BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Saturday, September 11, 2010

…वरना देश तबाह होगा और माओवादी बर्बाद होंगे

…वरना देश तबाह होगा और माओवादी बर्बाद होंगे

11 September 2010 6 Comments

http://mohallalive.com/2010/09/11/vishwajeet-sen-on-maoism-in-india/

नो कमेंट : मॉडरेटर

विश्‍वजीत सेन। पटना में रहने वाले चर्चित बांग्ला कवि व साहित्यकार। पटना युनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई। बांग्ला एवं हिंदी में समान रूप से सक्रिय। पहली कविता 1967 में छपी। अब तक 6 कविता संकलन। पिता एके सेन आम जन के डॉक्‍टर के रूप में मशहूर थे और पटना पश्‍िचम से सीपीआई के विधायक भी रहे।

♦ विश्वजीत सेन

कामरेड कानू सान्याल के मरने के बाद उनका लिखा 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) का इतिहास' प्रकाशित हुआ है। कानू सान्याल का निधन (कुछ लोगों के अनुसार आत्महत्या) दुखद है। चूंकि उन्होंने अंत-अंत तक सीपीआई (एमएल) को एक सुदृढ़ आधारभूमि दिलाने की कोशिश की। वह सफल नहीं हुए, यह अलग बात है, लेकिन उनकी मानसिकता जनांदोलनमुखी थी और वह व्यक्ति केंद्रित आतंकवाद के विरुद्ध थी। भारत में, जहां तक कम्युनिस्ट पार्टियों की बात है, दो में से एक चीज होती है – या तो जनांदोलनमुखी होने के नाम पर वे कांग्रेस की छाया-प्रतिलिपि बन जाते हैं – या नहीं तो सीधे तौर पर आतंकवाद का रास्ता अपना लेते हैं। दोनों ही गलत और अवांछनीय है।

बहरहाल, कानू सान्याल का निबंध 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (एमएल) का इतिहास' कई मायनों में दिलचस्प है – खासकर उनकी चीन यात्रा से जुड़े अंश। इसमें चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अंदरूनी अंतर्विरोध साफ झलकते हैं और साथ ही साथ माओ का व्यक्तित्व फिर एक बार अपनी पूर्ण गरिमा के साथ प्रतिष्ठित होता है। यद्यपि वह दौर चीन में अंध व्यक्तिपूजन का था, और पूजा माओ की हो रही थी फिर भी माओ के मन में बिरादराना कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए गहरा सम्मान था। यह तथ्य कानू सान्याल के लेख से साफ जाहिर होता है।

चार साथी चीन की यात्रा पर गये थे – दीपक विश्वास, खूद्दन मल्लिक, खोकन मजूमदार और कानू सान्याल। वे करीब तीन महीने तक चीन में रहे। काठमांडु के रास्ते 25 दिसंबर, 1967 को वे भारत लौटे। अपने चीन प्रवास के दौरान माओत्‍से-तुंग से उनकी भेंट हुई। माओ के अलावे चाऊ-एन-लाइ, कांग शेंग, ली निंग ई और सेनाध्यक्ष से भी उनकी भेंट हुई। भेंट के दौरान माओ ने पूछा – 'पढ़ाई लिखाई कैसी रही'? कानू सान्याल के अनुसार चीन-प्रवास के दौरान उन्हें माओ-विचारधारा पढ़ायी गयी। प्रश्न पूछने के तुरंत बाद माओ ने खुद ही उसका जवाब हाजिर कर दिया, 'यहां आप ने जो भी सीखा, उसे भूल जाएं और अपने देश की स्थिति के अनुसार काम करें।' यह जवाब आश्चर्यजनक है और उस परिस्थिति में इसका महत्‍व और बढ़ जाता है, जब आदमी इस सच्चाई से रू-ब-रू होता है कि माओ के ही व्यक्तित्व की पूजा हो रही थी और माओ खुद लोगों से यह कह रहे थे कि 'अपने देश की परिस्थिति के अनुसार काम करें'।

इससे भी विचित्र बात तब हुई, जब कानू सान्याल, चारू मजूमदार के सामने बाकायदा अपनी चीन यात्रा की रिपोर्ट प्रस्तुत कर रहे थे। यह सुनते ही कि कानू सान्याल से माओत्‍से-तुंग की भेंट हुई थी, चारू बाबू भावुक हो उठे। उनके मुंह से अनायास निकल गया – 'माओ को देखकर तुम्हें रुलाई नहीं आयी?' कानू सान्याल बोले – 'मैं हैरान जरूर हुआ, पर मुझे रुलाई नहीं आयी।' इसके बाद कानू सान्याल बोले – 'चीन की कई बातें मुझे पसंद नहीं आयीं'। कानू सान्याल के अनुसार, चीन में रेड बुक का बोलबाला था। रेड बुक का प्रयोग बिल्कुल बाइबिल की तरह किया जाता था। खाने के लिए बैठने से पहले, हवाई जहाज पर बैठने से पहले, नयी जगह में जाने से पहले रेड बुक पढ़ना जरूरी होता था। खासकर, चीनी कामरेड इन बातों पर जोर डालते थे। कानू सान्याल को सुनते ही चारू बाबू भड़क उठे। उन्होंने कहा कि इन आदेशों का निर्वाह धर्म के तर्ज पर किया जाना चाहिए। कानू सान्याल चारू बाबू के सुझाव से सहमत नहीं हुए।

चीन में उन दिनों लिन पियाओ का गुट माओ का ही नाम लेकर सत्ता पर काबिज होने की ओर अग्रसर था। जिन बुद्धिजीवियों ने चीनी क्रांति को अंजाम दिया था, जिन मजदूर नेता, किसान नेताओं ने समाजवादी निर्माण का बीड़ा अपने कंधे पर उठाया था, उनका सफाया सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति के दौरान, योजनाबद्ध तरीके से कर दिया गया था। माओ कहां तक उस जनोन्माद के लिए जबाबदेह थे, इस पर आज भी प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है, चूंकि बाद में माओ के खुद कैद होने की बारी आ गयी। चाऊ-एन-लाई के हस्तक्षेप से स्थिति संभली और लिन-पियाओ हवाई जहाज से मंगोलिया भागने के क्रम में मारे गये।

