BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Welcome

Website counter
website hit counter
website hit counters

Wednesday, September 16, 2015

हिंदुत्ववादियों के विलाप के बावजूद नेपाल फिर ‘हिंदू राष्ट्र’ नहीं बन सका

हिंदुत्ववादियों के विलाप के बावजूद नेपाल फिर 'हिंदू राष्ट्र' नहीं बन सका


आनंद स्‍वरूप वर्मा 


आखिरकार नेपाल के बहुप्रतीक्षित संविधान को अंतिम रूप देने का काम 13सितंबर से शुरू हो गया। 2008 में निर्वाचित पहली संविधान सभा को ही यह कार्य संपन्न करना था लेकिन संभव नहीं हो सका। फिर 2013 में दूसरे संविधान सभा का चुनाव हुआ और इस बार भी ऐसा लग रहा था कि संविधान नहीं बन सकेगा। अब उम्मीद की जा रही है कि 20 सितंबर2015 तक नेपाल के नए संविधान की घोषणा हो जाएगी। अब तक की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि तमाम दबावों के बावजूद नेपाल को फिर से हिन्दू राष्ट्र का दर्जा नहीं दिया गया और संविधान में 'धर्म निरपेक्षशब्द को जस का तस रहने दिया गया। हिंदुत्ववादी विलाप करते रहे।
यह बाहरी दबाव भारत के हिन्दुत्ववादी संगठनों की ओर से था। पिछली संविधान सभा में माओवादी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में मौजूद थे और राजतंत्र के सफाये से नेपाल और भारत के प्रतिक्रियावादी तत्वों का मनोबल गिरा हुआ था लिहाजा इस दबाव का कोई बहुत महत्व नहीं था, लेकिन भारत में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे कट्टर हिन्दुत्ववादी संगठन की मदद से केन्द्र की सत्ता में नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना एक ऐसा कारक था जो संविधान निर्माताओं के सामने लगातार दिक्कतें पैदा कर रहा था। पदभार ग्रहण करने के बाद से ही नरेन्द्र मोदी ने नेपाल में जो विशेष दिलचस्पी दिखानी शुरू की, उससे खुद नेपाल के अंदर उन तत्वों का हौसला बढ़ा जो हिन्दू राष्ट्र की मांग कर रहे थे। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद पर रहते हुए मौजूदा गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने स्वयं नेपाल के हिन्दू राष्ट्र बने रहने के पक्ष में बयान दिए थे और उन्होंने एक अवसर पर यह भी कहा था कि अगर नेपाल फिर से हिन्दू राष्ट्र बनता है तो उन्हें खुशी होगी। प्रोटोकोल की मजबूरियों की वजह से गृहमंत्री  के रूप में उन्होंने भले ही यह कहा हो कि 'नेपाल का भावी स्वरूप नेपाल की जनता ही तय करेगी', लेकिन उनकी मन की बात किसी से छिपी नहीं थी। बेशक पार्टी और संघ परिवार से जुड़े अन्य नेता खुलेआम नेपाल को हिन्दू राष्ट्र बनाने की मांग लगातार करते रहे। भाजपा के सांसद और गोरखनाथ पीठ के महंत आदित्यनाथ ने तो इसी वर्ष जुलाई में नेपाल के प्रधनमंत्री सुशील कोईराला और संविधान सभा के अध्यक्ष सुभाष नेमवांग को पत्र लिखकर मांग की थी कि नेपाल को वैसे ही हिन्दू राष्ट्र की हैसियत दी जाय जैसी राजतंत्र के दिनों में थी। टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए एक बयान में उन्होंने कहा कि 'तकरीबन 100 करोड़ हिन्दू नेपाल के नए संविधान का इंतजार कर रहे हैं। इनकी इच्छा है कि नेपाल को फिर हिन्दू राष्ट्र बना दिया जाय।विश्व हिन्दू परिषद के नेताओं ने भी अपनी इस इच्छा को भारत और नेपाल दोनों जगह खुलकर व्यक्त किया। विहिप के नेता अशोक सिंघल तो शुरू से ही अपनी यह राय व्यक्त करते रहे हैं।

