडकर और लिंकन होते थे।गांधी और मार्क्स लेनिन भी होते थे।किसान विद्रोह के सिलिसिलों के बारे में वे तमाम किस्से सिर्फ मेरे लिए होते थे।

उनके किस्सों में आजादी की एक कभी न खत्म होने वाली जंग का मजा था और बदलाव के ख्वाब का जायका बेमिसाल था,जिसके दीवाने वे खुद थे,जाने अनजाने वे मुझे भी दीवाना बना गये।

उनके किस्सों में उनके नानाजी घूम फिरकर आते थे और वे मुझसे खास मुहब्बत इसलिए करते थे कि मेरे जनमते ही मेरी दादी ने ऐलान कर दिया था कि उका बाप लौट आये हैं।

पिता तो मेरी शक्ल में अपने उस करिश्माई नानाजी का दीदार करते थे जो आने वाली आफत के खिलाफ हमेशा मोर्चाबंद होते थे और उनकी रणनीति हालात के मुताबिक हमेशा बदलती थी और हर आफत को शह देते थे और अपनी कौम को हर मुसीबत से बचाते थे।

मेरे पिता को शायद मुझसे नानाजी का किस्सा दोहराने की उम्मीद रही है,कौन जाने कि पिता के दिल में क्या होता है आखिर किसी कमीने औलाद के लिए।

बहरहाल नानाजी के एक खास किस्से के साथ इस किस्से को अंजाम देना है।

जाहिर है कि इलाके में पिता के नानाजी का रुतबा बहुत था।जिनको हर बात पर नानी याद आती हो,वे अपने नाना को भी याद कर लिया करें,तो इस किस्से का भी कोई मतलब बने।

पिता ने बताया कि पूर्वी बंगाल में तब दुष्काल का समां था और भुखमरी के हालात थे।खेत बंजर पड़े थे सारे के सारे।

बरसात हुई तो उनने गांववालों और तमाम रिश्तेदारों से खेत जोतने की गुजारिश की।उनसे उनके हल भी माेग मदद के लिए।

बारिश मूसलाधार थी।
किसी केघर अनाज न था।
हर कोई भूखा था।
किसी को अपने खेत जोत लेने की हिम्मत न थी।

सारे के सारे लोग सोते रहे।
न कोई जागा और न कोई जगने का सबब था।
दमघोंटू माहौल था और फिंजा जहरीली हो रही थी।

नफरत के बीज तब भी बो रहे थे रब और मजहब के दुश्मन तमाम रब और मजहब के नाम,इबाबत के बहाने।

नाना जी आखिरकार किसी किसान को केत जोतने के लिए उठा नहीं सकें।

तो उसी रात पास के जंगल से बनैले सूअरों ने खेतों पर हमला बोल दिये और अपने पंजों से सारे के सारे खेत जोत दिये।

सुबह तड़के जागते न जागते जुते हुए खेत की तस्वीर थीं फिजां।
नाना जी तब गा रहे थे वह गीत जो यकीनन तब तक लिखा न था और भुखमरी के खिलाफ सोये हुए लोगों के लिए शायद वे यही गीत गा सकते थेःबहारों फूल बरसाऔ।

वह भुखमरी के खिलाफ उनकी जीत थी जो जंग उनने अपने साथियों की मदद से नहीं जीती और तब बनैले सूअर उनके काम आये।वे ताउम्र बनैले के सूअरों के उस चमत्कार को याद करते रहे।

सबने अपने अपने खेतों में धान छिड़क दिये।

और तब पिताजी के  नानाजी बोले,तुम जैसे किसानों,तुम जैसे मेहनतकशों के मुकाबले ये बनैले सूअर भी बेहतर।

इस सूअरबाड़े में लेकिन असली सूअर भी कोई नहीं है।

Tuesday, July 14, 2015

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