लिन पियाओ को मार्क्सवाद-लेनिनवाद से लेनादेना नहीं था। उनकी विचारधारा 'सैन्यवाद' का ही दूसरा नाम थी। माओ को आगे रखकर वह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में 'सैन्यवाद' को स्थापित करने में लगे थे। कुछ वैसा ही, जैसे आज के 'माओवादी' करने पर तुले हैं। ठीक-ठाक दार्शनिक आधार वाली पार्टी बनने से पहले ही वे 'कमांडरों' की बहाली करने में लग जाते हैं। 'कमांडर' बहाल होते ही लेवी वसूलने में लग जाते हैं। उस लेवी वसूली के क्रम में हर किस्म के समाजविरोधी दुष्कर्म को अंजाम दिया जाता है। जनता, भेड़-बकरी की तरह उनके पीछे चलने को मजबूर है। न जनता का सैद्धांतिक प्रशिक्षण पूरा हो पाता है, न ही वैचारिक शुद्धीकरण। जात-पात, ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा की घेरेबंदी में वह उसी तरह से फंसा रह जाता है, जिस तरह युग-युग से फंसा रहा है। सरकार और व्यवस्था उन्हें यूं मसल देती है, जैसे वे 'पार्टी' नहीं हों, चीटियों का झुंड हों।

'अपने देश की स्थिति के अनुसार काम करें', माओ ने कहा था। जिस देश में एक मजबूत संसदीय व्यवस्था अस्तित्व में है, वहां 'सैन्यवाद' के लिए गुंजाइश नहीं बचती। इस बात को समझने और अपना लेने में ही माओवादियों की भलाई है और देश की भी। वरना देश तबाह होगा और वे (माओवादी) बर्बाद होंगे।

(सौजन्‍य : अनीश अंकुर, पटना)


कौन है नकली सरोकार के इस ड्रामे का डायरेक्‍टर

11 September 2010 4 Comments
यह एक ऐसा गैरजिम्मेदाराना व्यवहार है, जिसके चलते आंदोलनों के प्रति संवेदनहीनता और उदासीनता का माहौल बनता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी तरह की पत्रकारिता ने हर विस्फोट को मुस्लिम समुदाय से जोड़कर एक ऐसा माहौल बनाया जिसका फायदा फासिस्ट हिंदुत्ववादी ताकतों ने उठाया। इसने बहुसंख्यक आबादी को मुस्लिम समुदाय के प्रति पूर्वाग्रही और उनकी तकलीफों के प्रति संवेदनहीन बनाने में एक कारक की भूमिका अदा की।

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मृणाल वल्‍लरी के लेख का जवाब सामाजिक कार्यकर्ता अंजनी कुमार ने जनज्‍वार ब्‍लॉग के माध्‍यम से जारी किया है : मॉडरेटर

क अखिल भारतीय क्रांतिकारी पार्टी भी इन सारे मोर्चों पर न तो एक साथ लड़ सकती है और न ही लड़ते हुए गलतियों से बच सकती है। लेकिन गलतियों के खौफ से न तो सपने छोड़े जा सकते हैं और न ही उन्हें मारा जा सकता है। सपने देखना जरूरी है, लेकिन वह दिवास्वप्न न हो। सवाल उठाना जरूरी है, लेकिन वह खारिज करने वाला न हो। उनका जमीनी रिश्ता हो तो वह परिवेश से संवाद और खुद के भीतर एक सर्जक को जन्म देता है। अन्यथा सपने मारने की परंपरा तो चलती ही आ रही है। आप भी इसमें शामिल हैं तो यह कोई नयी बात नहीं होगी। आज जरूरत सनसनीखेज खबर की नहीं, वस्तुगत सच्चाई से रू-ब-रू कराने वाली खबरों और इसे पेश करने वाले साहसी पत्रकारों की है।

उमा मांडी यानी सोमा मांडी के आत्मसमर्पण एवं सीपीआई (माओवादी) के नेताओं पर बलात्कार के आरोप की कहानी 24 अगस्त को टाइम्स ऑफ इंडिया ने सनसनीखेज तरीके से पेश की। एक स्त्री की गरिमा और आम परंपरा तथा विशाखा निर्देशों (महिला हितों की रक्षा के लिए बने कानून) की धज्जियां उड़ाते हुए इस अखबार ने उमा मांडी की तस्‍वीर तो छापी ही, असली नाम भी छाप दिया। इस घटना के लगभग दो हफ्ते बाद जनसत्ता में उसी कहानी को सच मानते हुए न केवल माओवादियों पर बल्कि लाल क्रांति पर कीचड़ उछालने वाला मृणाल वल्लरी का लेख छपा।

बीच के दो हफ्तों में इस संदर्भ में तथ्य संबधी लेख, खबर और प्रेस रिपोर्ट भी छपकर सामने आयी, लेकिन न तो लेखिका को पत्रकारिता के न्यूनतम उसूलों की चिंता थी और न ही जनसत्ता को सच को प्रतिष्ठा प्रदान करने की। लगता है कि उनकी चिंता कालिमा को सनसनीखेज तरीके से पेश करने की थी और इसके लिए माओवादी आसान पात्र थे। ठीक वैसे ही, जैसे किसी भी जनपक्षधर नेतृत्व को माओवादी घोषित कर पूरे जनांदोलन को सनसनीखेज बनाकर कुचल देने के लिए पूर्व कहानी गढ़ लेना। आइए, दो हफ्ते में गुजरे कुछ तथ्यों पर नजर डालें।

द टेलीग्राफ में 29 अगस्त को प्रणब मंडल के हवाले से सोमा यानी उमा मांडी के कथित आत्मसमर्पण की कहानी पर खबर छपी। इस रिपोर्ट के अनुसार उमा मांडी 20 अप्रैल को कमल महतो के साथ मिदनापुर से 15 किमी दूर राष्ट्रीय राजमार्ग 6 पर पोरादीही में गिरफ्तार हुई थीं। कमल महतो को पुलिस ने 17 अगस्त को कोर्ट में पेश किया लेकिन सोमा की गिरफ्तारी नहीं दिखायी गयी। इस रिपोर्टर के अनुसार इस बात की पुष्टि न केवल उनके रिश्तेदार, बल्कि पुलिस के एक हिस्से ने भी की।

