BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Thursday, October 8, 2015

जैसी भी थी उस शिक्षा व्यवस्था ने हमें मजबूत बनाया… लेखक : मदन मोहन पाण्डे

जैसी भी थी उस शिक्षा व्यवस्था ने हमें मजबूत बनाया…

लेखक : मदन मोहन पाण्डे :::: वर्ष :: :

education-uttarakhand1972 तक प्राइमरी शिक्षा ग्राम पंचायतों, जिला परिषदों या नगरपालिकाओं द्वारा संचालित होती थी। तब अनेक स्वाधीनता सेनानी ग्राम प्रधान, जिला परिषद के सदस्य या अध्यक्ष थे। उनमें आजादी की लड़ाई का कुछ ताप और तेवर बचा था। इसलिए रिश्तेदारों को ठेकेदार बनाने के लिए स्कूल भवन का निर्माण नहीं किया जाता था। कहीं-कहीं तो ग्रामीण चन्दा और श्रमदान कर स्कूल की इमारत खड़ी कर देते थे। इसलिये इनकी बनावट के लिये आज की सर्व शिक्षा की तरह कोई मानक मॉडल भी नहीं था। उपलब्ध जमीन, धन और बच्चों की संख्या के आधार पर भवन बन जाते थे। कुणीघाट (मानिला, अल्मोड़ा) का प्राइमरी स्कूल एक हॉल और एक छोटे कमरे में चलता था तो झिमार का स्कूल पाँच कमरे वाली लंबी बिल्डिग में। बरसाती च्यूँ की तरह गाँव-गाँव, गली-गली 'पप्पू निर्माण केन्द्र' नहीं खुले थे। लाट का बच्चा या फकिरुआ की औलाद, सब इन्हीं स्कूलों में पढते थे। हाँ, नैनीताल में दो-चार हाई-फाई अंग्रेजी स्कूल तब भी थे ही।

प्राइमरी टीचर चार प्रकार के होते थे, जे. बी. टी. सी., बी टी सी., एच.टी.सी. और अन्ट्रेण्ड। अन्ट्रेण्ड शिक्षक गाँव पड़ोस के हाइस्कूल या इण्टर पास युवक होते थे, जो ग्राम पंचायतों के उन पर विश्वास के कारण जिला परिषदों द्वारा स्कूलों में अध्यापक बना दिये जाते थे। औपचारिकताएँ इतनी कम थीं कि जिला परिषद अध्यक्ष अपनी सिगरेट के डिब्बे के कवर पर भी नियुक्ति पत्र लिख कर दे देते। मगर ट्रेण्ड शिक्षकों के लिए जिला परिषद अपनी शिक्षा समिति को विश्वास में लेकर नियुक्ति पत्र जारी करती थी। जिले में प्राइमरी शिक्षा का सर्वोच्च शिक्षाधिकारी राज्य सरकार द्वारा नियुक्त एक डी.आई. होता था। जूनियर हाई स्कूल बहुत कम थे। शिक्षकों की तनख्वाहों का हाल बुरा था। जिला परिषद और ग्राम पंचायतें अपने राजस्व और राज्य सरकार से मिले अनुदान से वेतन भुगतान करती थीं। वेतन कई महीनों के बाद मिलना आम बात थी।

स्कूलों में बच्चों की भर्ती आसान थी। सामान्यतः बच्चे को पहली कक्षा में भर्ती किया जाता। लेकिन यदि कोई बच्चा घर में ही ठीक-ठाक पढ़ गया हो तो उसे कक्षा दो, तीन या चार में भी भर्ती कर लिया जाता था। अलबत्ता कक्षा पाँच में सीधी भर्ती कठिन थी। हाँ, प्राइवेट परीक्षा देकर पाँचवीं कक्षा पास की जा सकती थी। कक्षा एक व दो की शिक्षण सामग्री होती थी लकड़ी की पाटी, कमेट (सफेद मिट्टी) से बनी रोशनाई, रिंगाल की कलम और हिन्दी, गणित की इक्का-दुक्का किताबें। बच्चे पाटी को रोज काला करते थे। ये एक कला थी। तवे का झोल और चूल्हे की राख के उचित मिश्रण से तख्ती काली की जाती थी। बेकार हो गये टॉर्च सेलों के कार्बन का भी उपयोग होता। पाटी में चमक पैदा करनी हो तो उस पर काँच की शीशी का तला घिसा जाता। कमेट टिन के किसी खाली डिब्बे में रखा जाता। उसकी दीवारों पर दो छेद कर छोटी सी लटकन डोरी लगा दी जाती। कमेट दुकानों में नहीं मिलता था। बच्चे किसी धार या भीड़े पर पानी की पतली सीर के आसपास उसे ढूँढ निकालते और पानी मिला कर उसका घोल बना लेते।

