BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Monday, September 14, 2015

दमन और प्रतिशोध का दौर Author: पंकज बिष्ट


दमन और प्रतिशोध का दौर

Author:  Edition : 

संपादकीय

न 2002 के गुजरात के मुस्लिम विरोधी दंगों को सही ठहराने के लिए गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने भौतिकी के गति संबंधी सूत्र का इस्तेमाल करते हुए कहा था कि हर 'क्रिया की प्रतिक्रिया' होती है। तब शायद उन्हें पता नहीं होगा कि प्रतिक्रिया की भी प्रतिक्रिया हो सकती है और इस बात को समझने के लिए किसी विज्ञान की जरूरत नहीं पड़नेवाली है। शायद यह बात उन्हें अगस्त के अंतिम सप्ताह में हुए गुजरात के दंगों से स्पष्ट हो गई होगी। असल में 2002 के दंगों ने वहां के बहुसंख्यकों को यह बात समझा दी थी कि हिंसा लोकतंत्र में भी सत्ता हथियाने का एक कारगर हथियार है। दूसरी ओर सत्ताधारियों को भी यह विश्वास हो गया कि वे जब चाहें हिंसा को अपने पक्ष में मोड़ सकते हैं और इच्छानुसार रोक भी सकते हैं।

इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि सत्ताने पाटीदारों (पटेलों) के आंदोलन को रोकने के लिए जिस तरह का दमन किया उसी का नतीजा था कि पाटीदारों ने भी उतने ही हिंसक तरीके से सत्ता को उत्तर दिया। और उसी राज्य सरकार ने, जिसने 13 वर्ष पहले तीन दिन तक दंगा होने दिया था, आठ घंटे के अंदर सेना को बुला लिया और आधे राज्य को उसके हवाले कर दिया। विडंबना यह है कि राज्य में पटेल समुदाय, जो कुल जनसंख्या का 12 प्रतिशत है, सबसे समृद्ध समुदायों में है और भाजपा का सबसे बड़ा परंपरागत समर्थक रहा है। यह अपनी जातीय प्रतिबद्धता के लिए बहुचर्चित है। यही नहीं कि राज्य की मुख्यमंत्री स्वयं पटेल हैं बल्कि उनके मंत्रीमंडल में आधा दर्जन के करीब मंत्री इसी समुदाय के हैं। भाजपा के कुल विधायकों में 40 इसी जाति के हैं। और हां संभवत: यह याद रखना भी लाभप्रद होगा कि 2002 के दंगों का एक तरह से नेतृत्व इसी समुदाय के हाथों में था।
यद्यपि सत्ता का चरित्र रहता है कि वह एक सीमा के आगे अपने विरोध को सहती नहीं है और जब भी मौका लगता है विरोधियों को दबाने से बाज नहीं आती है। पर भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जहां सत्ता की जड़ें आज भी सामंती मूल्यों और मानसिकता में गहरी पैठी हैं विरोध लोकतंत्र का हिस्सा नहीं बल्कि शत्रुता का पर्याय माना जाता है। इस पर भी, भाजपा नेतृत्ववाली इस सरकार की विगत सवा साल के शासन की प्रकृति को देखा जाए तो, उसे प्रतिशोध और दमन जैसे अलोकतांत्रिक शब्दों की सीमा में ही व्याख्यायित किया जा सकता है। ऐसा लगता है मानो लोकतांत्रिक तरीके से जीत कर आई सरकार भूल ही गई है कि उसके जीवनकाल का फैसला फिर से चार वर्ष बाद होगा। पर जो हो रहा है, और जिसके एक नहीं कई उदाहरण हमारे सामने हैं, वे कोई बहुत अच्छा संकेत नहीं देते हैं।

यकूब मेमन को फंासी दिए जाने के मामले में सरकार ने अगस्त में ही तीन समाचार चैनलों को यह कहते हुए नोटिस दिया कि उनके प्रसारणों से हिंसा और राष्ट्रविरोधी भावनाओं को भड़काने की आशंका है। इन चैनलों की याकुब मेमन को दिए मृत्युदंड को लेकर हुई बहसों में राष्ट्रपति और सरकार के फैसलों पर कुछ सवाल उठाये गए थे। ये सवाल कोई पहली बार नहीं उठाए गए थे और न ही ऐसा था कि इससे पहले न्यायालयों के मृत्युदंड देने और राष्ट्रपति द्वारा मृत्युदंड पाये लोगों की याचिकाओं को खारिज करने के मामलों की आलोचना न की गई हो। इस तरह का सरकारी रुख संकेत करता है कि वह अपने किसी भी काम की आलोचना नहीं सहना चाहती। निश्चय ही मोदी सरकार के पास बहुमत है पर यह प्रवृत्ति किसी भी रूप में उसके विश्वास नहीं बल्कि असुरक्षा की अभिव्यक्ति है।
ऐसा लगता है भाजपा शासित राज्यों की नीति ही हो गई है कि स्वयंत्र विवेक वाले किसी भी व्यक्ति को न तो बोलने दिया जाए और न ही काम करने। सरकारी कर्मचारियों से तो संविधान नहीं बल्कि भाजपा की नीतियों और उसके नेताओं के प्रति समर्पित अंध समपर्ण की अपेक्षा की जा रही है। गुजरात सरकार, जो मोदी के शासन काल की विरासत को निभा रही है इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

