BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Tuesday, September 15, 2015

"...हाल में आई दो किताबों ने इस बारे में अपने ढंग से रोशनी डाली है. हालांकि दोनों किताबों का विषय अलग है, लेकिन वे अपने-अपने मकसदों से समान ऐतिहासिक दौर में पहुंचती हैं. दोनों उस समय के मुस्लिम समाज में जारी गतिविधियों और उन्हें संचालित करने वाली सोच को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण जानकारियां मुहैया कराती हैं..."


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"...हाल में आई दो किताबों ने इस बारे में अपने ढंग से रोशनी डाली है. हालांकि दोनों किताबों का विषय अलग है, लेकिन वे अपने-अपने मकसदों से समान ऐतिहासिक दौर में पहुंचती हैं. दोनों उस समय के मुस्लिम समाज में जारी गतिविधियों और उन्हें संचालित करने वाली सोच को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण जानकारियां मुहैया कराती हैं..."

क्या 1947 में भारत के बंटवारे को रोका जा सकता था? अथवा, इसके लिए प्राथमिक रूप से कौन दोषी था? ये ऐसे सवाल हैं, जिन पर पिछले 68 वर्षों में अनगिनत समझ, नजरिया, विचार और राय पेश किए गए हैं.

बंटवारा पूरी तरह "फूट डालो-राज करो" की ब्रिटिश नीति का परिणाम था, अथवा कांग्रेस नेताओं की कथित अदूरदर्शिता और सत्ता पाने की बेसब्री की इसमें प्रमुख भूमिका रही? क्या मुस्लिम लीग महज ब्रिटिश हाथों का खिलौना थी, या वह किसी लंबी परिघटना का नेतृत्व कर रही थी,  जिसका परिणाम 1930-40 के दशकों में आकर अपरिहार्य हो गया था? ये तमाम प्रश्न ऐतिहासिक विश्लेषण के दायरे में हैं.

हाल में आई दो किताबों ने इस बारे में अपने ढंग से रोशनी डाली है. हालांकि दोनों किताबों का विषय अलग है, लेकिन वे अपने-अपने मकसदों से समान ऐतिहासिक दौर में पहुंचती हैं. दोनों उस समय के मुस्लिम समाज में जारी गतिविधियों और उन्हें संचालित करने वाली सोच को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण जानकारियां मुहैया कराती हैं.

 

इनमें एक किताब The Emergence of Socialist Thought Among North Indian Muslims (1917-47) है. नाम से ही साफ है कि इसका विषय मुस्लिम समुदाय से आए समाजवादी रुझान वाले नेताओं/बुद्धिजीवियों की पहचान और उनकी चर्चा करना है.

लेकिन इस क्रम में वह उन हालात और माहौल में पहुंचती है, जिनकी वजह से तब के मुस्लिम युवाओं में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ भावनाएं फैली और मजबूत हुई. उन्हीं युवाओं का एक हिस्सा बाद में साम्राज्यवाद विरोध की सही रणनीति और विचारधारा की तलाश करते-करते समाजवाद/साम्यवाद की वैचारिक एवं राजनीतिक धाराओं से जुड़ गया.

इस शोधपरक पुस्तक के लेखक खिज़र हुमायूं अंसारी हैं, जो लंदन विश्वविद्यालय में इस्लाम और सांस्कृतिक विभिन्नता विषयों के प्रोफेसर हैँ.

 

दूसरी किताब का तो विषय ही पाकिस्तान निर्माण की पृष्ठभूमि है. Creating a New Medina: State Power, Islam, and the Quest for Pakistan in late Colonial North India नामक इस पुस्तक के लेखक यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलीना (अमेरिका) में इतिहास के असिस्टैंट प्रोफेसर वेंकट धुलीपाला हैं.

नाम से जाहिर है कि यह किताब भारत बंटवारे के में तत्कालीन राजसत्ता, इस्लाम से जुड़ी सियासत और पाकिस्तान के पक्ष में हुए प्रयासों और अलग इस्लामिक राष्ट्र के विचार के हक में दी गई दलीलों का विश्लेषण करती है.

यह अपनी चर्चा को महज 1937 के चुनावों, उन चुनावों के बाद संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) में सत्ता साझा करने में कांग्रेस की अनिच्छा, 1940 के पाकिस्तान प्रस्ताव, मोहम्मद अली जिन्ना की भूमिका अथवा नेहरू-पटेल के कथित रूप से बदलते रुख तक सीमित नहीं रखती. बल्कि पाकिस्तान के उदय को बीसवीं सदी में वैश्विक इस्लाम (pan Islamism) की फैली भावनाओं के संदर्भ में रखने का प्रयास करती है.