इसी तारिख को यौन उत्पीड़न और राजकीय हिंसा के खिलाफ महिला मंच ने एक प्रेस रिपोर्ट जारी कर टाइम्स ऑफ़ इंडिया की खबर की तीखी आलोचना करते हुए कुछ सवाल उठाये। एक सवाल का तर्जुमा देखिए : आत्मसमर्पण के समय उमा द्वारा दिये गये बयान को ही आधार बनाकर खबर दे दी गयी। इसे अन्य स्रोतों से परखा नहीं गया। इस खबर को बाद में भी अन्य स्रोतों के बरक्स नहीं रखा गया। ज्ञात हो कि उपरोक्त मंच में एपवा से लेकर स्त्री अधिकार संगठन और एनबीए जैसे 60 संगठन और सौ से ऊपर व्यक्तिगत सदस्य हैं।

11 सितंबर के तहलका (अंग्रेजी) में बोधिसत्व मेइती की खबर के अनुसार ज्ञानेश्वरी रेल त्रासदी के आरोप में 26 मई को हीरालाल महतो को गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के समय पुलिस ने हीरालाल को एक दूसरी पुलिस जीप में हथकड़ी के साथ बांधी गयी उमा मांडी के सामने पेश करते हुए कहा – यह तुम्हें जानती है कि तुम माओवादी सहयोगी हो। उमा मांडी को पुलिस की जीप में और साथ में पुलिस को वर्दी में देखने वाले ग्रामीणों के बयान को भी इस रिपोर्ट में पढ़ा जा सकता है।

31 अगस्त को मानिक मंडल ने प्रेस क्लब, दिल्ली में बताया कि उमा मांडी की कहानी पुलिस द्वारा गढ़ी गयी है। उन्होंने अपने जेल अनुभव सुनाते हुए जेल में बंद पीसीपीए के कार्यकर्ताओं के उन पत्रों का हवाला दिया, जिसमें उमा मांडी के पुलिस इनफॉर्मर होने की बात कही गयी है। इस पत्र के कुछ अंश तहलका ने जारी किये हैं। पूरा पत्र संहति ब्लॉग पर कुछ दिनों बाद अंग्रेजी में देखा जा सकेगा।

उपरोक्त तथ्यों के अलावा यदि हम पश्‍िचमी मिदनापुर के एसपी मनोज वर्मा के उमा मांडी के आत्मसमर्पण के समय के और बाद के बयानों को देखें, तब भी इस मुद्दे के ढीले पेंच नजर आएंगे। एक संवेदनशील एवं गंभीर मुद्दे पर इन तथ्यों को नजरअंदाज कर लेख लिख मारने और छाप देने के पीछे न तो जल्दबाजी का मामला दिख रहा है और न ही लापरवाही का। क्योंकि यहां हम इस तथ्य से भी वाकिफ हैं कि मृणाल वल्लरी लंबे समय से पत्रकारिता कर रही हैं, जनसत्ता से जुड़ी हुई हैं और उन्हें युवा संभावनाशील पत्रकारों में शुमार किया जाता है। इसी तरह संपादक ओम थानवी के नेतृत्व वाली जनसत्ता की संपादकीय टीम भी ऊंचे दर्जे की पत्रकारिता के लिए स्थापित है।

राजेंद्र यादव के शब्दों में ले-देकर यही एक अखबार है। यह अखबार भी सीपीआई माओवादी के बारे में अपनी ही पत्रकार के लेख को छापते समय पत्रकारिता की न्यूनतम नैतिकता तक को नजरअंदाज कर जाता है कि उमा मांडी उस पार्टी की सदस्य है भी या नहीं और इस पूरे मामले में पुलिस की भूमिका संदिग्ध है भी या नहीं। यह अखबार पीसीपीए और सीपीआई माओवादी के बीच के फर्क को भी नजरअंदाज कर जाता है। ठीक वैसे ही, जैसे गांधीवादी हिमांशु को माओवादी घोषित कर दिया जाता है। इसी अंदाज में मृणाल वल्लरी सीपीआई माओवादी पार्टी, माओवादी और मार्क्सवादी होने का फर्क मिटाकर मनमाना लिखने की खुली छूट हासिल कर लेती हैं। गोया पत्रकारिता न होकर सब धान बाइस पसेरी वाली दुकान हो।

ऐसा ही मनमानापन कुछ समय पहले इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में दिखा। पुलिस के बयान पर एक आदिवासी युवा लिंगाराम जो कि दिल्ली में पत्रकारिता की पढाई कर रहा है, को सीपीआई माओवादी को प्रवक्ता घोषित करते हुए यह बताया गया कि वह दिल्ली में माओवादी समर्थक के यहां छिपा हुआ है। यदि यह अपढ़ होने तथा अधकचरेपन का परिणाम होता, तो इसे दुरुस्त किया जा सकता है, लेकिन यह सचेत और सतर्कता का परिणाम है। इस मनमानेपन के पीछे पुलिस व शासन तंत्र की डोर कसकर बंधी हुई है। अन्यथा सिर्फ सरकारी बयान के संस्करण के आधार पर लाल क्रांति की चिंता का मनोजगत इस तरह खड़ा नहीं होता और न ही इस तरह की पत्रकारिता से हम रू-ब-रू होते।

मसलन, किसी आंदोलन का मूल्यांकन पार्टी संगठन, विचारधारा और कार्य अनुभव तथा हासिल के मद्देनजर करते हैं। सीपीआई माओवादी पार्टी के संगठन, विचारधारा, कार्य और हासिल के बारे में लेखों, रिपोर्टों आदि की लंबी फेहरिस्त है। ये आमतौर पर उपलब्ध हैं। ठीक इसी तरह अन्य पार्टियों, संगठनों तथा सरकारी तंत्र के कार्यों के बारे में भी तथ्य उपलब्ध हैं। मृणाल वल्लरी यह जरूर बताएं कि किस सरकारी और गैर सरकारी रिपोर्ट में माओवादी बलात्कारी के रूप में चित्रित हैं। इसी तरह आप सरकारी और गैर सरकारी रिपोर्टों में सीपीएम व हरमाद वाहिनी, भाजपा, कांग्रेस तथा उनके सलवा जुडुम इत्यादि के चेहरे को भी देखें। ऑपरेशन ग्रीन हंट के कारनामों को देखें।