भारत और नेपाल के हिन्दुत्ववादी संगठनों की इन सारी कोशिशों के बावजूद13 सितंबर 2015 को संविधान के अंतिम मसौदे की धारा-4  के रूप में जब संविधान सभा में हिन्दू राष्ट्र बनाने का प्रस्ताव आया, तो 601 सदस्यों की संविधान सभा में से केवल 21 सांसदों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया। इस पर मतदान की नौबत ही नहीं आयी क्योंकि मतदान के लिए10 प्रतिशत अर्थात 61 सदस्यों के समर्थन की जरूरत होती है। राजतंत्र समर्थक 'राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी-नेपालके नेता कमल थापा ने इस प्रस्ताव को पेश किया था। स्मरणीय है कि 10 वर्षों तक चले जनयुद्ध और 2006में 19 दिनों के जनआंदोलन के बाद माओवादियों तथा राजनीतिक दलों के बीच जो समझौता हुआ, उसके तहत 2007 में नेपाल को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया था।

पिछले कुछ समय से ऐसा लग रहा था कि नेपाल में राजनीतिक स्थिरता कायम होना बहुत कठिन है। समूची राजनीति और खुद नेपाल अनेक तरह के निहित स्वार्थों के चक्रव्यूह में फंस गया था और यह कहना मुश्किल था कि क्या वह इन व्यूहों को एक-एक कर तोड़ सकेगा या महाभारत काल के अभिमन्यु की तरह वीरगति को प्राप्त होगा। नेपाल के सामने जीने-मरने जैसी स्थिति पैदा हो गयी थी। उसके सामने दो ही विकल्प थे- या तो वह एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में अपने अस्तित्व को बचा ले या 'विफलराष्ट्र की श्रेणी में पहुंच जाए। संघीयता के सवाल पर बहुत सारी उलझनें थीं और समूचा मधेस इस मुद्दे को लेकर आंदोलित था। यह आंदोलन आज भी जारी है लेकिन यह सोच मजबूत होती गयी कि इसकी ओट लेकर संविधान निर्माण के काम को और अधिक टाला जाना आत्मघाती कदम होगा। मैं उन लोगों में से हूं जो यह मानते हैं कि संविधान न बनने की स्थिति में जो संकट पैदा होगा वह उस संकट से कई गुना अधिक  होगा जो संविधान बनने के बाद पैदा होगा।

यह जानना और भी ज्यादा दिलचस्प है कि बहुत सारे ऐसे तत्व जो इसे एक विफल राष्ट्र होने से बचाने की कोशिश करते दिखायी देते हैंवे आंतरिक तौर पर ऐसा चाहते नहीं हैं। पड़ोसी देश भारत की भी यही स्थिति है। प्रधनमंत्री मोदी ने लगातार अपने भाषणों में यही कहा है कि नेपाल में संविधान जल्द से जल्द बनना चाहिएसमावेशी होना चाहिएसबकी इच्छा को ध्यान में रखकर बनना चाहिए, आम सहमति से बनना चाहिए लेकिन शायद भारत भी नहीं चाहता कि संविधान जल्दी बने। एक तरफ तो वह संविधान बनने की बात कह रहा है और दूसरी तरफ मधेस में आंदोलन की आग को हवा भी देने में लगा है। सबने देखा कि एक सप्ताह पहले ही नेपाल में तैनात भारतीय राजदूत ने संविधान निर्माण प्रक्रिया को रोकने की असफल कोशिश की थी। अभी हाल के दिनों में गृहमंत्री राजनाथ सिंह का बयान चर्चा में रहा जो उन्होंने उत्तर प्रदेश के महाराजगंज की एक जनसभा में दिया था। इंडिया टुडे के सहयोगी प्रकाशन 'मेल टुडेके अनुसार राजनाथ सिंह ने कहा कि 'हालांकि मधेसी समस्या नेपाल का आंतरिक मामला है लेकिन भारत सरकार वहां रह रहे एक करोड़ भारतीयों के हितों की रक्षा करेगी।यह बयान छपने के तुरत बाद नेपाल के लोगों की तीखी प्रतिक्रिया आयी और इसके बाद भारत के विदेश मंत्रालय ने एक विज्ञप्ति जारी कर कहा कि गृहमंत्री ने इस तरह का कोई बयान नहीं दिया था। वैसेउस सभा में जो लोग मौजूद थे उनका कहना है कि राजनाथ सिंह ने ऐसा ही बयान दिया था। नेपाल के तराई से प्रकाशित 'सप्तरी जागरणमें वैद्यनाथ यादव ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि 'राजनाथ सिंह ने नेपाल में चल रहे मधेस आंदोलन को पड़ोसी देश का आंतरिक मामला बताया। उन्होंने कहा कि सवाल एक करोड़ लोगों का है। नेपाल इसे सुलझा लेगा लेकिन जरूरत पड़ी तो भारत जरूर नेपाल से बात करेगा।राजनाथ सिंह के भाषण के इस अंश को चाहे जिस रूप में पेश किया जाय, उनके आशय को समझने के लिए प्रायः लोग उस पार्टी की विचारधारा को टटोलते हैं जिसके राजनाथ सिंह बड़े नेता हैं।