तुर्की में खिलाफत की पराजय ने ऐसी भावनाओं को और बल प्रदान किया था. इसके बाद एक ऐसी इस्लामी राजसत्ता की आकांक्षा मुस्लिम समुदायों में जगी, जो वैश्विक इस्लाम का नेतृत्व कर सके. यह किताब भारत में इन भावनाओं को बढ़ाने में देवबंदी उलेमाओं की भूमिका पर रोशनी डालती है.

फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि पाकिस्तान कोई ऐसा अस्पष्ट विचार नहीं था, जो स्वतंत्र भारत के भावी स्वरूप को लेकर ब्रिटिश राज, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच चली संवैधानिक वार्ताओं के विफल होने के परिणामस्वरूप अचानक उठ खड़ा हुआ.

दोनों किताबों से साझा कथानक यह उभरता है कि भारत के बंटने या पाकिस्तान के बनने की हकीकत को 19वीं और 20वीं सदी के समग्र घटनाक्रम- खास कर भारतीय मुस्लिम समाज में तब मौजूद रहीं सोच की धाराओं- से अलग करके नहीं देखा जा सकता.

इन घटनाक्रमों की शुरुआत हम 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता के तुरंत बाद से तलाश सकते हैँ.

1857 में पराजय के बाद मुस्लिम समुदाय में रही-सही यह उम्मीद जमींदोज हो गई कि ब्रिटिश शासकों से सत्ता फिर कभी उनके हाथ में आ सकेगी. इसके बाद उनमें अपनी नई भूमिका और पहचान बनाने की भावनाएं जाग्रत हुई.  यह वो दौर है, जब मुस्लिम समुदाय में आधुनिक शिक्षा का प्रसार बढ़ रहा था. यही वो दौर है, जब संचार के नए साधन उपलब्ध हुए, जिससे देश-दुनिया में क्या हो रहा है, इसकी खबर अपेक्षाकृत अधिक तेजी और विस्तार से मिलने लगी. इससे लोगों को नए विचारों से रू-ब-रू होने का भी मौका मिला.

उन्नीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में दुनिया के दूसरे हिस्सों की तरह भारतीय मुसलमान भी इस सच्चाई से परिचित हो चुके थे कि विश्व की प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में इस्लाम का पराभव हो गया है. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अखिल इस्लाम (pan Islamism) की भावनाओं ने जड़ें जमाईं.

इसके पीछे ओटोमन साम्राज्य का बढ़ता बिखराव, उसके विभिन्न हिस्सों पर पश्चिमी देशों के बढ़ते हमलों आदि की भूमिका तो थी ही, 1911 में बंगाल के विभाजन को नाकाम कराने में राष्ट्रवादियों की भूमिका (जिनके एक हिस्से पर हिंदू रंग गाढ़ा होता गया था) तथा अलीगढ़ एवं कानपुर में मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना से जुड़े मुद्दों पर ब्रिटिश शासन के विरोधी रुख की भी भूमिका थी. ओटोमन साम्राज्य के पतन ने मुस्लिम समुदाय में विरोध भाव को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया. खिज़र हुमायूं अंसारी ने ऐसी घटनाओं, उन पर मुस्लिम समाज की प्रतिक्रिया और उनसे जुड़े व्यक्तित्वों की चर्चा कर अखिल इस्लाम की परिघटना पर विस्तृत प्रकाश डाला है.

इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखें तो खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने के पीछे महात्मा गांधी की (अनुमानित) रणनीति को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है. यह दीगर सवाल है कि ऐसा करना नैतिक था या नहीं, अथवा कहीं वह क्षणिक रणनीति लंबे समय में अधिक नुकसानदेह तो साबित नहीं हुई. यह तर्क दिया ही जा सकता है कि ऐसा कर उस भावना को वैधता दी गई, जिससे खिलाफत आंदोलन संचालित था.

क्या इससे आगे चल कर पाकिस्तान के विचार को प्रोत्साहन मिला, यह अलग से शोध और चर्चा का विषय हो सकता है. फिलहाल, प्रासंगिक तथ्य यह है कि 1930 का दशक आते-आते ऐतिहासिक कारणों से मुस्लिम समुदाय के भीतर अपनी विशिष्ट सामुदायिक पहचान पर जोर डालने तथा अपने भौतिक एवं भावनात्मक हितों को अलग से समझने या परिभाषित करने की धाराएं मजबूत हो चुकी थीँ. ऐसा होने का दौर खासा लंबा हो चुका था.

इस संदर्भ में यह उल्लेख भी प्रासंगिक होगा कि बीसवीं सदी के आरंभिक दशक ही वह काल है, जब भारत को हिंदू राष्ट्र के रूप में परिभाषित करने की कोशिशें शुरू हुईं. धीरे-धीरे हिंदुत्व या हिंदू राष्ट्रवाद के विचार का न सिर्फ उदय हुआ, बल्कि इसकी लोकप्रियता भी बढ़ी. कहा जा सकता है कि धर्म आधारित राष्ट्रवाद की इन दोनों परस्पर विरोधी विचारधाराओं ने एक-दूसरे को खाद पानी देने का काम किया.