1967 में नक्सलबाड़ी उभार के समय सिद्धार्थ शंकर रे ने एक तकनीक अपना रखी थी। इसमें पुलिस या आम छोटे दुकानदार को गोली मारने का काम खुफिया के आदमी किया करते थे, लेकिन परचे नक्सलियों के छोड़े जाते थे। आज छत्तीसगढ़ से लेकर मिदनापुर तक में यही कहानी चल रही है। इसमें नये तत्व शामिल हो गये हैं और नये खिलाड़ी भी शामिल हुए हैं। आपने लापता महिलाओं का जिक्र करते हुए पीसीपीए के मिलिशिया पर बलात्कारी और अपहरणकर्ता होने का आरोप मढ़ा है। जिस दिन आपका लेख छपा है, उसी दिन के जनसत्ता में यह भी खबर है कि सीपीएम ने नंदीग्राम में 2500 लोगों के बेघर होने की सूची सौंपी है। आप बंगाल के प्रति चिंतित हैं और इससे निष्कर्ष निकालना चाहती हैं तो वहां के गैर मार्क्‍सवादियों से लेकर आईबी की सरकारी रिपोर्ट पर भी नजर डालें।

अब तक सीपीएम के नेतृत्व में पूरे जंगलमहल में हरमद वाहिनी ने 86 कैंप लगा रखे हैं, एकदम सलवा जुडुम की तर्ज पर। हत्या के बाद शव पर माओवादी साहित्य का जल चढ़ाने वाले हरमद वाहिनी के बलात्कार, हत्या और गायब करने के कारनामों के बारे में नारी इज्जत बचाओ कमेटी के पत्र और प्रेस रिपोर्ट देखिए। पीसीपीए के डुप्लीकेट पर्चे और पोस्टर, जिनका रंग मूल पीसीपीए से अलग है, के बारे में जानने के लिए एपीडीआर की रिपोर्ट को देखिए। किसी भी आंदोलन में भटकाव हो सकता है। इन पर बात करते समय ठोस सच्चाइयों का जिक्र जरूरी है। स्रोत के बारे में न्यूनतम जॉच-पड़ताल जरूरी है।

इन संदर्भों को भूलकर आंदोलन, नक्सलवाद व माओवाद पर पत्रकारिता करना भोलापन नहीं है। यह एक ऐसा गैरजिम्मेदाराना व्यवहार है, जिसके चलते आंदोलनों के प्रति संवेदनहीनता और उदासीनता का माहौल बनता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी तरह की पत्रकारिता ने हर विस्फोट को मुस्लिम समुदाय से जोड़कर एक ऐसा माहौल बनाया जिसका फायदा फासिस्ट हिंदुत्ववादी ताकतों ने उठाया। इसने बहुसंख्यक आबादी को मुस्लिम समुदाय के प्रति पूर्वाग्रही और उनकी तकलीफों के प्रति संवेदनहीन बनाने में एक कारक की भूमिका अदा की।

मृणाल वल्लरी महिला आंदोलन की चुनौतियों को जिस संदर्भ में रखकर चिंता जाहिर कर रही हैं और निष्कर्ष निकाल रही हैं, उसमें पुलिसिया संस्करण छोड़ कोई संदर्भ नहीं है। उनकी चिंता और तर्क महिला के प्रति उनके सरोकार के प्रकटीकरण हो सकते हैं, लेकिन महिला मुक्ति का सवाल पुलिसिया संस्करण से हल करने का उनका प्रयास उस संस्करण की व्याख्या होकर ही रह गया है।

मृणाल वल्लरी पूछती हैं कि "मार्क्स और एंगेल्स के विचारों की बुनियाद पर खड़े कॉमरेडों के कंधों पर लटकती बंदूकों के खौफ से किस सपने का जन्म हो रहा है?" जाहिर तौर पर उनका जोर कॉमरेडों की बंदूक एवं खौफ पर है और उत्तर नकारात्मक है। वह मानकर चल रही हैं कि बंदूकें सिर्फ कॉमरेडों यानी पुरुषों के पास हैं। जो भी आंदोलन के बारे "क ख ग" जानता होगा, वह इस अज्ञानता पर हंस ही सकता है। खौफ से सपने टूटते भी हैं और खौफ पैदा कर सपने देखे भी जाते हैं। यह अपने देश में विभिन्न पार्टियां व उनकी सरकारें खूब करती आ रही हैं। आप जहां रह रही हैं, वहां अनुभव से इसी तर्क तक पहुंचा जा सकता है और उसे ही आप आजमाने की कोशिश कर रही हैं।

खौफ के खिलाफ खड़े होने की भी एक तर्क प्रणाली है और उससे उपजा हुआ सपना एक तर्क और लोकरंजकता से लबरेज भी होता है। यह एक ऐसी आम सच्चाई है, जिसे गीत में भी ढाला जा सकता है और विचार व सिद्धांत में बदला भी जा सकता है। इस पूरी प्रकिया में गलतियां भी हो सकती हैं, ठीक वैसे ही जैसे शासक वर्ग की लूट में कुछ अच्छाइयां दिखती रह सकती हैं। लेकिन मूल मसला सपने का है। सामंती व्यवस्था वाले हमारे समाज में दलित, स्त्री, अल्पसंख्यक, आदिवासी और राष्‍ट्रीयताएं जिस उत्पीड़न की शिकार हैं, उससे मुक्ति का रास्ता बहुस्तरीय संघर्षों से होकर जाता है।

(अंजनी कुमार। पेशे से पूरावक्‍ती सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता। अखबारों में लिखने और अनुवाद करने का भी काम। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय की छात्र राजनीति में गतिविधि नाम के संगठन के माध्‍यम से सक्रिय।)


क्‍या माओवादी दरअसल बलात्‍कारी होते हैं?