पाटी पर कमेट से लिखने का काम रिंगाल की कलम से किया जाता था। यदि आसपास के जंगल में रिंगाल न हो तो गाँव की छोटी दुकान पर भी उसकी पतली डंडियाँ मिल जाती थीं। पहली बार रिंगाल की कलम बना कर उसकी तिरछी नोंक काटने का काम ईजा-बाबू करते या स्कूल में मास्साब, क्योंकि उँगलियाँ काटने के बाद भी ठीक कलम बनाना बच्चों के लिये आसान नहीं था। कक्षा एक-दो वाले मास्साब के पास कलम बनाने वाला चाकू आवश्यक माना जाता। शहरी स्कूलों के बच्चे सफेद-पीली तख्तियों पर गेरू से या काली तख्तियों पर मुल्तानी मिट्टी की रोशनाई प्रयोग करते थे और सरकंडे, कुश, बाँस या किसी अन्य पौंधे की कलम का। कहीं-कहीं पेंसिल और कॉपी भी इस्तेमाल होती थी। लेकिन कुल मिला कर ऐसी सामग्रियाँ खुद जुटाते हुए बच्चे अपने परिवेश को पहचानते थे। प्राथमिक स्कूल को स्वायत्तता हासिल थी। आज की तरह कक्षा एक-दो में ही बच्चे को सब कुछ सिखा कर हनुमान बनाने की हड़बोंग भी नहीं थी। कक्षा एक में वर्णमाला के साथ कुछ सरल शब्द व वाक्य पढ़-लिख लेना और 100 तक गिनती, पाँच तक के पहाड़े याद होना काफी था। मौखिक भिन्न, पौवा, अद्धा, पौना, सवैया, ड्योढ़ा, ढाम भी रटा दिये जाते थे। कक्षा दो में किताब पढ़ना, कुछ सरल शब्द और वाक्य पढ़ना-लिखना, 100 तक गिनती, 10 तक पहाड़े पढ़-लिख लेना अच्छे विद्यार्थी होने के लक्षण थे।

कक्षा 3 में आ कर कापी पर स्याही में डुबोकर लिखने के लिए कलम की बारीक नोक काटना चुनौती थी। इसलिए यहाँ होल्डर शुरू हुआ, जिसकी निब किसी पत्थर या सीमेंट पर घिस कर 'तिरछी काट' निकाल लेते। यह सुलेख के लिए जरूरी होता था। अब बस्ते में कापियाँ, किताबें, कलम, नीली स्याही की ढक्कनदार दवात, रबर, पेंसिल और ब्लॉटिंग पेपर (स्याही सोख्ता) आ जाते। शिक्षक भी अब ब्लैकबोर्ड का पूरा प्रयोग करते। चैक की रगड़ाई से धुँधलाये श्यामपट को काला और चमकदार बनाए रखना सर्वथा छात्रों की जिम्मेदारी होती, जिसके लिए वे 'हन्तरों' (पुराने कपड़ों) से डस्टर बना कर घर से लाते। शिक्षक द्वारा श्यामपट पर लिखे गये पाठ का सार बच्चे नोट्स के रूप में कॉपी पर उतारते और याद करते। मास्साप बाकायदा कापियाँ चैक करते और गलतियाँ पकड़ कर उन्हें सुधरने के लिये बच्चों के कान या हाथ गरम करते। सुलेख, श्रुतलेख और पहाड़ों का नियमित अभ्यास होता। भिन्न का ज्ञान हमें कक्षा चार-पाँच में मिला था। अब यह कक्षा 2 से ही शुरू है। निबन्ध का अभ्यास भी हमने चौथी-पाँचवी कक्षाओं में किया। यद्यपि इनके शीर्षक 'पन्द्रह अगस्त', 'हमारा विद्यालय', 'स्वच्छता का महत्व' सरीखे आदर्शवादी होते थे, तो भी इन्हें लिखते हुए हमें कल्पना की कुछ स्वतंत्रता मिल जाती थी।