1940 में मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने अलग इस्लामी देश के रूप में पाकिस्तान के निर्माण के पक्ष में लाहौर प्रस्ताव पारित कराया. वेंकट धुलीपाला ने इसके बाद इस बहस में डॉ. भीमराव अंबेडकर के महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप की विस्तार से चर्चा की है. डॉ. अंबेडकर ने "थॉट्स ऑन पाकिस्तान"  नामक महत्त्वपूर्ण पुस्तिका लिखी. धुलीपाला कहते हैं कि मुस्लिम लीग का भी सारा विमर्श भावनात्मक और नारेबाजी के अंदाज में था, जबकि अंबेडकर ने तथ्यों, तर्कों और ठोस भावी स्वरूप के प्रस्तावों के साथ अपनी बात कही. उन्होंने पाकिस्तान के पक्ष में दिए गए तर्कों का ब्योरा दिया, उसके विरोध में मौजूद दलीलों की चर्चा की और अंत में यह निष्कर्ष बताया कि मुस्लिम बहुल प्रांतों को लेकर अलग इस्लामी देश का निर्माण ही भारत की आजादी से जुड़े संवैधानिक उलझनों का हल है. वेंकट धुलीपाला का कहना है कि असल में यह अंबेडकर का बौद्धिकतापूर्ण विमर्श ही था, जिसने पाकिस्तान के निर्माण संबंधी भ्रमों को दूर किया और अंततः 1947 में लगभग उनके फॉर्मूले के मुताबिक ही भारत का बंटवारा हुआ. अंबेडकर के इस हस्तक्षेप के पीछे मुख्य भावना क्या थी? इसका अंदाजा भी इस पुस्तक में मौजूद विमर्श से लगाया जा सकता है. संभवतः डॉ. अबेंडकर इस नतीजे पर थे कि बात जहां तक पहुंच चुकी है, उसमें मुस्लिम लीग को साथ लेकर गणतांत्रिक-लोकतंत्र एवं मजूबत केंद्रीय सत्ता वाले नए राष्ट्रीय राज्य का निर्माण का संभव नहीं है. सिर्फ मुस्लिम लीग को अलग देश देकर ही वैसे संवैधानिक भारत की स्थापना हो सकती है, जो सामाजिक-आर्थिक न्याय के संकल्प पर आधारित हो.

यह इतिहास की विडंबना है कि इस्लामी राष्ट्र बनाने के लिए जोरदार सांप्रदायिक आंदोलन चलाने तथा उसमें "डायरेक्ट ऐक्शन" जैसे तरीके अपनाने के बाद जो पाकिस्तान जिन्ना ने हासिल किया, उसे "धर्मनिरपेक्ष" देश बनाने की इच्छा उन्होंने जताई. लेकिन पाकिस्तान जिन तर्कों बना, यह उसे नकारना था. जबकि तब तक उन तर्कों का अपना गतिशास्त्र बन चुका था. वे जिन्ना के नियंत्रण से बाहर हो चुके थे. वे उनकी इच्छा से काफी मजबूत बन चुके थे. आज पाकिस्तान जिस हाल में है, यह उन तर्कों की ही तार्किक परिणति है. जवाहर लाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल और कई दूसरे कांग्रेस नेताओं ने पाकिस्तान को स्वीकार करते हुए यह नकारात्मक तर्क दिया था कि खराब हो गए अंग को काट डालना ही बेहतर होता है. पाकिस्तान में गए इलाके खराब अंग थे या नहीं, इस पर अलग राय हो सकती है. लेकिन जिस विचार के कारण वे गए वह नकारात्मक विचार था, यह निर्विवाद है. उसके विपरीत भारत जिन सकारात्मक विचारों की बुनियाद पर बना, उसके परिणामस्वरूप उसने साढ़े छह दशक तक एक खुले, अपेक्षाकृत उदार और प्रगतिशील देश के रूप में यात्रा की. दुर्भाग्यपूर्ण है कि फिलहाल इस सफर की दिशा संकटग्रस्त हो गई है. कारण, उस विचार का राजनीतिक बहुमत तैयार करने में सफल हो जाना है, जो अखिल इस्लाम के विरोध में, लेकिन उसी सिक्के (धर्म आधारित राष्ट्रवाद) के दूसरे पहलू के रूप में 20वीं सदी के आरंभिक दशकों में उभरने लगा था. वह धारा राजनीतिक बहुमत कायम रखने में सफल रही और उसके नुमाइंदे भारतीय राजसत्ता पर कायम रहे, तो यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि भारत पाकिस्तान के नक्शे-कदम पर चलते हुए उसी के परिणाम को प्राप्त करेगा.

 

 

सत्येंद्र रंजन
वरिष्ठ पत्रकार
संपर्क- satyendra.ranjan@gmail.com



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