इसी माह गुजरात सरकार ने भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के अधिकारी संजीव भट्ट को नौकरी से बर्खास्त करवा दिया। उन पर लगाए गए आरोपों में नौकरी से बिना इजाजत अनुपस्थित रहने के अलावा विवाहेत्तर संबंध भी हैं। हाल ही में एक ऐसी सेक्स सीडी सामने आई है जिसमें भट्ट जैसा आदमी किसी महिला के साथ दर्शाया गया था। भट्ट का कहना है कि इस में मैं नहीं हूं बल्कि मेरे जैसे चेहरेवाला कोई दूसरा व्यक्ति है। असल में भट्ट पर लगे इन सतही आरोपों की 'गंभीरता' को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक कि यह न याद कर लिया जाए कि इस संकट के पीछे उनका गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री और अब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से टकराना रहा है।

जाननेवाले इस बात को खूब जानते हैं कि गुजरात में जिसने भी मोदी का विरोध किया उसको लेकर एक न एक सेक्स सीडी प्रकट हुई है। भट्ट से पहले 2005 में संजय भाई जोशी की सीडी सामने आई थी। जोशी मोदी के प्रतिद्वंद्वी थे और उन्हें आरएसएस का समर्थन प्राप्त था। जोशी ने भी उस सीडी के संबंध में वही कहा था कि इस में उनके जैसा कोई और आदमी है। कम से कम जोशी के बारे में तो यह सिद्ध हो चुका है कि सीडी का आदमी वह नहीं कोई और है। सन 2007 में इसी तरह की एक और सीडी प्रकट हुई। उसमें कांग्रेसी नेता भरत सिंह सोलंकी जैसा आदमी था। सोलंकी मोदी के एक और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी थे। उनकी भी इस पर कांग्रेस की ओर से कहा गया कि सीडी में सोलंकी नहीं हैं और वह इसकी सीबीआई से जांच करवाने के लिए तैयार है। पर चुनावों के बाद सब कुछ शांत हो गया। यानी सीडी को किसी ने याद नहीं किया। पर इन सीडियों से जोशी और सोलंकी को जबर्दस्त नुकसान हुआ और दोनों का राजनीतिक भविष्य लगभग चौपट हो गया।

संजीव भट्ट के खिलाफ जो आरोप हैं, यह दोहराना गैरजरूरी है कि वे निहायत सतही हैं। उदाहरण के लिए नौकरी से बिना उचित अनुमति के अनुपस्थित रहना कोई बहुत बड़ा अपराध नहीं है और न ही यह कोई असामान्य घटना है। केंद्रीय सरकार की आचरण संहिता की धारा 20 के तहत यह कहीं नहीं है कि दो वयस्कों की सहमति से संबंध अपराध हैं। यानी अगर संजीव भट्ट विवाहेत्तर संबंधों के अपराधी भी हैं तो इस में राज्य तब ही हस्तक्षेप कर सकती जब कि उनकी पत्नी इसे उठाए। यहां तथ्य यह है कि किसी भी आईपीएस जैसी केंद्रीय सेवा के अधिकारी को बिना केंद्रीय सरकार की सहमति और सहयोग के हटाया नहीं जा सकता।

दुर्भाग्य से भट्ट की बर्खास्तगी के संदर्भ में केंद्रीय सरकार की संस्थाओं की भूमिका को ही संदेहास्पद बना दिया गया है। ऐसे किसकी मामले में केंद्रीय गृहमंत्रालय और संघीय लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की सहमति जरूरी होती है। जैसा कि पूर्व आईएएस अधिकारी हर्ष मंदर ने लिखा है कि 'राज्य और केंद्र का सहमत होना आश्चर्यजनक नहीं है – गो कि दुर्भाग्यपूर्ण है – क्यों कि उन्होंने (भट्ट ने) उस आदमी के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए थे जो आजकल देश का प्रधानमंत्री है।Ó मंदर ने आगे जो लिखा है वह महत्वपूर्ण है कि: 'पर जो बात भट्ट के मामले में अत्यंत चिंता जनक है वह है यूपीएससी की भूमिका जो कि संविधान की धारा 315 के अंतर्गत स्थापित एक संवैधानिक संस्था है।Ó उनके अनुसार यूपीएससी ने भट्ट को अपना पक्ष रखने का उचित समय नहीं दिया।
स्पष्ट है कि सरकार यानी कि इसके शीर्ष पर बैठे आदमी के द्वारा खुले आम निजी राग-द्वेषों को तय करने के लिए यह दुरुपयोग हो रहा है। यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री का छोटापन तो दिखलाता ही है साथ में उन दूरगामी परिणाम की ओर भी इशारा करता है जो एक के बाद एकराष्ट्र की सारी शीर्ष संस्थाओं की विश्वसनीयता को खोखला कर रहा है।
इसी क्रम का दूसरा पर संभवत: उससे भी बड़ा उदाहरण में तीस्ता सीतलवाड और सबरंग फाउंडेशन का। सर्वविदित है कि उनकी संस्था 2002 के गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के पीड़ितों के पक्ष में काम ही नहीं कर रही बल्कि उनकी कानूनी लड़ाई भी बड़े साहस के साथ चला रही है। उन्हीं के कारण राज्य के कई उच्चपदाधिकारी जेल गए हैं। राज्य सरकार वर्षों से इस फिराक में है कि किसी तरह से तीस्ता को दबोचा जाए। केंद्र में आने के बाद मोदी सरकार ने जो काम किया है वह है उनकी संस्था के खिलाफ यह आरोप लगाना कि उन्होंने दंगा पीड़ितों के नाम पर 11 लाख डालर (लगभग सात करोड़ 15 लाख रुपये ) का गबन किया है। इस तरह का आरोप पत्र सर्वोच्च न्यायालय में दायर किया गया है। यह पैसा तीस्ता की संस्था को फोर्ड फाउंडेशन से मिला है। पर तथ्य यह है कि फोर्ड फाउंडेशन ने इस तरह की कोई अनियमितता उनके हिसाब किताब में नहीं पाई है। कहने की जरूरत नहीं है कि अगर 2002 के दंगा पीड़ितों को न्याय मिलता है तो वह किस की हार होगी और उसके क्या परिणाम होंगे।