कक्षा पाँच तो स्कूल का वी.आइ.पी. क्लास था, क्योंकि इसकी परीक्षायें बोर्ड की होतीं। एस.डी.आई के बनाये एक केन्द्र में आसपास के पाँच-छः विद्यालयों के छात्र परीक्षा देते। स्कूलों में फर्स्ट…सेकेंड…..की होड़ लग जाती। यह इज्जत का सवाल बनता था। इस कक्षा के क्लास टीचर हेड मास्साब ही होते। स्कूल का एक कमरा और विभाग से मिले टाट कक्षा पाँच के लिए रिजर्व थे। छोटी कक्षाओं में तो बैठने के लिये बहुधा घर से ही बोरा लाना पड़ता।

मेरे प्राइमरी स्कूल कुणीधार, मानिला (अल्मोड़ा) में जाड़ों में पाँचवी कक्षा स्कूल के पीछे शांत और साफ-सुथरी जगह पर बिठलाई जाती थी और बाकी चार कक्षाएँ स्कूल के आगे बलुई दोमट मिट्टी से भरे मैदान में। हाफटाइम में शोर मचाते बच्चे इन कक्षाओं में बिछे बोरों, टाटों, उन पर रखे बस्तों, तख्तियों, दवातों व कमेट के डिब्बों के ऊपर दौड़ते-भागते। इससे बोरे, टाट व तख्तियाँ धूल से सन जाते। कमेट के डिब्बे लुढ़क जाते। बारिश व तेज धूप के मौसम में स्कूल के बड़े हॉल के दो कमरों में कक्षा 4 व 5 बैठतीं। कक्षा 1, 2, 3 को छोटे एक कमरे में फिट कर दिया जाता। छोटी कक्षाओं को महत्वहीन समझने की यह कुरीति 1982 में मेरे प्राइमरी में मास्टर बनने तक बनी रही।

प्रार्थनाएँ और बाल सभाएँ तब भी होती थीं। हमारे स्कूल में आठ-दस प्रार्थनाएँ बदल-बदल कर गाई जाती थीं। बालसभा में तो सचमुच हम बच्चों को मजा आ जाता। अंत्याक्षरी तब इस सभा का महत्वपूर्ण हिस्सा था। बालसभाओं में झोडे़ तक हो जाते थे।

शिक्षक सीखने व सिखाने की अपनी युक्तियाँ निकालते थे, जिनमें से कुछ आज भी चलन में हैं। कुल मिला कर वे बच्चों के दिमाग में असर पैदा कर देते थे। तब शिक्षकों को बच्चों के साथ क्यारियाँ बनाने या स्कूल के खेतों की दीवार चिनने तक में कोई हिचक नहीं होती थी। इसलिये बच्चे भी उनके साथ मन लगा कर काम करते थे। वे अपने आसपास से पानी सारते, स्कूल की सफाई और कृषि कार्य करते। इन कामों से उनमें श्रम के संस्कार पड़ते। माँ-बाप का शिक्षकों पर इतना भरोसा था कि वे न तो शिक्षकों द्वारा बच्चों से कराये गये मेहनत-मशक्कत के कामों का बुरा मानते और न उनके साथ की गई मार-पीट का।

चालीस साल के भीतर प्राइमरी शिक्षा के साथ किये गये सही-गलत प्रयोगों, सरकारी शिक्षातंत्र के चरमराने और टाई पहना कर 'ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार' रटाने वाले तथाकथित इंग्लिश मीडियम स्कूलों के कुकुरमुत्तों की तरह उग आने के बाद कितना बदल गया है शिक्षा का परिदृश्य ? सवाल यह भी है कि यदि वह शिक्षा व्यवस्था इतनी निकम्मी थी तो उसमें से जीवन के तमाम क्षेत्रों में सफलता की ऊँचाइयाँ छूने वाले लोग कैसे निकले ?


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