9 September 2010 47 Comments

लाल क्रांति के सपने की कालिमा

♦ मृणाल वल्‍लरी

यह लेख आज जनसत्ता में छपा है। इसमें यह लगभग स्‍थापित करने की कोशिश की गयी है कि माओवादी मूवमेंट से जितनी भी महिलाएं जुड़ी हैं, वे बलात्‍कार की शिकार होती हैं और यह भी कि पूरा माओवादी मूवमेंट अपनी अंतर्यात्रा में एक चकलाघर है। किसी भी राज्‍यविरोधी आंदोलन को लेकर इस तरह के प्रचार की परंपरा नयी नहीं है और अपने समय के प्रखर बुद्धिजीवियों को राज्‍य की ओर से कोऑप्‍ट कर लेने की परंपरा भी पुरानी है। दिलचस्‍प ये है कि इस पूरे आलेख में उन अखबारों में छपे वृत्तांतों की विश्‍वसनीयता को आधार बनाया गया है, जो बाजार और राज्‍य के हाथों की कठपुतली है। यहां दो लिंक दे रहा हूं, उमा वाली खबर टाइम्‍स ऑफ इंडिया में है और छवि वाली खबर द पायोनियर में है। इसी किस्‍म का एक अभियान द हिंदू में भी आप देखेंगे, जिसमें माओवादी आंदोलनों से जुड़ी खौफनाक-दुर्दांत सच्‍चाइयां (!) समय समय पर छापी जाती हैं। द हिंदू घोषित तौर पर सीपीएम का अखबार है और सीपीएम और माओवादियों की लड़ाई जगजाहिर है। भारत में मुख्‍यधारा के कम्‍युनिस्‍ट आंदोलनों का वर्तमान हमारे सामने है और माओवाद की चुनौतियों को नजरअंदाज करने के लिए उनके बुद्धिजीवी अतिजनवाद जैसे जुमलों के साथ इस आंदोलन के वैचारिक आधार से तार्किक सामना नहीं करते बल्कि कुछ कथित हादसों की गिनती का सहारा लेते हैं। जैसे अतिजनवाद के बरक्‍स कमजनवाद जनता की ज्‍यादा विवेकशील चिंता करता हो। बहरहाल, मृणाल वल्‍लरी के इस लेख को किसी भी जन आंदोलन के खिलाफ ए‍क घिनौनी साजिश का हिस्‍सा मानना चाहिए, जिसमें कुछ घटनाओं के माध्‍यम से पूरे आंदोलन को बर्खास्‍त करने की कोशिश की जाती है : मॉडरेटर

'वे बलात्कारी हैं। यहां आते ही मैं समझ गयी थी कि अब कभी वापस नहीं जा पाऊंगी।' मुंह पर लाल गमछा लपेटे उमा एक अंग्रेजी अखबार के पत्रकार को बताती है। उमा कोई निरीह और बेचारी लड़की नहीं है। वह एक माओवादी है। कई मिशनों पर बुर्जुआ तंत्र के पोषक सिपाहियों और लाल क्रांति के वर्ग शत्रुओं को मौत के घाट उतारने के कारण सरकार ने उस पर इनाम भी घोषित किया। लेकिन अपने लाल दुर्ग के अंदर उमा की भी वही हालत है, जो बुर्जुआ समाज में गरीब और दलित महिलाओं की।

बकौल उमा, माओवादी शिविरों में महिलाओं का दैहिक शोषण आम बात है। वह जब झारखंड के जंगलों में एक कैंप में ड्यूटी पर थी, तो भाकपा (माओवादी) 'स्टेट मिलिटरी कमीशन' के प्रमुख ने उसके साथ बलात्कार किया। उसने उमा को धमकी दी कि वह इस बारे में किसी को न बताये। लेकिन उमा ने यह बात किशनजी के करीबी और एक बड़े माओवादी नेता को बतायी। उमा के मुताबिक इस नेता की पत्नी किशनजी के साथ रहती है। लेकिन उमा की शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। उसे इस मामले में चुप्पी बरतने की सलाह दी गयी।

नक्सल शिविरों में यह रवैया कोई अजूबा नहीं है। कई महिला कॉमरेडों को उमा जैसे हालात से गुजरना पड़ा। अपने दैहिक शोषण के खिलाफ मुखर हुई महिला कॉमरेडों को शिविर में अलग-थलग कर दिया जाता है। यानी क्रांतिकारी पार्टी में उनका राजनीतिक कॅरिअर खत्म। कॉमरेडों की सेना में शामिल होने के लिए महिलाओं को अपना घर-परिवार छोड़ने के साथ निजता का भी मोह छोड़ना पड़ता है।

उमा बताती है कि नक्सल शिविरों में बड़े रैंक का नेता छोटे रैंक की महिला लड़ाकों का दैहिक शोषण करता है। अगर महिला गर्भवती हो जाती है, तो उसके पास गर्भपात के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता। क्योंकि गर्भवती कॉमरेड क्रांति के लिए एक मुसीबत होगी। यानी देह के साथ उसका अपने गर्भ पर भी अधिकार नहीं। वह चाह कर भी अपने गर्भ को फलने-फूलने नहीं दे सकती। महिला कॉमरेड का गर्भ जब नक्सल शिविरों की जिम्मेदारी नहीं तो फिर बच्चे की बात ही छोड़ दें। शायद शिविर के अंदर कोई कॉमरेड पैदा नहीं होगा! उसे शोषित बुर्जुआ समाज से ही खींच कर लाना होगा। जैसे उमा को लाया गया था। उसे अपने बीमार पिता के इलाज में मदद के एवज में माओवादी शिविर में जाना पड़ा था।

माओवादियों की विचारधारा का आधार भी कार्ल मार्क्स हैं। उमा को पार्टी की सदस्यता लेने से पहले 'लाल किताब' यानी कम्युनिज्म का सिद्धांत पढ़ाया गया होगा। एक क्रांतिकारी पार्टी का सदस्य होने के नाते उम्मीद की जाती है कि नक्सल लड़ाकों को भी पार्टी कार्यक्रम की शिक्षा दी गयी होगी। उन्हें कम्युनिस्ट शासन में परिवार और समाज की अवधारणा बतायी गयी होगी। यों भी, पार्टी शिक्षण क्रांतिकारी पार्टियों की कार्यशैली का अहम हिस्सा होता है और होना चाहिए।

मार्क्सवादी-माओवादी लड़ाकों के लिए 'कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र' बालपोथी की तरह है, जिसमें मार्क्स ने कहा है – 'परिवार का उन्मूलन! कम्युनिस्टों के इस 'कलंकपूर्ण' प्रस्ताव से आमूल परिवर्तनवादी भी भड़क उठते हैं। मौजूदा परिवार, बुर्जुआ परिवार, किस बुनियाद पर आधारित है? पूंजी पर, अपने निजी लाभ पर। अपने पूर्णत: विकसित रूप में इस तरह का परिवार केवल बुर्जुआ वर्ग के बीच पाया जाता है। लेकिन यह स्थिति अपना संपूरक सर्वहाराओं में परिवार के वस्तुत: अभाव और खुली वेश्यावृत्ति में पाती है। अपने संपूरक के मिट जाने के साथ-साथ बुर्जुआ परिवार भी कुदरती तौर पर मिट जाएगा, और पूंजी के मिटने के साथ-साथ ये दोनों मिट जाएंगे।'