इसी बीच भारत सरकार ने जिस तरह से उन स्वतंत्र रूप से काम करनेवाली और विदेशी अनुदान पानेवाली स्वयंसेवी संस्थाओं (एनजीओ) को निशाना बनाया वह भी कम गंभीर नहीं है। सरकार यह सिद्ध करने पर उतारू है कि से संस्थाएं देशद्रोही हैं और लगातार जनता के खिलाफ काम कर रही हैं। सरकार इन जनता के बीच में काम करनेवाली संस्थाओं को परेशान करने पर किस हद तक उतर आई इसका उदाहरण ग्रीन पीस है। सरकार ने जिस तरह से ब्रिटेन में वेदांता द्वारा अपनी जमीन से बेदखल किए जा रहे आदिवासियों के पक्ष में गवाही देने जा रही ग्रीनपीस की प्रतिनिधि प्रिया पिल्लई को हवाई अड्डे पर रोका और उन्हें प्रताड़ित किया वह बहुत पुरानी बात नहीं है। यहां यह याद करना जरूरी है कि स्वयं भाजपा और आरएसएस की कई संस्थाओं को बड़ी मात्रा में विदेशों से दान मिलता है। सरकार ने इस स्रोतों को बंद करने की जरा भी कोशिश नहीं की है। पर मसला केंद्र या गुजरात तक ही सीमित नहीं रह गया है। ऐसा लगता है यह एक तरह से सर्वव्यापी तरीके में बदलता जा रहा है।

मध्य प्रदेश का उदाहरण लें। जिसे बेहतर भाजपा शासित राज्यों में माना जाता है। राज्य के बदनाम व्यापमं घोटाले ने अब तक लगभग 60 लोगों की बलि ले ली है। सैकड़ों युवा जेलों में सड़ रहे हैं या भागे फिर रहे हैं। हजारों प्रतिभाशाली युवकों का भविष्य चौपट हो चुका है। पर राज्य सरकार मामले की लीपा-पोती करने पर उतारू है और इस कोशिश में है कि मामले में कोई गवाही देने सामने न आए। उस डाक्टर राय दंपत्ति को जिसने इस मामले को सामने लाने में महत्वपूर्ण भूमिक निभाई, हर दो महीने में स्थानांतरित कर हैरान-परेशान किया जा रहा है।

इस संदर्भ में हालका उदाहरण अंग्रेजी पत्रिका तहलका पर महाराष्ट्र सरकार द्वारा मुकदमा दायर करने का है जिसमें विभिन्न धार्मिक आतंकवादियों के साथ बाल ठाकरे को भी शामिल करना है। यह छिपा नहीं है कि भाजपा की सहयोगी पार्टी शिवसेना अपनी आक्रामकता और हिंसा में किसी अन्य सांप्रदायिक संगठन से कम साबित नहीं होती। इस संगठन की पत्र-पत्रिकाएं जिस तरह की सांप्रदायिक और क्षेत्रीयतावादी आग उगलती हैं उन्हें कोई भी लोकतंत्रिक व्यवस्था सह नहीं सकती। इसलिए सरकार को या तो हर तरह के सांप्रदायिक अतिवादिता को रोकना चाहिए या फिर दूसरे पक्ष को सुनने का भी धैर्य रखना चाहिए।

देखने की बात यह है कि यह प्रतिशोध मात्र भाजपा के उन साक्षी महाराज, अवैद्यनाथ या साध्वी ज्योति ? का नहीं है जो हर बात पर सरकमल करने या खून का बदला खून की घोषणा से बाज नहीं आते बल्कि मुख्यधारा के उस नेतृत्व का है जिसकी प्रशासनिक दक्षता, दृष्टि और कार्यशैली पर देश का कारपोरेट मीडिया मुग्ध है। 

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