2006 के बाद जो आंतरिक संविधान बना और उसी को आधार मानकर अभी जिस संविधान के निर्माण की प्रक्रिया चल रही है उसमें कहीं भी इस बात की गुंजाइश नहीं है कि नेपाल को फिर से हिन्दू राष्ट्र बनाया जाय या किसी भी रूप में राजतंत्र को बहाल किया जाय। शुरू में नेपाल की जनता को भी ऐसा लग रहा था कि अगर उनका देश हिन्दू राष्ट्र बना रहता है तो कुछ खास फर्क नहीं पड़ेगा। इसलिए वे इस मांग के प्रति काफी हद तक उदासीन थे। लेकिन भारत की अतिसक्रियता ने उन्हें सतर्क कर दिया। धीरे-धीरे उनकी समझ में यह बात घर कर गयी कि हिन्दू राष्ट्र के बहाने राजतंत्र की वापसी का रास्ता तैयार किया जा रहा है। अब से लगभग 10साल पूर्व विहिप नेता अशोक सिंघल का वह कथन भी लोगों की स्मृति में है जिसमें उन्होंने याद दिलाया था कि 'दुनिया भर के 90 करोड़ हिन्दुओं का यह कर्तव्य है कि वे हिन्दू हृदय सम्राट ज्ञानेन्द्र की रक्षा करें। ईश्वर ने उन्हें हिन्दू धर्म को संरक्षण देने के लिए पैदा किया है।(इंडियन एक्सप्रेस, 23जनवरी 2004)। ऐसी स्थिति में हिन्दू राष्ट्र की समर्थक शक्तियों की योजना है कि संविधान न बने जिससे अराजकता इस सीमा तक फैल जाय कि लोग वापस हिन्दू राष्ट्र के दिनों को याद करने लगें और हिन्दू राष्ट्र तथा राजतंत्र की मांग करने लगें। अगर संविधान अभी नहीं बनता है तो जो राजनीतिक अस्थिरता पैदा होगी जिसमें बड़ी आसानी से इस बात के लिए जनमत संग्रह कराया जा सकता है कि नेपाल को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र बनाया जाए या हिन्दू राष्ट्र। इन तत्वों द्वारा यह प्रचार भी खूब किया गया है कि धर्मनिरपेक्षता शब्द ईसाई मिशनरियों की तरफ से नेपाल के संविधान में प्रत्यारोपित कराया गया है।