एक कम्युनिस्ट व्यवस्था का परिवार पर क्या प्रभाव पड़ेगा? एंगेल्स कहते हैं कि 'वह स्त्री और पुरुष के बीच संबंधों को शुद्धत: निजी मामला बना देगी, जिसका केवल संबंधित व्यक्तियों से सरोकार होता है और जो समाज से किसी भी तरह के हस्तक्षेप की अपेक्षा नहीं करता। वह ऐसा कर सकती है, क्योंकि वह निजी स्वामित्व का उन्मूलन कर देती है और बच्चों की शिक्षा को सामुदायिक बना देती है। और इस तरह से अब तक मौजूद विवाह की दोनों आधारशिलाओं को निजी स्वामित्व द्वारा निर्धारित पत्नी की अपने पति पर और बच्चों की माता-पिता पर निर्भरता – को नष्ट कर देती है। पत्नियों के कम्युनिस्ट समाजीकरण के खिलाफ नैतिकता का उपदेश झाड़ने वाले कूपमंडूकों की चिल्ल-पों का यह उत्तर है। पत्नियों का समाजीकरण एक ऐसा व्यापार है जो पूरी तरह से बुर्जुआ समाज का लक्षण है और आज वेश्यावृत्ति की शक्ल में आदर्श रूप में विद्यमान है। हालांकि वेश्यावृत्ति की जड़ें तो निजी स्वामित्व में हैं, और वे उसके साथ ही ढह जाएंगी। इसलिए कम्युनिस्ट ढंग का संगठन पत्नियों के समाजीकरण की स्थापना के बजाय उसका अंत ही करेगा।'

बुर्जुआ समाज साम्यवादियों की अवधारणा पर व्यंग्य करता है और मार्क्स भी उसका जवाब व्यंग्य में देते हैं। मार्क्स के मुताबिक, बुर्जुआ समाज में औरतों का इस्तेमाल एक वस्तु की तरह होता है। निजी संपत्ति की रक्षा के लिए राज्य आया और इसी निजी संपत्ति का उत्तराधिकारी हासिल करने के लिए विवाह। विवाह जैसे बंधन के कारण स्त्री निजी संपत्ति हो गयी। लेकिन उसी बुर्जुआ समाज में अपने फायदे के लिए औरतों का सार्वजनिक इस्तेमाल भी होता है। वह चाहे सामंतवादी राज्य हो या पूंजीवादी, सभी में औरत उपभोग की ही वस्तु रही। एक कॅमोडिटी।

आखिर कम्युनिस्ट शासन में परिवार कैसा होगा? इस शासन में निजी संपत्ति का नाश हो जाएगा, इसलिए संबंध भी निजी होंगे। कम्युनिस्ट शासन औरत और मर्द दोनों को निजता का अधिकार देता है। इन निजी संबंधों से पैदा बच्चों की परवरिश राज्य करेगा, इसलिए यह कोई समस्या नहीं होगी।

उमा की बातों को सच मानें तो कम्युनिज्म की यह अवधारणा नक्सल शिविरों में क्यों नहीं है? क्या मुकम्मल राजनीतिक शिक्षण के बिना पार्टी में कॉमरेडों की भर्ती हो जाती है? सोच के स्तर पर वे इतने अपरिपक्व क्यों हैं कि महिला कॉमरेडों के साथ व्यवहार के मामले में बुर्जुआ समाज से अलग नहीं होते। कम से कम नक्सल शिविरों में तो आदर्श कम्युनिस्ट शासन का माहौल दिखना चाहिए! लेकिन यहां तो महिला कॉमरेड एक 'सार्वजनिक संपत्ति' के रूप में देखी जा रही है।

कहीं भी एक ही प्रकार का शोषण अपने अलग-अलग आयामों के साथ अपनी मौजूदगी सुनिश्चित कर लेता है। उमा के मुताबिक अगर किसी बड़े कॉमरेड ने किसी महिला को 'अपनी' घोषित कर दिया है तो फिर वह 'महफूज' है। यानी उसकी निजता की सीमा उसके घोषित संबंध पर जाकर खत्म हो जाती है। अब उसके साथ एक पत्नी की तरह व्यवहार होगा। जो किसी की पत्नी नहीं, वह सभी कॉमरेडों की सामाजिक संपत्ति!

जंगल के बाहर के जिस समाज को अपना वर्ग-शत्रु मान कर माओवादी आंदोलन चल रहा है, क्या वहां महिला या देह के संबंध उसी बुर्जुआ समाज की तर्ज पर संचालित हो रहे हैं, जिससे मुक्ति की कामना के साथ यह आंदोलन खड़ा हुआ है? जबकि एंगेल्स कम्युनिस्ट शासन में इस स्थिति के खात्मे की बात करते हैं। लेकिन कॉमरेडों ने शायद किसी रटंतू तरह एंगेल्स का भाषण याद किया और भूल गये।

वहीं आधुनिक बुर्जुआ समाज में महिलाओं की निजता के अधिकार की सुरक्षा के लिए कई उपाय किये गये हैं। यह दूसरी बात है कि व्यावहारिक स्तर पर ये अधिकार कुछ लड़ाकू महिलाएं ही हासिल कर पाती हैं। लेकिन इसी समाज में अब वैवाहिक संबंधों में भी बलात्कार का प्रश्न उठाया गया है। यानी विवाह जैसे सामाजिक बंधन में भी निजता का अधिकार दिया गया है। एक ब्याहता भी अपनी मर्जी के बिना बनाये गये शारीरिक संबंधों के खिलाफ अदालत में जा सकती है। कार्यस्थलों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए यौन हिंसा की बाबत कई कानून बनाये गये हैं।

यहां बुर्जुआ समाज का व्यवहार जनवादी दिखता है। लेकिन गौर करने की बात यह है कि पूंजीवादी समाज में भी महिलाओं को अपने शरीर से संबंधित ये अधिकार खैरात में नहीं मिले हैं। पश्चिमी देशों में चले लंबे महिला आंदोलनों के बाद ही स्त्रियों के अधिकारों को तवज्जो दी गयी। यह भी सही है कि महिला अधिकारों के कानून बनते ही सब कुछ जादुई तरीके से नहीं बदल गया। अभी इन अधिकारों के लिए समाज में ठीक से जागरूकता भी नहीं पैदा हो सकी है कि अतिरेक मान कर इन कानूनों का विरोध किया जाने लगा है। दहेज, घरेलू हिंसा या यौन शोषण के खिलाफ बने कानूनों को समाज के अस्तित्व के लिए खतरा बताया जाने लगा है। देश की अदालतों में माननीय जजों को भी इन अधिकारों के दुरुपयोग का खौफ सताने लगा है। इस चिंता में घुलने वाले चिंतक महिलाओं के शोषण का घिनौना इतिहास और वर्तमान भूल जाते हैं।

जनवादी महिला आंदोलनों ने ही भारत में स्त्री अधिकारों की लड़ाई की बुनियाद रखी। यहां जब स्त्री के हकों को कुचलने की कोशिश की जाती है तो जनवादी पार्टियां ही उनकी हिफाजत के आंदोलन की अगुआई करती हैं। लेकिन अति जनवाद का झंडा लहराते माओवादी शिविरों में महिला लड़ाकों की देह सामंतवादी रवैये की शिकार क्यों है? उमा ने यह भी बताया कि राज्य समिति का एक सचिव अक्सर गांवों में जिन घरों में शरण लेता था, वहां की महिलाओं के साथ बलात्कार करता था और इसके लिए उसे सजा भी दी गयी थी।

सवालों को टालने के लिए इसे एक कुदरती जरूरत मानने वालों की कमी नहीं होगी। लेकिन फिर कश्मीर, अफगानिस्तान या दुनिया के किसी भी हिस्से में सैन्य अभियानों के दौरान महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार सहित तमाम अत्याचारों के बारे में क्या राय होगी? यहां यह तर्क भी मान लेने की गुंजाइश नहीं है कि ऐसी अराजकता निचले स्तर के माओवादी कार्यकर्ताओं के बीच है जो कम प्रशिक्षित हैं। यहां तो सवाल शीर्ष स्तर के माओवादी नेताओं के व्यवहार पर है।

जंगलमहल की क्रांति का जीवन पहले भी पत्रकारों और दूसरे स्रोतों से बाहर आता रहा है। अभी तक लोग क्रांति के रूमानी पहलू से रूबरू हो रहे थे कि किस तरह कठिन हालात में बच्चे-बड़े, औरत-मर्द क्रांति की तैयारी कर रहे हैं। लेकिन लाल क्रांति के अगुआ नेताओं का रवैया भी मर्दवादी सामंती संस्कारों से मुक्त नहीं हो सका।

इस बीच ताजा खबर यह है कि पश्चिम बंगाल में माओवादियों की सक्रियता वाले इलाकों में कई वैसी महिलाएं 'लापता' हैं, जिन्होंने माओवादी दस्ते या उनके जुलूसों में शामिल होने से इनकार कर दिया था। इनमें से एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता छवि महतो के मामले का खुलासा हो पाया है, जिसे पीसीपीए के मिलीशिया उठा कर ले गये थे। उसके साथ पहले सामूहिक बलात्कार किया गया, फिर उसे जमीन में जिंदा गाड़ दिया गया।

क्रांति का समय तो तय नहीं किया जा सकता। लेकिन जो तस्वीरें दिख पा रही हैं, उनके मद्देनजर मार्क्सवादी-माओवादी कॉमरेडों से अभी ही यह सवाल क्यों न किया जाए कि भावी क्रांति के बाद कैसा होगा उनका आदर्श शासन? मार्क्स और एंगेल्स के विचारों की बुनियाद पर खड़े कॉमरेडों के कंधों पर लटकती बंदूकों के खौफ से किस सपने का जन्म हो रहा है?

mrinal thumbnail(मृणाल वल्‍लरी। जनसत्ता अखबार से जुड़ी पत्रकार। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय से एमए। सामाजिक आंदोलनों से सहानुभूति। मूलत: बिहार के भागलपुर की निवासी। गांव से अभी भी जुड़ाव। उनसे mrinaal.vallari@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।--

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[11 Sep 2010 | 3 Comments | ]
पाक से बेहतर रिश्‍ते के अलावा कोई विकल्‍प नहीं

सैय्यद अली अख्तर ♦ वास्तविकता तो यह है कि भारत और पाकिस्तान एक दूसरे के पड़ोसी हैं। जैसा मैं समझता हूं, पड़ोसी कैसा भी हो उसके साथ रहना एक विवशता है क्योंकि आप मित्र तो बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं बदला जा सकता। हमारा एक हजार साल से ऊपर का साझा इतिहास, संस्कृति और परंपरा है। हमें सोचना पड़ेगा कि इतना सब कुछ सांझा होने के बावजूद ऐसा क्या है जो हमें बांट रहा है। क्या हम अनंत काल तक एक दूसरे का खून बहाते या फिर चूसते रहेंगे। अगर उत्तर है नहीं, तो प्रश्न यह उठता है कि फिर क्यों न एक अच्छे पड़ोसी की तरह रहा जाए। क्या यह संभव है। मुझे दोनों तरफ के राजनीतिज्ञों, सेना से कोई उम्मीद नहीं है। इस संबंध में दोनों देशों की सिविल सोसाइटी को पहल करनी होगी।

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[11 Sep 2010 | Comments Off | ]

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[9 Sep 2010 | 47 Comments | ]
क्‍या माओवादी दरअसल बलात्‍कारी होते हैं?

मृणाल वल्‍लरी ♦ जनवादी महिला आंदोलनों ने ही भारत में स्त्री अधिकारों की लड़ाई की बुनियाद रखी। लेकिन अति जनवाद का झंडा लहराते माओवादी शिविरों में महिला लड़ाकों की देह सामंतवादी रवैये की शिकार क्यों है? उमा ने यह भी बताया कि राज्य समिति का एक सचिव अक्सर गांवों में जिन घरों में शरण लेता था, वहां की महिलाओं के साथ बलात्कार करता था और इसके लिए उसे सजा भी दी गयी थी। सवालों को टालने के लिए इसे एक कुदरती जरूरत मानने वालों की कमी नहीं होगी। लेकिन फिर कश्मीर, अफगानिस्तान या दुनिया के किसी भी हिस्से में सैन्य अभियानों के दौरान महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार सहित तमाम अत्याचारों के बारे में क्या राय होगी?