भारतीय राजदूत रंजित राय के असफल प्रयास के बाद 13 सितंबर 2015को नई दिल्ली से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक 'हिन्दुस्तान टाइम्स' में नेपाल के पत्रकार प्रशांत झा का एक लेख प्रकाशित हुआ जो नेपाल राष्ट्र की संप्रभुता को ध्यान में रखते हुए अगर कहें तो अब तक का सबसे खतरनाक लेख है। प्रशांत झा 'हिन्दुस्तान टाइम्स' के स्टाफ में हैं और लगभग 3000 शब्दों के इस लंबे लेख में उन्होंने संविधान निर्माण की प्रक्रिया में उत्पन्न ढेर सारी गड़बड़ियों का विश्लेषण करते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि अब भारत को हस्तक्षेप करना चाहिए। हैरानी होती है कि कोई पत्रकार-और वह भी नेपाली मूल का पत्रकार-कैसे अपने संप्रभु राष्ट्र में हस्तक्षेप के लिए पड़ोसी देश का आह्वान कर सकता है। सबसे ज्यादा शर्मनाक तो यह है कि प्रशांत झा ने भारत सरकार को सुझाव भी दिया है कि किसे भेजा जाय। भारतीय राजदूत रंजित राय की उन्होंने इस बात के लिए प्रशंसा की है कि संविधान निर्माण की प्रक्रिया को रोकने की उन्होंने कोशिश की। चूंकि उनकी कोशिश के बावजूद यह प्रक्रिया नहीं रुकी, इसलिए प्रशांत का कहना है कि भारत सरकार किसी विशेष दूत को भेजे जो 'नेपाल सरकार से कहे कि वह दमन बंद करेप्रमुख पार्टियों से कहे कि वे संविधान निर्माण की प्रक्रिया को रोक दें और संघीय ढांचे के मामले में लचीलापन दिखाएं तथा मधेसी पार्टियों से आंदोलन बंद करने को कहे।सवाल यह है कि क्या इन कार्यों के लिए नेपाल का नेतृत्व सक्षम नहीं हैक्या नेपाली जनता अपनी बातें नेतृत्व तक नहीं पहुंचा पा रही हैप्रशांत ने सुझाव दिया है कि भारत विशेष दूत के रूप में अपने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल को या भाजपा नेता राम माधव को भेज सकती है। प्रशांत का कहना है कि अजीत डोवाल पिछले कई वर्षों से नेपाल पर बारीकी से निगाह रखे हुए हैं और राम माधव भी नेपाल मामलों के अच्छे जानकार हैं और इन दोनों के प्रधानमंत्री मोदी से घनिष्ठ संबंध हैं। उन्होंने अपने लेख में भारत की 'नौकरशाही और सुरक्षा प्रतिष्ठान'को सक्रिय करने पर जोर दिया है। बात यहीं नहीं खत्म हो जाती। उन्होंने यह भी कहा है कि 'भारत के पास ऐसे बहुत से हथियार हैं-खुले और गुप्त-जिसका इसने अब तक नेपाल में इस्तेमाल नहीं किया है'। उनका कहना है कि भारत अगर 'निर्णायक अवसरों पर अपनी ताकत का इस्तेमाल नहीं कर सकता तो उसके 'रीजनल पावरहोने का कोई मतलब नहीं।प्रशांत झा के इस कथन के निहितार्थ बहुत गंभीर हैं। यह भाषा किसी देशभक्त नागरिक की नहीं हो सकती।

एक और पत्रकार युवराज घिमिरे हैं जिन्होंने पिछले 5-6 वर्षों में इंडियन एक्सप्रेस में जो कुछ लिखा है उसमें से 80 प्रतिशत लेखों में उनका यह दर्द प्रकट होता है कि नेपाल अब हिन्दू राष्ट्र नहीं रहा। अपने लेखों के जरिए भारत के पाठकों को वह यह समझाने में लगे रहते हैं कि जिन लोगों ने गणराज्य की स्थापना की और नेपाल को धर्मनिरपेक्ष देश का दर्जा दिया(अर्थात माओवादी) उन्होंने कभी यह सर्वेक्षण नहीं कराया कि नेपाली जनता चाहती क्या है। ये वही लोग हैं जो जनयुद्ध के दिनों में माओवादियों को चुनौती देते थे कि वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आवें और जनता के वोट हासिल करें, तब पता चलेगा कि उन्होंने बंदूक के जोर पर लोकप्रियता हासिल की है या सचमुच उनकी नीतियों को लोग पसंद करते हैं। 2008 के चुनाव में जब माओवादियों को सबसे बड़ी पार्टी होने का श्रेय मिला उस समय कुछ दिनों तक ये लोग खामोश रहे लेकिन जैसे-जैसे सरकार विफल होती गयी, ये मुखर होते गए। दो माह पूर्व 25 जुलाई 2015 के 'इंडियन एक्सप्रेस' में युवराज घिमिरे ने यही बताना चाहा है कि नेपाल को धर्मनिरपेक्ष बनाने के पीछे अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ और संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध कुछ संस्थाओं की कितनी बड़ी भूमिका रही है। फिर 25 अगस्त 2015 को उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि 'नेपाल को हिन्दू राष्ट्र बनाने और राजतंत्र को बहाल करने की मांग तेज हो गयी है'। उन्होंने यह भी कहा कि इन बातों को अलग रखकर अगर कोई संविधान बनता है तो जनता उसे स्वीकार नहीं करेगी। उन्होंने भी भारत के 'निर्णायक प्रभावकी मांग करते हुए समूची स्थिति की गंभीर समीक्षा की जरूरत पर जोर दिया है और कहा है कि अगर ऐसा हुआ तो 'नरेन्द्र मोदी की सदाशयता और साहस से जबर्दस्त प्रभाव पड़ सकता है'

नये संविधान के तहत सात संघीय राज्यों में विभाजित नेपाल की भावी डगर अभी अनेक मुश्किलों से भरी है लेकिन 2008 से जारी गतिरोध का टूटना एक बड़ी राजनीतिक उपलब्धि है। 

--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...