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[9 Sep 2010 | 11 Comments | ]
वहशी वीसी ने आंदोलनकारी छात्र को निलंबित किया

संजीव चंदन ♦ अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के एमफिल के छात्र अनीश को निलंबित कर दिया गया है। इसके पहले पीएचडी के छात्र देवाशीष प्रसून को शो कॉज दिया जा चुका था। राय होश में नहीं हैं। नियंत्रण खो बैठे हैं। अनीश को निलंबित किये जाने के पहले शो कॉज की औपचारिकता भी नहीं निभायी गयी। महामहिम राष्ट्रपति को अनेक पत्रों के माध्यम से विश्वविद्यालय की अवैध नियुक्तियों, भ्रष्टाचार, छात्रों के उत्पीड़न आदि की खबरें दी जा चुकी हैं। स्वयं उन्होंने अपने से मिलने आये महिला प्रतिनिधियों से कहा कि 'इसने पूरे भारत की महिलाओं को गाली दी है।" संयोग से प्रथम नागरिक भी महिला ही हैं। विभूति कर्रवाई से बेखौफ अब तो मां बहनों को सरेआम गलियां उछालने लगे हैं।

शब्‍द संगत »

[9 Sep 2010 | One Comment | ]
ज्ञानपीठ ने दिये रवींद्र कालिया को हटाने के संकेत

अमर उजाला ♦ लगभग सवा सौ लेखकों के बहिष्‍कार के बाद भारतीय ज्ञानपीठ अपने निदेशक रवींद्र कालिया को नया ज्ञानोदय के संपादक पद से हटाने का विचार कर रहा है। नया ज्ञानोदय में महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय के विवादास्‍पद साक्षात्‍कार को सबसे बेबाक बताने वाले कालिया के खिलाफ पहले ही वर्धा न्‍यायालय की ओर से नोटिस जारी है। भारतीय ज्ञानपीठ के इतिहास में यह घटना पहली बार हुई है, जब निदेशक को स्‍त्री अवमानना के आरोप पर नोटिस जारी हुआ। तीस सितंबर को न्‍यास की अगली बैठक में पत्रिका के भविष्‍य पर निर्णय लिया जाएगा।

नज़रिया »

[9 Sep 2010 | 6 Comments | ]
हम औरतें पति के बिना रह ही नहीं सकतीं

अनीता भारती ♦ सबसे पहली बात कि क्या अर्चना की आत्महत्या का कारण उसका एक दलित से विवाह करना था? इसमें कोई संदेह नहीं कि एक ब्राह्मण लड़की का दलित लड़के के साथ विवाह करना एक बहुत ही सराहनीय और हिम्मत वाला कदम है और इसकी जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। और खासकर ऐसे देश में, जहां लड़कियों के लिए इतना दमघोंटू वातावरण है कि उनकी इच्छा, अभिलाषा, खुशी, उनके सपने को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। यह कठोर सत्य है कि मां-बाप द्वारा की गयी शादी और दो सजातीय लोगों द्वारा की गयी शादी निभाने से कहीं मुश्किल अंतरजातीय शादी है, जिसमें एक दलित और एक गैर-दलित हो। शादी में जातियों का फर्क जितना होगा, कठिनाइयां उतनी अधिक होगी।

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[7 Sep 2010 | 5 Comments | ]
मिस्‍टर विनोद मेहता, नीता शर्मा एक बदनुमा दाग है!

सिद्धार्थ वरदराजन ♦ नीता शर्मा वह रिपोर्टर थी, जिसने 2002 में हिंदुस्‍तान टाइम्‍स में एक झूठी स्‍टोरी की थी, जिसमें वरिष्‍ठ और सम्‍मानित पत्रकार कश्‍मीर टाइम्‍स के दिल्‍ली ब्‍यूरो चीफ इफ्तिखार गिलानी को आईएसआई का एजेंट बताया था। पुलिस और इंटेलिजेंस अधिकारियों द्वारा प्‍लांट करवायी गयी उसकी स्‍टोरी ने इफ्तिखार को कैद किये जाने में भूमिका निभायी और उनकी अंतहीन परेशानियों का सिलसिला शुरू हो गया। खासकर वे परेशानियां जो उन्‍हें तिहाड़ के भीतर हिंसक कैदियों और जेलरों से झेलनी पड़ीं। एक रिपोर्टर होने के नाते उसने कभी भी अपनी स्‍टोरी के लिए माफी नहीं मांगी। जब तक वह माफी नहीं मांगती, मैं उसे अपने पेशे पर एक दाग मानता रहूंगा।

नज़रिया »

[7 Sep 2010 | 19 Comments | ]
बहुत हुआ SC ST OBC आरक्षण, अब हिस्सेदारी दीजिए

दिलीप मंडल ♦ आरक्षण न सिर्फ सरकारी और निजी नौकरियों तथा शिक्षा में बल्कि जीवन के तमाम क्षेत्रों जैसे न्यायपालिका, बैंक से दिये जाने वाले कर्ज, कला, जन-संचार, फिल्म, खेल, कंपनियों के निदेशक बोर्ड, ठेके, सप्लाई आदि में दिया जाए। इस संबंध में एचएल दुसाध दक्षिण अफ्रीका का उदाहरण देते हैं, जहां अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने वाले दलों में भी सामाजिक विविधता का ध्यान रखा जाता है। संख्यानुपात में सवर्णों को आरक्षण देना हर दृष्टि से न्यायसंगत है, इसलिए इसका कोई विरोध भी नहीं करेगा। इस व्यवस्था से किसी को भी शिकायत नहीं होगी।

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[7 Sep 2010 | 11 Comments | ]
हिंदी विवि के छात्रों ने वर्धा शहर में निकाला जुलूस

डेस्‍क ♦ छात्र-छात्राओं ने अपने प्रतिरोध के चौथे दिन एक कतार बना कर पूरे वर्धा शहर की परिक्रमा की। सौ छात्र-छात्राओं की इस मौन यात्रा में आहत छात्र-छात्राओं के हाथ में पोस्टर व बैनर थे। परिसर से अपनी यह यात्रा शुरू कर छात्र-छात्राएं पंजाब कॉलोनी के रास्ते, आर्वी नाका और बजाज चौक होते हुए अंबेडकर पुतला चौराहे तक पहुंचे। यहां पहुंच कर विद्यार्थियों ने यह संदेश दिया कि अपने चार दिनों के प्रतिरोध में हमने कुलपति को यह बता दिया है कि हम उनकी निरंकुशता को बर्दाश्त करने वाले नहीं हैं। विद्यार्थियों ने यह संकल्प भी लिया कि यदि प्रशासन फिर से कोई विद्यार्थी विरोधी कार्रवाई करता है, तो वे अपनी अखंड एकता का परिचय देते हुए अपना प्रतिरोध बड़े पैमाने पर फिर से जारी करेंगे।


Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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